गुरुवार, 9 मई 2024

भ्रष्टाचार : भारत की एक राष्ट्रीय समस्या

क्या भ्रष्टाचार भारत की एक राष्ट्रीय समस्या है, या एक राष्ट्रीय संस्कृति है? यदि यह भ्रष्टाचार भारत की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय समस्या है, तो इसके निवारण के लिए, यानि इस राष्ट्रीय कोढ़ से मुक्ति पाने के लिए क्या क्या किया जाना समुचित एवं न्यायोचित होगा? इस भ्रष्टाचार की प्रकृति क्या है, यानि इसका स्वभाव एवं गुणधर्म क्या है? इसकी व्यापकता एवं इसके व्यापक प्रभाव क्या क्या है? इसके साथ सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इसका स्थायी एवं प्रभावी समाधान यानि इसका निदान कैसे हो? उपरोक्त सब को समझना जरुरी है, अन्यथा हमलोग भारत के विकास की सम्पूर्ण बातें सतही करते है, या दिखावटी करते है, या सब कुछ एक महज तमाशा ही है| तो हमलोग भ्रष्टाचार पर आगे बढ़ते हैं|

 भ्रष्टाचार को रोकने या समाप्त करने की बातें सोचने से पहले हमें यह समझना होगा कि यह भ्रष्टाचार क्या होता है? वैसा आचरण या व्यवहार, विचार या भावना, जो भ्रष्ट हो गया है, यानि ऐसा आचरण जो उस समय प्रचलित सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में निर्धारित एवं नियमित मानको, यानि मानक व्यवहारों से विचलित या विपरीत हो गया हो, भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि यही अवधारणा या परिभाषा ही भ्रष्टाचार की समुचित व्याख्या करता है, तो इस भ्रष्ट आचरण का घेरा बहुत व्यापक और गहरा हो जाता है और इसमें सभी कामकाजी वर्ग या समूह शामिल हो जाते हैं। किसी किसी राष्ट्र में ‘विधि –व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि (Law) का प्रावधान’ ‘विधि के लिए व्यवस्था (Order)’ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, तो किसी अन्य राष्ट्र में ‘व्यवस्था (Order)’ से ज्यादा महत्वपूर्ण ‘विधि या कानून का प्रावधान’ ही हो जाता है| विश्व में ऐसे देश बहुत ही कम हैं, जहाँ ‘विधि’ एवं ‘व्यवस्था’ दोनों में समुचित संतुलन रहता है| भारत में तो ‘विधि –व्यवस्था (Law n Order)’ में ‘विधि’ का महत्व है, लेकिन इसके लिए ‘व्यवस्था’ (Order/ System) की स्थिति पूरी तरह से “लचर” है| इसीलिए भारत में ‘धडाधड’ कानून और नियम बनाये जाते रहते हैं, भले ही उसके लिए कोई व्यवहारिक सुविधा या व्यवस्था या तंत्र नहीं दी जाती हो| भारत में किसी भी विधि के लिए कोई भी समुचित सुविधा या व्यवस्था या तंत्र के प्रावधान की व्यवस्था किए बिना ‘विधि’ को लागू करने पर जोर दिया जाता है, और उसका ही परिणाम होता है - नौकरशाही में व्यापक भ्रष्टाचार| अब प्रश्न यह है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानकों  से ऐसे विचलित आचरण को कैसे रोका जाए?

स्पष्ट है कि इस भ्रष्ट आचरण में, यानि भ्रष्टाचार की परिधि में सामान्य जनता, सामान्य मतदाता, सामान्य सरकारी एवं गैर-सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी, राजनेता और मंत्री गण, सभी  शामिल हो जाते हैं। जब इसमें सामान्य जनता और मतदाता भी शामिल हैं, तो स्पष्ट है कि किसी भी देश की सम्पूर्ण आबादी ही अपवाद सहित या रहित इस भ्रष्टाचार में शामिल हो जाता है, यानि भ्रष्टाचारी हो जाता है। शायद इसीलिए भारत में यह उक्ति प्रचलित है कि जिन्हें भ्रष्ट आचरण करने का मौका नहीं मिलता है, वह अपने को तथाकथित ईमानदार समझ सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो इस प्रकृति के भ्रष्टाचार की भयावहता के परिणाम व्यापक और विस्तृत होता है|

जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो ऐसे नागरिकों के प्रति अन्य विकसित एवं समृद्ध नागरिकों का नजरिया और दृष्टिकोण बदलने लगता है, यानि उनके प्रति नकारात्मक होने लगता है। तब उस देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज के बारे लोगों की यह धारणा मजबूत होने लगती है कि ऐसे भ्रष्टाचारी देशों, राष्ट्रों, संस्कृतियों और समाजों की न्यायिक चरित्र विश्वनीय नहीं रह जाता है। परिणाम यह होता है कि ऐसे भ्रष्टाचारी संस्कृति वाला देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को किसी भी लम्बी एवं विशाल योजनाओं के लिए और वहाँ निवेश के लिए उपयुक्त एवं विश्वसनीय नहीं माना जाता हैं| ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज ‘पूंजी’ के निवेश के लिए खतरनाक हो जाता है, या ऐसा माना जाता है। विदेशी तो विदेशी, ऐसा ही विश्वास वहां के भी स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग भी करने लगते हैं, और अपने अगले निवेश के लिए विदेश को ही उपयुक्त समझने लगते हैं| इसीलिए बेहतर विकल्प मिलने पर ऐसे स्थानीय सक्षम, योग्य और समृद्ध लोग उस देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को भी त्यागने लगते हैं।  हाल के वर्षों में किसी देश की नागरिकता त्यागने और दूसरे देशों की नागरिकता अपनाने की संख्या में वृद्धि होती जाने की प्रक्रिया या घटना को इसी दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में वही लोग उसी देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में रहने को विवश समझते और मानते हैं, जिन्हें विकल्प तलाशने का समझ और सामर्थ्य नहीं होता है।

किसी भी भ्रष्टाचारी में न्यायिक चरित्र का अभाव रहता है| इसीलिए जब भ्रष्टाचार किसी देश का, या किसी राष्ट्र का, या किसी संस्कृति का, या किसी समाज का सामान्य चरित्र बन जाता है, तो स्पष्ट है कि न्यायिक चरित्र के अभाव में उस देश, राष्ट्र, संस्कृति एवं समाज में बड़े निवेश से बचना चाहता है। इतिहास गवाह है कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने के बावजूद भी, यानि इसकी शुरुआत करने वाले स्पेन और पुर्तगाल इसी न्यायिक चरित्र के अभाव में पिछड़ता चला गया| इस नकारात्मक राष्ट्रीय चरित्र का परिणाम यह हुआ कि “सामुद्रिक परिवहन क्रांति” में और “उपनिवेशवाद” में अग्रणी रहने के बावजूद भी इसे बनाए रखने और इसे विस्तार के लिए आवश्यक आवश्यक धन एवं पूंजी के लिए तत्कालीन वैश्विक पूंजी बाजार को ही विमुख कर दिया| इस तरह अन्य नवोदित यथा इंग्लिश, डच, डेनिश, फ्रेंच उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी देशों का उदय एवं विकास अपने मजबूत राष्ट्रीय चरित्र के कारण हो गया। स्पेन और पुर्तगाल के ऐसे ही भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र की पहचान के कारण ही उसकी यह स्थिति बन गई। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का प्रत्यक्ष संबंध न्यायिक चरित्र से है, और निवेश से भी है। आप भी अपने आसपास यह देख सकते हैं कि बड़े और महत्वपूर्ण वैश्विक निवेशक भी ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में बड़े और महत्वपूर्ण निवेश से बचते रहते हैं। ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में यदि कोई महत्वपूर्ण निवेश होता भी है, तो वह विकल्पहीनता की स्थिति में होता है। यह स्थिति उस आरोपित राष्ट्र या समाज या संस्कृति के लिए बड़ी ही  दुर्भाग्यपूर्ण होता है| यदि ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज को सोचने समझने का थोड़ा भी सामर्थ्य है, तो वह सब कुछ समझ सकता है।

जब ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज में भ्रष्टाचार उसकी सामान्यीकृत स्वरुप धारण कर लेता है, तो यह कहा जाना अनुचित नहीं होगा कि इससे “आचरण में दोहरापन” आ जाता है। इसे ठेठ देशी भाषा में “दोगलापन” भी कहा जाता है और अंग्रेजी में “दोहरा चरित्र” (“Double Character) कहते हैं। ‘आचरण में दोहरापन’ से आशय यह है कि आप या हम जो बोलते हैं, आश्वासन देते हैं, लेकिन व्यवहार उनके अनुरूप नहीं होता है, या विपरीत भी होता है। यह “दोहरापन की समस्या” भारत की राष्ट्रीय समस्या भी है। इसे अखंडता या सत्यनिष्ठा (Integrity) की समस्या भी कहते हैं। इसी चरित्र के कारण जो मतदाता चार वर्ष ग्यारह महीने और पच्चीस दिन  (भारत में लोकतांत्रिक निर्वाचन सामान्यतः पांच वर्ष का होता है) आलोचना करता रहता है, चुनाव में अपने जातीय, धार्मिक या अन्य चश्मे से देखकर अपना मत उस निर्णय के विपरीत देता है, जैसा वह सामान्यत: कहता रहता है। यह सामान्य जनता यानि सामान्य मतदाता का ‘दोहरा चरित्र’ हुआ, या यह उनका भ्रष्ट आचरण हुआ। कहने का तात्पर्य यह हुआ कि यह दुहरापन जनता, नेता, अधिकारी, कर्मचारी सभी का प्राकृतिक स्वभाव बन जाता है, अर्थात यह सब ‘स्वचालित’ हो जाता है और उसमे उसमे कोई भी असहजता नहीं होती है|

इसीलिए ऐसे देश, राष्ट्र, संस्कृति और समाज भ्रष्टाचार के लिए निवारण के लिए, यानि इसके समाधान के लिए सम्बन्धी प्राधिकार पर्याप्त नाटक करता रहता है| ऐसे ही नाटक को कुछ राजनेता या कार्यपालिका- प्रधान “जीरो टोलरेंस” या ऐसा ही भयानक अर्थ वाला नाम देता है| ऐसे आकर्षक नाम से सामान्य जनता उसे न्यायिक चरित्र का बड़ा प्रतिमान या न्याय का मूर्ति समझ लेता है| ऐसे ही कुछ राजनेता “जनता दरबार” या “खुला दरबार” का नाटक करता रहता है, जिसका कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं निकलता है, लेकिन ऐसे राजनेता मीडिया को नियंत्रित एवं प्रभावित कर जनता में अपना ‘इम्प्रेशन’ बनाता रहता है| ‘अनपढ़’ एवं “आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता -शून्य डिग्रीधारी” व्यक्ति तो ऐसे नाटकों से प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन “आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता” वाले व्यक्तियों एवं समाजों को सब कुछ समझा रहता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे नाटकों को समझदार आदमी सब कुछ समझता है और उसी के अनुरूप अपना भावी कार्यक्रम बनता है| इसीलिए ऐसे देशों एवं राष्ट्रों से पलायन बढ़ता जा रहा है| ऐसे देशों एवं राष्ट्रों का महत्व उनकी उपभोग –क्षमता (खाने और पचाने की क्षमता) से ही होती है, और उसमे उनकी बुद्धिमता की कोई भूमिका नहीं होती है; यद्यपि उनको खुश रखने के लिए यह दिखाया जाता है कि उनका यह महत्व उनकी बुद्धिमता के कारण है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है|

अधिकतर देशों में इस भ्रष्टाचार के निवारण के लिए पर्याप्त नियम /अधिनियम बना दिए जाते हैं, लेकिन उसके पर्यवेक्षण के लिए उन्ही आरोपियों को अधिकृत कर दिया जाता है| सामान्यत: ऐसा कोई भी नियामक प्राधिकार नहीं होता है, जिसमे न्यायिक चरित्र हो| भारत में तो ऐसे अधिकांश नियामक प्राधिकार है, जो नौकरशाही के ही पूर्व सदस्य होते हैं, और इसीलिए उनकी स्वाभाविक झुकाव नौकरशाही के ही प्रति होती है| मैंने बहुतों मामलों में यह अनुभव किया है कि उन न्यायिक प्राधिकारों मे प्राकृतिक न्याय की समझ ही नहीं होती है| यदि आप कोई शिकायत दर्ज करते हैं, तो उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष से उत्तर मंगा कर उस वाद को ही समाप्त कर दिया जाता है, जबकि उस सरकारी प्रतिवादी पक्ष यानि प्राधिकार के दिए गये उत्तर के संबध में वादी से भी उसका पक्ष जानना चाहिए| ऐसा करना स्पष्टतया न्यायिक चरित्र का अभाव के कारण है, और वे प्राधिकार सिर्फ सारी सुविधाएं भोग रहे हैं| बहुत से मामलों में भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय चरित्र के हो जाने के कारण न्यायिक प्राधिकार की भी रूचि अपने लाभ से संचालित होने लगता है, यानि न्यायिक प्राधिकार ही भ्रष्टाचारी हो जाते हैं|

प्रिंट एवं डिजीटल मीडिया पर प्रभावी एवं सख्त नियंत्रण भी भ्रष्टाचार की व्यापकता एवं भयावहता को छिपाने में किया जाता है| इस भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तो इस भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदल दिया जाता है| कुछ देशों में तो भ्रष्टाचार पर आवाज उठाने वाले को ही भ्रष्टाचारी और अनैतिक साबित कर शासन प्रशासन प्रताड़ित करता रहता है| कुछ देशों में तो भ्रष्टाचारी को ही सम्मानित कर, या विशिष्ट पद से देकर विराटकाय बना दिया जाता है, जिससे सामान्य जनता की औकात ही नहीं होती, या हिम्मत ही नहीं होती कि वह भ्रष्टाचारी पर कोई प्रश्न कर सके| नौकरशाही एक स्थायी व्यवस्था होता है, और सामान्यत: स्थायी प्रकृति वाले सेवक से “अस्थायी” सेवक भी डरते हैं, अर्थात राजनेता ही अपने को ‘अस्थायी’ समझ कर “स्थायी वरिष्ठ नौकरशाहों” से डरे रहते हैं, और इनमे उनकी ‘सामाजिक पूंजी’ महत्वपूर्ण होती है| कुछ अविकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों में भ्रष्टाचारी और न्यायिक प्राधिकार में “सामाजिक पूंजी” के आधार पर, या “सांस्कृतिक समानता” के आधार पर ‘गठजोड़’ बना रहता है, जो उनके न्यायिक प्रवृति को विकृत कर देता है| “सामाजिक पूंजी”  या “सांस्कृतिक समानता” के मूलभूत आधार को भारत में ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘भाषा’ एवं ‘धर्म’के आधार पर भी समझा जा सकता है|

अभी तक तो हमने भ्रष्टाचार के समाधान के प्रमुख कारकों की ओर अंगुली से इशारा मात्र किया है, क्योंकि उपर्युक्त सभी पक्ष सिर्फ ‘सतही’ स्पर्श मात्र है| यह भ्रष्टाचार स्पष्टतया न्याय, स्वतंत्रता, समता व् समानता, एवं बंधुत्व विरोधी होता है, यानि यह स्पष्टतया मानवता विरोधी होगा| इसलिए इस भ्रष्टाचार को अवश्य ही समाप्त किया जाना चाहिए, यदि आप इस देश को और राष्ट्र को बहुत आगे और शिखर पर ले जाना चाहता है| स्पष्ट कहा जाय तो किसी भी ‘राष्ट्रीय चरित्र’ के समाधान में ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ (National Culture) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है| भारत की राष्ट्रीय संस्कृति का मूलभूत तत्व में प्रमुख ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ आदि है| यही सब तत्व भारत में “सांस्कृतिक जड़ता” (Cultural Inertia) का निर्माण करता है, जो इन ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ से लाभान्वित व्यक्तियों एवं समाजों को उनके “सांस्कृतिक जड़ता” में ‘जड़’ (Fix) कर देता है| भारत में यही ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘भाषा’ समाज में “सामाजिक पूंजी” (Social Capital) का निर्माण करता है|

भारतीय इतिहास को जला कर, नष्ट कर भारत के प्राचीन इतिहास को ही बदल गिया दिया गया है| इस ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ को सही एवं समुचित ढंग से समझने के लिए इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या करनी होगी, जो ‘जाति’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’ के इतिहास के नष्ट कर दिए कड़ी (Chain) को ही खोल देता है और सब कुछ स्पष्ट कर देता है| बाजार की आर्थिक शक्तियों, यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों और उनके अंतर्संबंधों के आधार पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है| ऐसी व्याख्या से ही भ्रष्टाचार के बनावटी यानि कृत्रिम एवं मनगढ़ंत मिथकीय आधार को नष्ट किया जा सकता है, समाप्त किया जा सकता है, जो आज इतिहास के रूप में मान्य एवं प्रचलित होकर भ्रस्ग्ताचार को मजबूती दे रहा है| कोई भी दूसरा विकल्प भारत को ठगने का एक कुत्सित प्रयास है| और इसीलिए यह प्राचीन काल की ‘सोने की चिड़िया’ की यह दुर्दशा व्याप्त है|

आप इन सब पर थोडा ठहर कर गंभीरता से सोचिएगा|  

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

बुधवार, 1 मई 2024

चुनाव कौन जीतता है?

अहम् सवाल है चुनाव कौन जीतता है, या चुनाव कैसे जीता जाता है? जीतता तो कोई एक ही है, यानि उन लोगों का प्रतिनिधित्व कोई एक ही करता है| तो वह कौन व्यक्ति है, जिससे जनता या मतदाता प्रभावित होता है, यानि उनकी बातों में ही वह बह जाता है, उड़ जाता है, चला जाता है? यही सब वैज्ञानिक ढंग से यानि व्यवस्थित एवं संगठित रूप में समझने जानने के लिए ही यह आलेख है|  

चुनाव का अर्थ ही होता है कि कई उपलब्ध विकल्प में से किसी एक या कई का चयन करने की प्रक्रिया| अधिकतर चुनाव में सिर्फ एक पद के लिए यानि एक ही व्यक्ति का चुनाव किया जाता है, लेकिन कभी कभी वरीयता निर्धारण के मत (Vote) के द्वारा एक से अधिक व्यक्तियों का भी चयन एक साथ किया जा सकता है| अब तो चुनाव लोकतंत्र (Democracy) और गणतंत्र (Republic), दोनों तंत्र की ही आधारशिला हैं| इस तरह लोकतंत्र एवं गणतंत्र, दोनों ही लोगों के द्वारा चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर करता है| जैसा कि आप जानते ही हैं कि लोकतंत्र में वास्तविक ‘शासन प्रमुख’ (Head of the Government) का चयन लोगों के द्वारा होता है, और गणतंत्र में “राज्य प्रमुख” ((Head of the State/ Country/ Nation) का चयन  लोगों के द्वारा होता है|

तो चुनाव प्रत्यक्षत: हो या अप्रत्यक्षत: हो, #"चुनाव जीतने की क्रियाविधि" (#Mechanism of Winning Elections) एक ही होगा| यानि #"चुनाव जीतने के मनोविज्ञान" #(Psychology of Winning Elections) की प्रक्रिया एक जैसी ही होगी| ऐसा इसलिए होता है कि क्योंकि चुनाव भी व्यक्ति का होता है और चुनाव करने वाले भी व्यक्तियों का समूह ही होता है, यानि चुनाव की प्रक्रिया में सारा खेल ही व्यक्तियों या इनके समूह की समझ के द्वारा ही होता है| इसीलिए चुनाव में शामिल एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह भी मनोविज्ञान के कारणों एवं प्रक्रियाओं से ही प्रभावित, संचालित, नियमित, एवं नियंत्रित होता है| चूँकि मनोविज्ञान मानव की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों की क्रियाविधि एवं प्रक्रिक्रिया को समझाता है, इसीलिए जो मतदाताओं के इस मनोविज्ञान को समझता है और उसका समझदारी के साथ व्यवस्थित एवं संगठित उपयोग करता है, वही चुनाव को भी प्रभावित, संचालित, नियमित, एवं नियंत्रित भी करता है|

आपने भी सुना होगा, कि दिमाग हमेशा दिल से हार जाता है| दिमाग कहने का तात्पर्य उसकी तर्कशीलता यानि बुद्धि के प्रयोग एवं उपयोग से होता है, और दिल कहने का तात्पर्य उसका मन हुआ, जो उसकी भावनाओं का प्रयोग एवं उपयोग करता है| कहने का अर्थ यह हुआ कि मानव की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित करने में तर्कशीलता यानि बुद्धि से ज्यादा प्रभावी एवं उपयोगी उसका मन होता है| यानि जो मन पर राज करेगा, यानि व्यक्ति के मन पर छाया रहेगा, वही व्यक्तियों के भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को नियंत्रित करेगा| शिक्षा के अभाव में या इसकी गुणवत्ता के निम्न स्तर के लोगों में भावना और बुद्धि में अन्तर समझ में नहीं आता है, दिमाग और मन में अन्तर समझ में नहीं आता है, और इसीलिए कोई भी चतुर चालाक व्यक्ति अज्ञानता के धुंध (Mist) में उन व्यक्तियों को यानि मतदाताओं को मनचाहा चित्र दिखा सकता है, मनचाहा अर्थ समझा सकता है| ऐसी स्थिति में लोगों को, यानि मतदाताओं को भावनाओं में बहा ले जाना, या उडा ले जाना बहुत ही आसान हो जाता है| ऐसा ही नेता यानि नेतृत्व प्रभावशाली होता है, चमत्कारी होता है, जो मतदाताओं या जनता पर जादू फैला देता है| 

सामान्य लोग या तथाकथित बुद्धिजीवी लोग वैसे लोगों को #“अंधभक्त” की भी उपमा या उपाधि से संबोधित करते हैं, जो अपने नेतृत्व या नेताओं या नेता को चमत्कारी और करिश्माई मानकर उनकी भक्ति करते हैं|ऐसे अंधभक्तो को भावनाओं और बुद्धि यानि तर्कशीलता में कोई फर्क नजर नहीं आता, या समझ में नहीं आता। वे मन की क्रियाविधि और दिमाग की क्रियाविधि में अन्तर नहीं कर पाते हैं वे मन और मस्तिष्क, दोनों को एक ही समझते या मानते हैं। ऐसा नहीं है कि अंधभक्तो की कोई एक ही श्रेणी होती है, बल्कि उन अंधभक्तो के विरोध में भी अंधभक्ति होती है, जो विरोध करने के लिए ही विरोध करते दिखते है। इस तरह दोनों प्रकार के, यानि समर्थन और विरोध वाले अंधभक्तो को अपने नेतृत्व में दैवीय गुण दिखते है, या दैवीय अवतार भी मानते हैं, या मान सकते हैं। 

मानव का  दिमाग उसके मस्तिष्क (Brain) को कहते हैं और दिल उसके मन (Mind) को कहते हैं| जैसा की आप भी जानते हैं कि किसी व्यक्ति का दिमाग यानि मस्तिष्क उसके मन के लिए मोड्यूलेटर (Modulator) का काम करता है, जो मन की तरंगों को शरीर को समझाने योग्य अनुदेशों (Instructions) में बदल देता है, ताकि शरीर उस पर कार्य या प्रतिक्रिया कर सके| आप मन (Mind) और मस्तिष्क (Brain) के संबंधों को बेहतर ढंग से समझने के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित भौतिकी विज्ञानी सर रोजर पेनरोज को भी पढ़ सकते हैं|

लेकिन भावनाएँ भी भूखे पेट पर काम नहीं करता है| आपने भी सुना होगा कि एक समझदार व्यक्ति जब भूखा रह कर कोई शानदार चुटकुला भी सुनता है, तो उसकी हँसी नहीं निकलती है| लेकिन जब वही व्यक्ति अपने भरे हुए पेट के बाद उसी चुटकुला को सुनता है, तो उसकी हँसी नहीं ही रूकती है| कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी भूखे को जब उसके पेट भर यानि पांच किलों अनाज जब सुनिश्चित हो जाता है, तो उस व्यक्ति को भावनाओं में उड़ाया जा सकता है, बहाया जा सकता है| जब किसी की भौतिक आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती है, तब ही उसके भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को साधारण ढंग से और बहुत आसानी से संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित किया जा सकता है| जनता यानि मतदाताओं को प्रभावित एवं नियंत्रित करने के लिए उनके बीच प्रचार करना पड़ता है, जिसे ही प्रोपेगेंडा (Propaganda) कहा जाता है| तो कैसा प्रोपेगेंडा यानि प्रचार प्रभावशाली होता है, प्रभावकारी होता है?

उपरोक्त सभी बातों को अच्छी तरह से समझाने के लिए एक व्यवस्थित एवं संगठित प्रयास किया गया है, जिसका अवलोकन किया जाना जरुरी हो जाता है| 1937 में संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को संचालित, नियमित, प्रभावित एवं नियंत्रित करने के विज्ञान को ही समझने के लिए “Institute of Praopaganda Analysis” की स्थापना की गई थी| इसमें कोई सात तकनीकों का उपयोग किया गया, जिसे भारतीय सन्दर्भ में समझना और जानना जरुरी हो जाता है| तब ही आप जान और समझ सकते हैं कि कौन चुनाव जीतता है, जीत सकता है| यही #“चुनाव जीतने का विज्ञान” (#Science of Winning Elections) है| इस संस्थान का अध्ययन “The Fine Art of Propaganda” में 1939 में प्रकाशित हुआ था, जिसे अल्फ्रेड एवं एलिजाबेथ ने सम्पादित किया था|

इन सात तकनीकों का नाम 1. Name Calling, 2. Glittering Generalities, 3. Transfer, 4. Testomonial, 5 Plain – Folk, 6. Card – Stacking, 7. Band Wagan दिया गया था, जो आज भी समुचित है| अब इन सभी को हमलोग भारतीय सन्दर्भ में उदाहरण के साथ समझते हैं|

1.                 Name Calling: इस तकनीक में अपने विरोधियों को यानि विरोधी व्यक्तियों या समूहों को उन नामों से पुकारा या संबोधित किया जाता है, जिससे उनका उपहास होता है, उनका मजाक बनाया जाता है, उनका अपमान किया जाता है| इन नामों में विरोधियों को “पप्पू” या “गप्पू” कहा जा सकता है| भारत में “पप्पू” अबोध यानि नादान बच्चा को कहा जाता है, और “गप्पू” उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो सिर्फ गप्पें ही हांकता रहता है एवं कोई भी कार्य नहीं करता है| इसी तरह अपने विरोधियों को देश या बहुसंख्यक समाज या गौरवशाली माने जाने वाली संस्कृति के तथाकथित दुश्मन माने जाने वाले देश या समाज या संस्कृति के मित्र या शुभचिंतक बताया जाता है, या पुकारा जाता है| इसमें अपने विरोधियों को किसी पड़ोसी देश, या कुख्यात देश, या अल्पसंख्यक समाज, या किसी अप्रभावशाली माने जाने वाली संस्कृति के शुभचिंतक या दोस्त बताया जाता है|

2.  Glittering Generalities: इसमें उच्च मूल्यों यानि उच्च स्तरीय विश्वासों से ओतप्रोत भावनाओं को आकर्षित करने वाली या अपील करने वाले मुहावरों का प्रयोग या उपयोग किया जाता है| जैसे राष्ट्र, या समाज, या संस्कृति के लिए प्रेम दिखाता हुआ कोई बात, जो राष्ट्रीयता को, संस्कृति के और अतीत से चली आ रही निरन्तरता के गौरव को. या बहुसंख्यक के हितों की तथाकथित उपेक्षा के विरोध की बातें होती है| इसमें स्वतंत्रता, समता, समानता, बंधुत्व, न्याय, आरक्षण, समाजवाद, साम्यवाद, लोकतान्त्रिक, सबको रोजगार, सबको समृद्धि, सबको घर, आदि मूल्यों के आकर्षक एवं लुभावने नारों या मुहावरों का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है| ‘गरीबी हटाओं’ भी एक ऐसा ही नारा है  या था|

3. Transfer: इस तकनीक में किसी चित्र का यानि किसी ऐसे फोटो का उपयोग किया जाता है, जिसमे उस चित्र या फोटो से जनता या मतदाता अपने पूर्व के विचार या दृष्टिकोण या पृष्ठभूमि से यानि उस भावना के अनुसार उस चित्र या फोटो का मिलान उस गौरवशाली परम्परा या संस्कृति से करता है, जिससे वह व्यक्ति या समूह उस परम्परा या संस्कृति का समर्थक या संरक्षक समझा जाय| जैसे पौराणिक या सांस्कृतिक स्थलों पर उसी गरिमामयी वेशभूषा एवं भावभंगिमा के साथ का फोटो| या किसी वैज्ञानिक केन्द्रों में, या किसी विद्यालयों में, या किसी सैनिक के दुर्गम एवं कठिन परिस्थितियों की फोटो को साझा करना| झाड़ू लगाना, खेत से फसल काटना या बोना, कहीं सफाई करना या किसी के साथ खाना खाना इत्यादि भी इन्हीं के उदहारण हैं|

4. Testomonial: इस तकनीक में किसी भी सम्मानित देशी या विदेशी व्यक्ति या संस्थान के द्वारा इनकी बातों, या तथ्यों, या निर्णयों, या नीतियों की प्रशंसा करवा दिया जाता है| जैसे हार्वर्ड विश्विद्यालय या नासा ने भी इसे माना, या सहमति जताई, भले ही ऐसी सहमति ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ (A I) का उपयोग कर या ऐसे ही दुरूपयोग कर किया जा सकता है| जब ऐसे दुरूपयोग पर प्रभावशाली नियंत्रण की व्यवस्था शासन में नहीं होती है, तो ऐसे उदाहरण भी बहुतायत में हो जाते हैं| भारत में तो किसी भी यूरोपीय व्यक्ति और किसी भी विदेशी भाषा में कही गयी बात को “एक सन्दर्भ” के रूप लिया जाता है, ऐसा इसलिए होता है कि भारतीय उन्हें उत्कृष्ट एवं श्रेष्ट स्तर का मानते समझते रहे हैं| इस तकनीक में वीडियों या आडियो का जालसाजी एडिटिंग कर मनचाहा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है, जैसा कि आजकल सोशल मीडिया में बहुत हो रहे हैं, जो गैर क़ानूनी होते हुए भी जनता को प्रभावित कर रहे हैं|  

5 Plain – Folk: इस तकनीक में Logical Fallacy का उपयोग किया जाता है, जिससे सामान्य एवं साधारण जनता समरूपता खोज लेता है या देखता है| जैसे महात्मा गाँधी का अधनंगा रहना, यानि कमर के ऊपर नंगा रहना उनका एक फ़क़ीर की वेशभूषा होती है और यह वेशभूषा भारत की अधनंगी जनता को समरूपता दिखाते हुए अपना हितैषी बना देता है| ‘मेरा क्या है, मैं तो एक फ़क़ीर हूँ’ जैसी बात जनता को यह भरोसा दिखाती है या दिलाती है कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है, या मेरा कोई भी अपना नहीं है और मेरा सब कुछ आप जनता के लिए ही है, यानि मेरा सब कुछ साधारण सामान्य जनता के लिए ही न्योछावर है और मेरा कोई अपना सगा सम्बन्धी नहीं है| इसी कड़ी में इनका स्थानीय भाषा बोलना, स्थानीय वेशभूषा पहन कर स्थानीय परम्परा एवं संस्कृति का सम्मान करना या अपनापन दिखाना, या सामान्य लोगों के साधारण गतिविधियों में शामिल होना भी प्रमुख हैं|

6. Card – Stacking: इस तकनीक को Cherry Picking भी कहते हैं| यह तकनीक साक्ष्यों को दबाने या छुपाने में उपयोग किया जाता है| इसमें आंकड़ों एवं तथ्यों यानि साक्ष्यों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है, जिससे विरोधात्मक सम्पूर्ण साक्ष्य, तथ्य एवं आकंडे को छोड़कर मात्र वैसे हिस्से या अंश को ही प्रस्तुत किया जाता है, जो सकारात्मक अर्थ उत्पन्न करता है| इसीलिए इस विधि को Cherry Picking भी कहा जाता है, क्योंकि मनचाहे हिस्से को ही Pick किया जाता है| जैसे वैश्विक भुखमरी के इंडेक्स में अपने देश के स्थान को छोड़कर देश के परंपरागत दुश्मन माने जाने वाले पड़ोसी देश को ही इंडेक्स में दिखया जायगा कि उनकी स्थिति कितनी दयनीय है| इसमें किसी ग्राफ का वह हिस्सा दिखाया जा सकता है, जिसमे वृद्धि दर तुलनात्मक रूप में ज्यादा होता है| चूँकि ‘वृद्धि दर’ (Rate) के लिए आधार (Base) ही यदि कमतर होता है, तो वृद्धि दर ज्यादा दिखता है, जैसे विकसित देशों की अपेक्षा पिछड़े हुए देशों की वृद्धि दर ज्यादा ही दिखती है|

7. Band Wagan: इस तकनीक में लोगों के कुछ वैसे निश्चित व्यवहार, स्टाइल, अभिवृति एवं प्रवृति को अपनाने की होती है, जिसमे बहुत से लोग इसे करते होते हैं| इस तकनीक में कोई खास झन्डा घर, बाहर एवं रास्तों पर फहराना, कोई ख़ास तरह का ड्रेस पहनना, कोई ख़ास नारा बोलना या किसी खास नारा के शब्दावली से संबोधन करना इत्यादि जिसका सामान्य लोग अनुकरण करते हैं| जब आप अपने आसपास के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिदृश्य देखते हैं, तो इनका सम्मिश्रण के साथ उपयोग, प्रयोग एवं दुरूपयोग होते हुए आसानी से पहचान सकते हैं|

अब आपको अपने आसपास या अपने क्षेत्र/ प्रान्त में या अपने देश में देखना समझना है कि कौन से संगठन या राजनीतिक दल इन तकनीकों का व्यवस्थित एवं संगठित ढंग से समझ रहा है और उसका सजगता एवं समर्पण के साथ  उपयोग करता है, करता आ रहा है, या कर रहा है; वही संगठन या राजनीतिक दल चुनाव को जीतता है, या जीतेगा| आप इस भ्रम में मत रहिए कि जो तथ्यों एवं तर्कों के मुद्दों के साथ चुनाव के मैदान में उतरता है, वही चुनाव जीतता है या जीतेगा| भारत के अधिकतर तथाकथित ऐसे बौद्धिक विद्वान् हैं (जो ऐसा बनते हैं या दिखने की कोशिश करते हैं), जो जिस राजनीतिक दल को चार साल ग्यारह महीने और पच्चीस दिन विरोध करेंगे, आलोचना करेंगे, लेकिन जब वोट देना होगा तो अपनी जाति और धर्म के चश्मे से ही उम्मीदवार को देख समझ कर अपना वोट यानि निर्णय उसी के पक्ष में देंगे| यही जनता का दोहरा चरित्र होता हैं, और यही चरित्र में दोहरापन की समस्या भारतीय राष्ट्रीय समस्या हो गयी है, जो देश का सामान्य चरित्र बन चूका है|

इस आलेख का उपयोग सामाजिक सांस्कृतिक नेतृत्व पाने में भी किया जा सकता है, यानि इसे उस दृष्टिकोण से भी समझा जा सकता है, यानि समझा भी जाना चाहिए। 

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक 

रविवार, 28 अप्रैल 2024

बुद्ध और बुद्धि

 

विशिष्ट बुद्धि वाले व्यक्ति को बुद्ध कहा जाता रहा है| बुद्ध और बुद्धि में बहुत गहरा संबंध है और यह संबंध भी प्रत्यक्ष है| दरअसल बुद्ध एक संस्था का नाम भी था, और उस संस्था के सदस्य के रूप में कई बुद्ध हुए, जिन्हें “बुद्धत्व” की प्राप्ति हुई थी| इनमे सबसे महत्वपूर्ण बुद्ध गोतम (पालि में गोतम, एवं संस्कृत तथा हिंदी में गौतम) हुए, जो इस “बुद्ध” की परम्परा की कड़ी में सबसे अंतिम हुए, और जिन्होंने अपने प्राप्त विशिष्ट “वैज्ञानिक प्रज्ञा” के साथ साथ अपने पूर्व के सभी बुद्धों द्वारा प्राप्त ज्ञान-विज्ञान को सकलित किता, सम्पादित किया एवं अंतिम स्वरुप भी दिया| दरअसल ‘बुद्धत्व’ को प्राप्त करने वाले को “बुद्ध” कहा जाता रहा, और इसीलिए ‘बुद्धत्व’ “बुद्धि” की एक विशिष्ट एवं सर्वोच्च उपाधि हो गयी| इस तरह,‘गोतम बुद्ध’ ‘बुद्धत्व’ की परम्परा में 28 वें ‘बुद्ध’ हुए|  ‘बुद्धत्व’ किसी व्यक्ति विशेष को प्राप्त बुद्धि की एक विशिष्ट अवस्था है, एक सम्मान है, और यह सर्वोच्च स्तरीय विशिष्ट बुद्धि की उपाधि हो गई| इसीलिए ‘बुद्धि’ के अनुयाई को बौद्ध कहा जाता रहा और आज भी कहा जा सकता है।

यह अलग बात है कि आजकल लोग इसे परम्परागत धर्म के रूप में समझते और मानते हैं| परम्परागत धर्म के रूप में मान लेने से ही इसमें अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को स्थापित कर देना पड़ता है, यानि अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को इसमें मान लेना पड़ता है| और इसीलिए इसमें भी किसी भी अन्य परम्परागत धर्म की ही तरह बुद्धि का स्थान या भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, या नहीं ही रह गया है| अब कोई भी गोतम बुद्ध का चित्र या मूर्ति लगाकर और उसी एक खास तरह का वस्त्र धारण कर बौद्ध बनने की कोशिश करता है| अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों को भी जान लेना चाहिए| अन्य परम्परागत धर्म के अनिवार्य तत्वों में दो ही तत्व – “ईश्वर” (God) एवं “आत्मा” (Soul) महत्वपूर्ण होते हैं, और इसके अन्य सभी तत्व – पुनर्जन्म, कर्म का सिद्धांत एवं स्वर्ग- नर्क तो सिर्फ इन्हीं दोनों के ही सहायक या सह- उत्पाद होते हैं| इसीलिए कुछ लोगों द्वारा अन्य परम्परागत धर्म की ही तरह भगवान बुद्ध से भी एक ईश्वर की ही तरह कुछ प्राप्त करने की कामना की जाती है, जबकि बुद्ध मात्र एक पथ- प्रदर्शक ही थे| बुद्ध एक मात्र गुरु थे, और इसीलिए वे ईश्वर के अस्तित्व के ही विरोधी थे| बाद के काल में इसी तरह बुद्ध के “आत्म” (Self) को “आत्मा” (Soul) बना कर सब घालमेल कर दिया गया है|

लोग ‘बुद्धि’ यानि ‘समुचित ज्ञान’ की अवधारणा को समझे बिना ही बौद्ध होने यानि बुद्ध के अनुयायी होने की घोषणा करते हैं। इस ‘बुद्धि’ के उदय को समझने के लिए आपको ऐतिहासिक काल में पीछे जाना होगा, यानि बुद्धों का उदय क्यों हुआ?| ध्यान रहे कि गोतम बुद्ध के काल से कोई साढ़े सात हजार साल से पहले पाषाण युग था, अर्थात ‘पत्थर’ पर ही जीवन आधारित था| आप भी जानते हैं कि आज से कोई दस हजार साल पहले के काल को नवपाषाण काल बताया जाता है, मतलब कि उस काल तक सभ्यता एवं संस्कृति का उदय ही नहीं हुआ था|| इसी पाषाण यानि पत्थरों के युग के बाद ही धातु युग आया, जिसमे पत्थरों की निर्भरता समाप्त हो गई| अर्थात धातु के प्रयोग एवं उपयोग के साथ ही लोग पहाड़ों से उतर कर नदी घाटियों में बसना शुरू कर दिया था| धातुओं के उपकरण, औजार, हथियार आदि पत्थरों की तुलना में ज्यादा परिष्कृत हुए और जीवन ज्यादा सुगम एवं सरल हो गया|इसी धातुओं के साथ ही पशुओं एवं पौधों का ‘घरेलुकरण’ (पालतू बनाने का कार्य – Domestication) का काम तेजी से शुरू हो गया| कृषि एवं पशुपालन के साथ ही ‘खाद्य पदार्थो’ का अत्यधिक (Surplus)  उत्पादन होना संभव हो सका| इससे उसमे, यानि कृषि कार्य एवं पशुपालन में जितने आदमी लगे हुए थे, उनके खपत से ज्यादा खाद्य सामग्री का उत्पादन एवं भण्डारण होने लगा| ऐसी स्थिति में वैसे लोगों के लिए भी खाद्य पदार्थ समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो गया, जो कृषि एवं पशुपालन से भिन्न कार्य कर सकते थे|

इसी खाद्य पदार्थों की सुनिश्चितता के साथ ही अर्थव्यवस्था के द्वितीयक प्रक्षेत्र (Secondary Sector) एवं तृतीयक प्रक्षेत्रों (Tertiary Sector) का उदय होने लगा| लोग अब अन्य वस्तुओं का उत्पादन करने लगे, जो कृषि एवं पशुपालन से उत्पादन, भंडारण के अतिरिक्त जीवन के अन्य पहलुओं को सुगम और सरल बना रहा था| अर्थव्यवस्था के तीसरे प्रक्षेत्र में कृषि, पशुपालन एवं खनन के लिए सेवा प्रदाताओं का भी उदय होने लगा, यानि इसके ही साथ परिवहन, व्यापार एवं वाणिज्य का उदय हुआ| इसी के साथ कई संस्थाओं – विवाह, परिवार, शासन, सत्ता, मुद्रा, आदि का भी क्रमश: उदय होने लगा| इसी के साथ ही चतुर्थक प्रक्षेत्र (Quaternary Sector) एवं पंचक प्रक्षेत्र (Quinary Sector) का भी उदय संभव हो सका, जो क्रमशः "बुद्धि के विकास" और "नीति निर्धारण" से संबंधित था। बुद्ध इन्हीं दोनों प्रक्षेत्रों में कार्य कर रहे थे। इस सब के लिए जो समझ यानि ज्ञान (Knowledge) चाहिए था, उसे ही भारत में बुद्धि (Intelligence) कहा गया| इसी बुद्धि के उदय से सभ्यता (Civilisation) और संस्कृति (Culture) का उदय और विकास हुआ। इसीलिए प्राचीन काल को बौद्धिक काल भी कहा जाता है।

यदि एक बुद्ध का सामान्य औसत काल पचास साल होता है, तो बुद्धि की यह परम्परा, यानि बुद्धों की यह परम्परा गोतम बुद्ध से 28 * 50 = 1400 साल पहले चला जाता है| चूँकि बुद्धत्व की परम्परा कोई वंशगत नहीं था, और यह बुद्धि की सर्वोच्च एवं विशिष्ट अवस्था पाने की उपाधि था, इसलिए यह माना जा सकता है, कि एक बुद्ध कोई एक सौ साल में कोई एक ही होता रहा| इस तरह बुद्धि की व्यवस्थित परम्परा ही बुद्ध से पहले कोई 28 * 100 = 2800 साल पुरानी हो जाती है| स्पष्ट है कि इन्ही बुद्धों की परम्परा ने “मेहरगढ़ सभ्यता” को विश्व प्रसिद्ध “सिन्धु घाटी सभ्यता’ यानि “मोहनजोदड़ो की नगरीय सभ्यता” में बदल दिया| यह इतिहास है कि इन नगरीय सभ्यताओं में “बुद्धि के विहार” यानि “बौद्ध विहार” का ही उत्खनन शुरू किया गया था| यदि आप मानव इतिहास की व्याख्या वैज्ञानिक तरीके से करना कहते हैं, तो आपको सब कुछ स्वत: स्पष्ट हो जायगा| “इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या” उस समय और उस क्रियाविधि के साधनों एवं शक्तियों के उपयोग से किया जाता है, यानि जब इतिहास की व्याख्या में उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों तथा इनके अंतर्संबंधों के आधार पर किया जाता है| इसे ही ‘आर्थिक शक्तियाँ’ (Economic Forces) भी कहते हैं, जिसे ‘बाजार की शक्तियाँ’ (Market Forces) भी कह सकते हैं|इन्ही शक्तियों को “समकालिक शक्तियाँ” (Contemporary Forces) या “समकालीन शक्तियाँ” भी कहा जाता है| इतिहास के काल में इन्हें ही “ऐतिहासिक शक्तियाँ” (Historical Forces) भी कही जाती है, जो इतिहास को बदलता रहता है|

इस भौगोलिक उपमहाद्वीप का नाम इस क्षेत्र की विशिष्ट बुद्धि की पहचान के कारण ही इस उपमहाद्वीप का नाम “भारत” पड़ा| बुद्धि के इस आभा से युक्त प्रदेश को ही “आभा से रत” माना जाने लगा| इसी “आभा से रत” से “आ (भारत)” शब्द बना| विश्व की समकालीन अन्य नदी घाटी सभ्यताओं में भी बुद्धि के विविध उपयोग एवं प्रयोग पर मंथन चल रहा था, जो नव उदित समाज, राज्य एवं अन्य संस्थाओं के विकास के लिए अनिवार्य था| भारत बुद्धों की परम्परा के कारण ही विश्व में उत्कृष्ट कोटि के सामाजिक विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान एवं आध्यात्मिक ज्ञान का विशिष्ट स्तर पा सका, जिसे ही प्राप्त करने के लिए तत्कालीन सम्पूर्ण विश्व से विद्वान भारत आते रहे| इसी कारण भारत विश्व गुरु बन सका| यह अलग बात है कि सामन्त काल में सामन्ती शक्तियों ने इन ज्ञान के भण्डार को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित, संवर्धित एवं संपादित कर प्रस्तुत किया और शेष ग्रंथो को नष्ट कर दिया|

आज भी बुद्धों के ज्ञान में ‘सामान्य बुद्धिमत्ता (General Intelligence)’, ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ (Emotional Intelligence), ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता (Social Intelligence)’ को अपने में समेटे हुए “बौद्धिक बुद्धिमत्ता” (Wisdom Intelligence) का सिद्धांत दिया, जो उनके प्रसिद्ध “आष्टांग मार्ग” के रूप में वर्णित है| बुद्ध को ‘मार्केटिंग प्रबंधन’ का पितामह माना जाना चाहिए, जिन्होंने अपने ज्ञान की उस समय ऐसी मार्केटिंग किया, कि आज भी उस पर विमर्श हो रहा है| बुद्ध वह पहला वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने मानव समाज को ‘संज्ञानात्मक क्रान्ति’ (Cognitive Revolution) का सूत्र दिया, जिसके कारण ही आज मानव सभ्यता और संस्कृति इस अवस्था तक आ पाई| इन्होने व्यक्ति, समाज, राज्य और मानवता के संवर्धन एवं विकास के लिए वह स्थायी सिद्धांत दिया, जिससे व्यक्ति, समाज, राज्य और मानवता का उद्विकास तेजी से संभव हो सका| इनके पारिस्थिकी न्याय (Ecilogical Justice) की अवधारणा में मानव एवं पशुओं सहित प्रकृति भी समाहित हो जाती है| ज्ञान एवं विज्ञान में कई ऐसे मौलिक एवं मुलभुत तत्व दिए, जिस पर आज का आधुनिक क्वांटम भौतिकी भी चकित है|

इसलिए ध्यान रहे कि बुद्धि के अनुयायी ही बौद्ध है, नहीं कि किसी मूर्ति के अनुयायी या किसी ख़ास परिधान वाले या किसी कर्मकांड करने वाले ही बोद्ध हैं| बाकी सब बुद्ध के नाम पर ढकोसले करते हैं|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भारत की परम्परागत समस्याओं का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा हैं?

भारत की परम्परागत, यानि ऐतिहासिक समस्याओं , यानि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान क्यों नहीं हो पा रहा है? यही ‘सामाजिक सांस्कृतिक समस्याएँ’ ही उस समाज एवं राष्ट्र में ‘अन्य आर्थिक, राजनीतिक एवं अन्य सम्बन्धित समस्याएँ’ भी उत्पन्न करती है| ऐसा क्यों हो रहा है? यह एक बड़ा अहम् सवाल है, जिसका कोई सम्यक एवं समुचित उत्तर नहीं मिल पाता है| शायद यदि इसका सम्यक एवं समुचित उत्तर मिल जाता है, तो इन समस्याओं  के समाधान का रास्ता मिल जायगा| कुछ महान वैज्ञानिकों ने भी कहा है कि कुछ जिन समस्याओं के जड़ ‘अज्ञात’ में होती है, उसका समाधान “ज्ञात” से नहीं पाया जा सकता है| इस पर ध्यान दिया जाय|

भारतीय तथाकथित महान विद्वान ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं’ के लिए उपलब्ध भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों में ही समाधान पाने की उम्मीद करते हैं, क्योंकि शायद ये लोग इसी को प्रमाणिक एवं सान्दर्भिक स्रोत मान लेते हैं| इन सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों एवं ग्रंथों को बिना किसी तार्किकता एवं तथ्य के, अर्थात बिना पुरातात्विक एवं ‘प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्य’ (Primary Authentic Evidence) के ही इसे :प्रमाणिक” (Authentic/ Ultimate) मान लेते हैं, और इसीलिए इसे ऐतिहासिक विरासत भी मानते हैं| और इसीलिए ये उन्ही ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही सभी सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान खोजना चाहते हैं, या खोजते रहते हैं, परन्तु वे सफल रहते हैं, और कोई सार्थक बदलाव नहीं होता है, तथा समस्या और भी विकराल होता जा रहा है| इसीलिए इस सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं से उत्पन्न भारत के कई राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं  का भी कोई सार्थक समाधान नहीं मिल रहा है| ये विद्वान “बाजार की शक्तियों” (Market Forces) के तात्कालिक प्रभाव को अपने प्रयास का परिणाम मानकर ‘आत्ममुग्ध’ होते रहते हैं, क्योंकि इन्हें ‘बाजार की शक्तियों’ की ‘क्रियाविधि’ (Mechanism) की समझ नहीं होती है| ये भारतीय विद्वान, पता नहीं, ऐसा कर विश्व को मूर्ख बनाना चाहते हैं, या भारत में ही अन्य सामाजिक समूहों को मूर्ख  बनाना चाहते हैं, या ये स्वयं ही ‘अत्यधिक नादान’, परन्तु ‘प्रभावशाली एवं पदधारी पहुँच के विद्वान’ होते हैं| लेकिन इन प्रभावशाली एवं पदधारी पहुँच के विद्वानों का स्पष्ट विश्लेषण कर उनके बारे में कुछ भी लिखना शायद उचित नहीं होगा| यही भारत की विडम्बना है|

इसके लिए हमें कुछ विश्व के उदाहरण देखने और समझने होंगे| मैं यहाँ भी कुछ और सवाल खड़ा करना चाहता हूँ| क्या गैलेलियों को पृथ्वी और सूर्य के चक्कर लगाने की समस्या का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में मिल गया था? इसका समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में नहीं मिला था| इसी तरह क्या चार्ल्स डार्विन भी अपनी वैश्विक विविधताओं और भिन्नताओं की व्याख्या का तार्किक आधार को तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में खोज पाए? इन दोनों को अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए, यानि अपनी समस्याओं  के समाधान पाने के लिए उस समय के तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों से बाहर ही तलाशना पड़ा, और तब वे समुचित समाधान खोज पाए| इन सभी तत्कालीन ग्रंथ एवं शास्त्र, धार्मिक सहित, जब भी उस समय अंतिम संपादन हुआ होगा, उसे उस के समय में वर्तमान की ऐतिहासिक शक्तियों की सभी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सभी बातों का समायोजन (Adjustment) करना पड़ता है| इसीलिए इसमें ईश्वर के समर्थन और गुणगान में इतनी बातें कह दी जाती है, कि कोई इन पर अविश्वास नहीं करे और इन तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर कोई समाधान खोजना एक गलती ही नहीं, अपितु एक महापाप मान लिया जाता था| इसी तरह उस समय की किसी भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं  का समाधान तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों में नहीं पाया जा सका|

वहां की सभी ‘सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं ’ का समाधान ‘कार्य – कारण सम्बन्ध’ की ‘तार्किकता’ के आधार पर, यानि वैज्ञानिक आधार पर पाया जा सका| इनके सही समाधान के सभी तथ्य एवं आधार इन तत्कालीन ग्रंथों एवं शास्त्रों के बाहर ही खोजे जा सके| ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि इन तत्कालीन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने वाले तमाम ग्रंथों एवं शास्त्रों का वर्तमान उपलब्ध स्वरुप ही अपेक्षित संशोधन, संवर्धन एवं सम्पादन के बाद ही मिलता है, जिसमे सभी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप आवश्यक संशोधन किया हुआ होता है| मतलब जिन्हें भी ऐतिहासिक एवं प्रमाणिक विरासत माना जाता है, वे सभी हाल तक के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के अनुरूप ही संशोधित, संवर्धित एवं संपादित होते हैं| यहाँ ध्यान देने की बात है कि इन सभी ऐतिहासिक विरासत एवं प्रमाणिक माने जाने वाले तमाम ग्रंथों एवं शास्त्रों में वर्णित किसी भी तथाकथित तथ्यों का पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की मांग किये जाने पर कोई भी ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराया जाता है, जिसे पर्याप्त संतोषजनक माना जा सके| तब ये विद्वान् उन ग्रंथों एवं शास्त्रों में ही उलझ कर रह जाते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों एवं शास्त्रों में यथावश्यक संशोधन, संवर्धन एवं सम्पादन ही काल्पनिक एवं मनगढ़ंत होता है और ऐसा इसी उलझन को पैदा करने के लिए और उस में उन्हें उलझाने के लिए ही किया जाता है|

इसीलिए ऐसे भारतीय विद्वान इन्हीं “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों” में तैरते रहते हैं और डूबता उतरते हुए मरते भी रहते हैं, या मर मिट जाते हैं| ये तथाकथित महान एवं विद्वान व्यक्ति अपनी सारी उर्जा, धन, संसाधन, समय, जवानी और उत्साह इसी बेकार के ग्रंथो एवं शास्त्रों में लगा कर उलझे रहते हैं, और इससे इतर अन्य कोई वैज्ञानिक व्याख्याओं की ओर सोच एवं देख नहीं पाते हैं| चूँकि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या ही इतिहास होता है, इसीलिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या के लिए वैज्ञानिक व्याख्या की ही अनिवार्यता होती है| इतिहास की, यानि सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण के क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्या “तत्कालीन बाजार की शक्तियों” के आधार पर, यानि उत्पदान, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों एवं शक्तियों के अंतर्संबंधों के ही आधार पर किया जा सकता है, अन्यथा कोई अन्य वैज्ञानिक व्याख्या हो ही नहीं सकती| ऐसी व्याख्या में राज्यों के नाम, शासकों के नाम, युद्धों का विवरण एवं व्यवस्था का ब्यौरा स्वयं में इतिहास नहीं होता है, अपितु ये सब इतिहास के उदाहरण होते हैं| ऐसी व्याख्या आप किसी भी ऐतिहासिक काल की समुचित एवं पर्याप्त व्याख्या पाते हैं| इसका आधार काफी तार्किक एवं संतोषप्रद होता है| जो भी तथाकथित इतिहास इस व्याख्या में नहीं आ पाता है, वह निश्चितया इतिहास नहीं है, अपितु वह मात्र एक मिथक है| स्पष्ट है कि ऐसी कहानियों का कोई भी पुरातात्विक एवं प्राथमिक प्रमाणिक साक्ष्यों की उपलब्धता नहीं होगी| स्पष्ट है कि हमें तब उन “तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों” का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है|

एक और उदाहरण पर गौर किया जाय| जो अवधारणा अपनी अंतिम परिणाम नहीं दे पाया है, क्या उसे कभी सफल सिद्धांत माना जा सकता है? इसका स्पष्ट उत्तर नहीं है| विज्ञान, यानि विवेकपूर्ण व्यवस्थित ज्ञान उस असफल ‘अवधारणा’ (Concept) या ‘परिकल्पना’ (Hypothesis) को कभी भी ‘सिद्धांत’ (Theory) का सम्मान नहीं देता है| जो वैज्ञानिक अपनी अवधाराणाओं का परिणाम नहीं दे पाए, अर्थात जो अवधारणा वास्तविक परिणाम नहीं दे पाए, विज्ञान के द्वारा उन वैज्ञानिकों के सिद्धांतों को ख़ारिज कर दिया जाता है| लेकिन भारत में ऐसे बहुत से ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिक” अपनी “परिकल्पनाओं” का सफल परिणाम नहीं पा सके, और परिणामस्वरूप वे सामाजिक एवं सासंकृतिक समस्याएँ आज भी जस का तस बनी हुई है, फिर उन सामाजिक एवं सांस्कृतिक वैज्ञानिकों को सफल एवं महान माना जाता है|

ऐसे व्यक्तियों को भारतीय जनमानस पूजने भी लगते हैं| यह व्यक्ति पूजन भारतीय सामन्ती मानसिकता की अभिव्यक्ति है, और इसीलिए भारत में वंशवाद भी खूब प्रचलित है| ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तियों के बहुत से परिणाम सफल रहे हैं, इनके बहुत से परिणाम तत्कालीन बाजार की शक्तियों के परिणाम के प्रभाव में ढक गए, और इन्हों आधारों पर इनके सभी निर्णय एवं व्याख्याएं बिना समुचित प्रश्न खड़ा किए ही सही मान लिए गए| ये तथाकथित विद्वान् अभी तक उन्ही व्यक्तियों के कृतत्वों से आगे और अलग नहीं बढ़ पाया है, और वही ठहरा हुआ है| ऐसे विद्वान सिर्फ सामज को कोसना जानते हैं, लेकिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्षों को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक शक्तियों को नहीं समझ पाते हैं|

चूँकि ये महान तथाकथित विद्वान व्यक्ति अपने विचारों के समझ एवं क्रियान्वयन में सफल नहीं रहे हैं, और इसीलिए हमलोगों को उन्ही समस्याओं  पर अभी और आज भी विचार करना पड़ रहा है| स्पष्ट है कि हमें अपनी सफलता के लिए उन तथाकथित विद्वान व्यक्तियों का अनुकरण करना एकदम बेकार है| स्पष्ट है कि उनके उपागम (Approach) में कोई बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी, जिसके कारण उस समय भी सफलता नहीं मिली थी, और आज भी सफलता निश्चितया नहीं ही मिलेगी| उन्हे इसलिए सफलता नहीं मिली थी, क्योंकि ये जिसके विरुद्ध समाधान खोज रहे थे, ये विद्वान उन्ही के द्वारा सम्पादित, संशोधित एवं संवर्धित ग्रंथों एवं शास्त्रों के ही ‘लौह ढांचे’ (Steel Frame Work) में फंसे हुए थे| ये तथाकथित महान विद्वान व्यक्ति इन तथाकथित महान ऐतिहासिक प्रमाणिक विरासत के ग्रंथों और शास्त्रों को ही प्रमाणिक मान कर इसी के आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन तक सीमित रह गये| परिणामस्वरूप इनके विचारों एवं उपागमों में कोई ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) नहीं कर हो पता है और सफलता पा लेने की ‘मृग मरीचिका’ (Mirage) में फंस कर दौड़ते हुए मर भी जाते हैं| और आज के भी ;तथाकथित सामाजिक सांस्कृतिक विद्वान्; भी इसी भ्रम में अपना दम तोड़ रहे हैं|

मैंने जो इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या का आधार दिया है और इसी आधार पर जो वैज्ञानिक व्याख्या भी किया है, उसे समझिये| यही भारत की सभी समस्याओं  का वास्तविक समाधान देगा, और समाधान के अन्य प्रयास महज एक तमाशा है, दिखावा है, जिसे आप मात्र एक उलझान कह सकते हैं| वैसे मदारी के तमाशे में खूब तालियाँ बजती है, इसलिए आप भी तालियों की गडगडाहट से प्रभावित मत होइए| आप भी थोडा गंभीरता से विचार कीजिए, शायद भारत की तुलनात्मक दशा पर आपकी भी ‘आह’ निकले| सादर|

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक  

गुरुवार, 28 मार्च 2024

मुक्ति किससे और कैसे पायी जानी है?

मुक्ति पाने के प्रयास में हम सब करते कुछ हैं, और पाते कुछ और ही है| ऐसा क्यों और कैसे होता है? इसी को समझने के लिए ही यह आलेख है|

क्या हमें गरीबी से ही मुक्ति चाहिए, या अमीरी यानि समृद्धि या

समृद्ध जीवन की स्वतंत्रता ही चाहिए?

क्या हमें किसी बीमारी से ही मुक्ति चाहिए, या हमें स्वस्थ्य रहने की स्वतंत्रता चाहिए?

क्या हमें सिर्फ अशिक्षा से यानि मुर्खता से ही मुक्ति चाहिए, या

गुणवत्तापूर्ण उच्च स्तरीय शिक्षा भी चाहिए,यानि बुद्धिमत्ता की स्वतंत्रता भी चाहिए?

क्या हमें सिर्फ ब्राह्मणवाद से ही मुक्ति ही चाहिए, या हमें जीवन में

उस मुक्ति से  बहुत बहुत आगे की आधुनिकता एवं वैज्ञानिकता की स्वतंत्रता भी पाना चाहिए?

तो सवाल बहुत ही अहम् है| तब हमें अपने जीवन में कोई वृहत एवं व्यापक लक्ष्य ही रखना चाहिए, जिसमे उपरोक्त वर्णित उदाहरण सहित अन्य तुच्छ एवं नकारात्मक बाधाओं को पार कर लेना स्वत: शामिल हो जायगा| अर्थात हमारा दृष्टिकोण, हमारा लक्ष्य विस्तृत एवं व्यापक होना चाहिए, किसी नकारात्मकता के भाव पर यानि किसी ऐसे सन्दर्भ पर केन्द्रित नहीं होना चाहिए| अभी हमें इसी उदाहरण को लेकर मुक्ति को और उसके क्रियाविधि के प्रभाव को ही समझना है, उसके बाद ही हमें किसी सांस्कृतिक या सामाजिक “वाद” (ism) या, किसी राजनीतिक दर्शन या “वाद’ से मुक्ति पाने के अर्थ को समझना चाहिए| हमें जिससे भी मुक्ति पाना होना चाहिए, सबसे पहले उस अवधारणा को सम्यक रूप से समझना चाहिए, अर्थात उस लक्षित अवधारणा को वैज्ञानिक, तार्किक, वस्तुनिष्ठ एवं विवेकपूर्ण ढंग से समझना चाहिए, और तब ही उस पर आगे बढ़ने की सोच रखनी चाहिए| दरअसल हम जिस भी बाधा को पार करना चाहते हैं, उस बाधा का ही आलोचनात्मक विश्लेषण और मूल्याङ्कन के विमर्श के लिए कोई समय ही नहीं देते हैं| हम बाद में, यानि इसी आलेख के अंत में “मुक्ति” (Liberty) के व्यापक अर्थ को समझेंगे, और संवैधानिक आईने में भी देखेंगे|

हम यहाँ यह समझने बैठे हैं कि हमें मुक्ति पाने का लक्ष्य रखना चाहिए, या नहीं? इस मुक्ति के लक्ष्य का क्या अर्थ है, अर्थात इस मुक्ति की क्रियाविधि (Mechanism) के क्या क्या निहितार्थ हैं और इसके प्रभाव की भी एक ‘आलोचनात्मक समीक्षा’ (Critical Examination) होनी चाहिए| अब हम प्रथम उदाहरण वाक्य - क्या हमें गरीबी से मुक्ति ही चाहिए, या अमीरी यानि समृद्धि या समृद्ध जीवन ही चाहिए?, का आलोचनात्मक विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक नकारात्मक वाक्य है, क्योंकि इसमें हमारा सारा ध्यान, सारा फोकस, और सारी उर्जा गरीबी पर ही केन्द्रित रह जा रही है| ध्यान रहे कि,  हम जिस चीज पर भी अपने ध्यान केन्द्रित करते हैं, उस पर हम अपनी उर्जा प्रदान करते है, यानि हम उसको उर्जा प्रवाहित करते हैं| और हम जिस भी चीज पर उर्जा देते हैं, वह चीज अपने आकार में, अपने स्वरुप में, अपनी क्रिया में यानि अपनी गतिविधि में बढती जाती है, यानि वह ज्यादा उर्जामय हो जाता है|

कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह अपनी गरीबी को ही बढाते हैं, जो हमारा लक्ष्य ही नहीं है और हम अपने लक्ष्य के ही विरुद्ध परिणाम पाने का क्रियाविधि में लिप्त हो जाते हैं| इसीलिए हमें अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए, यानि हमें अपने व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए और उसके लिए ही प्रयासरत रहना चाहिए| अर्थात अमीरी का सार्थक अर्थ हमें अपने व्यक्तित्व के महत्तम विकास के लिए पूर्ण संसाधन संपन्न होना चाहिए| हमें अपनी सारी उर्जा, समय, ध्यान, संसाधन, समर्पण एवं युक्ति अमीर बनने के लिए यानि साधन संपन्न होने के लिए ही होनी चाहिए, किसी को मिटाने के लिए नहीं; वह तो अपने आप ही अस्तित्वहीन हो जायगा| हमारी सम्पूर्ण योजना, विश्लेषण, मूल्याङ्कन एवं क्रियाविधि साधन संपन्न होने के लिए यानि अमीरी पाने के लिए होनी चाहिए| यह अमीर होना सकारात्मक कदम है, क्योंकि हम इसे पाने के लिए करते हैं| गरीबी से मुक्ति पाना एक नकारात्मक कदम है, क्योंकि हम गरीबी से बचने का प्रयास करते हैं| यहाँ भी थोडा ठहर कर समझने की जरुरत है| ऐसी ही स्थिति बीमारी एवं स्वास्थ्य के सन्दर्भ के लिए है, और ऐसी ही स्थिति अशिक्षा एवं बुद्धिमत्ता के लिए भी है, और ऐसी ही स्थिति किसी भी “वाद” (ब्राह्मणवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद या कोई और भी ‘वाद’) से बचने के लिए या उससे भी बहुत आगे जाने के सन्दर्भ में होना चाहिए|

उपरोक्त एक उदाहरण से यह स्पष्ट हुआ कि आप जिससे मुक्ति पाना चाहते हैं, वही आपका अंतिम लक्ष्य भी हो जाता है| अर्थात जब आपको उससे मुक्ति मिल जाती है और तब आपके लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, और फिर आप उससे संतुष्ट होकर निष्क्रिय भी हो जाते हैं| जबकि आपका वास्तविक लक्ष्य उससे भी बहुत आगे जाना था या आगे जाना है| जब हमारा लक्ष्य ही उससे बहुत आगे जाना है, यानि आधुनिक, वैज्ञानिक चिंतन वाला सुखी, समृद्धमय एवं ऐतिहासिक होना है, तो हमें मुक्ति के लक्ष्य तक सीमित नहीं होकर, उससे आगे और उससे बहुत बड़ा लक्ष्य जीवन का होना चाहिए| हमारा जो अंतिम लक्ष्य होता है, हमारा जो एकमात्र लक्ष्य होता है, वह सदैव व्यापक, विस्तृत, कालजयी और मानवतावादी होना चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव व्यापक मानवता के लिए होना चाहिए, मानव अस्तित्व के विकास के लिए होनी चाहिए| अर्थात हमारा लक्ष्य सदैव व्यापक मानवता के सुख, शांति, समृद्धि एवं विकास के लिए होनी चाहिए, जो निश्चितया  न्याय, स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व पर आधारित रहेगा| अर्थात हमारा अंतिम लक्ष्य मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य के निर्माण एवं संरक्षण के लिए होना चाहिए, जिसमे अवश्य ही प्रक्रति के विकास एवं संरक्षा समाहित होगा और एक बेहतर एवं सुन्दर भविष्य का दृष्टि अवश्य ही सामने होगा| जब हमारा लक्ष्य एक बेहतर भविष्य है, तो हमारा पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसी के लिए होना चाहिए, किसी और तुच्छ और नकारात्मक लक्ष्य या साध्य के लिए नहीं होना चाहिए| इसी को कहा जाता है कि कोई बड़ा लकीर ही खींच कर ही किसी दुसरे लकीर को बिना छुए और बिना कुछ बोले ही छोटा कर दिया जाता है|

स्पष्ट है कि हमारा लक्ष्य ही किसी नकारात्मक एवं तुच्छ के सापेक्ष ही नहीं होना चाहिए| हमारा कोई भी सन्दर्भ बिंदु कोई भी नकारात्मक और तुच्छ नहीं होना चाहिए| जब हमारा कोई भी लक्ष्य निर्धारित हो जाता है, स्पष्ट है कि हमें उसे पाना होता है, वह हमारा जीवन लक्ष्य हो जाता है| तब निश्चितया ही हमारा लक्ष्य किसी नकारात्मक और किसी छोटी चीज के सापेक्ष नहीं होना चाहिए| जब हमारा लक्ष्य तुच्छ और नकारात्मक नहीं होता है, तब हम उनमे नहीं उलझते हैं| छोटा और नकारात्मक लक्ष्य उलझन पैदा कर हमारा सभी कुछ सोख लेता है, और यह लक्ष्य अन्य उलझन के आलावा कुछ और पैदा भी नहीं कर पाता है| इसीलिए कुछ योजनाकार तथाकथित बुद्धिमान लोगों के समक्ष तुच्छ एवं नकारात्मक लक्ष्य रख कर खूब आनन्दित होते हैं| तब हम अपना पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही नहीं होता है| बल्कि हम अपना पूरा समय, संसाधन, उर्जा, उत्साह, समर्पण उसमे देते हैं, जो हमारा वास्तविक लक्ष्य ही नहीं है, अर्थात हम जिससे मुक्त होना चाहते हैं और उसी में उलझे रहते हैं| वे नकारात्मक एवं तुच्छ विचार वाले लोग जो जाल बिझाते हैं, उनका तो यही ही लक्ष्य होता है कि उनके आलोचक उनके जाल में उलझ कर ही रह जाय, और आगे का कुछ भी नहीं सोच पाएँ| वे चाहते हैं कि आपका अंतिम और एकमात्र जीवन लक्ष्य की अंतिम और उपरी सीमा ही उनकी उलझन भरी जाल ही हो| अर्थात जब आपका लक्ष्य ही उस उलझन भरी जाल से ही मुक्ति पाना है, उस जाल से ही बहार निकलना आपका अंतिम लक्ष्य है, तब आप उसी स्तर तक ही सोच पाते हैं| आप ध्यान दें कि बड़े बड़े बौद्धिक भी कहते हैं कि आप वही बनते हैं, जिस सोच पर आप ठहरे हुए होते हैं| यहो आधुनिक भौतिकी का क्वांटम सिद्धांत भी कहता है कि आप जिस भी भौतिक पदार्थ का अवलोकन करना चाहते हैं, यानि जो भी चीज अपनी सोच में रखते हैं, वही वास्तविकता में स्पष्ट अवलोकित होता है| तब हमें रुक कर सोचना होगा|

तब आप ठहर कर सोच सकते हैं कि आप उन जाल निर्माताओं के उद्देश्य को सफल बना रहे हैं, या खुद को सफल बना रहे हैं? यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप प्रत्यक्ष रूप से क्या चाहते हैं? यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप जिसकी आलोचना कर रहे हैं, यानि जिस नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले का विरोध कर रहे हैं, आप उसका कितना नुकसान कर पा रहे हैं, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने जीवन में क्या पा रहे हैं? आपके इस सोच का, आपके इस लक्ष्य का अंतिम परिणाम क्या मिल रहा है?,इस पर भी विचार कीजिए| मतलब कि आप उनकी जाल में ही उलझ कर अप्रत्यक्ष रूप से आप उन नकारात्मक एवं तुच्छ सोच वाले को ही विजयी बना रहे हैं, और आप वहीं तुच्छता एवं नकारात्मकता पर ही ठहरे हुए हैं| आपको यह सब बड़ा ही अटपटा लग रहा होगा, लेकिन ठहर कर सोचिए, तो आपको समझ में आने लगेगा|

जब मैंने बार बार ‘मुक्ति’ की नकारात्मक अवधारणा का जिक्र कर ही दिया है, तो इसे भी सम्यक ढंग से समझ लेना चाहिए| सबसे पहला सवाल यह उठता है कि हमें मुक्ति (Liberty) चाहिए या स्वतंत्रता (Freedom) चाहिए? या दोनों ही एक साथ चाहिए? हालाँकि भारतीय संविधान में दोनों का विशिष्ट एवं अलग अलग स्थानों में प्रयोग करने के बावजूद भी दोनों को हिंदी में स्वतंत्रता के अर्थ में ही प्रयोग किया गया है| अंग्रेजी के प्रति में Preamble में ‘Liberty’ (मुक्ति) का प्रयोग है, और हिंदी के प्रति में उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ का प्रयोग किया गया है, और दोनों भी भाषा में यह अधिकृत है| हालाँकि संविधान के भाग चार में, यानि मूल अधिकार के भाग में ‘Freedom’ यानि स्वतंत्रता की ही चर्चा है, मुक्ति (Liberty) की नहीं| तब हमें मुक्ति और स्वतंत्रता, दोनों को ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिए|

मुक्ति किसी पूर्व से प्रचलित बंधन से मुक्त होना यानि आजाद होना होता है| अर्थात इसके लिए पूर्व के किसी प्रचलित बंधन यानि पूर्व के किसी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, या अन्य कोई बंधन का शर्त अवश्य है, जिससे ही मुक्ति पाना है| इस मुक्ति के लिए किसी सन्दर्भ या पृष्ठभूमि का होना चाहिए, और इसी पूर्व के बधन से स्वतंत्र हो जाना है, मुक्त हो जाना है, आजाद हो जाना है| ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता में पूर्व से किसी बंधन का होना कोई विशिष्ट शर्त नहीं होता है| इस तरह स्वतंत्रता बिना किसी सन्दर्भ या बिना किसी पृष्ठभूमि के ही स्वतंत्र रहने की अवस्था है| मतलब स्वतंत्रता एक निरपेक्ष अर्थ देता है, और मुक्ति एक सापेक्ष अर्थ देता है|

इसे किसी उदाहरण से स्पष्टतया समझा जा सकता है| कोई व्यक्ति किसी ख़ास बीमारी से मुक्ति पा सकता है, और कोई व्यक्ति सभी बिमारियों या किसी ख़ास बीमारी से मुक्त यानि स्वतंत्र रह सकता है| इस तरह मुक्ति पाना और मुक्त रहना, दोनों अलग अलग अवस्था है, और दोनों का क्रम भी निश्चित है| कोई व्यक्ति गरीबी से मुक्ति पा सकता है, और कोई गरीबी से मुक्त रहता है| स्पष्ट है कि गरीबी से मुक्त रहने का यही एक मात्र अर्थ नहीं हो सकता है कि वह निश्चितया कभी गरीब ही रहा हो| हो सकता है कि वह पहले भी अमीर था और आज भी अमीर ही है तथा उसे किसी गरीबी से मुक्ति की जरुरत ही नहीं पड़ी हो| अर्थात आज वह गरीबी से स्वतंत्र है| अत: मुक्ति एक क्रिया है, जो एक बंधन से स्वतंत्र करता है|  स्वतंत्र रहना उस मुक्ति के बाद की अवस्था है, लेकिन किसी मुक्ति का शर्त हर हाल में अनिवार्य नहीं है| अब हम मुक्ति को समझ गये हैं|

स्पष्ट है हमें किसी से मुक्ति पाने का अंतिम लक्ष्य नहीं रखना है, बल्कि हमें स्वतंत्रता से जीने का लक्ष्य रखना है| आपने भी पढा होगा कि विख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी विकास की परिभाषा स्वतंत्रता के सन्दर्भ में ही दिया है, जो वैश्विक संगठन – ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) को भी मान्य है| उनके अनुसार किसी को कोई भी कार्य करने की स्वतंत्रता मिल जाय, यही विकास है| यही उपगम (Approach) ही विकास का आधार है| तो आइए, हम भी विकसित बनें, अपने समाज को भी विकसित बनाए, और समस्त मानवता को विकास का आधार दें| स्पष्ट है कि हमें किसी के विरोध को, किसी की आलोचना को अपना अंतिम जीवन लक्ष्य नहीं बनाना है, बल्कि हमें अपना लक्ष्य मानवता के महत्तम एवं सुरक्षित विकास में लगाना है| हमें इसी सन्दर्भ में सोचना है और लक्ष्य भी निर्धारित करना है|

रुकिए, और बताइए, कि आपने क्या सोचा है? अब हम एक सकारात्मक, रचनात्मक एवं सृजनात्मक दुनिया बनायेंगे, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता (एवं समानता) एवं बंधुत्व पर आधारित होगा, और विश्व के भविष्य में सम्पूर्ण मानवता के लिए स्थायी सुख, शांति, औए समृद्धि स्थापित करेगा| सादर||

आचार्य निरंजन सिन्हा

भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक 

भ्रष्टाचार : भारत की एक राष्ट्रीय समस्या

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