सोमवार, 29 सितंबर 2025

भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया

यदि कोई भी सामान्य प्रबुद्ध ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ और उसके ‘स्व’ को देखना समझना और इन दोनों के परस्पर संबंधों का एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहे, तो उन्हें यह स्पष्ट होगा कि “भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया|” अर्थात उन्होंने अपने ‘स्व’ पर ध्यान ही नहीं दिया, उस पर कोई वैचारिकी विमर्श ही नहीं किया और उसे उपेक्षित छोड़ दिया| ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ एवं इससे भारतीय परिवार, समाज, ‘राष्ट्र’, मानवता और ‘भविष्य’ को क्या क्या क्षति हो रहा है? 

इसके लिए हमें इसके मूल तत्वों एवं मौलिक अवधारणाओं (संकल्पनाओं) को समझना चाहिए| मैंने उपरोक्त शीर्षक में ‘स्वतंत्रता’ (Liberty/ Freedom) एवं ‘स्व’ (Self) - दो शब्दों का उपयोग किया है| संभवत: हम सामान्य जन गण इन्हीं तत्वों एवं संकल्पनाओं को सामान्य एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण से नहीं समझते हैं, और इसीलिए हमारी सभी समस्यायों की ‘जड़’ भी इसी से सम्बन्धित यथार्थ है|

‘स्वतंत्रता’ एवं ‘स्व’ शब्द अपने सन्दर्भ (Reference) बदलने से, अपनी पृष्ठभूमि (Background) बदलने से, और अपने ढाँचा (Framework) तथा संरचना (Structure) बदलने से अपने अर्थ को कभी ‘सतही’ (Superficial) बना देते हैं, तो कभी उसके निहितार्थ’ (Implied) को ही बदल देते हैं, जबकि उसका ‘आशय’ (Essence) कुछ और भिन्न भी हो सकता है| भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में अंग्रेजी में ‘Liberty’ लिखा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ किसी पूर्व के बंधन से ‘मुक्ति’ ज्यादा होता है, लेकिन उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ लिखा गया है| इसी तरह भारतीय संविधान के भाग तीन के मूल अधिकारों में अंग्रेजी के ‘Freedom’ के लिए हिंदी में ‘स्वतन्त्रता’ लिखा गया है| यहाँ मैं ‘Liberty’ और ‘Freedom’ के विवाद में नहीं जा कर अपने को सिर्फ ‘स्वतन्त्रता’ तक ही सीमित रहता हूँ|

‘स्वतंत्रता’ एक ऐसा ‘तंत्र’ (System) देता है, जो उसके ‘स्व’ से कल्पित, निर्देशित, नियमित, निर्धारित, संचालित एवं प्रभावित होता है, या होता रहता है| कोई भी ‘तंत्र’ व्यक्तिगत हो सकता है, परवारिक हो सकता है, सामाजिक हो सकता है, सांस्कृतिक हो सकता है, राष्ट्रीय हो सकता है, वैश्विक हो सकता है, प्रशासनिक हो सकता है, राजनीतिक हो सकता है, आर्थिक हो सकता है, या ‘स्व’ को विकसित करने वाला हो सकता है, आदि आदि कुछ भी हो सकता है|

कोई भी एक ‘तंत्र’ को तो बहुत साधारण ढंग से समझ सकता है, लेकिन ‘स्व’ एक व्यापक, गहरा और विस्तृत संरचना का एक ‘गूढ़’ संकल्पना है| एक ‘स्व’ में एक व्यक्ति शामिल होता है, एक व्यक्तित्व शामिल होता है| ‘स्व’ का अस्तित्व ‘पदार्थ’ (Matter/ Particle) स्वरुप में भी होता है, ‘उर्जा’ (Energy) स्वरुप में भी होता है और ‘बल’ (Force) स्वरुप में भी होता है| ‘पदार्थ’ स्वरुप में व्यक्ति का शरीर (Body) और मस्तिष्क (Brain) होता है, ‘उर्जा’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘मन’ (Mind) और ‘भावात्म’ (Spirit) होता है, एवं ‘बल’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘आध्यात्मिक शक्ति’ (Spritual) से सम्बन्ध होता है| व्यक्ति के शरीर एवं मस्तिष्क को एक सामान्य आदमी अपनी सामान्य ज्ञानेन्द्रियों से देख, समझ एवं महसूस करता है, और यही शरीर एवं मस्तिष्क किसी भी व्यक्ति के सभी अस्तित्व का मूल एवं मौलिक आधार होता है|एक व्यक्ति का शरीर ही उसकी भौतकीय उपलब्धियों का साधन होता है।एक व्यक्ति का मस्तिष्क उसके शरीर, मन, भावात्म एवं अनन्त प्रज्ञा के लिए ‘अधिमिश्रक’(Modulator) होता है| व्यक्ति का ‘मन’ उसके ‘वैचारिकी’ (Thought) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता है| व्यक्ति का ‘भावात्म’ उसकी भावनाओं (Emotion) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता है| व्यक्ति का ‘अध्यात्म’ उस व्यक्ति के ‘स्व’ को, उसके ‘आत्म’ (स्व/ Self) को ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जोड़ता है, और उसे इससे बहुत से ‘आभासीय ज्ञान’ (Intuitive Intelligence) आते रहता हैं| इस ‘आभासीय ज्ञान’ से मानवता सदैव लाभान्वित हुआ है, और आगे भी लाभान्वित होता रहेगा| इस ‘स्व’ में एक व्यक्ति का हार्डवेयर और साफ्टवेयर, दोनों ही समाहित हो जाता है| अब हम अपने ‘स्व’ की संरचना समझ गये हैं और हमें इसी ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना है|

यदि हमें व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता या प्रकृति सहित भविष्य का निर्माण करना है, तो इसकी शुरुआत मात्र ‘स्व’ से ही हो सकता है, चाहे वह ‘स्व’ मेरा हो, या किसी और का| ‘स्व’ से ही ‘स्व विवेक’ होता है, ‘स्व तंत्र’ होता है, ‘स्व देशी’ होता है, ‘स्व चेतना’ होता है, ‘स्व बल’ यानि ‘आत्म बल’ होता है| मानव में ‘स्व’ की संकल्पना समय के विकसित होती रही है, और आगे भी जारी रहेगा, लेकिन इसके लिए सजग, सतर्क, सतत एवं सौद्देश्य प्रयास अपेक्षित होता है| 

इसी ‘स्व’ में एक व्यक्ति के भूतकाल का अनुभव एवं संस्मरण समाहित होता है, जिसे ‘संस्कृति’ कहा जाता है| इसी ‘स्व’ में समाज का ‘सामूहिक अवचेतन’ होता है| इसी ‘स्व’ में वर्तमान की भूमिका और भविष्य के लक्ष्य शामिल होते हैं| इसे ही ‘चेतना’, ‘आत्म’ या ‘व्यक्ति’ कहते हैं| इसी ‘स्व’ का विकास करना, संवर्धन करना हमारे जीवन का लक्ष्य है, उद्देश्य है| एक सामान्य पशु या स्तनपायी और एक सामान्य मानव में अन्तर इसी ‘स्व’ की मात्रा एवं गुणवत्ता के अन्तर से होता है| इसी ‘स्व’ को कोई उसका ‘चेतना’ या ‘आत्म’ या ‘व्यक्तित्व’ कहता है| ‘स्व’ के इसी स्तर एवं गुणवत्ता के कारण मानव जीवन में संवेदना, भावना, हर्ष या कष्ट के स्तर का अन्तर होता है|

यदि हम ‘विकास’ (Development) की वर्तमान एवं आधुनिक संकल्पना का ध्यान करते हैं, जिसे ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) के साथ वैश्विक स्वीकार्यता मिली हुई है, वह संकल्पना भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की है और इसके लिए उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला है| इसने ‘विकास’ के लिए व्यक्ति के ‘सक्षमता उपागम’ (Capability Approach) के उन्नयन एवं संवर्धन की बात किया हैं| यह व्यक्ति के ‘स्व’ का ऐसा निर्माण कार्य है कि वह व्यक्ति वृहद् समाज को योगदान करने के लिए सक्षम बन सके| यह सक्षमता किसी व्यक्ति के ‘स्व’ के स्तर एवं गुणवता के उन्नयन एवं संवर्धन से ही आ सकता है|

अभी तक वैश्विक जगत में लगभग सभी अविकसित एवं लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएँ लोगों के कल्याण एवं सेवा सहायता के नाम पर ‘धन’ का दान एवं अनुदान देकर उनकी ‘आय’ बढ़ा कर उनके विकास करने का नाटक करती रही है| इससे सामान्य जन का ‘स्व’ विकसित एवं संवर्धित नहीं होता है| इस ‘धन वितरण’ कार्यक्रमों से सरकारें अपने पक्ष में तो वोट बढ़ा सकती हैं, विकास का आभास दिला सकती है, लेकिन वास्तविक विकास एवं वास्तविक जन कल्याण नहीं कर सकती है| वास्तविक विकास, वास्तविक जन कल्याण एवं वास्तविक राष्ट्र निर्माण के लिए हमें सामान्य जन गण के ‘स्व’ के उत्पादन क्षमता का उन्नयन, विकास, और संवर्धन करना ही एकमात्र विकल्प है|

पता नहीं क्यों, भारतीय व्यवस्थाएँ भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस महत्वपूर्ण ’स्व’ के समुचित विकास एवं संवर्धन पर ध्यान ही नहीं दिया? यह तो एक तथ्य और सत्य है कि भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया, और यही उपेक्षा सामान्य भारतीय जन गण की वर्तमान दशा एवं दिशा के साथ परिणाम है|

यदि हमें फिर से ‘विश्व गुरु’ बनना है, विश्व के मानवता को आलोकित और प्रकाशित करना है, तो हमें इस पर  गंभीरता से, गहनता से और गहराई से वैचारिकी विमर्श कर भारतीय जन गण के ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना होगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

सोमवार, 22 सितंबर 2025

समता नहीं, समरसता प्राकृतिक स्वभाव है

कुछ लोग ‘समता’, ‘स्वतंत्रता’ एवं ‘बंधुता’ को ‘प्राकृतिक न्याय’ के अवयवी तत्व समझते हैं, मानते हैं| इसमें भी अधिकांश या बहुसंख्यक लोग ‘समता’ (Equality) एवं ‘समानता’ (Equity) पर ही बहुत अधिक जोर देते हैं| समाज में ‘समरसता’ (Harmony) की कहीं कोई चर्चा ही नहीं होती है| ‘समरसता’ को ही ‘समस्वरता’ भी कहते हैं, ‘सामंजस्यता’ भी कहते हैं, ‘शांतिपूर्ण एवं माधुर्यपूर्ण सहअस्तित्व’ भी कहते हैं, और ‘समुचित एवं पर्याप्त तालमेल’ भी कहते हैं| यही हमारे अस्तित्व को, हमारे विकास यात्रा को और हमारे भविष्य को आधार देता है, यही हमारे वर्तमान और भविष्य का ‘लांचिंग पैड’ है| ऐसी स्थिति में हमें ‘समता’ एवं ‘समरसता’ को समझना चाहिए| इसके साथ ही हमें संवैधानिक प्रावधानों को भी देखना चाहिए|

भारतीय संविधान का सभी मूल उद्देश्य इसकी ‘उद्देशिका’ (Preamble) में वर्णित है| यही भारतीय संविधान का ‘आधारभूत ढाँचा’ (Basic Structure) है, जिसके पूर्ति के लिए ही सभी तंत्र एवं व्यवस्था कार्यरत हैं| भारतीय संविधान में ‘’समता’ (Equality) शब्द तो है, परन्तु ‘समरसता’ (Harmony) शब्द उल्लेखित नहीं है| तब सहज एवं साधारण प्रश्न यह उभरता है कि संविधान के उद्देशिका में या संविधान के अनुच्छेदों में इतना महत्वपूर्ण अवधारणा क्यों और कैसे छूट गया, या जानबूझ कर नहीं लिखा गया? आपने भी ध्यान दिया होगा कि संविधान के किसी भी अनुच्छेदों, अनेक भारतीय अधिनियमों की धाराओं, नियमावली के नियमों या आदेशों में ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural Justice) के मूल एवं मौलिक तत्वों की चर्चा नहीं होती है| यह ‘प्राकृतिक न्याय’ की अवधारणा अपने विस्तृत एवं गहन रुप में ‘विधि एवं न्याय के सभी दर्शन’ में सर्व व्याप्त होता है| अर्थात यह कहीं भी लिखित नहीं होते हुए भी सर्व व्याप्त और अधि प्रभावी होता है| यह ‘न्याय का दर्शन’ (Philosophy of Justice) सभी विधानों का सार तत्व होता है| इसके बिना किसी भी न्याय को समुचित एवं पर्याप्त नहीं माना जा सकता है| शायद इसी कारण एवं मौलिक अन्तर्निहित स्पष्ट उद्देश्य से यह शब्द “समरसता” भी संविधान में कहीं भी अभिव्यक्त नहीं है|

भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ में ‘समता’ शब्द उल्लखित है, लेकिन यह साधारण एवं सामान्य ‘समता’ नहीं है| यह ‘समता’ अपनी दो विशिष्ट अवस्था के साथ है, अर्थात अपनी कुछ विशिष्टताओं के साथ है| यहाँ स्पष्ट लिखा हुआ है कि ‘प्रतिष्टा’ एवं ‘अवसर’ की समता’| अर्थात सभी को ‘प्रतिष्टा’ और ‘अवसर’ की समता’ सुनिश्चित किया गया है| इस बात से यह स्पष्ट होना चाहिए है कि ‘प्रतिष्टा’ और ‘अवसर’ की समता’ का आधार क्या है? इसका स्पष्ट उद्देश्य एवं सन्देश यह है कि प्रत्येक लोग को उनकी ‘योग्यता’ एवं ‘कुशलता’ के आधार पर ‘प्रतिष्ठा’ सुनिश्चित किया गया है| इसी तरह, उनकी ‘योग्यता’ एवं ‘कुशलता’ के आधार पर ‘अवसर’ की समता भी सुनिश्चित किया गया है| मतलब यह हुआ कि सभी को अपनी ‘योग्यता’ और ‘कुशलता’ को अपनी रुचि, क्षमता, एवं लगन के आधार पर विकसित करना है| लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई ‘विधि’ ही नहीं पढ़े और ‘समता के अधिकार’ के साथ न्यायिक अधिकारी बन जाय, या कोई चिकित्सा ही नहीं पढ़े और ‘समता के अधिकार’ के साथ चिकित्सक या चिकित्सा अधिकारी बन जाय| उसे अपेक्षित योग्यता और कुशलता हासिल करना ही करना होगा|

‘समरसता’ का अर्थ होता है कि सभी के बीच सामंजस्य हो, सहयोग हो, माधुर्य हो, और सभी अपनी क्षमता, योग्यता, कुशलता के साथ उस ‘योजना’ को सफल बनाएँ, जिसके वे तत्व हैं, अवयव हैं, घटक हैं| यह ‘योजना’ कोई भी ‘परियोजना’ हो सकता है, समाज हित का कोई ‘कार्य’ हो सकता है, राष्ट्र निर्माण का कोई ‘भावनात्मक कार्य’ हो सकता है, व्यापक मानवता के लाभार्थ कोई ‘वैचारिकी या कार्यान्वयन’ हो सकता है या किसी प्राकृतिक संरक्षण या संतुलन के लिए कोई विशद ‘आयोजना’ हो सकता है| सभी का उद्देश्य व्यापक मानवता के वर्तमान एवं भविष्य निर्माण की संकल्पना को साकार करना होता है|

यदि कोई चाहे कि एक यन्त्र या संयंत्र में सभी तत्व एक समान ही हो, यानि सभी एक जैसे समान ही हो, तो वह यन्त्र या संयंत्र कार्यरत हो ही नहीं सकता| यदि उसमे सभी लीवर ही हो, या सभी पुल्ली ही हो, तो वह यन्त्र या संयंत्र हो ही नहीं सकता है| यदि किसी कार में सभी यदि टायर ही हो, या सभी इंजन ही हो, या सिर्फ सीट ही हो, तो वह कार हो ही नहीं सकता| उस कार के सभी अवयवों, यथा इंजन, पहिया, सीट, गीयर आदि आदि में अवश्य ही कोई संयोजन हो, सामंजस्य हो, सहयोग हो और सभी अपनी क्षमता, योग्यता, कुशलता, एवं निश्चित दायित्वों का निर्वहन बिना किसी घर्षण के, बिना किसी बाधा के करे, तभी वह कार अपने उद्देश्य पूर्ति में सफल हो सकता है| यही स्थिति परिवार, समुदाय, समाज, राष्ट्र एवं मानवता सहित भविष्य निर्माण के लिए भी सही, समुचित एवं अनिवार्य है| यही समरसता है|

 मानव समाज में विविधता प्राकृतिक होती है और उसी में एकता, समरसता, सामंजस्य, एवं सहयोग भी आवश्यक है| मानव समाज में लिंग, प्रजाति, कार्य या पेशा, पोशाक, भोजन, रीति रिवाज, परम्परा, संस्कृति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र, इतिहास एवं भूगोल सहित जैवकीय ढाँचा एवं संरचनात्मक गठन के साथ  विविधता होती है| यह सब प्राकृतिक होता है और यह इतिहास एवं भूगोल के साथ ‘अनुकूलन’ (Adaptation) का ‘उदविकासीय (Evolutionary) परिणाम’ का उत्पाद होता है| यह ‘जीवितता’ (Survival) एवं ‘निरन्तरता’ (Contunuity) के लिए अनिवार्य तत्व है| यही विकास का आधार भी होता है|

इसीलिए ‘समता’ नहीं, बल्कि “समरसता” ही प्राकृतिक स्वभाव है, प्राकृतिक न्याय है, मानवता के समुचित एवं पर्याप्त विकास का वैज्ञानिक आधार है| इसे समझना है और इसे बनाए रखना है| यही निर्माण, रचना और अभिनवता (Innovation) की पृष्ठभूमि है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

 

सोमवार, 15 सितंबर 2025

भारत में राष्ट्र कहाँ हैं ...... ?

कुछ देशों में ‘राष्ट्र’ (Nation) किसी धर्म/ पन्थ में खोज लिया जाता है, तो कुछ देशों में राष्ट्र का आधार भाषा हो जाता है, कहीं भौगोलिक क्षेत्र भी आधार बन जाता है, आदि आदि ..। इसीलिए कुछ विद्वान राष्ट्र की अवधारणा (Concept) में, उसकी परिभाषा में और उसके आधार में इन्हीं तत्वों की जांच पडताल करता  हैं। लेकिन इन आधारों पर बहुत से बडे़ एवं प्रमुख देशों की राष्ट्रों की अवधारणा में समस्या आ जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, जनवादी गणराज्य चीन, रूसी संघ, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड, आदि अनेक देश इन अवधारणाओं में राष्ट्र की शर्तों में नहीं आता, लेकिन ये सभी सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र हैं| परन्तु इन आधारों पर भारत में राष्ट्र कहाँ है, यह एक बड़ा और गंभीर सवाल है?

‘राष्ट्र’ की अवधारणा को समझने के लिए एक ही अवधारणा काफी है, जिसे भूतपूर्व सोवियत संघ (वर्तमान रुसी संघ) के जोसेफ स्टालिन ने 1913 में अपनी लेख/ पुस्तक "Marxism and the National Question' में दिया । उनके अनुसार  "राष्ट्र एक ऐतिहासिक रूप से गठित, स्थायी मानव समुदाय है’। स्पष्ट है कि राष्ट्र लम्बे काल तक एक साथ रहने से उत्पन्न ‘ऐतिहासिक एकापन’ (Historical Oneness) की भावना है। इस तरह एक राष्ट्र भौतिक स्वरुप की कोई ठोस वस्तु नहीं है, अपितु यह एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Reality) है, जो काल्पनिक होते हुए भी एक वास्तविकता होती है। ‘राष्ट्र’ को एक ‘संस्था’ (Institution, not an Institute) समझा जा सकता है| एक संस्था के रुप सभी सम्बन्धित लोग इनसे भावनात्मक लगाव रखते हैं| इसीलिए एक राष्ट्र काल्पनिक होते हुए भी असंख्य लोगों को बहुत मजबूती से अपने साथ को जोड़ लेता है और वास्तविक की तरह अपने परिणामों में प्रभावशाली होता है|

यह सही है कि एक राष्ट्र के लिए एक ‘साझा भाषा’ (Common language), एक ‘साझा भौगोलिक क्षेत्र’ (Common territory, एक ‘साझा आर्थिक जीवन’ (Common economic life) एवं एक ‘साझा सांस्कृतिक मनोवृत्ति’ (Common psychological make-up) जैसे तत्व महत्वपूर्ण हैं| ये सब एक राष्ट्र को सहज और सरल ढंग से मजबूत बनाता है, लेकिन ये सभी तत्व एकसाथ इनके लिए अनिवार्य नहीं हैं। इजराइल 1948 से पहले एक देश (Country) और एक राज्य (State, not Province) नहीं था, लेकिन एक ‘राष्ट्र’ के रुप में अपनी भावनात्मकता की वास्तविकता में बहुत सशक्त रही| इजरायल 1948 में एक देश भी बना और एक राष्ट्रीय राज्य भी बना। यह भी सही है कि ‘बाजार की शक्तियाँ’ यानि ‘आर्थिक शक्तियाँ’ ही इतिहास बदलता रहता है और इसीलिए इन्हें ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ भी कहा जाता है। आज यही ‘बाजार की शक्तियाँ’ ही पूरे विश्व को एक नए किस्म के ‘राष्ट्र’ में बदल रहा है| स्पष्ट है कि एक राष्ट्र ‘एकापन’ (Oneness) की एक मानसिकता है, एक संस्कृति है, एक भावना है, एक अध्यात्म है।

जोसेफ स्टालिन द्वारा अवधारित राष्ट्र की अवधारणा (Concept)  ही यदि वैज्ञानिक, सही, पर्याप्त और समुचित है, तो भारतीय लोगो के लिए राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना उनकी जाति, धर्म, पन्थ, भाषा, क्षेत्र, आदि से गुंथी हुई है। यह अनुचित और गलत है| सामान्य भारतीय लोग अपनी भावनात्मक, आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक जुडाव अपनी जाति, सम्प्रदाय, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता, एवं स्थानीय परम्परा से ज्यादा रखते हैं। सामान्य भारतीय इन्हें ही राष्ट्र समझते हैं और मानते हैं| इन सामान्य भारतीयों में हमारे बड़े बड़े राजनेता गण, उच्चस्थ नौकरशाही, विश्विद्यालयों के प्रोफ़ेसर, परम्परागत मीडिया एवं अन्य बुद्धिजीवी गण भी शामिल हैं| सामान्य भारतीयों में राष्ट्र (राष्ट्रीयता) की भावना को उभारने एवं उसे सशक्त करने के लिए कागजी प्रावधानों के अतिरिक्त वास्तविक रुप में सजग, सतर्क, सशक्त एवं सहज प्रयास व्यवस्था द्वारा किया जाना समझ में नहीं आता है| इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) में ‘राष्ट्र की एकता एवं अखंडता’ की बात की है। इसमें देश, राज्य एवं प्रान्त की एकता एवं अखंडता की बात नहीं की गयी है।

भारत 1947 के पहले भी एक देश था और इसके बाद भी एक देश है। भारत 1947 के पहले भी एक राज्य नहीं था और उसके बाद ही एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बन सका| ऐसा इसलिए हुआ कि क्योंकि भारत में एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, एक स्थिर निवासित आबादी और व्यवस्था के लिए एक (ब्रिटिश) सरकार तो था, लेकिन सम्प्रभुता नहीं होने से राज्य नहीं था। भारत के ब्रिटिश काल में राष्ट्र की भावना उभरने लगी और तब भारत एक राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हुआ। इसीलिए भारतीय संविधान सभा को संविधान में अपने ‘उद्देश्य’ को ‘उद्देशिका’ में स्पष्ट करना पड़ा| लेकिन इसकी सफलता की मात्रा का मूल्यांकन आप कर सकते हैं।

भारत में ‘राष्ट्र की संस्कृति’ (Nation- Culture) ही नहीं है| प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग की अवधारणा में, भारत का ‘सामूहिक अवचेतन’ (Collective Un Consciousness) में राष्ट्र है नहीं| यदि प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता डेनियल कुहनमैंन (Thinking Fast and Slow के लेखक) के शब्दावली में भारतीय लोगों के ‘सिस्टम एक’ (System One) में राष्ट्र की अवधारणा नहीं है|

अब आप ही बताइए कि भारत में राष्ट्र को कहाँ खोजूं? 

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

रविवार, 14 सितंबर 2025

'हमारे लोग' में कौन कौन शामिल हैं

विभिन्न फोरमो पर यह बात अक्सर उठती रहती है कि ‘हमारी सांस्कृतिक विरासत’, ‘हमारी समस्याएँ’, ‘हमारे लोग’, ‘हमारे दुश्मन’, ‘हमारा इतिहास’, ‘हमलोग’  ... आदि आदि। एक बार बिहार के राजगीर में एक संगोष्टी सत्र में ‘उद्धाटन वक्ता’ के रुप में मुझे भी 'हमारी सांस्कृतिक विरासत' पर बोलना था। यहाँ मुझे तीन शब्द मिले - 'हमारी', 'सांस्कृतिक', एवं 'विरासत'। मेरे अनुसार मुझे लगा कि आगे बढने से पहले मुझे इन तीनों शब्दों से संरचित अवधारणाओं को स्पष्ट करना चाहिए। मैं यहाँ आपको सिर्फ ‘हमारी’ (WE) शब्द पर स्थिर करना चाहूँगा| मैं यहाँ शेष दोनों शब्दों 'सांस्कृतिक' एवं 'विरासत' को अभी छोड़ रहा हूँ| लोग किसी भी विषय पर बडी़ बड़ी और लम्बी लम्बी बातें तो कर लेते हैं, लेकिन उन्हें उन अवधारणाओं की स्पष्टता भी होनी चाहिए।

जब हम भाषा विज्ञान में शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों को अच्छी तरह से समझना चाहते हैं, तो हमें भाषा विज्ञान के कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं और उपकरणों (टूल्सों) को समझना होगा। इनमें दो - 'संरचनावाद' (Structuralism) और 'विखंडनवाद' (Deconstructionism) सबसे प्रमुख हैं।

स्विट्जरलैंड के भाषा विज्ञानी एवं दार्शनिक फर्डीनान्ड डी सौसुरे अपने ‘संरचनावाद’ में समझाते हैं कि प्रत्येक शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों की अपनी विशिष्ट एवं भिन्न भिन्न संरचना होती है, और इसीलिए एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के बदलते संदर्भ, परिस्थिति और समय में उनका अर्थ बदल जाता है। एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के सतही अर्थ भी होते हैं, और उसी के निहित अर्थ भिन्न हो जाते हैं। अर्थात एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ उसके बदलते संदर्भ, परिस्थिति और समय में उपलब्ध ढाँचा के अनुसार बदलता रहता है।

‘अर्थ’ (Meaning) समझने एवं समझाने की अगली कड़ी में फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरिदा अपने ‘विखंडनवाद’ में समझाते हैं कि एक लेखक या वक्ता के शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ लेखक या वक्ता के तो अपने होते हैं, परन्तु उन शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों के अर्थ पाठकों या श्रोताओं के अपने अपने होते हैं। मतलब यह हुआ कि लेखको और वक्ताओं के शब्दों, वाक्यों और वाक्यांशों के अर्थ एवं भाव इनके मानसिक स्तर, समझ और उनकी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) से निर्धारित होती है, लेकिन उसके अर्थ और भाव (Essence) उसके पाठकों एवं श्रोताओं के मानसिक स्तर, समझ और उनकी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ से निर्धारित होने के कारण भिन्न भिन्न हो जाता है। हमलोग अभी ‘हम’, यानि ‘हमारे’ या ‘हमारी’ शब्द के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं|

मैं अपने उस मंच से जब “'हमारी' सांस्कृतिक विरासत” की बात कह रहा था, तो श्रोता गण उस ‘हमारी’ का अर्थ अलग अलग समझ रहे थे| कोई 'हमारी' में अपनी जाति, कोई अपने ‘जाति समूह’ कोई अपने सम्प्रदाय, पंथ या धर्म, कोई अपने क्षेत्र, कोई अपने भाषा, कोई अपनी प्रजाति, कोई अपनी राष्ट्रीयता, कोई अपने देश के सन्दर्भ में ‘लोगों’ को शामिल कर या समझ रहा था। हमारे आपके जैसे लोग तो उस “हमारे” में अन्य लोगों के अतिरिक्त सन्दर्भ के सापेक्ष समस्त ‘मानवता’, ‘प्रकृति’ और ‘भविष्य’ को भी शामिल कर लेता है। आपने देखा कि एक ही शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ लेखक या वक्ता के तो अपने होते हैं, लेकिन उन्हीं के अर्थ एवं भाव पाठकों एवं श्रोताओं के अपने समझ के अनुसार अलग अलग ढाँचे एवं संरचना के संदर्भ में भिन्न भिन्न हो जाता है।

भारतीय संविधान का प्रथम शब्द ही ‘हमारे‘ (WE) की अवधारणा को स्पष्ट करता है| यह भारतीय संविधान की ‘उद्देशिका’ (Preamble) के प्रथम शब्द "हम, भारत के लोग" (WE, the PEOPLE of India) में निहित है| ध्यान रहे कि इस ‘हमलोग’ में भारत के समस्त लोग शामिल हैं| लेकिन इस ‘लोग’ के स्थान पर ‘नागरिक’ (Citizen) या ‘व्यक्ति’ (Person) शब्द प्रयुक्त नहीं है| ‘नागरिक’ कहने से ‘अ नागरिक’ (Non Citizen) छूट जाते हैं, और ‘व्यक्ति’ कहने में ‘कृत्रिम’ व्यक्ति (कम्पनी/ संस्थान आदि) भी शामिल हो जाते हैं, जो अनुचित है| ये सभी लोग भारत देश की भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत निवासित लोग हैं| लेकिन इनमे विश्व की शेष आबादी, यानि विश्व की 83 % आबादी इस ‘हमारे’ से बाहर रह जाती है|

लेकिन मैं तो ‘मेरे (अपने) लोग’ में और भी बहुत कुछ शामिल करता हूँ| यदि हमलोग ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) के सभी 17 ‘धारणीय लक्ष्य’ (Sustainable Goals) पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तो और बहुत कुछ स्पष्ट होता है| तब हमारे चिन्तन एवं हमारी समझ का ‘बहु आयामीय’ (Multi Dimensional) विस्तार हो जाता है| इससे उस ‘हमारे’ में सम्पूर्ण ‘मानवता’ (Humnity) और ‘प्रकृति’ (Nature) भी समाहित हो जाता है, ताकि मानवता का भविष्य और संवर्धित एवं सुरक्षित हो सके| बुद्ध के ‘हमारे’ (We) में मानवता, प्रकृति एवं भविष्य भी शामिल रहा है|  इसीलिए मेरे शब्द “हमारे” में ये सभी शामिल हैं|

और आपके ‘हमलोग’ शब्द की अवधारणा में कौन कौन शामिल हैं? बताइयेगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

महाभारत को अर्जुन ने कैसे जीता?

शिक्षक दिवस पर   ....... 

भारत में ‘महाभारत’ नाम का एक भयंकर युद्ध हुआ था| ऐसा युद्ध पहले नहीं हुआ था| नाम से भी स्पष्ट है कि इस युद्ध में भारत शामिल था, यानि तत्कालीन सम्पूर्ण भारत ने हिस्सा लिया था| ‘तथाकथित’ बुद्धिजीवियों से अनुरोध है कि वे इसकी ऐतिहासिकता की सत्यता पर अभी नहीं जाएँ| माना कि यह मिथक ही रहा हो, लेकिन मैं सिर्फ इसके मूल सन्देश पर ही जमा रहना चाहता हूँ, जो मुझे समझ में आया| यानि मैं आपको फिलहाल इसके मिथकीय होने या ऐतिहासिक होने के द्वन्द में लाना नहीं चाहता| मैं यहाँ आपको यह बताना चाहता हूँ कि कोई भी युद्ध कैसे जीत जाता है?

‘महाभारत’ है, तो इसके मूल में युद्ध है| पांडवों ने इस युद्ध को जीत लिया| इस युद्ध का महान योद्धा ‘अर्जुन’ ने पांडवों को जीत दिलायी| तो सवाल यह है कि महान अर्जुन इस युद्ध को कैसे जीत सका? उसने इस युद्ध को जीतने के लिए क्या किया, या क्या क्या किया? वह अपने किस हथियार के प्रयोग उपयोग कर उस महाभारत युद्ध को जीत सका? या अर्जुन की किस रणनीति ने उसे महाभारत का सफल नायक बनने दिया? यह तो स्पष्ट है कि अर्जुन अपने जीवन का सबसे भयंकर, कठिन एवं दुरुह युद्ध को अपने अल्प संसाधनों के साथ जीत लिया| लेकिन यह सब कैसे संभव हो सका? यदि आपको भी अपने जीवन का कोई भयंकर, कठिनतम और दुरुह युद्ध जीतना हो, तो आप कौन सा हथियार चलाएंगे, या कौन से रणनीति पर चलेंगे, जो आपको विजयी बनायेंगे? यह विश्लेषण एवं समझ आपके जीवन को बदल दे सकता है| वह कौन सी समझ होती है, जो एक झटके में ही सब कुछ उलट देता है?

यदि सभी चीजें, स्थितियाँ और परिस्थितियाँ भी एक ही समान हो, तो भी सिर्फ ‘नजरिया’ (Attitude), यानि ‘दृष्टिकोण’ (Perspective) बदल जाने मात्र से सारा खेल ही उलट जाता है| लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ क्या होता है, जो सारे खेल को पलट देता है? इसे हार्वर्ड विश्विद्यालय के भौतिकी एवं दर्शन के प्रसिद्ध प्रोफेसर थामस सम्युल कुहन ने अपनी पुस्तक ’’’The Structure of Scientific Revolution’ में ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ में बदलाव को ही ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (प्रतिमान बदलाव) (Paradigm Shift) कहा है| लेकिन यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ बनता एवं बदलता कैसे है, और यह बदलाव कहाँ से एवं कैसे आता है? यानि यह ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ विकसित एवं संवर्धित (Improve) कैसे किया जाता है? यानि इसे विकसित एवं संवर्धित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इस ‘नजरिया’ यानि ‘दृष्टिकोण’ को ‘दर्शन’ का ज्ञान एवं समझ ही बनाता एवं बदलता है, और यह बदलाव भी ‘दर्शन’ का ज्ञान एवं समझ से ही आता है|

थामस कुहन के इस पैरेड़ाईम शिफ्ट के सिद्धांत के अनुसार, अर्जुन को युद्ध जीतने के लिए बदलते हुए चीजॉ, स्थितियों और परिस्थितियों को सदैव समझना देखना था, और उस बदलाव के अनुकूल रणनीति में तत्काल ही पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता था| यदि यह किसी के जीवन की कोई सामान्य या असामान्य समस्या होती, तो भी इन समस्यायों के समाधान के लिए इसे एक बार देखना समझना होता और एक बार नजरिये में अवश्य ही पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता| जीवन के किसी भी समस्या के समाधान के लिए उन समस्यायों को यथास्थिति में देखना समझाना होता है| भारत में इस विधा को ‘दर्शन’ (Philosophy) कहते हैं, जिसका अर्थ होता है – देखना| अर्थात सम्यक रूप में उन समस्यायों को देखना एवं समझाना ताकि उन समस्यायों का समुचित समाधान पाया जा सके|

कोई भी समस्या मात्र इसलिए समस्या होती है, क्योंकि उसका अबतक कोई समाधान नहीं मिल रहा होता है| और कोई भी समाधान इसलिए नहीं मिल रहा होता है, क्योंकि उस समस्या को और उसके कारको एवं कारणों को यथास्थिति में, यानि वह समस्या वास्तव में जैसा है, उसे उसी अवस्था में पूरी समग्रता एवं व्यापकता में नहीं देखा समझा नहीं जा रहा है| किसी भी स्थिति, परिस्थिति, संरचना एवं ढाँचा को यथास्थिति में समग्रता और व्यापकता से देखना समझना ही ‘दर्शन’ है|

यदि आप सम्पूर्ण महाभारत को समझेंगे, और महाभारत के युद्ध को जीतने का कोई एक ही मूल, मौलिक एवं महत्वपूर्ण कारण या कारक खोजेंगे, तो आप स्पष्ट होंगे कि अर्जुन की पूरी सफलता उसके मात्र एक ही निर्णय में समाहित है| अर्जुन ने अपने युग के एक महान दार्शनिक श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में कर लिया और महाभारत का भयंकर एवं विनाशकारी युद्ध को जीत लिया| यदि आप कोई अन्य महत्वपूर्ण कारक खोजेंगे, तो शायद आपको इतना महत्वपूर्ण एवं मुख्य कोई अन्य कारक या कारण नहीं मिलेगा| दार्शनिक वह होता है जो समसयाओ का समाधान ढूंढने में सहायक होता है। यहाँ यह समझना बहुत महत्वपूर्ण होगा, इस दर्शन की समझ या ज्ञान कैसे प्राप्त किया अता है? और यह कैसे कार्य करता है? यह दर्शन ही जीवन की सभी समस्यायों का समाधान सुझाता या बताता है|

इसके लिए हमें दर्शन का अध्ययन करना चाहिए। दर्शन भी दो प्रकार का होता है| एक, अपने लिए, यानि जीवन की वास्तविकताओं को समझने के लिए, और दूसरा, दूसरों को ठगने के लिए, ऐसा भी कुछ लोगों का मानना है। जिस दर्शन का विषय वस्तु जीवन की वास्तविकताओं को देखने समझने का ज्ञान देना है, उस दर्शन के अनुयायियों ने जीवन की वास्तविकताओं में अन्य से बहुत आगे निकल गए है| दूसरों को ठगने वाला दर्शन जीवन की वास्तविकताओं को काल्पनिक बता देता है और इस जीवन के पार की काल्पनिक दुनिया को ही ‘वास्तविक’ बता देता है| मतलब, यह दूसरा दर्शन इस शरीर की आवश्यकताओं को ही नकार देता है और इस शरीर के अन्त यानि नष्ट हो जाने के बाद की मनगढ़ंत कहानियों में उलझा देता है| हालाँकि दर्शन के इस दूसरे पक्ष को, यानि शरीर के अन्त के बाद के जीवन को विज्ञान एकदम नहीं मानता|

वैसे मुझे इस दूसरे दर्शन को ही सही मानने पर भी मेरी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का समझ उनके चेतना के स्तर के अनुसार ही होता है| किसी भी समझ का आधार किसी का अज्ञानता भी हो सकता है और उसके ज्ञानता के विभिन्न स्तरों के अनुरूप भी हो सकता है| अकसर चतुर लोग दर्शन के दोनों ही स्वरुपों को एक साथ उपयोग एवं प्रयोग करते हैं – अपने लिए प्रथम दर्शन एवं दूसरों को ज्ञान देने के लिए दूसरा दर्शन, जो इस जीवन के पार का होता है|

अब आपको तय करना है कि आपको अपने इस वास्तविक जीवन की समस्यायों का समाधान चाहिए? या इस शरीर के मर जाने पर बतायी गयी काल्पनिक समस्यायों का समाधान चाहिए? अर्जुन ने महाभारत युद्ध को जीतने लिए अपने पक्ष में उस काल के सबसे बड़े दार्शनिक श्रीकृष्ण को चुना| 

निम्न स्तर के लोग सिर्फ अपनी पाँचों ज्ञानेनेद्रियों के मदद से ही सूचनाएँ प्राप्त करते हैं, और उस पर क्रिया या प्रतिक्रया दे सकते हैं| चेतना के विकास के विभिन्न चरणों यानि स्तरों के अनुसार कोई उन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त अपने मानसिक (Mental) स्तर से, कोई चैतसिक (Emotional) स्तर से और कोई अध्यात्मिक (Spiritual) स्तर से सूचनाओं को प्राप्त करता है| यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि उपरी स्तर के लोग निम्नतर सभी स्तरों के सूचनाओं को समाहित करता होता है| अर्जुन के सहयोगी दार्शनिक श्रीकृष्ण उपरोक्त वर्णित सभी स्तरों को अपने में समाहित किए हुए थे, इसीलिए श्रीकृष्ण अद्वितीय दार्शनिक हुए|

एक दार्शनिक का दर्शन दुनिया के सभी संयुक्त सेनाओं एवं हथियारों पर अकेले भारी पड़ता है| आपको यदि जीवन का जंग जीतना है, तो दर्शन को समझिए, दर्शन को पढ़िए, दर्शन का मनन मंथन कीजिए, और उसे व्यवस्थित भी कीजिए| अब आप अपने जीवन जंग को जीत चुके हैं| आप भी अर्जुन जैसा ही समझदार बनिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार| 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

समाज का आदर्श 'शिवाजी'

शिवाजी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना आज भी एक प्रेरणादायक उद्धरण है। मैं यहाँ शिवाजी के व्यक्तित्व मूल्याङ्कन के लिए एक सच्चे प्रसंग की प्रस्तुति कर रहा हूँ। यह घटना शिवाजी के ऐतिहासिक प्रत्यक्ष प्रभाव क्षेत्र की है। एक बार महाराष्ट्र के एक प्रमुख नगर में धार्मिक दंगा हो गया। विधि व्यवस्था को सामान्य करने के लिए प्रशासन को उस नगर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। इस प्रशासनिक प्रयास के साथ बहुत जल्द ही उस नगर का जनजीवन फिर से सामान्य हो गया। पुन: सभी कार्यालय, शिक्षण संस्थान, व्यवसायिक प्रतिष्ठान एवं साधारण जन जीवन सामान्य हो गया| विश्व विद्यालय के भी कार्यालय सामान्य एवं दैनिक कार्यो के लिए संचालित होने लगे।

सामान्य अवस्था आने के बाद मुस्लिम सम्प्रदाय की एक लडकी विश्व विद्यालय में परीक्षा संबंधित कार्य के लिए आवेदन प्रपत्र जमा करने गयी हुई थी। उसी समय उस नगर में फिर से दंगा भड़क गया। प्रशासन ने उपचारात्मक प्रयास में एक बार फिर से तत्काल उस नगर में कर्फ्यू लगा दिया। उस विश्व विद्यालय की अवस्थिति नगर के एक बाहरी किनारे पर थी और उस लड़की का घर उस नगर के दूसरे किनारे पर था। चूंकि उस लडकी का घर उस विश्व विद्यालय से बहुत दूर था, इसलिए उस कर्फ्यू में उस लडकी का तत्काल अपने घर लौट पाना संभव नहीं था।

विश्व विद्यालीय क्षेत्र चूंकि नगर के बाहरी क्षेत्र में था, इसलिए वह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ नहीं था। वह लडकी शाम तक निकटस्थ झाडियों में छिपी रही। शाम का अधेरा घिर आया। लम्बी रात में सुरक्षा के साथ साथ भूख प्यास भी सताने लगी। कर्फ्यू के सन्नाटे अब उसे डराने लग गयी थी। घरों की खिड़कियाँ एवं दरवाजे बंद थे, क्योंकि कर्फ्यू में खिड़कियों और दरवाजों को खोले रखने की अनुमति नहीं होती है। डरी, घबरायी और सहमी हुई उस लडकी को आगे कुछ सूझ नहीं रहा था। वह बचते बचाते निकटस्थ आवासीय मकानों के पास पहुँच गयी| वह विद्यार्थियों के लिए किराये पर उपलब्ध सामान्य निजी मकान थे, जिन्हें सामान्यत: लौज कहते हैं|

उन्हीं लौजों के एक बन्द खिड़की से कुछ आवाज आ रही थी। उसने हिम्मत करके एक बन्द खिडकी के एक सुराख से अन्दर कमरे में झांकी। वह कुछ विद्यार्थियों का आवासीय लौज था। उस कमरे के एक सरसरी मुआयने में उसने पाया कि उस कमरे में महान हृदय सम्राट शिवाजी की एक शानदार फ्रेम्ड फोटो लगी हुई थी। वह लडकी तुरन्त समझ गयी कि उस कमरे में रहने वाले छात्रों की टोली शिवाजी के आदर्शो पर चलने वाले लोगों की है। अब वह संतुष्ट हो गयी कि वह सही जगह पहुँच गयी है। जिन लोगों का जीवन आदर्श शिवाजी हों, वे लोग असाधारण राष्ट्रीय भावना के लोग होते हैं, ऐसी उस लडकी धारणा थी। उस लडकी ने उसके दरवाजे को एक बड़ी आशा के साथ खटखटायी।

दरवाजा खुला। उन विद्यार्थियों ने उस लडकी को तुरन्त दरवाजे के अन्दर ले लिया गया, क्योंकि बाहर कर्फ्यू में रात्रि का सन्नाटा था और दरवाजे खोलने की अनुमति नहीं थी। अन्दर आते ही लडकी ने राहत की सांस ली। उस दिनों इंटरनेट का उपयोग सामान्य नहीं हुआ था और मोबाईल के संचार में खर्च ज्यादा होने से यह भी सामान्य मध्यम वर्ग के लिए महंगा था| उन दिनों मोबाईल में आउटगोईंग काल के साथ ही इनकमिंग काल पर भी समय के सेकंड के अनुसार रुपए लगता था। उस लड़की को वहाँ कर्फ्यू के समाप्त होने तक लगातार रुकना पड़ा। तीन दिनों का समय कट गया। कर्फ्यू समाप्त होने के साथ उस लडकी को रिक्शा पर बैठाकर उसके घर ले जाया गया।

बेटी को सुरक्षित और संरक्षित देख कर उसका परिवार और समाज भाव विह्वल था। उसने अपनी पूरी कहानी परिवार को सुनायीं, जो मीडिया के माध्यम हमलोगों तक आया।

जिस व्यक्तित्व का चित्र मात्र किसी के लिए जीवनदायिनी हो सकता है, तब उनके वास्तविक साम्राज्य के समय  शासन के विभिन्न आयामों को भी देखा, समझा और अनुभव किया जा सकता हैं। वह किसी के लिए मात्र एक चित्र हो सकता है, लेकिन वह चित्र मात्र अपने विचारों, आदर्शों एवं ऐतिहासिक विरासत के सन्देश को अविरल प्रवाहित करता होता है। शिवाजी का चित्र मात्र ही समाज में एक विश्वास, आदर्श और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाता होता है| उस व्यक्तित्व ने अपना जीवन उस महान आदर्शो के साथ जिया है, जिस यथार्थता को वहाँ के सभी समाज ने भी नजदीकी से अनुभव किया एवं समझा है। ऐसा व्यक्तित्व तो सभी महान समाजों के लिए आदर्श और अनुकरणीय होता है। शिवाजी का वह चित्र उनके सम्पूर्ण जीवन चरित्र की ‘संरचनात्मक’तत्वों के ढाँचे’ (Frame work of Structural elements) की अभिव्यक्ति है, जिसे प्रसिद्ध भाषाविद फर्डीनांड डी सौसुरे ने “संरचनावाद”  (Constructionism) में समझाया है| एक शब्द, एक वाक्य, एक चित्र, एक मूर्ति एवं एक प्रतीक भी अपने संरचनात्मक ढाँचे की अभिव्यक्ति होता है, जो एक ही साथ बहुत कुछ कहता होता है|

किसी भी समाज एवं राष्ट्र की मानसिकता, यानि उसके नजरिए (Attitude) निर्धारण एवं निर्माण ऐसे ही होता है| यही मानसिकता यानि नजरिया ही उसके संस्कृति (Culture) का निर्माण और संस्कृति में परिवर्तन करता रहता है। शिवाजी के शासन काल की अनुभूतियों के वर्णन एवं विवरण ही किसी समाज में मिथक और इतिहास के रूप में मौजूद रहता है| यही मिथक और इतिहास कालांतर में संस्कृति को आकार (Shape) देता है, ढालता है। आम समाज के “सामूहिक अवचेतन” (Collective Un consciousness) में शिवाजी के विचार एवं कार्य स्थापित है। इस “सामूहिक अवचेतन” की अवधारणा को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने दिया| अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेनियल कुह्नमैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "थिंकिंग फास्ट एंड स्लो" में इसे ही “सिस्टम एक” (System One) कहा है, जो स्वचालित रूप में तेजी से काम करता है। उस लडकी में उस समाज की “सामूहिक अवचेतन” में स्थापित धारणा ने उसे ऐसा करने को दिशा निर्देशित किया और स्वीकृति दी| समाज के इसी “सामूहिक अवचेतन” को उस समाज की संस्कृति कहा जाता है, जिसे कोई उस समाज में रह कर अवचेतन में सीखता है| उस लड़की ने शिवाजी का चित्र को देख कर अपने “सिस्टम एक” के साथ शिवाजी के सम्बन्ध में ‘स्वचालित रूप’ में तुरंत निर्णय लिया। इस सबके पीछे उस समाज की संस्कृति रही, जिसे कोई भी उस समाज में रह कर स्वत: सीखता रहता है|

प्राचीन काल एवं मध्य काल में यह राज्य क्षेत्र विभिन्न नामो से जाना गया। सिर्फ एक समय यह क्षेत्र ‘राष्ट्र’ के नाम ‘राष्ट्रकूट’ से जाना गया, लेकिन पहली बार शिवाजी के नजरिए ने इस क्षेत्र को एक महान राष्ट्र बनाने की संकल्पना – ‘महाराष्ट्र’ के साथ आयी| भारत की प्राचीनतम भाषा पालि एवं प्राकृत में इस क्षेत्र को ‘महरट्ठ’ कहा जाता था। संस्कृत भाषा एक सुसंस्कृत, यानि सु संस्कारित भाषा है, जो ‘संस्कृत’ शब्द से स्वत: ही स्पष्ट होता है| यह संस्कृत पालि की संस्कारित भाषा है| शिवाजी ने अपने साम्राज्य काल में इस प्रभाव क्षेत्र को ‘महाराष्ट्र’, यानि ‘महान’ ‘राष्ट्र’ कहा। आप समझ सकते हैं कि शिवाजी की भावना अपने राज्य क्षेत्र को एक महान राष्ट्र के रुप में स्थापित करना था। उनके पचास साल की कम आयु में ही चले जाने के कारण उनका राज्य क्षेत्र उत्तर के उतुंग हिमालय और दक्षिण में हिन्द महासागर तक नहीं जा सका, जो एक महान और दूरदर्शी महाराज शिवाजी का सपना रहा। उनका महान राष्ट्र का भौगोलिक क्षेत्र वर्तमान महाराष्ट्र के प्रान्तीय क्षेत्र तक ही सिमट कर रह गया।

यहाँ यह ध्यान रहे कि एक ‘राष्ट्र’ अपनी संरचनात्मक गुणवत्ता, प्रकृति, अर्थ एवं स्वरुप में एक ‘देश’, ‘राज्य’ एवं ‘प्रान्त’ से पूर्णतया भिन्न होता है| यह भी ध्यान रहे कि भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में ‘राष्ट्र’ (Nation) की एकता एवं अखंडता की बात की गयी है, किसी ‘देश’ (Country), ‘राज्य’ (State) या ‘प्रान्त’ (Province) की एकता और अखंडता की बात नहीं की गयी है| ‘राष्ट्र “ऐतिहासिक एकापन” (Historical Oneness) की स्थायी भावना है|’ यह अवधारणा जोसेफ स्टालिन की है| जिस राष्ट्रीयता की भावना के महत्त्व को भारतीय संविधान सभा ने बीसवीं सदी में समझा, उसे शिवाजी ने तीन शताब्दी पहले ही स्थापित करना चाहा था| उनका महान राष्ट्र आज विश्व गुरु होता है, जिसमे सभी को न्याय, समता, स्वतंत्रता, बंधुता, समृद्धि, शांति एवं सुखमय जीवन का परिवेश मिलता होता| इस रूप में भी शिवाजी महान थे|

उनके ‘हिन्दवी राज्य’ की अवधारणा को लोग और इतिहासकार ढंग से समझ नहीं पाए हैं। इसे ‘हिन्दुओं के राज्य’ के रुप में व्याख्यापित किया जा रहा है, जबकि उस काल तक ‘हिन्दू’ सिर्फ एक भौगोलिक शब्दावली थी, और किसी भी रुप में धार्मिक नहीं था| मध्य काल में ‘हिन्द’ की अवधारणा एक भौगोलिक वास्तविकता तक और ‘हिन्दू’ की अवधारणा सिर्फ एक सामाजिक वास्तविकता तक ही सीमित रहा और उसका प्रतिनिधित्व करता रहा। हिन्दुओं के सामान्य वर्ग पर एक धार्मिक कर – जजिया’ लिया जाता था, लेकिन एक अन्य सामाजिक वर्ग पर यह नहीं लिया जाता था| स्पष्ट है कि ‘हिन्दू’ शब्द उस समय तक धार्मिक नहीं था| सन 1893 के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में किसी भी ‘हिन्दू धर्म’ का प्रतिनिधित्व नहीं हुआ था। उसमें भारत से सिर्फ ‘ब्राह्मण धर्म’ ही शामिल हो पाया था, देखें अन्य प्राधिकृत स्रोत। स्वामी विवेकानंद जी को ‘शूद्र वर्ण’ के सदस्य होने के कारण वहाँ भारत की ओर से कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। उन्हें श्रीलंका के बौद्ध धर्म के रुप में प्रतिनिधित्व मिला, जिसने भारतीय धर्म, यानि भारतीय संस्कृति की वैश्विक डंका बजायी थी। फिर से स्पष्ट रहे कि उस समय तक ‘हिन्दू’ शब्द धार्मिक अर्थ या अवधारणा ग्रहण नहीं किया था। हिन्दू शब्द का सफ़र भौगोलिक से शुरु होकर सामाजिक होते हुए बीसवीं शताब्दी में धार्मिक तक तय किया| इस सफर की कहानी एक अन्य आलेख में उपलब्ध है| अत: ‘हिन्दवी’ शब्द कदापि हिन्दू धर्म से सम्बन्धित नहीं है| ‘हिन्दवी’ शब्द का धार्मिक उपयोग एवं प्रयोग कुछ स्वार्थी, कुछ नादान और कुछ चतुर लोग करते हैं, कोई भी राष्ट्र भक्त एवं मानवता के पुजारी नहीं करता है|

अतः ‘हिन्दवी राज्य’ ‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं था, बल्कि यह ‘हिन्द’ के लोगों का अपना (स्व) राज्य’ था। सामान्य लोगों और इतिहासकारों में यह अवधारणात्मक त्रुटि इस कारण आती है, क्योंकि सामान्य लोग और इतिहासकार भी ‘इतिहास के गुरुत्वीय ताल’ (Gravitational Lensing of History) को नहीं समझते हैं।

इसी तरह शिवाजी के सम्बन्ध में कई ऐतिहासिक भ्रांतियाँ है, जिसे मैं आगे कभी स्पष्ट करूँगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया

यदि कोई भी सामान्य प्रबुद्ध ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ और उसके ‘स्व’ को देखना समझना और इन दोनों के परस्पर संबंधों का एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना च...