यदि कोई भी सामान्य प्रबुद्ध ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ और उसके ‘स्व’ को देखना समझना और इन दोनों के परस्पर संबंधों का एक आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहे, तो उन्हें यह स्पष्ट होगा कि “भारतीयों को ‘स्वतंत्रता’ मिलने के साथ उनका ‘स्व’ उनसे दूर होता गया|” अर्थात उन्होंने अपने ‘स्व’ पर ध्यान ही नहीं दिया, उस पर कोई वैचारिकी विमर्श ही नहीं किया और उसे उपेक्षित छोड़ दिया| ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ एवं इससे भारतीय परिवार, समाज, ‘राष्ट्र’, मानवता और ‘भविष्य’ को क्या क्या क्षति हो रहा है?
इसके लिए हमें इसके मूल तत्वों एवं मौलिक अवधारणाओं (संकल्पनाओं)
को समझना चाहिए| मैंने उपरोक्त शीर्षक में ‘स्वतंत्रता’ (Liberty/ Freedom)
एवं ‘स्व’ (Self) - दो शब्दों का उपयोग किया है| संभवत: हम सामान्य जन गण
इन्हीं तत्वों एवं संकल्पनाओं को सामान्य एवं आलोचनात्मक दृष्टिकोण से नहीं समझते
हैं, और इसीलिए हमारी सभी समस्यायों की ‘जड़’ भी इसी से सम्बन्धित यथार्थ है|
‘स्वतंत्रता’ एवं ‘स्व’ शब्द अपने सन्दर्भ (Reference) बदलने से, अपनी पृष्ठभूमि (Background) बदलने से, और अपने ढाँचा (Framework) तथा संरचना (Structure) बदलने से अपने अर्थ को कभी ‘सतही’ (Superficial) बना देते हैं, तो कभी उसके निहितार्थ’ (Implied) को ही बदल देते हैं, जबकि उसका ‘आशय’ (Essence) कुछ और भिन्न भी हो सकता है| भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) में अंग्रेजी में ‘Liberty’ लिखा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ किसी पूर्व के बंधन से ‘मुक्ति’ ज्यादा होता है, लेकिन उद्देशिका में ‘स्वतंत्रता’ लिखा गया है| इसी तरह भारतीय संविधान के भाग तीन के मूल अधिकारों में अंग्रेजी के ‘Freedom’ के लिए हिंदी में ‘स्वतन्त्रता’ लिखा गया है| यहाँ मैं ‘Liberty’ और ‘Freedom’ के विवाद में नहीं जा कर अपने को सिर्फ ‘स्वतन्त्रता’ तक ही सीमित रहता हूँ|
‘स्वतंत्रता’ एक ऐसा ‘तंत्र’ (System) देता है, जो उसके ‘स्व’ से कल्पित,
निर्देशित, नियमित, निर्धारित, संचालित एवं प्रभावित होता है, या होता रहता है| कोई
भी ‘तंत्र’ व्यक्तिगत हो सकता है, परवारिक हो सकता है, सामाजिक हो सकता है,
सांस्कृतिक हो सकता है, राष्ट्रीय हो सकता है, वैश्विक हो सकता है, प्रशासनिक हो
सकता है, राजनीतिक हो सकता है, आर्थिक हो सकता है, या ‘स्व’ को विकसित करने वाला
हो सकता है, आदि आदि कुछ भी हो सकता है|
कोई
भी एक ‘तंत्र’ को तो बहुत साधारण ढंग से समझ सकता है, लेकिन ‘स्व’ एक व्यापक, गहरा
और विस्तृत संरचना का एक ‘गूढ़’ संकल्पना है| एक ‘स्व’ में एक व्यक्ति शामिल होता
है, एक व्यक्तित्व शामिल होता है| ‘स्व’ का अस्तित्व ‘पदार्थ’ (Matter/ Particle)
स्वरुप में भी होता है, ‘उर्जा’ (Energy) स्वरुप में भी होता है और ‘बल’ (Force)
स्वरुप में भी होता है| ‘पदार्थ’ स्वरुप में व्यक्ति का शरीर (Body) और मस्तिष्क (Brain)
होता है, ‘उर्जा’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘मन’ (Mind) और ‘भावात्म’ (Spirit) होता
है, एवं ‘बल’ स्वरुप में व्यक्ति का ‘आध्यात्मिक शक्ति’ (Spritual) से सम्बन्ध
होता है| व्यक्ति के शरीर एवं मस्तिष्क को एक सामान्य आदमी अपनी सामान्य
ज्ञानेन्द्रियों से देख, समझ एवं महसूस करता है, और यही शरीर एवं मस्तिष्क किसी भी
व्यक्ति के सभी अस्तित्व का मूल एवं मौलिक आधार होता है|एक व्यक्ति का शरीर ही उसकी भौतकीय उपलब्धियों का साधन होता है।एक व्यक्ति का मस्तिष्क
उसके शरीर, मन, भावात्म एवं अनन्त प्रज्ञा के लिए ‘अधिमिश्रक’(Modulator) होता है| व्यक्ति
का ‘मन’ उसके ‘वैचारिकी’ (Thought) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता है|
व्यक्ति का ‘भावात्म’ उसकी भावनाओं (Emotion) का उत्पादन एवं नियमन का तंत्र होता
है| व्यक्ति का ‘अध्यात्म’ उस व्यक्ति के ‘स्व’ को, उसके ‘आत्म’ (स्व/ Self) को ‘अनन्त
प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) से जोड़ता है, और उसे इससे बहुत से ‘आभासीय ज्ञान’
(Intuitive Intelligence) आते रहता हैं| इस ‘आभासीय ज्ञान’ से मानवता सदैव लाभान्वित
हुआ है, और आगे भी लाभान्वित होता रहेगा| इस ‘स्व’ में एक व्यक्ति का हार्डवेयर और
साफ्टवेयर, दोनों ही समाहित हो जाता है| अब हम अपने ‘स्व’ की संरचना समझ गये हैं
और हमें इसी ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना है|
यदि हमें व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता या प्रकृति सहित भविष्य का निर्माण करना है, तो इसकी शुरुआत मात्र ‘स्व’ से ही हो सकता है, चाहे वह ‘स्व’ मेरा हो, या किसी और का| ‘स्व’ से ही ‘स्व विवेक’ होता है, ‘स्व तंत्र’ होता है, ‘स्व देशी’ होता है, ‘स्व चेतना’ होता है, ‘स्व बल’ यानि ‘आत्म बल’ होता है| मानव में ‘स्व’ की संकल्पना समय के विकसित होती रही है, और आगे भी जारी रहेगा, लेकिन इसके लिए सजग, सतर्क, सतत एवं सौद्देश्य प्रयास अपेक्षित होता है|
इसी ‘स्व’ में एक व्यक्ति
के भूतकाल का अनुभव एवं संस्मरण समाहित होता है, जिसे ‘संस्कृति’ कहा जाता है| इसी
‘स्व’ में समाज का ‘सामूहिक अवचेतन’ होता है| इसी ‘स्व’ में वर्तमान की भूमिका और
भविष्य के लक्ष्य शामिल होते हैं| इसे ही ‘चेतना’, ‘आत्म’ या ‘व्यक्ति’ कहते हैं|
इसी ‘स्व’ का विकास करना, संवर्धन करना हमारे जीवन का लक्ष्य है, उद्देश्य है| एक
सामान्य पशु या स्तनपायी और एक सामान्य मानव में अन्तर इसी ‘स्व’ की मात्रा एवं
गुणवत्ता के अन्तर से होता है| इसी ‘स्व’ को कोई उसका ‘चेतना’ या ‘आत्म’ या ‘व्यक्तित्व’
कहता है| ‘स्व’ के इसी स्तर एवं गुणवत्ता के कारण मानव जीवन में संवेदना, भावना,
हर्ष या कष्ट के स्तर का अन्तर होता है|
यदि
हम ‘विकास’ (Development) की वर्तमान एवं आधुनिक संकल्पना का ध्यान करते हैं, जिसे
‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) के साथ वैश्विक स्वीकार्यता मिली हुई है,
वह संकल्पना भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की है और इसके लिए उन्हें
1998 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला है| इसने ‘विकास’ के लिए व्यक्ति के ‘सक्षमता
उपागम’ (Capability Approach) के उन्नयन एवं संवर्धन की बात किया हैं| यह व्यक्ति
के ‘स्व’ का ऐसा निर्माण कार्य है कि वह व्यक्ति वृहद् समाज को योगदान करने के लिए
सक्षम बन सके| यह सक्षमता किसी व्यक्ति के ‘स्व’ के स्तर एवं गुणवता के उन्नयन एवं
संवर्धन से ही आ सकता है|
अभी
तक वैश्विक जगत में लगभग सभी अविकसित एवं लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएँ लोगों के कल्याण
एवं सेवा सहायता के नाम पर ‘धन’ का दान एवं अनुदान देकर उनकी ‘आय’ बढ़ा कर उनके विकास
करने का नाटक करती रही है| इससे सामान्य जन का ‘स्व’ विकसित एवं संवर्धित नहीं
होता है| इस ‘धन वितरण’ कार्यक्रमों से सरकारें अपने पक्ष में तो वोट बढ़ा सकती हैं,
विकास का आभास दिला सकती है, लेकिन वास्तविक विकास एवं वास्तविक जन कल्याण नहीं कर
सकती है| वास्तविक विकास, वास्तविक जन कल्याण एवं वास्तविक राष्ट्र निर्माण के लिए
हमें सामान्य जन गण के ‘स्व’ के उत्पादन क्षमता का उन्नयन, विकास, और संवर्धन करना
ही एकमात्र विकल्प है|
पता
नहीं क्यों, भारतीय व्यवस्थाएँ भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस महत्वपूर्ण ’स्व’ के
समुचित विकास एवं संवर्धन पर ध्यान ही नहीं दिया? यह तो एक तथ्य और सत्य है कि
भारतीय स्वतन्त्रता के बाद इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया, और यही उपेक्षा
सामान्य भारतीय जन गण की वर्तमान दशा एवं दिशा के साथ परिणाम है|
यदि
हमें फिर से ‘विश्व गुरु’ बनना है, विश्व के मानवता को आलोकित और प्रकाशित करना
है, तो हमें इस पर गंभीरता से, गहनता से
और गहराई से वैचारिकी विमर्श कर भारतीय जन गण के ‘स्व’ को विकसित एवं संवर्धित करना
होगा|
आचार्य प्रवर निरंजन जी
दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|
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