शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

शाहदत देना समझदारी नहीं है

इस आलेख का शीर्षक थोडा अटपटा हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए था| खैर, शहादत एक बहुत ही सम्मानजनक अवधारणा है| आखिर इसमें किसी के जीवन का अन्त हो जाता है| चूँकि विज्ञान पुनर्जन्म नहीं मानता है, इसलिए उसके एकलौते जीवन का समापन हो जाना एक बहुत ही असाधारण घटना होती है| ऐसी अवस्था में किसी की शहादत बहुत ही सम्मानीय अवस्था होनी ही चाहिए|

किसी भी समाज या संस्कृति में 'शहादत दे देना' या 'शहादत का हो जाना' बहुत ही सम्मानीय स्थिति होती है, लेकिन उस समाज या उस संस्कृति के कुछ लोगों की प्रवृति और प्रकृति इसके विपरीत होती है| ऐसा क्यों होता है? यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता रहता है| शायद आपको भी परेशान कर दे, लेकिन मेरा उद्देश्य किसी को भी परेशान करना नहीं है| सवाल यह है कि जब शहादत इतना सम्मानजनक होता है, तो उस समाज और उस संस्कृति के अग्रणी लोग, समृद्ध लोग, उच्च स्तरीय बौद्धिक लोग, उच्च स्तर के अधिकारी गण, राजनीतिक नेता एवं दिव्य लोग इस शहादत में बहुत पीछे क्यों रह जाते है? शायद मैंने कुछ गलत कह दिया है| ये लोग शहादत के कतार में पीछे ही नहीं होते, ये लोग शहादत की कतार में कहीं भी दूर दूर तक नहीं होते|

एक फिल्म का एक प्रसंग है| दो देशों में युद्ध हो रहा था| अवश्य ही उसमे राष्ट्रीयता की भावना उभार पर होगा| उस युद्ध में दो भाई भी शामिल थे| चूँकि दोनों भाई थे, इसलिए भी उनमे बहुत जुड़ाव था| उनमे एक को युद्ध के मोर्चे पर शहादत प्राप्त हो गया| जब दूसरे भाई को यह सब मालूम हुआ, तो यह बदला लेने के लिए उग्र और आक्रोशित हो गया| वह युवा अपने ‘जोश’ के उच्चतम उभार में था, लेकिन उसने अपना ‘होश’ खो दिया था| जब वह अपने आक्रोश और अपनी उग्रता को सम्हाल नहीं पा रहा था, तो उसके कमांडर ने उस उतावले को एक करारा तमाचा जड़ दिया| वह घबरा कर बैठ गया कि शहादत देना उनको अच्छा क्यों नहीं लग रहा?

वह सोचने लगा कि उसे भी शहादत मिलती और इस प्रक्रिया में वह अपने भाई का बदला भी तो ले लेता| उसके कमान्डर ने उससे कहा, 'तुम्हारी शहादत हमारा लक्ष्य नहीं है'| तुम पर इस राष्ट्र ने बहुत समय, संसाधन, उर्जा और वैचारिकी का निवेश किया है| यह सिर्फ तुम्हारे शहादत को पाने के लिए नहीं, बल्कि इस युद्ध को जीतने के लिए किया गया है| यह पशुओं की प्रवृति होती है कि वह सिर्फ 'रिफलेक्स तंत्र' द्वारा ही प्रतिक्रिया देता है, वह कोई और मानसिक प्रक्रिया नहीं करता है| तुम भी बिना सोचे समझे बेचैन हो गये हो| शायद उसका कमान्डर उसे ‘शहादत देने’ और ‘शहादत पाने’ में अन्तर समझा रहे थे| लेकिन मुझे यह अन्तर समझ में नहीं आया|

प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है, ‘अन्याय को मिटाओ, लेकिन अपने आप को मिटा कर नहीं’| इतना असाधारण वाक्य किसी असाधारण लेखक ने क्यों लिखा? क्या वे यह चाहते थे कि लोग शहादत नहीं दें, या कोई और गूढ़ बात कह रहे थे; जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ| ऊपर के प्रसंग में कमान्डर भी कुछ ऐसा ही कहना चाह रहा था| शायद ये लोग विचारों की अदम्य शक्ति को रेखांकित करना कहते थे| शायद ये लोग शारीरिक शक्ति की सीमा को समझते थे| ये वैचारिक शक्ति, यानि मानसिक शक्ति के संवर्धन और सामर्थ्य को समझाना चाहते हो| गूढ़ एवं गहरा विचार ही किसी भी रणनीति का सार (Essence) होता है| इसी सार को ही बौद्धिक भाषा में ‘दर्शन’ भी कहते हैं|

विक्टर ह्यूगों ने भी कहा है कि “जब उपयुक्त समय आता है, तब विचारों की शक्ति तत्कालीन विश्व की सभी सेनाओं की संयुक्त शक्ति से भी ज्यादा भारी होता है|” तब यह भी कहा जा सकता है कि विचारों का कभी भी कोई उपयुक्त समय आता है, या नहीं भी आता है, लेकिन यदि जब विचारों को उपयुक्त बना लिया जाय, तो वह ‘उपयुक्त विचार’ दुनिया समस्त सेनाओं को भी हरा देगा| बात यह हो या नहीं हो, यह तो स्पष्ट है कि विचारों में अदम्य शक्ति होती है| जब विचारों में अदम्य शक्ति होती है, तब शारीरिक शहादत देने के पीछे कौन लोग भाग रहे हैं?

तब शारीरिक शहादत या तो दुर्घटनाओं में हो जाती है, या उनकी प्राथमिकताओं में आ जाती है. जिनको विचारों की शक्ति पर भरोसा नहीं होता है| बौद्धिक लोग विचारों की शक्ति पर विश्वास करते हैं| ज्यादा बौद्धिक लोगों को ही दार्शनिक कहते हैं, क्योंकि वे दार्शनिक लोग बौद्धिकता के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं| दार्शनिक शताब्दियों या सहत्राब्दियों की स्थापित मान्यताओं, मूल्यों, और संस्कृतियों को उलट देते हैं| कम चिन्तनशील लोग शहादतों की तैयारी करते हैं| ज्यादा चिन्तनशील लोग जीतने की तैयारी करते हैं| आपने भी देखा होगा कि सामान्य किस्म के लोग शहादतों के आंकड़ों पर ज्यादा बौद्धिकता प्रदर्शित करते हैं|

अन्त में, एक ‘महा’ ‘राष्ट्र’ नायक, जिसने इस भारत में राष्ट्रीयता की भावना का वास्तविक एवं जमीनी शुरुआती आधार दिया, महान शिवाजी की चर्चा के बिना यह आलेख अधूरा ही रहेगा| अपने सीमित एवं अल्प संसाधनों के साथ विशाल मुग़ल साम्राज्य के विरुद्ध एक महान राष्ट्र का नींव डालकर एक आदर्श स्थापित कर दिया| वह क्षेत्र तो आज भी ‘महाराष्ट्र’ के नाम से जाना जाता है| ध्यान रहे कि मैंने किसी देश (Country) की बात नहीं की, क्योंकि एक देश राजनीतिक सीमाओं से ही बँधा होता है| लेकिन एक राष्ट्र (Nation) उस भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ाव रखने वाले लोगों से बना होता है| इसी ऐतिहासिक एकापन की भावना को जोसेफ स्टालिन राष्ट्र कहते हैं| तब यह क्षेत्र मात्र एक ‘राष्ट्र’ ही नहीं बना, बल्कि ‘महाराष्ट्र’ बन गया| भारत आज भी एक मजबूत 'राष्ट्र' नहीं बन पाया है, और इसीलिए भारतीय संविधान की उद्देशिका में ‘राष्ट्र’ की ‘एकता एवं अखंडता’ की बात की गयी है, किसी ‘देश’, ‘राज्य’ (State) या ‘प्रान्त’ (Province) की एकता एवं अखंडता की बात नहीं है|

यहाँ बात ‘शहादत’ की चल रही है| महान शिवाजी युद्धों में सामने से भिड़ने से बचते थे| वे शहादत देने में विश्वास नहीं करते थे, अपितु वे जीत लेने में विश्वास करते थे| वे अकसर आक्रमण के लिए चुपके से आते थे, और फिर घनघोर जंगलों और पहाड़ों में विलीन भी हो जाते थे| जीत कर एक समृद्ध एवं शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करने में कामयाब भी रहे|

तो हमको आपको यह विमर्श करना है कि शहादत देने की योजना बनाना है, या जीत लेने की 'दर्शन' को तैयार कर उसे क्रियान्वित करना है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी, 

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं  संस्कृति संवर्धन संस्थान|

बुधवार, 6 अगस्त 2025

आप पुरोहित और संस्कारक क्यों बनें?

(प्रकाशनाधीन पुस्तक - "जब बुद्ध मुस्कुरा उठे", का एक अंश)

इस विद्वान् मंडली की सारगर्भित सुनने के बाद मुझे लगा कि हम भारतीय जन गण को चाहिए कि हमलोग भारतीय संस्कृति पर छाये हुए धुंध के बादल को हटायें| इससे भारतीय संस्कृति के साथ हुई गलतफहमियों को सुधारा जा सकता है| लेकिन किसी व्यवस्था या तंत्र को सुधारने के लिए, या संशोधित करने के लिए उस व्यवस्था यानि उस तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बनना होगा| इसके बाद ही हम इस व्यवस्था या तंत्र को समझ सकते हैं, उस पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं| अर्थात उस वाहन रुपी तंत्र में सवार होकर उसके ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठना ही होगा, तब ही कोई उस तंत्र यानि उस वाहन को मनचाहे गंतव्य तक ले जा सकता है| इसके लिए शिक्षाविदों, सामजिक सेवियों के साथ साथ सांस्कृतिक सेवियों को भी आगे आना चाहिए| सांस्कृतिक सेवियों में ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शामिल हैं| समाज के सांस्कृतिक क्षेत्र में इन लोगों को ऐतिहासिक एवं श्रद्धा के साथ सम्मान प्राप्त है|

भारतीय परम्परा में ‘पुरोहित’ एक सम्मानित व्यक्ति की अवधारणा रही है, जो अपने ज्ञान, विचार एवं व्यवहार से उन ‘पुरों’ का हित देखता रहा है| ‘पुर’ शब्द आवासित क्षेत्रों के लिए एक द्योतक शब्द है, जैसे शोलापुर, कानपुर, खड़गपुर, जयपुर, जबलपुर, भागलपुर, दिसपुर, आदि आदि कई शहर एवं गाँव हैं| और इन आवासीय क्षेत्रों के ‘हित’ देखने समझने वाले ही पुरोहित हुए| कालांतर में यह पाखंड एवं कर्मकांड के साथ उलझ गया है| इसी तरह संवेदनशील ‘सामाजिक संस्मरणों’ को ही आकार देने को ‘संस्कार’ कहते हैं, जो समाज में मूल्य, प्रतिमान, आदर्श आदि स्थापित करता है| और ऐसे संस्कारों को समाज में स्थापित, नियमित, नियंत्रित, संरक्षित एवं संवर्धिक करने वाले व्यक्तियों को ही ‘संस्कारक’ कहते हैं| यह अलग बात है कि इन संस्करकों की भूमिका समाज, आर्थिक सम्बन्ध, एवं संस्कृति के बदलने से बदलती रही| यह ‘संस्कार’ समय के साथ उस समाज का सदस्य होने के कारण अचेतन रूप में ग्रहण करता रहता है| ‘संस्कारों का समुच्चय’ ही ‘संस्कृति’ है| समाज के ऐसे सम्मानित सदस्यों की भूमिका समाज में सदैव ही प्रतिष्टित रही है, और आगे भी रहेगी| हमलोगों को पुरोहिती और संस्कार को प्राचीन भारतीय संस्कृति के मौलिक दर्शन के आलोक में पुनर्व्याख्यायित करना चाहिएपुनर्स्थापित करना चाहिए, ताकि भारतीय सांस्कृतिक गौरव को पुनर्सम्मानित किया जा सके। इसके लिए सभी नागरिकों को सचेत होकर आगे आना चाहिए|

भारतीय संविधान के मूल अधिकार में, यानि संविधान के भाग तीन के अनुच्छेदों में इन पुरिहितो एवं संस्करकों  के अधिकार के बारे में वर्णन है| यह ये सभी अधिकार संविधान के ही मूल अधिकार में शामिल है| ये सभी अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 29 एवं अनुच्छेद 32 में निहित हैं| ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शाब्दिक अवधारणा गौरवमयी भारतीय संस्कृति की महान विरासत है|

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 (1) में प्रत्येक भारतीय नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति के संरक्षण का अधिकार प्राप्त है| अनुच्छेद – 29 (1) के अनुसार “भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भी भाग में निवास करने वाले नागरिको के किसी भी वर्ग को, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति हो, उसे संरक्षित रखने का अधिकार होगा|” यदि इसे और स्पष्ट किया जाय, तो यह स्पष्ट है कि यह अधिकार भारत में निवास करने वाले ‘नागरिकों के सभी वर्ग’ को यह अधिकार प्राप्त है| ‘नागरिको का वर्ग’ उनकी जाति, धर्म, क्षेत्र, पंथ आदि के अनुसार संगठित या गठित माना जा सकता है| यह अधिकार उस नागरिक वर्ग को उसके विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति के सम्बन्ध में है| ध्यान रहे कि भाषा और लिपि की कोई स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या है, जिसकी कई व्याख्याएँ नहीं की जा सकती है| लेकिन संस्कृति एक ऐसी अवधारणा है जिसका कोई एक एकलौता, स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या नहीं किया जा सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी अपने तथाकथित वर्ग के लिए ‘संस्कृति’ को अवधारित कर सकता है, और उसके अनुरूप अपने मूल अधिकारों की बात कर सकता है|

ध्यान रहे कि संविधान के भाग तीन में ही अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार “राज्य कोई ऐसा कानून (Law) नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता हो या न्यून करता हो और इस खण्ड के उल्लंघन में बनाया गया कोई कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा|” संविधान के इस भाग का अर्थ हुआ संविधान का भाग तीन है, जिसे मूल अधिकार का भाग कहा जाता है| इस भाग में संविधान का अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक शामिल है| अर्थात संस्कृति के अतिरिक्त अन्य कई अधिकार इस भाग में शामिल एवं संरक्षित हैं| यहाँ संविधान में यह स्पष्ट भी किया गया है कि ‘कानून’ (Law) शब्द में भारत के क्षेत्र में कानून के प्रभाव रखने वाले सभी बल (The Force of Law) शामिल है, अर्थात कानून के बल में सभी अध्यादेश, आदेश, उप कानून, नियम, विनियमन, अधिसूचना, प्रथा (Custom), या परम्परा (Usage) शामिल किए गये हैं|

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 (1) के अनुसार “इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन (Enforcement) के लिए समुचित कार्यवाही द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार सुनिश्चित किया गया है|” इस भाग में प्रदत्त अधिकारों के प्रत्य्वर्तन के अलावे किसी भी अन्य अधिकारों या शिकायतों के मामलों में कोई भी सीधे सर्वोच्च नयायालय में नहीं जा सकता है, लेकिन इन मूल अधिकारों के प्रवर्तन कराने के मामलों में कोई भी सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है| यह व्यवस्था भारतीय संविधान में किया गया है| अनुच्छेद 32 (2) उच्चतम न्यायालय को इस भाग द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के प्रवर्तन के लिए निदेश (Direction) या आदेश (Order) या रिट (Writ) जारी करने की शक्ति है| यहाँ भी ‘इस भाग’ का तात्पर्य भाग तीन से ही है, जिसमे संविधान का अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक शामिल है| इन रिटों में बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार-पृच्छा (Quo Warrant) और उत्प्रेषण (Certiorari) शामिल है|

चूंकि भारतीय संस्कृति हमारी विरासत हैहमलोगों की थाती हैहमलोगों का गौरव हैहमलोगों का सम्मान हैइसीलिए हम समस्त भारतवासियों की जबावदेही बनती है कि इस गौरवशालीप्राचीनऔर विस्तृत संस्कृति का संवर्द्धन करेंपुनर्स्थापित करेंपुनर्जीवित करें और पुनः गौरवान्वित करें। लेकिन इसके लिए हमलोगों को संयुक्त रूप में आगे आना होगासंयुक्त रूप में सक्रिय होना होगाऔर सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय उपमहाद्वीप एक विविध संस्कृतियोंविविध भाषाओंविविध पंथों एवं धर्मों और विभिन्न भौगोलिक अनिवार्यताओं के क्षेत्रों का संकलन यानि समुच्चय है। भारत एक ऐसा विशाल और बहुविध पंथों और धर्मों का देश हैजहां विश्व के सभी धर्मों की परम्परा अपने गौरव और सम्मान के साथ प्रचलित और सक्रिय हैऐसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं है। भारत में विविध संस्कृतियाँ है| संस्कृतियों की परिभाषा एवं अवधारणाओं के अनुसार संस्कृतियों की विविधता बढती जाती है|

कहने का तात्पर्य यह है कि हमलोगों के इस सांस्कृतिक विरासत के पुनरोत्थान अभियान में सभी संस्कृतियोंसभी क्षेत्रोंसभी धर्मोंसभी पंथोंऔर सभी भाषायी व्यक्तियों, समाजों, एवं वर्गों की सक्रिय, समर्पित सहयोग अवश्य ही चाहिएवरना यह गौरवमयी  सांस्कृतिक अभियान सफल नहीं मानी जा सकती है। स्पष्ट है कि यह अभियान किसी भी वर्गया समूहया जाति वर्ण के सापेक्ष नहीं हैयानि किसी के विरुद्ध या किसी के समर्थन में नहीं हैयानि कोई भी विशेष वर्ग इसके लक्ष्य में नहीं है। इसमें सभी परम्परागत और गैर परम्परागत वर्गसमूह और समाज की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है और किसी को इससे अलग नहीं होना चाहिए|

पुरोहिताई और संस्कारक एक कौशल है, एक योग्यता है, एक ज्ञान है, जिसे कोई भी प्रशिक्षित होकर सीख सकता है, पारंगत होता है, या हो सकता हैयदि आप किसी पेशे में, किसी सेवा में, किसी व्यवसाय या उद्यम में कुशल और सक्षम हो सकते हैं, तो आप इसमें भी कुशल, सक्षम, योग्य, पारंगत और व्यवहारिक हो सकते हैं| यह पुरोहिताई और संस्कारक भी एक पेशा है, एक सेवा है, एक उद्यम है, एक व्यवसाय है, जिसमे सम्मान, प्रतिष्ठा, समृद्धि,और आत्मसंतुष्टि जुड़ा हुआ हैयह आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रवेशद्वार भी हैचूँकि यह महान संस्कृति आपकी भी विरासत है, इसीलिए इसके उत्तरदायित्व में आप भी शामिल हैं, और आपको भी शामिल होना चाहिए|

इस संस्कृति में संस्कारक एवं पुरोहिताई की एक विशाल एवं शानदार अर्थव्यवस्था है, जिसमे सभी सामाजिक वर्गों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिएइससे अर्जित धन से सभी सामाजिक वर्गों के विकास में भूमिका होनी चाहिए, या मिलनी चाहिए| इसके लिए ही सभी सामाजिक वर्गों के समझदार, जागरूक एवं प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिएलगभग सभी सामाजिक वर्गों में सेवा निवृत सदस्य उपलब्ध होते हैं, जिनके पास ज्ञान आधारित योग्यता के साथ साथ विशाल कार्य अनुभव भी होता है, जिसका लाभ वह सामाजिक वर्ग उठा सकता हैइन सेवा निवृत सदस्यों की सक्रियता और समर्पण से बहुत कम लगत से या बिना लगत के सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, और इन सेवा निवृत सदस्यों की उम्र भी बढ़ जाती है| इस अभियान से समाज को और राष्ट्र को एक सुसंस्कृत, शालीन. शिष्ट, शिक्षित और संस्कारी पुरोहित एवं संस्कारक मिलता है|, और समाज एक कामी, लोभी, अशिक्षित, संस्कारविहीन और भ्रष्ट पुरोहित एवं संस्कारक के दुष्प्रभाव से बचता है|

चूँकि यह एक सेवा है, एक व्यवसाय है, एक उद्यम है, एक कौशल है, इसलिए यह हमारे युवाओं के लिए प्रशिक्षण का एक शानदार सम्मानित एवं प्रतिष्ठित अवसर भी हैये युवा हमरे व्यापक शोध मिशन को आगे बढ़ा सकते हैं, या बढ़ाएंगे ही| इससे हमारे राष्ट्र के सभी सामाजिक वर्गों का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक मूल्यवर्धन होगा, और सभी सामाजिक वर्ग आध्यात्मिकरूप में समृद्ध, संपन्न और आत्मनिर्भर भी होगा| इससे हमारी संस्कृति कई अर्थों में संपन्न और व्यापक होगाहमारे प्रशिक्षित संस्कारक समाज को ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड से उबरने में सहायक भी होंगेहमरे संस्कारक समाज में शिक्षा एवं विविध सेवाओं के प्रसारक एवं प्रचारक भी बनेंगे| ये संस्कारक कई ऐसे कार्य भी करेंगे, या कई ऐसे क्षेत्रों के सूत्रधार भी बनेंगे, जिन्हें हमलोग आपके सहयोग एवं सलाह से सुनिश्चित और निर्धारित करेंगेचूँकि एक संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में प्रभावशाली एवं नियंत्रणकारी होते हैं, इसीलिए ये संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई क्षेत्रों के बदलाव के क्रान्तिकारी प्रकाश स्तम्भ साबित होंगेयह सब भविष्य के गर्त में है, जो आपके सहयोग, समर्थन, समर्पण से ही आगे निकल सकता है, आगे बढ़ सकता हैइस क्षेत्र में पहले भी कई महानुभावों ने शुरुआत भी किया था| लेकिन आज की अपेक्षित गतिशीलता आपके बिना संभव भी नहीं है|

इसलिए आप सभी भारतीय इसमें आगे आइए| एक फिर से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित करने में मदद कीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन जी 

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

महाभारत को अर्जुन ने कैसे जीता?

शिक्षक दिवस पर   .......  भारत में ‘महाभारत’ नाम का एक भयंकर युद्ध हुआ था| ऐसा युद्ध पहले नहीं हुआ था| नाम से भी स्पष्ट है कि इस युद्ध में ...