(प्रकाशनाधीन पुस्तक - "जब बुद्ध मुस्कुरा उठे", का एक अंश)
इस विद्वान् मंडली
की सारगर्भित सुनने के बाद मुझे लगा कि हम भारतीय जन गण को चाहिए कि हमलोग भारतीय
संस्कृति पर छाये हुए धुंध के बादल को हटायें| इससे भारतीय संस्कृति के साथ हुई गलतफहमियों
को सुधारा जा सकता है| लेकिन किसी व्यवस्था या तंत्र को सुधारने के लिए, या संशोधित
करने के लिए उस व्यवस्था यानि उस तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बनना होगा| इसके बाद ही
हम इस व्यवस्था या तंत्र को समझ सकते हैं, उस पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं| अर्थात
उस वाहन रुपी तंत्र में सवार होकर उसके ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठना ही होगा, तब ही कोई
उस तंत्र यानि उस वाहन को मनचाहे गंतव्य तक ले जा सकता है| इसके लिए शिक्षाविदों,
सामजिक सेवियों के साथ साथ सांस्कृतिक सेवियों को भी आगे आना चाहिए| सांस्कृतिक सेवियों
में ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शामिल हैं| समाज के सांस्कृतिक क्षेत्र में इन लोगों
को ऐतिहासिक एवं श्रद्धा के साथ सम्मान प्राप्त है|
भारतीय परम्परा में
‘पुरोहित’ एक सम्मानित व्यक्ति की अवधारणा रही है, जो अपने ज्ञान, विचार एवं व्यवहार
से उन ‘पुरों’ का हित देखता रहा है| ‘पुर’ शब्द आवासित क्षेत्रों के लिए एक द्योतक
शब्द है, जैसे शोलापुर, कानपुर, खड़गपुर, जयपुर, जबलपुर, भागलपुर, दिसपुर, आदि आदि कई
शहर एवं गाँव हैं| और इन आवासीय क्षेत्रों के ‘हित’ देखने समझने वाले ही पुरोहित हुए|
कालांतर में यह पाखंड एवं कर्मकांड के साथ उलझ गया है| इसी तरह संवेदनशील ‘सामाजिक
संस्मरणों’ को ही आकार देने को ‘संस्कार’ कहते हैं, जो समाज में मूल्य, प्रतिमान, आदर्श
आदि स्थापित करता है| और ऐसे संस्कारों को समाज में स्थापित, नियमित, नियंत्रित, संरक्षित
एवं संवर्धिक करने वाले व्यक्तियों को ही ‘संस्कारक’ कहते हैं| यह अलग बात है कि इन
संस्करकों की भूमिका समाज, आर्थिक सम्बन्ध, एवं संस्कृति के बदलने से बदलती रही|
यह ‘संस्कार’ समय के साथ उस समाज का सदस्य होने के कारण अचेतन रूप में ग्रहण करता रहता
है| ‘संस्कारों का समुच्चय’ ही ‘संस्कृति’ है| समाज के ऐसे सम्मानित सदस्यों की भूमिका
समाज में सदैव ही प्रतिष्टित रही है, और आगे भी रहेगी| हमलोगों को पुरोहिती और
संस्कार को प्राचीन भारतीय संस्कृति के मौलिक दर्शन के आलोक में पुनर्व्याख्यायित
करना चाहिए, पुनर्स्थापित करना
चाहिए, ताकि भारतीय सांस्कृतिक गौरव को पुनर्सम्मानित किया
जा सके। इसके लिए सभी नागरिकों को सचेत होकर आगे आना चाहिए|
भारतीय संविधान
के मूल अधिकार में, यानि संविधान के भाग तीन के अनुच्छेदों में इन पुरिहितो एवं संस्करकों
के अधिकार के बारे में वर्णन है| यह ये सभी
अधिकार संविधान के ही मूल अधिकार में शामिल है| ये सभी अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 29 एवं
अनुच्छेद 32 में निहित हैं| ‘पुरोहित’ एवं ‘संस्कारक’ शाब्दिक अवधारणा गौरवमयी भारतीय
संस्कृति की महान विरासत है|
भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 29 (1) में प्रत्येक भारतीय नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति
के संरक्षण का अधिकार प्राप्त है| अनुच्छेद – 29 (1) के अनुसार “भारत के
राज्यक्षेत्र या उसके किसी भी भाग में निवास करने वाले नागरिको के किसी भी वर्ग
को, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति हो, उसे संरक्षित रखने का अधिकार
होगा|” यदि इसे और स्पष्ट किया जाय, तो यह स्पष्ट है कि यह अधिकार भारत में निवास
करने वाले ‘नागरिकों के सभी वर्ग’ को यह अधिकार प्राप्त है| ‘नागरिको का वर्ग’
उनकी जाति, धर्म, क्षेत्र, पंथ आदि के अनुसार संगठित या गठित माना जा सकता है| यह
अधिकार उस नागरिक वर्ग को उसके विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति के सम्बन्ध में है|
ध्यान रहे कि भाषा और लिपि की कोई स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या है, जिसकी कई
व्याख्याएँ नहीं की जा सकती है| लेकिन संस्कृति एक ऐसी अवधारणा है जिसका कोई एक एकलौता,
स्पष्ट एवं विशिष्ट व्याख्या नहीं किया जा सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि कोई
भी अपने तथाकथित वर्ग के लिए ‘संस्कृति’ को अवधारित कर सकता है, और उसके अनुरूप
अपने मूल अधिकारों की बात कर सकता है|
ध्यान रहे कि संविधान
के भाग तीन में ही अनुच्छेद 13 (2) के अनुसार “राज्य कोई ऐसा कानून (Law) नहीं
बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता हो या न्यून करता हो और इस
खण्ड के उल्लंघन में बनाया गया कोई कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा|” संविधान
के इस भाग का अर्थ हुआ संविधान का भाग तीन है, जिसे मूल अधिकार का भाग कहा जाता
है| इस भाग में संविधान का अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक शामिल है| अर्थात
संस्कृति के अतिरिक्त अन्य कई अधिकार इस भाग में शामिल एवं संरक्षित हैं| यहाँ संविधान
में यह स्पष्ट भी किया गया है कि ‘कानून’ (Law) शब्द में भारत के क्षेत्र में
कानून के प्रभाव रखने वाले सभी बल (The Force of Law) शामिल है, अर्थात कानून के
बल में सभी अध्यादेश, आदेश, उप कानून, नियम, विनियमन, अधिसूचना, प्रथा (Custom),
या परम्परा (Usage) शामिल किए गये हैं|
भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 32 (1) के अनुसार “इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन (Enforcement)
के लिए समुचित कार्यवाही द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार सुनिश्चित
किया गया है|” इस भाग में प्रदत्त अधिकारों के प्रत्य्वर्तन के अलावे किसी भी अन्य
अधिकारों या शिकायतों के मामलों में कोई भी सीधे सर्वोच्च नयायालय में नहीं जा सकता
है, लेकिन इन मूल अधिकारों के प्रवर्तन कराने के मामलों में कोई भी सीधे ही सर्वोच्च
न्यायालय में जा सकता है| यह व्यवस्था भारतीय संविधान में किया गया है| अनुच्छेद
32 (2) उच्चतम न्यायालय को इस भाग द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के प्रवर्तन के
लिए निदेश (Direction) या आदेश (Order) या रिट (Writ) जारी करने की शक्ति है| यहाँ
भी ‘इस भाग’ का तात्पर्य भाग तीन से ही है, जिसमे संविधान का अनुच्छेद 12 से
अनुच्छेद 35 तक शामिल है| इन रिटों में बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus),
परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार-पृच्छा (Quo Warrant) और
उत्प्रेषण (Certiorari) शामिल है|
चूंकि भारतीय संस्कृति हमारी विरासत है, हमलोगों की थाती है, हमलोगों का गौरव है, हमलोगों का सम्मान है, इसीलिए हम समस्त
भारतवासियों की जबावदेही बनती है कि इस गौरवशाली, प्राचीन, और विस्तृत संस्कृति का संवर्द्धन करें, पुनर्स्थापित
करें, पुनर्जीवित करें और पुनः गौरवान्वित करें। लेकिन
इसके लिए हमलोगों को संयुक्त रूप में आगे आना होगा, संयुक्त
रूप में सक्रिय होना होगा, और सक्रिय भागीदारी
सुनिश्चित करनी होगी। भारतीय उपमहाद्वीप एक विविध संस्कृतियों, विविध भाषाओं, विविध पंथों एवं धर्मों और
विभिन्न भौगोलिक अनिवार्यताओं के क्षेत्रों का संकलन यानि समुच्चय है। भारत एक ऐसा
विशाल और बहुविध पंथों और धर्मों का देश है, जहां विश्व
के सभी धर्मों की परम्परा अपने गौरव और सम्मान के साथ प्रचलित और सक्रिय है; ऐसा कोई अन्य उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं है। भारत में विविध
संस्कृतियाँ है| संस्कृतियों की परिभाषा एवं अवधारणाओं के अनुसार संस्कृतियों की
विविधता बढती जाती है|
कहने का
तात्पर्य यह है कि हमलोगों के इस सांस्कृतिक विरासत के पुनरोत्थान अभियान में सभी
संस्कृतियों, सभी क्षेत्रों, सभी धर्मों, सभी पंथों, और सभी भाषायी व्यक्तियों, समाजों, एवं
वर्गों की सक्रिय, समर्पित सहयोग अवश्य ही चाहिए, वरना
यह गौरवमयी सांस्कृतिक अभियान सफल नहीं मानी जा सकती
है। स्पष्ट है कि यह अभियान किसी भी वर्ग, या समूह, या जाति वर्ण के सापेक्ष नहीं है, यानि किसी के
विरुद्ध या किसी के समर्थन में नहीं है, यानि कोई भी
विशेष वर्ग इसके लक्ष्य में नहीं है। इसमें सभी परम्परागत और गैर परम्परागत वर्ग, समूह और समाज की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है और किसी को इससे अलग नहीं
होना चाहिए|
पुरोहिताई और
संस्कारक एक कौशल है, एक योग्यता है, एक ज्ञान है, जिसे
कोई भी प्रशिक्षित होकर सीख सकता है, पारंगत होता है,
या हो सकता है| यदि आप किसी पेशे में,
किसी सेवा में, किसी व्यवसाय या उद्यम में
कुशल और सक्षम हो सकते हैं, तो आप इसमें भी कुशल, सक्षम, योग्य, पारंगत और
व्यवहारिक हो सकते हैं| यह पुरोहिताई और संस्कारक भी एक पेशा
है, एक सेवा है, एक उद्यम है, एक व्यवसाय है, जिसमे सम्मान, प्रतिष्ठा,
समृद्धि,और आत्मसंतुष्टि जुड़ा हुआ है| यह आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रवेशद्वार भी है| चूँकि
यह महान संस्कृति आपकी भी विरासत है, इसीलिए इसके
उत्तरदायित्व में आप भी शामिल हैं, और आपको भी शामिल होना
चाहिए|
इस संस्कृति में
संस्कारक एवं पुरोहिताई की एक विशाल एवं शानदार अर्थव्यवस्था है, जिसमे सभी सामाजिक वर्गों की सक्रिय
भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए| इससे अर्जित धन से सभी
सामाजिक वर्गों के विकास में भूमिका होनी चाहिए, या मिलनी
चाहिए| इसके लिए ही सभी सामाजिक वर्गों के समझदार, जागरूक एवं प्रबुद्ध सदस्यों को आगे आना चाहिए| लगभग सभी सामाजिक वर्गों में सेवा निवृत सदस्य उपलब्ध होते हैं, जिनके पास ज्ञान आधारित योग्यता के साथ साथ विशाल कार्य अनुभव भी होता है,
जिसका लाभ वह सामाजिक वर्ग उठा सकता है| इन
सेवा निवृत सदस्यों की सक्रियता और समर्पण से बहुत कम लगत से या बिना लगत के
सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, और इन सेवा निवृत सदस्यों
की उम्र भी बढ़ जाती है| इस अभियान से समाज को और राष्ट्र को
एक सुसंस्कृत, शालीन. शिष्ट, शिक्षित
और संस्कारी पुरोहित एवं संस्कारक मिलता है|, और समाज एक
कामी, लोभी, अशिक्षित, संस्कारविहीन और भ्रष्ट पुरोहित एवं संस्कारक के दुष्प्रभाव से बचता है|
चूँकि यह एक
सेवा है, एक व्यवसाय है, एक उद्यम है, एक कौशल है, इसलिए
यह हमारे युवाओं के लिए प्रशिक्षण का एक शानदार सम्मानित एवं प्रतिष्ठित अवसर भी
है| ये युवा हमरे व्यापक शोध मिशन को आगे बढ़ा सकते हैं,
या बढ़ाएंगे ही| इससे हमारे राष्ट्र के सभी
सामाजिक वर्गों का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक
मूल्यवर्धन होगा, और सभी सामाजिक वर्ग ‘आध्यात्मिक’ रूप में समृद्ध, संपन्न
और आत्मनिर्भर भी होगा| इससे हमारी संस्कृति कई अर्थों में
संपन्न और व्यापक होगा| हमारे प्रशिक्षित संस्कारक समाज
को ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं
अनावश्यक कर्मकांड से उबरने में सहायक भी होंगे| हमरे
संस्कारक समाज में शिक्षा एवं विविध सेवाओं के प्रसारक एवं प्रचारक भी बनेंगे|
ये संस्कारक कई ऐसे कार्य भी करेंगे, या कई
ऐसे क्षेत्रों के सूत्रधार भी बनेंगे, जिन्हें हमलोग आपके
सहयोग एवं सलाह से सुनिश्चित और निर्धारित करेंगे| चूँकि
एक संस्कारक एवं पुरोहित अपने अपने कार्य क्षेत्रों में प्रभावशाली एवं
नियंत्रणकारी होते हैं, इसीलिए ये संस्कारक एवं पुरोहित अपने
अपने कार्य क्षेत्रों में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई क्षेत्रों के बदलाव के
क्रान्तिकारी प्रकाश स्तम्भ साबित होंगे| यह सब भविष्य
के गर्त में है, जो आपके सहयोग, समर्थन,
समर्पण से ही आगे निकल सकता है, आगे बढ़ सकता
है| इस क्षेत्र में पहले भी कई महानुभावों ने शुरुआत भी
किया था| लेकिन आज की अपेक्षित गतिशीलता आपके बिना संभव भी नहीं है|
इसलिए आप सभी
भारतीय इसमें आगे आइए| एक फिर से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पटल पर स्थापित करने में मदद कीजिए|
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|
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