मंगलवार, 3 जून 2025

संस्कृति को ही बदल कर भविष्य बदल सकता है

‘संस्कृति को ही बदल कर कोई व्यक्ति, या कोई समाज, या कोई राष्ट्र अपना वर्तमान और भविष्य सुधार सकता है|’ यानि कोई भी व्यक्ति, या समाज, या राष्ट्र अपनी संस्कृति में ही संशोधन, संवर्धन, या परिमार्जन कर ही अपना भविष्य का नव निर्माण कर सकता है| और इसका कोई और दूसरा विकल्प भी नहीं है| यह सब बातें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के सन्दर्भ में बहुत ही गंभीर है, व्यापक है, और गहन भी है| ऐसी अवस्था में यह एक महत्वपूर्ण सवाल हो जाता है कि इस संस्कृति को और इस संस्कृति की क्रियाविधि को समझना क्यों महत्वपूर्ण हो जाता है?

‘संस्कृति’ समाज या राष्ट्र का वह ‘साफ्टवेयर’ (Software) है, जो अपने समाज या राष्ट्र के प्रत्येक सदस्य की व्यक्तिगत भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को और समाज या राष्ट्र के सामूहिक भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को “स्वत: संचालित मोड’ (Automated Mode) में रखता है, यानि यह संस्कृति प्रत्येक व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को “स्वत: संचालित मोड’ (स्वत: स्फूर्त अवस्था, या तरीका) में नियमित, निर्देशित, नियंत्रित एवं संचालित करता रहता है| दरअसल कोई भी व्यक्ति या समाज या राष्ट्र अपने जीवन की प्रत्येक भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को अभिव्यक्त करने में अपने समय, उर्जा, धन, संसाधन और वैचारिकी को न्यूनतम मात्रा में खर्च करना चाहता है, यानि इन भावनाओं, विचारों एवं व्यवहारों को फिर से सीखने, समझने और करने में किसी भी अतिरिक्त समय, उर्जा, धन, संसाधन और वैचारिकी के खपत को बचाना चाहता है| अत: किसी चीज को फिर से सीखने, समझने और करने में समय, उर्जा, धन, संसाधन और वैचारिकी को बचाने के प्रक्रम  (Process of Saving) का ही संक्षिप्त नाम ”संस्कृति” है| यही वह कारण है कि कोई भी व्यक्ति हर काम को करने के लिए नए नए तरीकों का ईजाद नहीं करता है और वह अधिकतर कार्यों को करने के लिए समाज में पूर्व से प्रचलित तरीकों को स्वत: ही अपना लेता है और उसे स्वचलित मोड में ही सम्पादित भी कर लेता है। इन कार्यों को करने में वह समाज में पूर्व से निर्धारित और स्थापित तरीकों, मानकों, मूल्यों, प्रतिमानों और वैचारिकताओ को स्वत: ही अपना लेता है, और इसी को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति की क्रियाविधि के बारे में थोडा और विस्तार से समझते हैं|

मानवीय व्यवहारों, जिसमे आर्थिक व्यवहार भी शामिल है, को समझने के लिए ही प्रसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डेनियल काह्नमैन (Daniel Kahneman) को वर्ष 2002 में अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला था| चूँकि मनोविज्ञान के लिए कोई नोबल पुरस्कार निश्चित नहीं किया हुआ है, इसीलिए इन्हें यह पुरस्कार अर्थशास्त्र में मिला| यह शोध मानव, समाज एवं राष्ट्र के ‘निर्णय’ लेने के सम्बन्ध में है, और इस निर्णय लेने की प्रक्रिया के स्वत: संचालित मोड को ही ‘संस्कृति’ कहते हैं| डेनियल काह्नमैन ने मानवीय व्यवहार को प्रेरित करने वाले कारकों का विस्तृत और व्यापक अध्ययन कर कुछ मौलिक और मूलभूत सिद्धान्तों को स्थापित किया। काह्नमैन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – ‘’थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’’ में समझाते हैं कि मानवीय सोच दो तरीकों से कार्य संपादित करता है| वे इन ‘सोच- प्रक्रिया’ (Thinking Process) के दोनों तरीको का नामकरण सिस्टम -1  (एक) और सिस्टम- 2 (दो) के रूप में करते हैं|  वे आगे समझाते हैं कि सिस्टम -1 की चिंतन प्रक्रिया तेज, सरल, सहज (Intuitive) और भावनात्मक होती है, जबकि सिस्टम -2 की चिंतन प्रक्रिया अपनी गति में धीमा. अधिक तार्किक और विवेकशील होता है| इस तरह सिस्टम -1 की चिंतन प्रणाली स्वचालित, लगातार चलते रहने के कारण ही भावनात्मक होता है और अचेतन स्तर से संचालित एवं निर्देशित होता रहता है| इसी तरह सिस्टम -2 की चिंतन प्रणाली प्रयासपूर्ण, गणनात्मक (Calculative) एवं तार्किक होने के कारण ही यह धीमा होता है| इसी कारण यह सिस्टम -2 अनियमित भी होता है और सचेत प्रयास का परिणाम होता है| सिस्टम – एक ‘आत्म’ (Spirit) के स्तर पर कार्यरत होता है, और इसीलिए ‘भावनात्मक’ होता है| सिस्टम – दो ‘मन’ (Mind) के स्तर पर कार्यरत होता है, और इसीलिए यह ‘विचारों का उत्पादन’ करता है, यानि ‘वैचारिक’ होता है|

इस तरह स्पष्ट है कि सिस्टम -1  (एक) की चिंतन प्रणाली लोगों को सीखने समझने में लगने वाले समय, उर्जा, संसाधन एवं वैचारिकी को बचाता है| यही सिस्टम -1  (एक) स्वत: स्फूर्त होता है, और इसी स्वत: स्फूर्त अवस्था को ही संस्कृति कहते हैं| संस्कृति की यही भूमिका होती है कि वह व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का चिंतन प्रक्रिया में लगने वाले सभी सचेत प्रयास को न्यूनतम कर दे, या बचा ले| इसी कारण कोई व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतर कार्य स्वत: स्फूर्त करता है, अर्थात अपनी संस्कृति से संचालित एवं निर्देशित होता रहता है| किसी को भी, चाहे वह व्यक्ति हो, समाज हो, या राष्ट्र हो, यदि विकसित होना है, उसे अपने इस चिंतन प्रणाली में, यानि अपनी संस्कृति में बदलाव लाना होगा|

कोई भी व्यक्ति यदि जीवित है, तो वह अवश्य ही ‘चेतनायुक्त’ होगा, यानि अपने बदलते परिवेश के प्रति संवेदनशील होगा और अपने को बदलते परिवेश के अनुरूप अनुकूलित करने को उद्दत होगा, ताकि उसकी जीवित होने की निरंतरता बनी रहे| इस तरह यह चेतनशीलता प्रत्येक जीवित प्राणियों की एक महत्वपूर्ण शर्त हो जाती है| अब इस चेतना का स्तर ही एक मानव को एक पशु से भिन्न करता है, यानि यह चेतनशीलता ही एक मानव को उच्चतर एवं विशिष्ट अवस्था प्रदान करता है| यदि यह चेतनशीलता ही किसी भी मानव के लिए महत्वपूर्ण है, तो इसी का विकास करना, इसी का संवर्धन करना ही एक मानव का जीवन उद्देश्य होगा, या जीवन उद्देश्य होना चाहिए| और चेतनता का अधिकांश हिस्सा ही मानव चिंतन प्रणाली के सिस्टम – 1 (एक) की प्रणाली को अपनाता है, और यही चिंतन प्रणाली ही संस्कृति कहलाती है|

अब यदि चेतनता का ‘विकास करना’ और ‘संवर्धन करना’ ही जीवन का उद्देश्य है, तो यह विकास (Development) क्या है? ‘संवर्धन’ (Improvement) करना और कुछ नहीं, सिर्फ सकारात्मक दिशा में नित एवं निरन्तर ‘और विकास करना’ ही है| यह विकास साधारणतया ‘वृद्धि’ (Growth) करने के ही समतुल्य होता है, लेकिन यह कई मायनों में विकास से गुणात्मक रूप में अलग होता है| कोई भी वृद्धि ‘एक देशीय’ (Uni – Directional) ‘बढ़ाव’ (Increment) होता है, जबकि विकास सर्वदेशीय (Multi– Directional) होता है, यह सम्पूर्ण होता है| मानव के मामलों में, प्रख्यात अर्थशास्त्री एवं अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार किसी व्यक्ति का ‘विकास’ उसकी ‘स्वतन्त्रता’ (Development as Freedom) ही है| यह विकास उसके स्वतन्त्रता के स्तर के मानक के अनुसार निर्धारित किया जाता है| इस तरह विकास, अमर्त्य सेन के अनुसार, किसी व्यक्ति का विकास अवस्था उस व्यक्ति की ‘क्षमता उपागम’ (Capability Approach) से समझी जाती है| अमर्त्य सेन के विकास सम्बन्धी इसी अवधारणा को ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) भी समुचित एवं पर्याप्त मानती है|

अब यदि किसी भी व्यक्ति को, समाज को, या राष्ट्र को विकसित होना है, तो उसको अपने वर्तमान चिंतन प्रणाली में बदलाव लाना होगा| यानि अब तक जो चिंतन प्रणाली कार्यरत था, यह वर्तमान अवस्था उसी चिंतन प्रणाली का परिणाम है, उसी पुरानी चिंतन प्रणाली का प्रतिफल है| और यदि वर्तमान अवस्था को बदलना है, यानि विकसित करना है, तो उसे नयी चिंतन प्रणाली से उस पुरानी चिंतन प्रणाली को प्रतिस्थापित (Substitute) करना होगा| किसी भी व्यक्ति की, समाज की, या राष्ट्र की “स्थायी चिंतन प्रणाली” को ही ‘संस्कृति’ कहते हैं| इसे ही डेनियल काह्नमैन ने भी अपनी पुस्तक – “थिंकिंग फ़ास्ट एवं स्लो” में रेखांकित किया है|

अब आपको यह स्पष्ट हो गया होगा कि संस्कृति और संस्कृति की कार्य प्रणाली को समझना मानव जीवन में, समाज एवं राष्ट्र के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्षभारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान| 

1 टिप्पणी:

  1. यह लेख अत्यंत विचारोत्तेजक है और एक गहरी सच्चाई को सामने लाता है — “संस्कृति को बदलकर ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अपना भविष्य बदल सकते हैं।” यह विचार अकेला नहीं है, बल्कि कई महान चिंतकों और पुस्तकों में बार-बार प्रतिध्वनित होता आया है:

    नेपोलियन हिल (Think and Grow Rich) कहते हैं कि विचारों की पुनरावृत्ति से आदत बनती है और आदतों से भविष्य तय होता है। यह सीधे उस “स्वचालित सोच” से जुड़ता है जिसे लेख में ‘संस्कृति’ कहा गया है।

    राल्फ वाल्डो एमर्सन कहते हैं, “मनुष्य वही बनता है जो वह दिनभर सोचता है।” यह इस बात की पुष्टि है कि संस्कृति व्यक्ति की अंतर्निहित सोच की स्थायी अभिव्यक्ति है।

    अर्ल नाइटिंगेल (The Strangest Secret) ने लिखा, “You become what you think about.” यानी सोच ही नियति है — और जब सोच सामूहिक होती है, तो वह संस्कृति बन जाती है।

    काइज़न (Kaizen) का सिद्धांत कहता है कि लगातार छोटे सुधार लंबे समय में बड़े बदलाव लाते हैं — यही संस्कृति में परिमार्जन और संवर्धन का आधार है।

    चार्ल्स डुहिग (The Power of Habit) बताते हैं कि हमारी आदतें, अचेतन रूप से, हमारे जीवन की दिशा तय करती हैं, जैसे लेख में “System-1” संस्कृति को संचालित करता है।

    जेम्स एलेन (As a Man Thinketh) ने लिखा, “मनुष्य का चरित्र उसके विचारों का पूर्ण योग है।” यानी विचार ही व्यवहार बनते हैं, और दीर्घकालीन व्यवहार ही संस्कृति।

    इस तरह यह स्पष्ट है कि चाहे वह मनोविज्ञान हो, आत्मविकास हो या अर्थशास्त्र — सभी यह मानते हैं कि संस्कृति (यानी स्थायी चिंतन प्रणाली) को बदले बिना कोई स्थायी और गुणात्मक विकास संभव नहीं।

    👉 संस्कृति = सामूहिक सोच + आदतें
    👉 संस्कृति में परिवर्तन = भविष्य का पुनर्निर्माण

    यह लेख एक महत्त्वपूर्ण स्मरण है कि परिवर्तन की शुरुआत भीतर से होती है — विचारों से, फिर आदतों से, और अंततः पूरी संस्कृति से।

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