पुरोहित प्रशिक्षण एवं शोध मिशन (भाग - 18)
परम्परागत
पुरोहित लम्बे अवधि के *ऐतिहासिक सांस्कृतिक* *उद्विकास* का एक निश्चित परिणाम है।
इस उद्विकास में इस पुरोहित पद को कई सुविधाएँ, विशेषाधिकार, प्रतिष्ठा और मान्यताएँ प्राप्त हो जाती है, और इसके
साथ ही पुरोहिताई सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों एवं प्रतिमानो के साथ एक संस्था
(An Institution in Sociological sense) के रूप में उभर कर
समाज के सामने प्रस्तुत होता है।
परम्परागत
दिखने के लिए वेशभूषा ही काफी है, भले ही आप विचारों में वैज्ञानिक हो, क्रांतिकारी हो और सब कुछ बदल
देने की मंशा हो।
परम्परागत दिखने के लिए *सामान्य आंखे* हो पर्याप्त है, लेकिन विचारों को देखने के लिए
*मानसिक दृष्टि* चाहिए। वैसे सबसे पहले सामान्य दृष्टि ही किसी अवधारणा बना
देता है।
हम
परम्परागत पुरोहित के रुप में ही क्यों अवतरित हो? यह एक अहम सवाल है। इसका उत्तर चार्ल्स
डार्विन के *उद्विकासवाद (Evolutionism)* में निहित है।
इसमें
डार्विन ने समझाया कि
1.
कोई भी चीज़ *सरलतम (Simpler) संरचना से
जटिलतर (Complex) संरचना (Structure)* प्राप्त
करता है,
2.
कोई भी चीज़ अपने *साधारण (Ordinarg) अवस्था
से ही उच्चतर (Higher) अवस्था (Stages)* को प्राप्त कर सकता है,
3.
कोई भी चीज़ *सहज (Natural) से ही सजग (Alert)
वृत्ति (Mode)* की ओर उन्मुख होता है, और
4.
कोई भी चीज़ समय के साथ ही *क्षणिकता (Momentary) यानि क्षणभंगुरता से स्थिरता (Stable)* को भी
प्राप्त करता है।
और
यही
सब अवस्था एवं स्थिति एक परम्परागत पुरोहित में उद्विकास के साथ स्थापित होता है।
आपको
सिर्फ इस तरह विकसित एवं उन्नत सवारी में सवार होकर अपने विचारों की तलवारें
भांजनी है।
कुछ
लोग अपनी बौद्धिक (तथाकथित तार्किकता) के साथ परम्परागत पुरोहिताई का विरोध करते
हैं, तो उन्हें
उनकी विधिवत शुरुआत करने से कोई रोक भी नहीं रहा है।
लेकिन
उन्हें उनके शुरुआत के _फलदायी परिणाम पाने के लिए उद्विकास के सिद्धांत के अनुसार दशकों और
शताब्दियों का इंतजार करना होगा।_ वैसे मैं उनके प्रयोग और
प्रयास के लिए शुभकामनाएँ भी देता हूँ।
*लेकिन जिन्हें मेरी क्रमबद्ध
व्यवस्थित बातें समझ में आ रही है, वे परम्परागत पुरोहित के
विचार पर गंभीर हो सकतें है।*
*_इसे समझिए। और पुरोहित बनिए।_*
आचार्य
प्रवर निरंजन
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