Social Leadership and the Hammer Theory
भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक नेतागिरी की
धूम मची हुई है, लेकिन जो सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव
दिखनी चाहिए, वह दिख नहीं रहा है। इस असफलता के जितने कारण
बताये जा रहे है, वे सभी उन नेताओ की बचकानी हरकतें है,
बेवकूफी से भरी हुई तर्क है। सभी यह कहते हैं कि सभी नेताओं और संगठनों को एक हो जाना
चाहिए, परन्तु उन्हें एक करने से कोई रोक तो नहीं रहा है।
यह सब एक आदर्शात्मक काल्पनिक बातें हैं, जो सुनने एवं कहने में अच्छी लगती है, परन्तु यह सब उनके लिए व्यावहारिक नहीं होती है, क्योंकि उन्हें मनोविज्ञान, संस्कृति और दर्शन का समुचित ज्ञान ही नहीं होता| उनका ध्यान ही नहीं गया है कि उनकी मूल अवधारणा ही उपयुक्त नहीं है। स्पष्ट है कि दरअसल उन्हें न तो इतिहास (यानि संस्कृति) की कोई समझ होती है, न दर्शन (सार तत्व यानि दृष्टि) का कोई ज्ञान
होता है, और न मनोविज्ञान (भावना, अनुभव, विचार एवं
व्यवहार के विज्ञान) की कोई जानकारी होती| वे बनते तो हैं कि वे सब कुछ समझते हैं,
लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बहुत कुछ अलग यानि विपरीत होती है|।
सामाजिक नेताओं के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक
संरचनाओं में रचनात्मक, सकारात्मक एवं स्थायी बदलाव यानि रुपांतरण करने के इनके अथक
प्रयास के बावजूद कोई अपेक्षित प्रभावकारी परिणाम प्राप्त नहीं हो पा रहा है। ऐसा
क्यों हो रहा है? यह एक गंभीर, तीक्ष्ण एवं गहरा
विश्लेषण और मूल्यांकन का विषय है। दरअसल हर सामाजिक सांस्कृतिक समस्या का कोई स्पष्ट
दर्शन होता है, कोई सम्यक इतिहास (जो संस्कृति के रुप में प्रकट होता है) होता है, कोई सुलझा हुआ मनोविज्ञान
होता है, और उस सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का कोई निहित
अर्थशास्त्र भी होता है। ऐसे सामाजिक नेता सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के
बदलाव को ही व्यवस्था में परिवर्तन समझते हैं और इसीलिए ऐसे सामाजिक नेताओं के सत्ता
में आने के बाद भी व्यवस्था (System) यानि तंत्र की व्यवस्था (Arrangement) यानि संरचना (Structure) यानि सामाजिक
सांस्कृतिक तानाबाना में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
तब सामान्य जन या क्षेत्र में सामान्य संवृद्धि या विकास तो
दिख सकता है, परन्तु सामाजिक सांस्कृतिक संरचना और आव्यूह (Matrix) में कोई बदलाव नहीं आता है। दरअसल ऐसे सामाजिक नेताओं को सामाजिक
सांस्कृतिक संरचना की नहीं तो कोई समझ होती है और नहीं तो कोई इस दिशा में
समाधनात्मक दृष्टि (Vision) होती है| ऐसे नेताओं को समाज में ‘वृद्धि’ (Growth)
और ‘विकास’ (Development) की अवधारणा में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| दरअसल ये
नेता इन दोनों के अन्तर को ही नहीं जानते समझते| यदि समाज में कोई सामाजिक और
सांस्कृतिक बदलाव दिखता भी है, तो वह “बाजार की शक्तियों”
से संचालित, नियंत्रित और नियमित होता है| ऐसे सामाजिक
नेताओं को बाजार की शक्तियों के परिणाम स्वरुप समाज में हो रहे सामाजिक सांस्कृतिक
बदलाव भी उन्हीं के आन्दोलन के प्रयास के परिणाम बताने में कोई संकोच नहीं होता
है।
तो अब हमलोग प्रसिद्ध “हथौड़ा सिद्धांत” (The Hammer Theory) की ओर चलते हैं| पहले इस अवधारणा यानि इस सिद्धांत को समझते हैं| तब इनका भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेतागिरी से संबंध समझते है| यह सिद्धांत क्या है? इसके बारे में वैश्विक विद्वानों की राय भी जानना समझना जरूरी हो जाता है। अभिप्रेरणा के सिद्धांत (Theory of Motivation) के प्रवर्तक अब्राहम मैसलो (Abraham Maslow) ने 1966 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “The Psychology of Science” में एक सिद्धांत दिया, जिसे हथौड़ा का सिद्धांत (The Theory of Hammer) कहा गया| इसमें किसी सर्व परिचित उपकरण/ यन्त्र (Tool) के लोकप्रिय उपयोग के प्रति अत्यधिक झुकाव की समझ को रेखांकित किया गया है| इसमें कहा गया कि "If the only tool you have is a hammer, it is tempting to treat everything as if it were a nail." अर्थात यदि आपके पास उपकरण में सिर्फ हथौड़ा ही है, तो आप सभी समस्याओं को कांटी मानकर ही उसे ठोंक देना चाहेंगे।
इसी तरह इसे अब्राहम कापलान (Abraham Kaplan) ने 1964
में ही “यन्त्र का नियम”
(The Law of the Instrument) कहा, और जिसमे उसने कहा - “Give a small
boy a hammer, and he will find that everything he encounters needs
pounding." अर्थात यदि एक छोटे बच्चे को एक हथौड़ा दे दिया जाय,
तो वह जिस (समस्या) का भी सामना करेगा, वह उसे (काँटी समझ कर) ही हथौड़े से ठोक देना ही चाहेगा| अत: ऐसे
सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं को अब्राहम कापलान एक “छोटा बच्चा” कहना चाहा है, यदि
उनमें भी ऐसी ही प्रवृति है या ऐसी ही हरकतें हैं तो|
इसी तरह से 1984 में प्रसिद्ध निवेशक वारेन बफेट (Warren Buffett) ने ‘वित्तीय बाजार’ (शेयर बाजार) के तथाकथित स्थापित विशेषज्ञ विश्लेषकों के सम्बन्ध में कहा| वित्तीय बाजार की प्रवृतियों और दिशा निष्कर्षों के विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन करने के लिए गणितीय विशेषज्ञों के सम्बन्ध में कहा कि चूँकि ये तथाकथित विशेषज्ञ हैं और इसीलिए इन्हें अपनी तथाकथित विशेषज्ञता समाज को दिखाने के लिए अनावश्यक उठा पटक करनी पड़ती है या दिखानी पड़ती है| वारेन बफेट अनुसार चूँकि ऐसे विशेषज्ञता के कौशल सीखे गए हैं, और इसीलिए इन्हें समाज को नहीं दिखाना भी एक अपराध बोध जैसा लगता है, हालाँकि इनका कोई उपयोग शेयर बाजार में नहीं है, और इनका नकारात्मक प्रतिफल ही होता है| इसे ही निचोड़ में कहा गया कि एक आदमी को यन्त्र या उपकरण के नाम पर सिर्फ एक हथौड़ा ही हो, तो उस आदमी को सामने का हर चीज एक कांटी सदृश्य ही दिखता है| ऐसी ही स्थिति भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं की है, जिन्हें सिर्फ विरोध करना ही आता है, और कोई दुसरा रचनात्मक एवं सकारात्मक समाधान आता ही नहीं है| ऐसे भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेता "विरोध" नामक उपकरण में सिर्फ नारेबाजी, प्रदर्शन, धरना और अपशब्द बोलना ही जानते हैं, कोई इस "विरोध" नामक उपकरण के अतिरिक्त दूसरा रचनात्मक सकारात्मक समाधान के बारे में सोच ही नहीं है|
भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व भी ऐसे ही
सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए अपने हाथ पैर मारते रहते हैं और अपने समर्थकों
से भी ऐसा ही करवाते रहते है। इसके लिए वे भावनात्मक अपील, जातीय और धार्मिक
लगाव एवं नाटकीय कौशल का उपयोग और दुरुपयोग करते हैं। ऐसा कर वे अपने
समर्थकों का समय, संसाधन, धन, उर्जा और उत्साह
सहित जवानी को भी बर्बाद करते रहते हैं। वे सत्ता के शीर्ष पर “व्यक्ति बदलाव” (Change in Person) को ही
“व्यवस्था का बदलाव” (Change in System) समझते हैं और इसीलिए जनता को ऐसा ही समझाते
बताते हैं। इन्हें संस्कृति की क्रियाविधि की कोई समझ नहीं होती है।
इसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता और नेता
जो भी कुछ कहीं पढ़ लेते हैं, किसी से सुन लेते हैं, उसे बिना मनन मंथन
किए ही समस्याओं रुपी कांटी पर अपने हथौड़े चलाने लगते हैं। वे यह भी विश्लेषण और
मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं कि वे हथौड़े उनके विरोधियों के द्वारा फैलाया गया
व्यूह (Matrix) यानि रणनीति (Strategy) यानि
जाल (Web) का एक अनिवार्य औजार है।
तब वे अपने विरोधियों के ढाँचे (framework) यानि घेरे (Circle)
में ही उलझे हुए होते हैं। वैसे यह वैश्विक पिछड़े हुए संस्कृतियों यानि समाजों की
ही विशेषता होती है| इसे ही “लकीर का फ़क़ीर” होना भी कहा जाता है|
इसी सन्दर्भ में थामस सैम्युल कुहन (Thomas S Kuhn) ने “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) की अवधारणा 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक – “The Structure of Scientific Revolutions” में दिया| किसी भी समस्या समाधान में जब कोई परंपरागत अवधारणा (Concept) या क्रियाविधि (Mechanism) काम नहीं करता है, तब उसमे मौलिक परिवर्तन ही समाधान है, और यही मौलिक परिवर्तन ही पैरेड़ाईम शिफ्ट है|
इसी तरह अल्बर्ट
आइन्स्टीन ने भी कहा कि किसी भी समस्या का समाधान उसी समस्या के स्तर (Level) पर ही
रहकर नहीं पाया जा सकता| अर्थात किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसी ढाँचे (Framework)
या संरचना या आव्यूह (Matrix) से बाहर निकलना ही होगा| जबकि भारतीय सामाजिक
सांस्कृतिक नेतागण उस ढाँचे या संरचना या
आव्यूह से बाहर निकलना ही नहीं चाहते| इसीलिए ऐसे भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं का सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं में बदलाव लाने का प्रयास महज एक नौटंकी
या तमाशा बन कर रह जाता है|
आचार्य निरंजन सिन्हा