शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

सामाजिक नेतागिरी और हथौड़ा सिद्धांत

 Social Leadership and the Hammer Theory

भारतीय समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक नेतागिरी की धूम मची हुई है, लेकिन जो सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनात्मक बदलाव दिखनी चाहिए, वह दिख नहीं रहा है। इस असफलता के जितने कारण बताये जा रहे है, वे सभी उन नेताओ की बचकानी हरकतें है, बेवकूफी से भरी हुई तर्क है। सभी यह कहते हैं कि सभी नेताओं और संगठनों को एक हो जाना चाहिए, परन्तु उन्हें एक करने से कोई रोक तो नहीं रहा है। यह सब एक आदर्शात्मक काल्पनिक बातें हैं, जो सुनने एवं कहने में अच्छी लगती है, परन्तु यह सब उनके लिए व्यावहारिक नहीं होती है, क्योंकि उन्हें मनोविज्ञान, संस्कृति और दर्शन का समुचित ज्ञान ही नहीं होता| उनका ध्यान ही नहीं गया है कि उनकी मूल अवधारणा ही उपयुक्त नहीं है। स्पष्ट है कि दरअसल उन्हें न तो इतिहास (यानि संस्कृति) की कोई समझ होती है, दर्शन (सार तत्व यानि दृष्टि) का कोई ज्ञान होता है, और न मनोविज्ञान (भावना, अनुभव, विचार एवं व्यवहार के विज्ञान) की कोई जानकारी होती| वे बनते तो हैं कि वे सब कुछ समझते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बहुत कुछ अलग यानि विपरीत होती है|।

सामाजिक नेताओं के द्वारा सामाजिक सांस्कृतिक संरचनाओं में रचनात्मक, सकारात्मक एवं स्थायी बदलाव यानि रुपांतरण करने के इनके अथक प्रयास के बावजूद कोई अपेक्षित प्रभावकारी परिणाम प्राप्त नहीं हो पा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? यह एक गंभीर, तीक्ष्ण एवं गहरा विश्लेषण और मूल्यांकन का विषय है। दरअसल हर सामाजिक सांस्कृतिक समस्या का कोई स्पष्ट दर्शन होता है, कोई सम्यक इतिहास (जो संस्कृति के रुप में प्रकट होता है) होता है, कोई सुलझा हुआ मनोविज्ञान होता है, और उस सामाजिक सांस्कृतिक संरचना का कोई निहित अर्थशास्त्र भी होता है। ऐसे सामाजिक नेता सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के बदलाव को ही व्यवस्था में परिवर्तन समझते हैं और इसीलिए ऐसे सामाजिक नेताओं के सत्ता में आने के बाद भी व्यवस्था (System) यानि तंत्र की व्यवस्था (Arrangement) यानि संरचना (Structure) यानि सामाजिक सांस्कृतिक तानाबाना में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

तब सामान्य जन या क्षेत्र में सामान्य संवृद्धि या विकास तो दिख सकता है, परन्तु सामाजिक सांस्कृतिक संरचना और आव्यूह (Matrix) में कोई बदलाव नहीं आता है। दरअसल ऐसे सामाजिक नेताओं को सामाजिक सांस्कृतिक संरचना की नहीं तो कोई समझ होती है और नहीं तो कोई इस दिशा में समाधनात्मक दृष्टि (Vision) होती है| ऐसे नेताओं को समाज में ‘वृद्धि’ (Growth) और ‘विकास’ (Development) की अवधारणा में कोई अंतर समझ में नहीं आता है| दरअसल ये नेता इन दोनों के अन्तर को ही नहीं जानते समझते| यदि समाज में कोई सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव दिखता भी है, तो वह “बाजार की शक्तियों” से संचालित, नियंत्रित और नियमित होता है| ऐसे सामाजिक नेताओं को बाजार की शक्तियों के परिणाम स्वरुप समाज में हो रहे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव भी उन्हीं के आन्दोलन के प्रयास के परिणाम बताने में कोई संकोच नहीं होता है।

तो अब हमलोग प्रसिद्ध “हथौड़ा सिद्धांत” (The Hammer Theory) की ओर चलते हैं| पहले इस अवधारणा यानि इस सिद्धांत को समझते हैं| तब इनका भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेतागिरी से संबंध समझते है| यह सिद्धांत क्या है? इसके बारे में वैश्विक विद्वानों की राय भी जानना समझना जरूरी हो जाता है। अभिप्रेरणा के सिद्धांत (Theory of Motivation) के प्रवर्तक अब्राहम मैसलो (Abraham Maslow) ने 1966 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक – “The Psychology of Science” में एक सिद्धांत दिया, जिसे हथौड़ा का सिद्धांत (The Theory of Hammer) कहा गया| इसमें किसी सर्व परिचित उपकरण/ यन्त्र (Tool) के लोकप्रिय उपयोग के प्रति अत्यधिक झुकाव की समझ को रेखांकित किया गया है| इसमें कहा गया कि "If the only tool you have is a hammer, it is tempting to treat everything as if it were a nail." अर्थात यदि आपके पास उपकरण में सिर्फ हथौड़ा ही है, तो आप सभी समस्याओं को कांटी मानकर ही उसे ठोंक देना चाहेंगे।

इसी तरह इसे अब्राहम कापलान (Abraham Kaplan) ने 1964 में ही “यन्त्र का नियम” (The Law of the Instrument) कहा, और जिसमे उसने कहा - Give a small boy a hammer, and he will find that everything he encounters needs pounding." अर्थात यदि एक छोटे बच्चे को एक हथौड़ा दे दिया जाय, तो वह जिस (समस्या) का भी सामना करेगा, वह उसे (काँटी समझ कर) ही हथौड़े से ठोक देना ही चाहेगा| अत: ऐसे सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं को अब्राहम कापलान एक “छोटा बच्चा” कहना चाहा है, यदि उनमें भी ऐसी ही प्रवृति है या ऐसी ही हरकतें हैं तो|

इसी तरह से 1984 में प्रसिद्ध निवेशक वारेन बफेट (Warren Buffett) ने ‘वित्तीय बाजार’ (शेयर बाजार) के तथाकथित स्थापित विशेषज्ञ विश्लेषकों के सम्बन्ध में कहा| वित्तीय बाजार की प्रवृतियों और दिशा निष्कर्षों के विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन करने के लिए गणितीय विशेषज्ञों के सम्बन्ध में कहा कि चूँकि ये तथाकथित विशेषज्ञ हैं और इसीलिए इन्हें अपनी तथाकथित विशेषज्ञता समाज को दिखाने के लिए अनावश्यक उठा पटक करनी पड़ती है या दिखानी पड़ती है| वारेन बफेट अनुसार चूँकि ऐसे विशेषज्ञता के कौशल सीखे गए हैं, और इसीलिए इन्हें समाज को नहीं दिखाना भी एक अपराध बोध जैसा लगता है, हालाँकि इनका कोई उपयोग शेयर बाजार में नहीं है, और इनका नकारात्मक प्रतिफल ही होता है| इसे ही निचोड़ में कहा गया कि एक आदमी को यन्त्र या उपकरण के नाम पर सिर्फ एक हथौड़ा ही हो, तो उस आदमी को सामने का हर चीज एक कांटी सदृश्य ही दिखता है| ऐसी ही स्थिति भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं की है, जिन्हें सिर्फ विरोध करना ही आता है, और कोई दुसरा रचनात्मक एवं सकारात्मक समाधान आता ही नहीं है| ऐसे भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेता "विरोध" नामक उपकरण में सिर्फ नारेबाजी, प्रदर्शन, धरना और अपशब्द बोलना ही जानते हैं, कोई इस "विरोध" नामक उपकरण के अतिरिक्त दूसरा रचनात्मक सकारात्मक समाधान के बारे में सोच ही नहीं है|

भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व भी ऐसे ही सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए अपने हाथ पैर मारते रहते हैं और अपने समर्थकों से भी ऐसा ही करवाते रहते है। इसके लिए वे भावनात्मक अपील, जातीय और धार्मिक लगाव एवं नाटकीय कौशल का उपयोग और दुरुपयोग करते हैं। ऐसा कर वे अपने समर्थकों का समय, संसाधन, धन, उर्जा और उत्साह सहित जवानी को भी बर्बाद करते रहते हैं। वे सत्ता के शीर्ष पर “व्यक्ति बदलाव” (Change in Person) को ही “व्यवस्था का बदलाव” (Change in System) समझते हैं और इसीलिए जनता को ऐसा ही समझाते बताते हैं। इन्हें संस्कृति की क्रियाविधि की कोई समझ नहीं होती है।

इसी तरह सामाजिक सांस्कृतिक कार्यकर्ता और नेता जो भी कुछ कहीं पढ़ लेते हैं, किसी से सुन लेते हैं, उसे बिना मनन मंथन किए ही समस्याओं रुपी कांटी पर अपने हथौड़े चलाने लगते हैं। वे यह भी विश्लेषण और मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं कि वे हथौड़े उनके विरोधियों के द्वारा फैलाया गया व्यूह (Matrix) यानि रणनीति (Strategy) यानि  जाल  (Web) का एक अनिवार्य औजार है। तब वे अपने विरोधियों के ढाँचे (framework) यानि घेरे (Circle) में ही उलझे हुए होते हैं। वैसे यह वैश्विक पिछड़े हुए संस्कृतियों यानि समाजों की ही विशेषता होती है| इसे ही “लकीर का फ़क़ीर” होना भी कहा जाता है|

इसी सन्दर्भ में थामस सैम्युल कुहन (Thomas S Kuhn) ने “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) की अवधारणा 1962 में प्रकाशित अपनी पुस्तक – “The Structure of Scientific Revolutions” में दिया| किसी भी समस्या समाधान में जब कोई परंपरागत अवधारणा (Concept) या क्रियाविधि (Mechanism) काम नहीं करता है, तब उसमे मौलिक परिवर्तन ही समाधान है, और यही मौलिक परिवर्तन  ही पैरेड़ाईम शिफ्ट है| 

इसी तरह अल्बर्ट आइन्स्टीन ने भी कहा कि किसी भी समस्या का समाधान उसी समस्या के स्तर (Level) पर ही रहकर नहीं पाया जा सकता| अर्थात किसी भी समस्या के समाधान के लिए उसी ढाँचे (Framework) या संरचना या आव्यूह (Matrix) से बाहर निकलना ही होगा| जबकि भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेतागण उस ढाँचे या संरचना या आव्यूह से बाहर निकलना ही नहीं चाहते| इसीलिए ऐसे भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक नेताओं का सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं में बदलाव लाने का प्रयास महज एक नौटंकी या तमाशा बन कर रह जाता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

रविवार, 22 अक्तूबर 2023

ईश्वर (God) की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई

सवाल यह है कि ईश्वर (God) की उत्पत्ति क्यों हुई और कैसे हुई? हम जानते हैं कि आवश्यकता ही हर आविष्कार की जननी है। जब ईश्वर की आवश्यकता हुई, तो इसका आविष्कार कर लिया गया, इसकी रचना कर ली गई। मैंने "आविष्कार" (Invention) शब्द लिया है, "खोज" (Discovery) शब्द नहीं। आप इन दोनों में अन्तर समझ गए होंगे, वैसे यह आलेख सिर्फ बौद्धिकों के लिए ही है, जो ईश्वर की आवश्यकता और उसकी क्रियाविधि (Mechanism) की वैज्ञानिकता (Scientism) की वास्तविकता को जानना समझना चाहते हैं। यदि हम विज्ञान को समझते हैं और मानते हैं, तो “ईश्वर की वैज्ञानिकता” (Scientism of God) को समझा ही जाना चाहिए। यह प्राचीन पालि ग्रंथों में भी उपलब्ध था, जो अब संशोधित, अनुवादित और सम्पादित स्वरुप में ही प्राप्त रह गया है, क्योंकि सामन्ती  व्यवस्था ने उसके मूल को नष्ट कर दिया है।

जब मानव किसी भी कार्य - कारण (Cause n Effect) संबंधों को समुचित रूप में समझने में असमर्थ होता था, तब उसकी संतोषप्रद व्याख्या ईश्वर के सहारे ही किया जाता रहा। मतलब यह है कि जब आदि मानव किसी भी प्राप्त परिणाम या उसकी क्रियाविधि को समझ नहीं पाता था, तो वह उस परिणाम या क्रियाविधि को ईश्वर का हस्तक्षेप या उनकी इच्छा को समझ या मान लेता था| यह आदिमानव की आदि कालीन (Primitive) सोच और व्यवस्था रही और इसी कारण की खोज ही विज्ञान - विमर्श की शुरुआत भी रही। इसके साथ ही जादू (Magic) और भाग्य (Fate/ Luck) की अवधारणा का भी उदय हुआ। किसी की कलाकारी के द्वारा दृष्टि भ्रम पैदा कर किसी भी कार्य - कारण का व्याख्या करना और ऐसा चमत्कार दिखाना जादू है| इसी तरह  किसी कारण के प्रभाव से उत्पन्न कार्य में लगे लम्बे समय की व्याख्या यानि ऐसे कार्य कारण की व्याख्या भाग्य के सहारे की जाने लगी| किसी भी वस्तु या क्रिया की उत्पत्ति का कारण जानने की उत्सुकता ही विज्ञान का आधार हुआ।

ज्ञान के उदय, विकास और उसमें आती गयी स्पष्टता के साथ ही ईश्वर की प्रचलित अवधारणा पूरी तरह से  खंडित होती गई, या इस तरह खारिज ही हो गई। आज़ विकसित देशों में देवालयों (House of God) को उस भवन की संरक्षण (Protection/ Maintenance) के लिए उस देव - स्थान को ही सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन स्थल में बदल कर  खर्च जुटाने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। इसीलिए विकसित समाजों में आज़ विश्वविद्यालय और अनुसन्धान केन्द्रों की स्थापना होती रहती है तथा पिछड़े समाजों में आज़ भी देवालयों की स्थापना होती रहती है| अर्थात ईश्वर की आवश्यकता किसी भी समाज या संस्कृति की ज्ञान के स्तर (Level) और शासन यानि राजनीति एवं व्यवस्था की आवश्यकता (Necessity) को ही रेखांकित करता है।

इस सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास को "बिग बैंग" (Big Bang) सिद्धांत के द्वारा समझाते हुए ईश्वर के संबंध में एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर देते है। 'बिग बैंग सिद्धांत' के अनुसार आज से कोई साढ़े तेरह अरब साल पहले ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक "शून्य इकाई" या “शून्यता” (Singularity) में महाविस्फोट से हुई थी। यह क्यों हुई और कैसे हुई, यह अभी तक वैज्ञानिकों के लिए अज्ञात है। लेकिन सभी आधुनिक वैज्ञानिक इस मत से सहमत हैं कि महाविस्फोट से ही और इसके प्रसार से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं विकास हुआ। इस महाविस्फोट के साथ ही पदार्थ (Matter), ऊर्जा (Energy), समय (Time), और आकाश (Space) की उत्पत्ति हुई। स्टीफन हाकिन्स का प्रश्न यह है कि जब साढ़े तेरह अरब साल पहले पदार्थ, ऊर्जा, समय और आकाश ही नहीं था, तो ईश्वर कहां रहता था यानि किस आकाश स्थान में रहता था; वह ईश्वर किस समय से मौजूद हैं, यानि जब समय ही नहीं था, तो ईश्वर उसके पहले कैसे था; वह ईश्वर किस पदार्थ का बना है और उस ईश्वर की क्रियाविधि के लिए ऊर्जा कहां था, यानि जब कोई पदार्थ और उर्जा ही नहीं था, तो ईश्वर नित्य नहीं हो सकता? इन प्रश्नों की कोई वैज्ञानिक व्याख्या किसी के पास नहीं है।

इसी तरह बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में कई नैतिक प्रश्न किए, जिसका कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया जाता है। इसी क्रम में बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व और इसके द्वारा इस संसार या ब्रह्माण्ड की रचना (Creation) के संबंध में एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा किया है। उनका प्रश्न यह है कि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड या संसार की रचना किस पदार्थ (Matter) और उर्जा से की? यदि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड या संसार की रचना किसी पूर्व से ही उपलब्ध किसी भी सामग्री से की है, तो उस पूर्व से उपलब्ध वस्तु की उत्पत्ति कैसे हुई? यदि किसी भी सामग्री का अस्तित्व ईश्वर के किसी भी सृजन से पूर्व से ही है, तो यह ईश्वर इस ब्रह्माण्ड या संसार का सृजनकर्ता कैसे हुआ? इसी तरह ईश्वर की निर्माण सामग्री के अस्तित्व पर सवाल खड़ा किया। इन्हीं तर्को के साथ बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व का ही खंडन किया है।

चार्ल्स डार्विन ने आधुनिक युग के शुरुआती दिनों में ही अपने अकाट्य प्रमाणों से यह साबित कर दिया कि यह मानव और यह संसार किसी ईश्वर की रचना नहीं है। इस मानव की उत्पत्ति ही पशुओं के एक विशिष्ट श्रेणी के उद्विकास (Evolution) से ही हुआ है, जिससे सभी आधुनिक वैज्ञानिक सहमत हैं। इसी तरह इस संसार का भी वर्तमान अवस्था उद्विकास के सहारे ही आया है। अब तो उद्विकास का सिद्धांत भाषा, समाज, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, विचार, प्रकृति, जीवन और विज्ञान को भी अपने में समाहित कर लिया है, यानि इन सभी की वर्तमान अवस्था तक आने की समुचित व्याख्या करती है।

अब तो अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों का अनुसंधान समूह, जो स्विट्जरलैंड के "सर्न" (CERN)  प्रयोगशाला में कार्यरत है, ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की कणिकाओं (Particle) को स्थापित कर दिया है। वैज्ञानिक हिग्स ने सन् 1964 में इस कणिका की परिकल्पना की थीजिसका प्रायोगिक सत्यापन 2013 में इसी 'सर्न' के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया। भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के इस क्षेत्र में किए गए योगदान की स्मृति के साथ ही इसे अब "हिग्स बोसोन" (Higgs Boson) कहा जाता है। अब यह कणिका ही "गाड पार्टिकल" (God Particle) के नाम से विख्यात है, क्योंकि ब्रह्माण्ड की रचना इसी मूलभूत कणिकाओं से हुआं है। इसे ही 'हिग्स बोसान कणिका' भी कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिकों के लिए यही ईश्वर है, ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय भौतिकी वैज्ञानिकों का मानना है।

तो प्रश्न उठता है कि हमारे विचारों का वास्तविकता में बदलने यानि क्रियान्वित होने की क्रियाविधि क्या है? आभास (Inkling) क्या है? अन्तर्ज्ञान (Intuition) क्या है, आदि आदि? इसे भी समझ लेना जरूरी है, अन्यथा आपकी तथाकथित ईश्वर की जिज्ञासा शान्त और संतुष्ट नहीं होगी। इसे ‘अनन्त प्रज्ञा’ (Infinite Intelligence) की क्रियाविधि से ही समझना होगा। अनन्त प्रज्ञा एक वैश्विक या यों कहें कि एक ब्रह्माण्डीय शक्तियों का एक आव्यूह (Matrix) होता है, और यह शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण (Engineering) है। चूंकि यह अनन्त प्रज्ञा और इसकी क्रियाविधि (Mechanism) एक शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण है, और इसीलिए इसकी क्रियाविधि में भी एक निश्चित, व्यवस्थित और तार्किक सुनिश्चितता ही होती है। चूंकि यह शुद्ध विज्ञान एवं अभियंत्रण है, और इसीलिए इस शक्ति एवं क्रियाविधि का मनोनुकूल लाभ एक निश्चित वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यवहार और प्रक्रिया को अपना कर ही पाया जा सकता है। इस अनन्त प्रज्ञा की और स्पष्ट व्याख्या के लिए विज्ञान एवं अभियंत्रण में लगे वैज्ञानिक अभी भी लगातार प्रयासरत हैं।

क्वांटम भौतिकी (Quantum Physics) के बढ़ते कदम इसी निष्कर्ष की दिशा की ओर जा रहा है, जैसे इसका "प्रेक्षक का सिद्धांत" (Observer Theory), "स्ट्रिंग सिद्धांत" (String Theory) आदि आदि। लेकिन इस अनन्त प्रज्ञा का ‘मानवीकरण’ (Personification) ही ईश्वर है। मतलब यह है कि ‘वास्तविक अनन्त प्रज्ञा’ के स्थान पर ‘काल्पनिक ईश्वर’ को प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, ताकि किसी भी कार्य कारण की मनमानी व्याख्या की जा सके| यह सूक्ष्म अवधारणात्मक अंतर सामान्य जन के विश्लेषणात्मक मूल्यांकन (Analytical Evaluation) क्षमता के बाहर हो जाता है, और इसीलिए इन दोनों के क्रियाविधि में अंतर भी नहीं समझ पाते हैं| ऐसी प्रतिस्थापना स्पष्टतया एक साजिश है, या अज्ञानता है| इसीलिए अनन्त प्रज्ञा के मानवीकरण को कुछ आलोचक धूर्तता और मूर्खता की श्रेणी में भी रख देते हैं, लेकिन यह दरअसल किसी के ज्ञान (विश्लेषणात्मक मूल्यांकन) के स्तर का संकेतक होता है|

इस अनन्त प्रज्ञा के मानवीकरण के बाद ही कोई विशेष व्यक्ति (मानव) उस ईश्वर का कर्ता/ एजेंट (Agent) बन सकता है, या ऐसा दावा कर सकता है, लेकिन कोई व्यक्ति भी अनन्त प्रज्ञा का एजेंट बनने का दावा नहीं कर सकता है| यानि वह विशेष व्यक्ति सामान्य मानव और तथाकथित ईश्वर के बीच मध्यस्थता (Negotiation) की भूमिका कर सकता है और उस शक्ति  (तथाकथित ईश्वर) को प्रभावित करने का दावा कर सकता है| लेकिन जब हम अनन्त प्राकृतिक शक्तियों को इसकी वैज्ञानिकता के साथ लेते हैं, तो हम उसकी क्रियाविधि को समझ कर उस अनन्त प्रज्ञा का उपयोग मानव हितों में कर पाते हैं| ऐसा करने से कोई भी उस शक्ति (अनन्त प्रज्ञा) का एजेंट नहीं बन सकता है, अपितु उसे उस विशेष लाभार्थी 'मानव' का एजेंट या सहायक बनना होता है, जैसे बुद्ध, अल्बर्ट आइंस्टीन, स्टीफन हॉकिंग आदि| उसे सिर्फ अनन्त प्रज्ञा की वैज्ञानिकता और क्रियाविधि को जानना समझना होता है| इस तरह कोई भी साधारण व्यक्ति अनन्त प्रज्ञा की शक्ति का उपयोग कर सकता है, लेकिन वह किसी विशिष्ट मानव के बिना ईश्वर से सहयोग प्राप्त नहीं कर सकता; ऐसा धार्मिक ग्रंथो में वर्णित होता है|      

जब कोई व्यक्ति अपने को उस प्राकृतिक शक्तियों के नाम पर किसी ईश्वर का एजेंट घोषित करता है, तो उस व्यक्ति की मंशा (Intention) अनुचित यानि ग़लत होता है| इस तरह 'अनन्त प्रज्ञा ' को  'ईश्वर' घोषित कर सामान्य जनता को मनमाने ढंग से समझाना यानि बेवकूफ बनाना आसान हो जाता है| हालांकि तथाकथित ईश्वर के उस एजेंट को भी उस ईश्वर पर भरोसा नहीं होता है, और इसीलिए वह ईश्वर से अपने लिए धन मांगने के स्थान पर आपसे यानि सामान्य लोगों से ही धन मांगता है| इस तरह स्पष्ट है कि उस एजेंट को भी उस तथाकथित सर्व व्यापक, सर्व संचालक,  सर्व ज्ञानी, सर्व शक्तिशाली, सर्व कल्याणकारी व्यक्तित्व, यानि ईश्वर पर विश्वास नहीं होता है|

आदिम काल का ईश्वर मानव की अज्ञानता के कारण आविष्कृत हुआ था, लेकिन मध्य काल यानि सामन्ती काल (Feudal Age) का ईश्वर सामन्तवाद की ऐतिहासिक आवश्यकताओं के कारण ही तैयार किया गया|

“बाजार की शक्तियाँ” ही इतिहास के काल में “ऐतिहासिक शक्तियाँ” कहलाती है| यानि मध्यकालीन समय में ईश्वर के सभी वर्तमान स्वरुप को सजिशतन तैयार किया गया और इसे अति प्राचीन काल का साबित करने का प्रयास भी किया गया| यह ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था सामन्ती व्यवस्था की अनिवार्यताओं के कारण ही सामन्ती शोषण तंत्र को वैधानिक एवं नैतिक बनाने के लिए स्थापित किया गया; ऐसा वैश्विक इतिहासकारों का मानना है| इनमे सामन्तवाद पर गहरा अध्ययन एवं अनुसंधान करने वाले इतिहासकार पेरी एन्डरसन (Perry Anderson), एलिजाबेथ ब्राउन (Elizabeth Brown) और जार्ज डूवी (Georges Duby) प्रमुख हैं|

इसीलिए ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था को आज भी मध्य युगीन अवधारणा माना जाता है। आज भी ईश्वर और ईश्वरीय व्यवस्था के दृष्टिकोण एवं अवधारणा को आधुनिक और वैज्ञानिक  नहीं माना जाता है।

अब आप समझ गए होंगे कि ईश्वर (God) की उत्पत्ति क्यों हुई और कैसे हुई?

आचार्य निरंजन सिन्हा 

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

सनातन क्या है?

सनातन ( Eternal/ Perpetual) का अर्थ  होता है - उसका आदि और अन्त तक एक ही स्थिरता  (Consistency) और स्थायी (Fixed/ Permanent) निश्चिंतता (Certainty) में होना, यानि उसका एक ही स्थिरता की अवस्था में ही रहना। यानि किसी का सार्वकालिक यानि नित्य होना, अर्थात उसमें किसी भी प्रकार का बदलाव, यानि परिवर्तन, यानि रुपांतरण का नहीं होना।

स्पष्ट है कि यह सनातन किसी का भी गुण धर्म हो सकता है, परन्तु यह कोई वस्तु, उर्जा, समय, आकाश, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन, अवस्था आदि कभी नहीं हो सकता है। यह किसी पदार्थ का, चाहे वह किसी भी भौतिक अवस्था में हो, या जीवित या मृत हो, एक स्थिर, निश्चित और स्थायी गुण, या स्वभाव, या भावना, या व्यवहार, या लक्षण हो, वह गुण, या स्वभाव, या भावना, या व्यवहार, या लक्षण उसका सनातन गुण, या स्वभाव, या भावना, या व्यवहार, या लक्षण ही कहा जाएगा। इस रुप में वह समय विशेष यानि विशिष्ट संदर्भ में सनातन हो सकता है।

लेकिन कोई वस्तु, उर्जा, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन आदि कभी भी सनातन नहीं हो सकता, अर्थात कोई भी वस्तु, उर्जा, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन आदि ऐसा नहीं हो सकता है, जिसका कोई आदि और अन्त नहीं हो तथा सदैव एक ही अवस्था में स्थायी और निरंतर रहे। बुद्ध का अनित्यवाद (Non - Eternalism)  भी यही कहता है कि कोई वस्तु या विचार या अवस्था स्थायी और नित्य नहीं हो सकता है। आज़ का क्वांटम भौतिकी भी कहता है कि कोई भी वस्तु तीन विमाओं (Dimensions) की दुनिया में कुछ समय के लिए नित्य हो सकता है, लेकिन 'समय' के अग्रगामी होने से कुछ भी नित्य नहीं रह गया है। जबकि भौतिकी विद्वान मानते हैं कि गणितीय गणनाओं में कोई 12 विमाएं हो सकती है, मतलब किसी भी वस्तु को आधुनिक वैज्ञानिक नित्य यानि सनातन मानने को सहमत नहीं हैं। जब ऐसे ब्रह्माण्ड में कुछ भी नित्य नहीं है, अर्थात कुछ भी स्थिर नहीं है, तो कोई भी वस्तु, उर्जा, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन आदि  भी सनातन नहीं है। इस तरह किसी के "नित्यवाद" (Eternalism) यानि किसी के सनातनता का समर्थन न तो "बिग बैंग" (Big Bang) का सिद्धांत करता है, न तो चार्ल्स डार्विन का "उद्विकासवाद" (Evolutionism) का सिद्धांत करता है, और न तो अल्बर्ट आइंस्टीन का "सापेक्षवाद" (Relativism) का सिद्धांत ही करता है।

परन्तु उस अनित्य का गुणधर्म यानि उसकी विशेषता एक  निश्चित स्थिर अवस्था में कुछ समय के लिए सनातन हो सकती है, या होती है, जो उस वस्तु, उर्जा, समय, आकाश, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन आदि के अस्तित्व तक ही बना रह सकता है। इस तरह मानव जाति (Species) का गुण धर्म भी सनातन माना जा सकता है, जो किसी भी मानव के सम्यक विकास के लिए अनिवार्य शर्त होगा, और इसीलिए सभी मानव के लिए एक ही गुण धर्म होगा। स्पष्ट है कि इस तरह सभी मानव का वैश्विक धर्म (Mentality/ Temper), यानि मानव का वैश्विक स्वभाव (Universal Nature), यानि मानव का वैश्विक गुण विशेषण (Characteristics) एक ही होगा। यहां धर्म का अर्थ उसका दायित्व, कर्तव्य, स्वभाव, गुण, लक्षण है।

इस तरह यह धर्म भी प्रचलित सम्प्रदाय से, यानि तथाकथित प्रचारित धर्म से अलग हो गया। इसे इस तरह समझा जाय। किसी पति, या पत्नी, या पिता, या माता, या किसी शासक, या किसी प्रजा या नागरिक का धर्म क्या होगा, या होना चाहिए? अर्थात उसका अपने संबंधित और संदर्भित के प्रति क्या कर्तव्य और दायित्व होना चाहिए, वही उसका धर्म है। स्पष्ट है कि यह धर्म किसी भी प्रचलित प्रसारित धर्म से अलग है। दरअसल हमलोग सम्प्रदाय को ही धर्म समझकर भ्रमित हैं।

किसी भी धातु (Metal) का धर्म क्या हो सकता है, विद्युत और उष्मा का संचरण अपने माध्यम से होने देना। पानी का धर्म क्या हो सकता है, खुली अवस्था में बह जाना और किसी पात्र (बरतन) में रखे जाने पर उसका आकार (Shape) को ग्रहण कर लेना, यानि पानी का धर्म है।

गुस्सा होने का धर्म यानि स्वभाव या लक्षण है कि उसके आने पर वह मानव को विचलित कर देता है, उसके ख़ून का संचरण बढ़ा देता है, उसका रक्त दाब बढ़ जाता है। इस तरह इस धर्म का किसी सम्प्रदाय से कोई लेना देना नहीं है।

इसलिए सभी को यह स्पष्ट रहे कि कोई भी वस्तु, उर्जा, समय, आकाश, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, धर्म, जीवन, अवस्था आदि कभी नित्य या सनातन नहीं हो सकता है। ऐसा ही आधुनिक भौतिकी विद्वान भी मानते हैं। वैसे आप कुछ भी मानने को स्वतंत्र है, मैंने सिर्फ अकादमिक पृष्ठभूमि को रेखांकित करना चाहा है। बाकी संबंधों, संदर्भों और पृष्टभूमियों को आप स्वयं विश्लेषण, मूल्यांकन और निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

आचार्य निरंजन सिन्हा
  स्वैच्छिक सेवानिवृत्त
राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार,पटना।

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

बिहार में जातीय जनगणना

बिहार में जाति गणना की प्राथमिक रिपोर्ट जारी हो गयी है, अर्थात सम्बन्धित अन्य रिपोर्ट अभी आने बाक़ी है, जिसमे सम्बन्धित आकड़ों का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक पक्ष शामिल रहेगा| इस विषय पर बहुत सी बातें समाज में अभी तैर रही है, इसलिए इस पर एक अकादमिक आलेख की आवश्यकता है, और इसी कारण मैं इसे लिख रहा हूँ|

समाज में तैर रही इससे सम्बन्धित पहली प्रमुख बात यह है कि यह जातीय जनगणनाहै ही नहींयह जातीय गणना यानि सर्वेक्षण है| भारत में जनगणना (Census) कराने की समस्त शक्तियाँ एकमात्र केद्र (Centre) की सरकार को है, क्योंकि यह जनगणना भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची’ (Schedule) के केंद्र सूचि” (Centre List) में दर्ज है, जिसका क्रमांक 69है| स्पष्ट है कि यह जनगणना राज्य सूचि या समवर्ती सूचि में नहीं है, और इसीलिए इसे केंद्र सरकार के अलावे कोई अन्य प्राधिकार या कोई अन्य संस्था या प्रतिष्ठान नहीं करा सकता है| जनगणना एक निश्चित अवधि पर नियमित रूप से कराया जाता है, जिसमे उस देश या राज्य की सम्पूर्ण आबादी का सम्यक एवं सम्पूर्ण अपेक्षित जानकारी संग्रहीत किया जाता है| इसका उपयोग विविध प्रकार से नीति एवं योजना निर्माण में एवं उसके कार्यान्वयन में किया जाता है, ताकि उपलब्ध संसधानों का उपयोग अपेक्षित लाभान्वित वर्ग या वर्गों के महत्तम, संतुलित एवं सार्थक हित में हो सकेकिसी भी समाज या राष्ट्र को सशक्त, समृद्ध एवं सुखमय बनाने का यही मूल आधार है|

जनगणना’ (Census) के विपरीत गणना’ (Counting) या सर्वेक्षण’  (Survey) कोई भी एजेंसी कभी भी यानि किसी भी समय में, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी विशिष्ट या लक्षित आबादी में किसी भी विशिष्ट या सामान्य उदेश्य के लिए करा सकती है| यह एजेंसी कोई भी हो सकता है, चाहे वह निजी हो, कोई व्यवसायिक या कंपनी हो, कोई भी संस्था हो, या कोई सरकारी संस्था यानि विभाग या मंत्रालय हो| आपने ध्यान दिया होगा कि बहुत सी व्यवसायिक कम्पनियाँ अपने उत्पाद की बिक्री या सेवा सम्बन्धी की जानकारी एवं मूल्याङ्कन के लिए अपने वर्तमान एवं संभावित ग्राहकों से आंकड़े प्राप्त कर, उसका वर्गीकरण, विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन कर आगे की रणनीति तय करने के लिए करती है, ताकि वह वर्तमान एवं भविष्य की प्रतियोगिता को समझ सके एवं अपेक्षित सफलता प्राप्त कर सके, या उसे बनाए रख सके| इसी तरह बहुत से सामाजिक एवं आर्थिक सांस्कृतिक शैक्षणिक संस्थाएँ भी अपनी आवश्यकता या नीतियों के क्रियान्वयन की सफलता के लिए अपने मनोनुकूल गणना या सर्वेक्षण करती या कराती है|

सामान्यत: जनगणना एक निश्चित अवधि में और एक निश्चित तिथि के सन्दर्भ में किया जाता हैजिसमे जनजीवन के व्यापक पक्षों से सम्बन्धित आकड़ों एवं संदर्भो को समाहित किया जाता हैभारत में यह सामयिक अवधि एक दशक यानि प्रत्येक दस वर्षों पर किया जाना अपेक्षित हैभारत में इसका सन्दर्भ तिथि सामान्यत: मार्च महीने की पहली सुबह यानि एक मार्च की सुबह रखी जाती है| इसी कारण भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध नगर बद्रीनाथकी आबादी शून्यहै, क्योंकि बदरीनाथ एक बर्फीले क्षेत्र में पड़ता है, और उस नगर का कपट ही सामान्यत: मई महीने में ही खुलता है, और उस बर्फीले क्षेत्र में उस समय (पहली मार्च को) कोई आबादी नहीं रहती है। जबकि किसी भी गणनाया सर्वेक्षणमें ऐसी कोई भी निश्चित तिथि पूर्व अपेक्षित शर्त नहीं होती है| इसलिए कोई भी राज्य सरकार या कोई भी एजेंसी कभी भी, कही भी अपने किसी ख़ास उद्देश्य के लिए सम्बन्धित एवं प्रमाणिक आकडे प्राप्त करने या उपलब्ध कराने के लिए कर सकती है| इस सम्बन्ध में माननीय उच्चतम न्यायालय का हाल का न्याय निर्णय इसी सन्दर्भ में आया है|

भारत के संविधान में कई सामाजिक वर्गों को भिन्न भिन्न आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जिसे भी जान लेना एवं समझ लेना आवश्यक है| संविधान में भारतीय आबादी को मुख्यता अनुसूचित जाति’, ‘अनुसूचित जनजाति’; ‘पिछड़ा वर्ग’, एवं सामान्य वर्गमें विभजित किया गया था| परन्तु हाल ही में एक नया वर्ग का सृजन किया गया, जिसे सामान्य वर्गसे अलग कर सृजित किया गया है| इसके लिए सांवैधानिक व्यवस्था में आर्थिक रूप से कमजोरवर्ग (संविधान का 103 वाँ संशोधन) कहा गया है| इस तरह ऐंग्लो इन्डियनसामाजिक वर्ग के अतिरिक्त भारतीय संविधान में कुल पाँच बड़ा वर्ग  अनुसूचित जाति’ (SC), ‘अनुसूचित जनजाति’ (ST), ‘पिछड़ा वर्ग’ (अन्य पिछड़ा वर्ग – OBC), ‘आर्थिक रूप से कमजोर’ (EWS) एवं सामान्य वर्ग’ (General Class) हो गया है| इस ऊपर वर्णित सन्दर्भ के अनुसार बिहार की वर्तमान गणना रिपोर्ट का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन किया जा सकता है|

संविधान के अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 के अनुसार राष्ट्रपति जिन जातियों को लोक अधिसूचना के द्वारा अनुसूचित जाति की सूचिमें रखती हैअनुसूचित जाति” (SC – Schedule Caste) कहलाती है| और इसी तरह राष्ट्रपति जिन जनजातियों को लोक अधिसूचना के द्वारा अनुसूचित जनजाति की सूचिमें रखती हैअनुसूचित जनजाति” (ST – Schedule Tribe) कहलाती है| इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 15 (4) में पिछड़े वर्ग के लिए सामाजिक एवं शैक्षणिकपिछड़ापन का आधार रखा गया है| संविधान के किसी अनुच्छेद में भी स्पष्टतया क्रीमी लेयरका प्रावधान नहीं किया गया है, परन्तु इसे राजकीय व्यवस्था के अंतर्गत लाया गया है| इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 15 (6) में सामान्य वर्गमें से आर्थिक आधारपर एक अलग संवैधानिक वर्ग  - 'आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग' बनाया गया है|

सामान्यत: अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए उनके आबादी के अनुपात में सेवाओंएवं प्रतिनिधि मंडलमें आरक्षण दिया गया है| पिछड़े वर्गों के लिए सेवाओं में 27% का आरक्षण दिया गया है| पिछड़े वर्गों की आबादी 1931 की जनगणना के आधार पर लगभग 52% मानी जाती है, और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण सीमा को 50% निर्धारित कर दिए के जाने के कारण ही शेष बचे 27% ही उपलब्ध आरक्षण पिछड़े वर्ग को दिया गयाबिहार की वर्तमान गणना में इस पिछड़े वर्ग की समेकित आबादी 63%  आ गयी है, जो पूर्व धारणा के अनुसार 52% थी| दरअसल 1931 की जनगणना की रिपोर्ट के बाद 2011 में ही जातिको जनगणना में शामिल किया गया था, लेकिन इसकी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की गयी हैबिहार में पिछड़ों की आबादी पिछड़ा वर्गएवं अत्यंत पिछड़ा वर्गमें विभाजित है और इन्ही वर्गों के आबादी के अनुरूप बिहार में सेवाओं में आरक्षण दिया गया है|

पिछड़ों की आबादीएवं प्रतिशत आबादीको बढ़ने का प्रमुख कारण 1931 की जनगणना के बाद इस सूचि में और अन्य जातियों का शामिल होना है और इनकी प्रजनन की दर (Birth Rate) का सामान्य वर्ग से अधिक का होना है| यह एक स्थापित तथ्य है कि जो वर्ग या समाज सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक रूप से जितना पिछड़ा हुआ होता है, उसका प्रजनन दरउतना ही अधिक होता हैजनान्कीय संक्रमण का सिद्धांत” (Demographic Transition Theory) भी यही कहता है| इस बढती प्रजनन दर को स्थायी रूप में कम करने के उपाय में सम्बन्धित वर्गों या समाजों की शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संवर्धन के उपाय ही निहित है, जो अंतत: किसी भी वर्ग या समाज या राष्ट्र को सशक्त, समृद्ध एवं सुखमय बनाता है|

इस रिपोर्ट के आधार पर विभिन्न नेताओं द्वारा कई तरह की बातें मीडिया में तैर रही है| कुछ लोगों का मानना है कि पिछड़ों को भी आबादी के अनुसार सेवाओं एवं अन्य सुविधाओं में प्रतिनिधित्व दिया जाय| कुछ का मानना है कि इससे सामाजिक वैमनस्य बढेगा| प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस का मानना है कि उनके सत्ता में आने पर 2011 की जनगणना का जातिवार आंकड़ों को प्रकाशित करेगी| कुछ नेताओं के द्वारा एक नयी बात सामने आ रही है कि एक सांवैधानिक वर्ग – “आर्थिक रूप से कमजोर वर्गकी आबादी तीन प्रतिशत ही अधिकतम हो सकती है, और उनको दस प्रतिशत का आरक्षण दिया गया है| उनका कहना है कि सामान्य वर्ग, जिनकी आबादी इस गणना के अनुसार 15 % ही है, और इनमे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग’  उनके समेकित आबादी का बीस प्रतिशत से ज्यादा हो ही नहीं सकता है, अर्थात कुल 15% का बीस प्रतिशत यानि तीन प्रतिशत ही होगा| इस आर्थिक रूप से कमजोर वर्गको सामान्य वर्ग से अलग वर्ग के रूप में संवैधानिक प्रावधानों में स्थापित किया गया है| यानि इस आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग’  की अधिकतम आबादी तीन प्रतिशत हो सकती है, और इन्हें दस प्रतिशत का आरक्षण दिया गया गया हैएक सांवैधानिक वर्ग "सामान्य वर्ग" को कोई आरक्षण नहीं दिया गया है, क्योंकि उन्हें सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा या वंचित नहीं माना गया है।

जब तक इस गणना से सम्बन्धित सम्पूर्ण अर्थात सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, तब तक किसी भी निर्णय पर पहुँचना तर्कसंगत एवं विवेकपूर्ण नहीं होगा| सम्पूर्ण रिपोर्ट के बाद ही सम्बन्धी विद्वान जनों की राय एवं सुझाव सामने आयेंगे| इस रिपोर्ट में, जैसा मीडिया ने दिखाया है, लगता है कि यौन (Sex) आधारित विभाजन को सही ढंग से समझा नहीं गया है, और इसीलिए थर्ड सेक्स’ (Third Sex) और ट्रांसजेंडर’ (Transgender) में अंतर नहीं समझा गया है| ‘थर्ड सेक्ससामान्य रूप से हिजड़ाको कहा जाता है, जबकि ट्रांसजेंडरचिकित्सीय रूप से सेक्स रूपांतरण’ (Sex Transformation) कराने वाले को कहते हैंइसीलिए समाज शास्त्र शास्त्रियों ने आदमियों को यौन आधारित वर्गीकरण में चार’ (Four)  वर्ग में रखा हैं|

किसी भी गणना में यानि किसी भी सर्वेक्षण में समाज से सम्बन्धित आवश्यक आंकड़े  उपलब्ध कराये जाते हैं, ताकि उस सम्बन्धित प्राधिकार को कोई भी नीतिगत निर्णय लेने में, या कोई भी योजना बनाने में, या भविष्य के साथ साथ वर्तमान को भी जमीनी स्तर पर समझने के लिए उपयुक्त एवं सार्थक होता है| इसीलिए अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध भारतीय नोबल पुरस्कार विजेता श्री अभीजित बनर्जी कहते हैं कि भारत के विकास की मूल एवं प्रधान समस्या यह है कि समस्या से सम्बन्धित आंकड़ों की उपलब्धता का और उसके प्रमाणिकता का नहीं होना है| इस आलोक में बिहार का यह प्रयास एवं परिणाम ने विकास के लिए भारत को एक दिशा दिखाया है|

वैसे जातीय गणना या सर्वेक्षण या जनगणना के मुद्दे को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक वास्तविकता (Imaginary Reality) है। चूंकि जाति एक अमानवीय, अवैज्ञानिक, अतार्किक और अविवेकी अवधारणा है और इसकी कोई उपयोगिता इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में नहीं है, इसीलिए शासन और व्यवस्था को चाहिए कि इसे सतर्क, सशक्त और प्रभावशाली तरीके से समाप्त किया जा सकता है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

 

 


सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...