शनिवार, 30 सितंबर 2023

सर्कस के जोकर का क्रान्तिकारी पैगाम

मुझे आजकल भारत में अधिकांश तथाकथित क्रान्तिकारी नेतागण, या यों कहें कि सभी तथाकथित क्रान्तिकारी नेताओं की हालत देख कर सर्कस के कलाकार याद आ जाते हैं, या स्पष्ट कहूँ, तो सर्कस के जोकर ही याद आ जाते हैं| इनको ‘व्यक्ति परिवर्तन’ और ‘व्यवस्था परिवर्तन’ में कोई मौलिक अंतर समझ में आता है, या नहीं, यह वही जानें| परन्तु दिखता तो यही है कि वे 'व्यक्ति परिवर्तन' को ही 'व्यवस्था परिवर्तन' समझते हैं|, यानि इन्हें इन दोनों अवधारणाओं में कोई फर्क समझ में नहीं आता|

ऐसा कहने का आधार यह है कि जिनको ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की ‘क्रियाविधि’ (Mechanism) समझ में आता है, उनके पास उससे संबंधित कोई स्पष्ट ‘अवधारणा’ (Concept) होता है, भले ही उनकी रणनीति गुप्त रहे| ऐसे अवधारणाओं का एक स्पष्ट ‘दर्शन’ (Philosophy) होता है, जिसे बहुत ही कम लोग समझ पाते हैं, लेकिन एक स्पष्ट दर्शन तो होता ही है| ‘व्यक्ति परिवर्तन’ करने वाले ज्यादा से ज्यादा ‘दशको की राजनीति’ करते हैं, या करना चाहते हैं| लेकिन ‘व्यवस्था परिवर्तन’ करने वाले अधिकतर ‘सदियों की राजनीति’ करते हैं, या करना चाहते हैं| लेकिन व्यवस्था में परिवर्तन तो संस्कृति के परिवर्तन से ही होता है। महान क्रांतिकारी माओ त्से तुंग ने पहले माना था कि सत्ता बन्दूक की नली से मिलती है, लेकिन बाद में उन्हें भी यह समझ में आ गया कि व्यवस्था में परिवर्तन के लिए संस्कृति को ही बदलने की आवश्यकता होती है। इसलिए इनके द्वारा किए गये सांस्कृतिक क्रांति ही आज़ चीन को वैश्विक स्तर पर ले आ सका।

लेकिन इस 'सांस्कृतिक क्रांति 'के संदर्भ में व्यवस्था परिवर्तन’ शब्द या अवधारणा उचित नहीं है, इसके लिए तो उपयुक्त शब्द या अवधारणा ‘व्यवस्था का रूपांतरण’ (Transformation of System) होना चाहिए| दरअसल स्थायी और संरचनात्मक परिवर्तन के लिए ही ‘रूपान्तरण’ अवधारणा ही उपयुक्त है|

हालाँकि अब सर्कस प्रतिबंधित हो गया है, लेकिंन जिन्होने सर्कस देखा है, उन्हें सर्कस के जोकर और कलाकार खूब याद होगा| जिन्होंने सर्कस नहीं देखा है, या उसे देखने का अवसर नहीं मिला है, उन्हें प्रसिद्ध अभिनेता राजकपूर द्वारा अभिनीत ऐतिहासिक फिल्म “मेरा नाम जोकर” अवश्य देखना चाहिए| वैसे यह फिल्म ‘मानवीय जीवन मूल्यों एवं भावनाओं’ को उकेरती और अभिव्यक्त करती एक महान फिल्म है, लेकिन मेरा अनुरोध उनके कलाकारों और उनके जोकर (अभिनेता राजकपूर जी) की स्थितियों  एवं परिस्थितियों का ध्यान से अवलोकन करेंगे, तो आपको हमारे तथाकथित क्रान्तिकारी नेताओं की हरकतों को समझने का अवसर मिलेगा|

इन सर्कसों के जोकर एवं कलाकार को उसी सर्कस के ढाँचे (Framework) में, उसी बनावट (Structure) में एवं उन्हीं की नीतियों के अनुरूप ही अपनी कलाकारी दिखाना होता है, उसके बाहर नहीं| इसीलिए उन्हें पहले से ही प्रायोजित तरीके से ही कार्य करना होता है, या कर पाते हैं| इसी कारण वे सर्कस के प्रायोजित साफ्टवेयर में फिट होकर प्रायोजक की प्रयोजना के ही अनुरूप ही ‘शो’ करते हैं| यही हालत हमारे तथाकथित क्रान्तिकारी कलाकारों की है| 

वे भी उन्ही के चक्रव्यूह में, जिनके विरुद्ध ये दिखते हैं, बड़े प्रक्रम से एवं बड़ी सूक्ष्मता और गहराई से उन्ही के पक्ष में कलाकारी दिखाने में लगे रहेंगे| उन्ही के साहित्य एवं ग्रन्थ को पढ़ कर और उसे ही अकाट्य सत्य एवं सही मानेंगे, यानि ये जोकर उसी ढाँचे एवं व्यवस्था में और उन्हीं की नीतियों के अनुरूप तैरते एवं उड़ते रहेंगे, यानि कलाकारी करते रहेंगे| और ये इस काल्पनिक अहसास में भी रहेंगे कि ये अब क्रान्तिकारी विजय पाने ही वाले हैं। इन्हें ऐसा इसलिए भी लगता है क्योंकि इनको यथास्थितिवादियों के मैदान की गहरी प्रोग्रामिंग की समझ ही नहीं होती है| 

ये सिर्फ अपनी डफली ज़ोर ज़ोर से पिटते हैं, गला फाड फाड़ कर चीखते चिल्लाते भी हैं, और अपनी सिर नीचे एवं पैर ऊपर कर सारी धरती का बोझ अपने सिर पर रख लेने का दावा भी करते हैं| आप भी ऐसे चीखते -चिल्लाते और गला फाड़ते नेताओं को याद कर सकते हैं, यानि ध्यान में ला सकते हैं। जोकर के इस आकर्षक प्रदर्शन का तालियों की गडगडाहट से खूब स्वागत होता है। इसी तरह ये नेताजी भी तालियों की गडगडाहट से ही बहुत खुश हो जाते हैं|

लेकिन तालियों की गडगडाहट सुनने को बेकरार नेतागण, या तालियों की गडगडाहट सुन कर अति प्रसन्न होने वाले क्रान्तिकारी नेतागण यह भी याद रखें, कि ऐसी ही गडगडाहट मदारी के खेल वाले को भी मिलती हैं|फिर इन दोनों गड़गड़ाहट में अंतर वही जाने।

 ध्यान रहे, गंभीर विमर्श में, या गंभीर चिंतन में तो सन्नाटा छा जाता है| तो ये नेतागण गंभीर विमर्श या गंभीर चिंतन कर रहे होते हैं, या और कोई खेल दिखा रहे होते हैं, यह तो आप भी समझ रहे हैं| दरअसल चिरकालिक समस्या का समाधान भी गंभीर विमर्श, चिंतन, गहरा अध्ययन और मनन मंथन चाहता है।

हार्वर्ड विश्विद्यालय के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर सैम्युल थामस कुहन अपनी पुस्तक - The Structure of Scientific Revolutions में कहते हैं, कि हर क्रान्ति की मूल बुनियाद विचारों में पैरेड़ाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) है| और यह विचारों में पैरेड़ाईम शिफ्ट सन्दर्भ, या परिस्थिति, या संरचना, या बनावट में मूलभूत बदलाव से ही आ सकता है। यह पैरेडाईम शिफ्ट उसी ढाँचे में रहकर, या उसी सन्दर्भ, या परिस्थिति, या संरचना, या बनावट में रह कर नहीं हो सकता| लेकिन ये तथाकथित क्रान्तिकारी नेता इसे समझते ही नहीं है, या समझना ही नहीं चाहते, या इसे समझने की उनमें कोई योग्यता एवं स्तर ही नहीं होता है| चूँकि ये नेता तथाकथित क्रान्तिकारी माने जाते हैं, और इसीलिए इन्हें “थके” हुए (अब कुछ नहीं हो सकता ), या “पके” (मैं पर्याप्त जानता हूँ और मुझे कुछ और जानने समझने की जरुरत नहीं है ) हुए, या “बिके” (अपने विरोधियों के हाथों बिके हुए यानि उनसे मिले हुए ) हुए कहने में भी डर लगता है|

मेरा सादर अनुरोध है कि कोई भी तथाकथित क्रान्तिकारी कलाकार, यानि क्रान्तिकारी नेता मेरे इस विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन में अपने को रख कर नहीं देखें, और अपनी वर्तमान गति (Motion), सुर (Frequency) और अपनी लय (Harmony) में व्यक्ति परिवर्तन के अभियान में लगे रहें, और यथास्थितिवाद को मजबूती से जमाएँ रखें|  

आचार्य निरंजन सिन्हा 

बुधवार, 13 सितंबर 2023

भारतीय शिक्षा की यह दुर्दशा क्यों?

(The Plight of Indian Education System) 

आजकल शैक्षणिक जगत में यह चर्चा है कि विश्व के सर्वोत्कृष्ट 200 विश्वविद्यालयों की सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय नहीं है| अर्थात भारत की उच्च शिक्षा यानि महाविद्यालयी एवं विश्वविद्यालयी शिक्षा भी गुणवत्तापूर्ण और उत्कृष्ट नहीं हैसामान्य शिक्षा की अवस्था तो सभी को ज्ञात है ही। तो आखिर उच्च शिक्षा के साथ ऐसा क्यों है? और यदि यह सही है, तो इसका समाधान क्या है? अर्थात भारतीय विश्विविद्यालयों को उत्कृष्ट कैसे बनाया जाय? यह एक बहुत ही गंभीर एवं चिंतनीय विषय है| कैसे एक विश्व गुरु की यह दुर्दशा हो गई, हालांकि यह प्रश्न अर्थात इस ‘कैसे’ का मूल्याङ्कन एक अलग विषय है, जो विशद भी है, गंभीर भी है, विचारोत्तेजक भी है, क्योंकि इसकी ऐतिहासिक शक्तियों और प्रक्रियाओं को समझना एवं जानना एक विस्तारित विषय है और इसीलिए इस विषय को कभी अलग से विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन करूंगा|

यदि विश्व के सभी देशों की शैक्षणिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो इस स्पष्ट विभाजन का आधार भी सुस्पष्ट हो जाता है| इन सभी देशों को दो स्पष्ट अलग अलग वर्ग में रखा जा सकता है, जिसका आधार सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) और सांस्कृतिक गतिशीलता’ (Cultural Dynamism) ही स्पष्ट होगा| अर्थात इन समाजों यानि इन राष्ट्रों यानि इन संस्कृतियों में या तो “सांस्कृतिक जडता” होगी, या “सांस्कृतिक गतिशीलता” होगी| “सांस्कृतिक जडता” का अर्थ है - तथाकथित महान सांस्कृतिक धरोहर एवं परम्परा के नाम पर आधुनिकता, वैज्ञानिकता, तार्किकता, मानवता, न्यायवादिता, समता (एवं समानता), स्वतन्त्रता, बंधुता का ही व्यवहारिक विरोध करना| लेकिन “सांस्कृतिक गतिशीलता” का अर्थ है -  सामाजिक गतिशीलता, तकनिकी विकास और बाजार की शक्तियों की अनिवार्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप आधुनिकता, वैज्ञानिकता, तार्किकता, मानवता, न्यायवादिता, समता (एवं समानता), स्वतन्त्रता, बंधुता को वास्तविक समर्थन देना और उसे सशक्त करना होता है|

हमें इन पिछड़े हुए अविकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों अर्थात समाजों यानि संस्कृतियों को दृष्टि में रखते हुए एक व्यापक विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक मूल्याङ्कन (Analytical n Critical Evaluation) करने की आवश्यकता है, लेकिन भारत को मुख्य सन्दर्भ में रखना होगा| भारत के सम्बन्ध में इससे भी ज्यादा दुखदायी यह है कि भारतीय तथाकथित विद्वानों की इसके सम्बन्ध में जो सोच है, जो दृष्टि है, जो नजरिया है, और जो समझ है, वह मान्यतावादी ज्यादा है, एवं तर्कवादी कम हैं| ये भारतीय विद्वान् सरकारी महकमों में उच्चस्थ पदों पर विद्यमान हैं, या हाल तक नीति नियंता रहे हैं| ऐसे कई भारतीय विद्वान् भारतीय विश्विद्यालयों, सम्बन्धित प्राधिकरणों में और शैक्षणिक जगत के तथाकथित स्थापित शैक्षणिक सलाहकार या प्राधिकार हैं| ये लच्छेदार अंग्रेजी लिखते बोलते हैं, इनके बच्चे भारतीय विश्विद्यालयों में नहीं, अपितु विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं, और इनके उच्चस्थ पद इनकी योग्यता की अपेक्षा इनकी ‘सामाजिक पूंजी’ (Social Capital) का सह उत्पाद (By Product) होता है| अर्थात इनमे इनकी पद के अनुरूप योग्यता का स्थान बहुत ही कम होता है, और इनकी मुख्य योग्यता इनका सामाजिक सम्बन्ध है, जिसका मुख्य आधार सांस्कृतिक साम्राज्यवादी ढांचे में ही निहित होता है| ऐसी स्थिति सिर्फ भारत में ही नहीं है, अपितु सभी पिछड़े हुए संस्कृतियों में होता है|

दरअसल यही लोग भारतीय सहित सभी पिछड़े हुए देशों की शैक्षणिक दुर्दशा के मूल एवं मुख्य कारण हैं, जिसको वो कभी रेखांकित करना नहीं चाहते हैं, और कभी ऐसा करना भी नहीं चाहेंगे| इन तथाकथित शैक्षणिक विद्वानों को कभी भी अपनी ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवादी जड़ता’ (Inertia of Cultural Imperialism) का अहसास ही नहीं होता है| इनको ‘इतिहास’ (History), ‘दर्शन’ (Philosophy), एवं ‘मनोविज्ञान’ (Psychology) की व्यवहारिक समझ ही नहीं होता है, और इसीलिए ऐसा अधपका विद्वान कभी सम्यक नीति निर्माता हो ही नहीं सकता| इनको ‘इतिहास’ के बदलते स्वरुप की समझ ही नहीं होती, इनको बाजार को क्रियान्वित करने वाली शक्तियों की क्रियाविधि की कोई जानकारी नहीं होती, और इसीलिए इनको ऐतिहासिक शक्तियों की विश्लेषणात्मक मूल्याङ्कन का नहीं तो महत्त्व पता होता है, और नहीं ही इसको समझने स्तर होता है| अर्थात इन्हें “इतिहास के दर्शन” (Historiography) का ही समझ नहीं होता|और इसीलिए इन्हें शैक्षणिक जगत की गत्यात्मकता (Dynamism) पर 'सांस्कृतिक साम्राज्यवादी जडता' का प्रभाव का समझ ही नहीं होता।

इन तथाकथित शैक्षणिक (भारतीय सहित) विद्वानों को कभी भी अपनी ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवादी की जड़ता’ की समझ नहीं होती, और इसीलिए इनकी शैक्षणिक नीतियाँ इस सांस्कृतिक साम्राज्यवादी की जड़ता में जड़ (Fix) हो गया है, और इसे समझने में कतई समर्थ नहीं हो सकते| ये राजनीतिक साम्राज्यवाद, वणिक साम्राज्यवाद, औद्योगिक साम्राज्यवाद आदि को जानते समझते हैं, परन्तु उन्हें ‘वित्तीय साम्राज्यवाद’ (Financial Imperialism), ‘डाटा साम्राज्यवाद’ (Data Imperialism) और ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’ (Cultural Imperialism) की कोई समझ ही नहीं होती| और ये शैक्षणिक नीतियों के नियामक, संचालक बन कर (भारत सहित) इन देशों यानि इन संस्कृतियों के भविष्य को गढ़ने वाले बने हुए हैं, और यही (भारत सहित) इनका दुर्भाग्य है|

मैंने देखा है कि भारतीय शैक्षणिक विद्वान् अपनी बातों में ‘Academic Excellence’ (अकादमिक उत्कृष्टता), ‘Industry Partnership’ (वाणिज्यिक सहभागिता), ‘Digital Technological Support’ (डिजीटल तकनिकी समर्थन), ‘Strong Financial Support’ (मजबूत वित्तीय समर्थन) एवं ‘Robust Services Support’ (जबरदस्त सेवा सहयोग) के अभाव का रोना रोते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे अपनी शैक्षणिक मौलिक एवं मूलभूत समझ के अभाव और दूर दृष्टि के अभाव को ढके रहेंगे, लेकिन मूल और मौलिक समस्या की जड़ों पर जाने से बचें रहेंगे| ये ‘Interactive Digital Learning Platform, Contribution of less percentage of GDP, Social Impact Initiative, Diverse Inclusive Campus, आदि आदि आकर्षक, आधुनिक, तकनीकी एवं नवोन्मेषी (Innovative) शब्दों का उल्लेख अपनी बातों में अवश्य करेंगे, जिसे वे विदेशी अंग्रेजी अखबारों में पढ़ लेते हैं|इससे वे अपने को ज्ञानी होने का आभास देते हैं, लेकिन वे चिन्तन विहीन रट्टू तोता होते हैं। इन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ता की समझ की जिक्र करने की जरुरत नहीं है, ऐसा यह अज्ञानतावश करते हैं, या जान बूझकर करते हैं, ताकि इन्हें अपनी ‘परंपरागत संस्कृति जड़ता’ का लाभांश (Dividend) मिलता रहे| चूंकि ये अपने ‘सामाजिक पूजी’ के बदौलत शैक्षणिक नीति नियामक बने रहते हैं, इसीलिए इनमे योग्यता की सापेक्षिक कमी होती है| चूँकि इनमे (भारतीय सहित) अन्य देशों में यानि इन्हें अपनी संस्कृतियों एवं पारिस्थितिक परिस्थितियों के अनुरूप चिंतन सामर्थ्य नहीं होता, इसीलिए इन्हें अपनी बातों में आकर्षक एवं आदर्शात्मक शब्दावली को अनावश्यक रूप से रखते हैं|

यदि आप विश्व के सर्वोत्कृष्ट विश्विविद्यालयों की सूची का अवलोकन करेंगे, तो एक ही बात सबमें सामान्य (Common) यानि सबमें शामिल है, और वह यह है कि इन सभी विकसित राष्ट्रों यानी समाजों की संस्कृति आधुनिक, वैज्ञानिक, तार्किक, न्यायिक एवं मानवतावादी है| इन समाजों की संस्कृति में ढोंग, पाखण्ड, अंधविश्वास और अनावश्यक कर्मकांड का सर्वथा अभाव रहता है| इन देशों में यानि इन समाजों में वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) होती है, ‘आस्था’ (Devotion) के स्थान पर ‘प्रश्नों’ (शंकाओं) को सम्मान मिलता है, व्यक्ति एवं समाज के अस्तित्व का संतुलन होता है, तार्किकता (Logic) एवं विवेकशीलता (Rationality) होती है,  स्वतन्त्रता एवं समता तथा समानता (Equality n Equity) होती है, और राजनेताओं एवं नीति नियामकों की ‘बातों’, ‘विचारों’, ‘भावनाओं’, एवं ‘व्यवहारों’ में “अखंडता’ (Integrity) अवश्य रहती है| अर्थात पिछड़े देशों यानि संस्कृतियों में इन सभी मूल और मौलिक तत्वों की स्थिति उलटा होती है| अत: स्पष्ट है कि शासन का ईश्वर के किसी स्वरुप में आस्था नहीं होता, आत्मा एवं पुनर्जन्म और कर्मवाद के अवैज्ञानिक अमानवीय सिद्धांतों को कोई मान्यता नहीं होता| इन्ही बातों का ध्यान शिक्षा के मूल में होना अनिवार्य है, जिसे पिछड़े हुए देश नहीं अपनाते हैं|अर्थात शिक्षा में आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण होगा, प्रश्न पूछने एवं शंकाओं को सम्मान मिलेगा, वैज्ञानिकता से किसी की भी परम्परागत भावनाओं को खंडित किया जा सकता है, तर्कवादिता के साथ साथ विवेकशीलता महत्वपूर्ण होता है।

लेकिन भारत सहित सभी पिछड़े हुए देशों यानि संस्कृतियों में इन अवैज्ञानिक एवं अमानवीय सिद्धांतों को सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त है, जो स्वयं मध्ययुगीन उत्पत्ति है| इनके पुरातनता का यानी प्राचीन काल के होने का कोई पुरातत्विक प्रमाण या प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण नहीं है| यह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद एक वैश्विक घटना थी, जो वैश्विक सामंतवाद का क्षेत्रीय सांस्कृतिक उत्पाद था| इस सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को यूरोप ने पुनर्जागरण आन्दोलन के द्वारा और रूस एवं चीन ने अपनी सांस्कृतिक बदलाव (क्रांति) के द्वारा समाप्त कर दिया| लेकिन इस मध्यवर्ती सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को सभी पिछड़े हुए देशों में ‘सांस्कृतिक आवरण’ (Cultural Veil) में सुरक्षित रखते हुए आधुनिकता लाने का महज तमाशा किया जाता है| इस पर खुले दिमाग से और राष्ट्र हित में एक व्यापक विमर्श की आवश्यकता है, यदि वास्तव में भारत को फिर से वैश्विक गुरु बनाना है|

याद रहे कि आप भारत के सन्दर्भ में सही और सम्यक साबित हो सकते हैं, लेकिन वैश्विक परिदृश्य में आप अलग थलग नहीं रह सकते हैं| इस ‘वैश्विक गाँव’ (Global Village) में कोई भी एक देश आज उस ‘वैश्विक गाँव’ का एकमात्र टोला (Tola) बन कर रह गया है| हमलोग अवैज्ञानिक, अतार्किक, अविवेकी और अलोकतांत्रिक मानवता विरोधी सांस्कृतिक यथास्थितिवाद को मजबूत रखते हुए आज वैश्विक सन्दर्भ में पिछड़ते जा रहे हैं| आज भारत विश्व के सबसे बड़ी आबादी होने के कारण विश्व का सबसे बड़ा बाजार है, और भारत की आबादी के खाने और इसे पचा लेने की क्षमता के कारण को अपनी वैश्विक पूछ के कारण का कोई अन्य अर्थ मत निकालें| 

शिक्षा ही शांति, समृद्धि, विकास आदि का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, प्रक्रिया है, क्रियाविधि है, और इसीलिए शिक्षा को उत्कृष्ट, सान्दर्भिक, वैज्ञानिक, तर्कशील एवं विवेकशील होना चाहिए एवं बदलती आवश्यकता के कदम से कदम मिलाता हुआ होना चाहिए| उत्कृष्ट शिक्षा ही ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मवाद के ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास एवं अनावश्यक कर्मकांड को खंडित करते हुए उत्कृष्टता पर छा गए धुन्ध को मिटा सकता है और इस तरह विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी को मौलिक और मूलभूत आधार दे सकता है। शिक्षा में अनिवार्य रुप से सांस्कृतिक जड़ता दूर कर सांस्कृतिक गतिशीलता लानी ही होगी। इन सभी पर ठहर कर और गंभीर होकर आप भी विचार करें| इस आलेख को एक से अधिक बार पढ़ा जाय।

आचार्य निरंजन सिन्हा   

शनिवार, 2 सितंबर 2023

विद्रोह करें !

 (Revolt Against)

मैंने कहा – “विद्रोह करें”, परन्तु किसके प्रति यानि किसके विरुद्ध ‘विद्रोह’ करना है? विद्रोह करने के साथ एक बहुत बड़ी उलझन है, कि आप जिसके विरुद्ध विद्रोह करते है, आप उसी के स्तर (Strata Level) या तल (Floor) पर पहुँच जाते हैं और उसी प्रतिबंध के स्तर या तल पर उलझ कर रह जाते हैं|अक्सर लोगो की ‘न्याय’ की अवधारणा के प्रति जो समझ होती है, उसे ही पाने के लिए तत्कालीन व्यवस्था या तंत्र के विरुद्ध विद्रोह करते हैं, या करना चाहते हैं। न्याय का तात्पर्य है - ‘स्वतंत्रता’, ‘समता’ (एवं समानता, इसे क्रमश: Equality व Equity भी कहते हैं). एवं ‘बंधुत्व’ की उपलब्धता| लोग इसी चेतनता के अपने बोध के अनुसार इसे पाने के लिए विद्रोह करते हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है|

जब कोई किसी व्यवस्था (Order), तंत्र (System), विचार (Thought), मूल्य (Value) आदि के विरुद्ध विद्रोह करता है, या विद्रोह करना चाहता है, तो वह उस व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि के उसी तत्व (Components) के स्तर एवं तल पर वह ठहर कर उलझ भी जाता है| ये कोई सृजनात्मक और रचनात्मक काम नहीं करना चाहते हैं। जैसे कोई जाति व्यवस्था का विरोध कर विद्रोह करता है| जाति व्यवस्था ऊँच – नीच के स्तरीकरण पर खड़ा एक अमानवीय मूल्यों पर आधारित ढांचा है| जब कोई जाति व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह करता है, तो अक्सर वह इस व्यवस्था के विरुद्ध अपनी जाति का समर्थन कर जातीय संगठन बना लेता है और उसे सशक्त करने और गौरवपूर्ण बनाने का प्रयास करता है| उसे यह समझ ही नहीं आता है, कि जिसका वह विरोध करने चला है, दरअसल वह उसी "जाति व्यवस्था" का समर्थन ही कर रहा है, और उसी को और मजबूत भी कर रहा है|

ऐसे सामान्य लोग समाज में लगे हीन प्रतिबंधों के विरुद्ध जो विद्रोह करते हैं, उस विद्रोह का स्तर एवं तल भी तो उसी स्तर या तल का होगा, जिस स्तर या तक का प्रतिबन्ध होगा| अर्थात इनका विद्रोह भी हीन (निम्न मानक का मापदंड) स्तर का ही होगा, और हीन स्तर एवं तल के विरुद्ध ही विद्रोह कर वह अपना सर्वस्व न्योछावर कर देगा| इस विद्रोह में वह अपना और अपने समुदाय या समाज का धन, संसाधन, ऊर्जा, समय, जवानी, उत्साह आदि झोंक कर बर्बाद कर देता है, और अपने समाज के लिए कुछ भी सकारात्मक रचनात्मक सृजन नहीं करता है तथा कोई दिशा भी नहीं देता है| वह समाज इसी स्तर या तल पर आकार ठहर जाता है, और वह किसी भी उच्च स्तरीय मानक की अपेक्षा नहीं कर पाता है|

ध्यान रहे कि मैं किसी भी प्रतिबन्ध, चाहे उसका स्तर या तल हीन हो या उच्च स्तर या तल का हो, यदि वह प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध जाता है, तो मैं ऐसे किसी भी व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि का समर्थन नहीं कर सकता हूँ| ऐसे किसी भी प्रतिबन्ध को ‘अमानवीय’ प्रतिबन्ध कहा जाता है, जो किसी के महत्तम सामाजिक विकास में बाधक बनता है, अर्थात जो प्रतिबन्ध किसी की स्वतन्त्रता, समता एवं बंधुत्व को कम करता है, या बाधित करता है, उसका प्रत्येक सजग, सतर्क एवं विवेकशील व्यक्ति और समाज विरोध करता ही है| तो ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति या एक समाज को ऐसे प्रतिबंधो से मुक्ति कैसे मिल सकती है, जो बड़ा अहम् सवाल है?

डॉ भीम राव आम्बेडकर ने  19 जुलाई, 1942 के नागपुर में दमित वर्गों के सम्मलेन में स्पष्ट आह्वान किया – Educate (शिक्षित करना या होना), Agitate (मनन मंथन करना या उद्वेलित होना), Organise (उस विषय वस्तु को या उन लोगो को व्यवस्थित करना या संगठित करना), परन्तु राजनीतिक स्वार्थों के लिए लोगो ने इनके ‘सूत्र’ के शब्दों के क्रम भी बदल दिया, और शब्दों को भी बदल दिया| अब लोग Educate से तो शुरू करते हैं, परन्तु दुसरे क्रम में Organise ले आए, और Agitate को तीसरे क्रम पर लाकर उसे Struggle से प्रतिस्थापित कर दिया| यदि आपने उस महापुरुष के ‘सूत्र वाक्य’ को बदल दिया, तो उसके साथ आप अपना नाम लगा सकते हैं, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उस महापुरुष के मौलिक सूत्र वाक्य में छेड़छाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं है| शब्दों के सिर्फ ‘सतही’ (Superficial) अर्थ ही नहीं होते हैं, उसके निहित (Implied) अर्थ भी होते हैं, जो प्रत्येक शब्दों की एक विशिष्ट संरचना (Structuralism in Language) में निहित होती है| सतही लोगो का ध्यान सिर्फ सतही अर्थ तक ही रहता है, क्योंकि उनका स्तर भी वही सतही होता है| उनको कम से कम एक विद्वान् के शब्दों के क्रम एवं चयन के नाम पर रुक कर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए था| लोग अपने “आत्म विद्रोह” (Agitate) को भूल कर, सीधे व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि के विरुद्ध कूद जाते हैं|

सामान्यत: लोग जब अपने द्वारा किये गये विद्रोह का मूल्यांकन करता है, तो व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि में आए बदलाव की प्रत्येक मात्रा के लिए अपने योगदान को आगे रख कर देखते हैं| परन्तु वे अदृश्य “बाजार की शक्तियों” की क्रियाविधि एवं प्रभाव को नहीं जानते हैं, या उसका मूल्याङ्कन की क्षमता ही उनमे नहीं होती है| बाजर की शक्तियां ही इतिहास की अवधि में ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ कहलाती है, जो सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था एवं ढाँचा में बड़ी स्थिरता से रूपांतरण करता रहता है| ये तथाकथित क्रांतिकारी बौद्धिक विद्रोही बाजार की शक्तियों के प्रभाव एवं परिणाम को भी अपनी उपलब्धि में समेट कर सामान्य जन को गुमराह करते रहते हैं| लेकिन यह भी सही है कि एक व्यक्ति का भी “तितली प्रभाव” (Butter Fly Effect) होता है| तो ऐसा व्यक्ति कौन होता है? इसे आगे स्पष्ट किया गया है|

ऐसा निम्न या हीन स्तर या तल पर विद्रोह करने वाला अपने को क्रांतिकारी विद्रोही दिखाना चाहता है कि वह स्वतन्त्रता, समता और बंधुत्व का सजग, सक्रिय एवं विवेकवान समर्थक है। परन्तु वह मूल रूप में उसी स्तर और उसी तल के खूंटे से मजबूती से बंधा होता है, जिसका वह विद्रोह करता है| वह उसी खूंटे के चक्कर लगाता रहता है और वह तथाकथित न्यायप्रियता के विरुद्ध विद्रोह की ‘आत्ममुग्धता’ के चम्मच (Spoon) में डुबकियां लगता रहता है| विद्रोह के इस खूंटे के बिना उसको अपने अस्तित्व का कोई बोध (Perception) ही नहीं होता है| अज्ञात का समाधान कभी भी ज्ञात से नहीं खोजा जा सकता है| किसी भी समस्या का समाधान उसी स्तर एवं तल पर रह कर नहीं पाया जा सकता है, जिस स्तर एवं तल का समस्या होता है, उसके समाधान के लिए समस्या के स्तर एवं तल से ऊपर उठना पड़ता है|

लोगो पर प्रभावी नियंत्रण का एक सफल एवं कारगर तरीका यह भी है कि लोगों से प्रतिक्रिया लेकर ही उसे नियंत्रित किया जाय| इस तरीके की यह बहुत बड़ी खासियत यह है कि प्रतिक्रिया देने वाले को किसी से नियंत्रित होना पड रहा है, इसका उसे कदापि अहसास ही नहीं होता है| वह प्रतिक्रिया देने वाला अपना समस्त ज्ञात ज्ञान को उस प्रतिक्रिया में उढेल कर “बौद्धिक’ दिखने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहता है| ऐसा कर वह आत्ममुग्ध भी रहता है, और नित नए नए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देकर वह खुश भी रहता है| नित नए नए मुद्दों के अभाव में वह बेरोजगार सा हो जाता है, और इसीलिए व्यवस्था या तंत्र भी नित नए नए मुद्दे परोसता रहता है| सामान्य जन भी क्रान्ति को गतिमान होने के आभासी (स्वप्निल) दावे में खुश रहता है, परन्तु मौलिक समस्या जस का तस रहता है| ऐसे तथाकथित प्रगतिशील बौद्धिकों को लगे रहने की बधाइयां| इस तरह ऐसे विद्रोही बौद्धिक ‘प्रतिक्रिया’ के बंधक बने रहते हैं, जनता मग्न रहती है, और व्यवस्था या तंत्र के संचालक सफल रहते हैं|

ऐसे दमित (Depressed/ Oppressed) लोगों को ही विद्रोह करना होता है| ऐसे दमित होने का आधार लैंगिक (Gender, not Sex) हो सकता है, रंग (श्वेत, अश्वेत) हो सकता है, वर्ग हो सकता है, जाति हो सकता है, भाषा हो सकता है, आस्था (पंथ/ सम्प्रदाय) हो सकता है या क्षेत्र हो सकता है| ऐसे दमित लोगों को अग्रगामी और पश्चगामी दोनों शक्तियों से प्रतिबंधित कर बाँध दिया जाता है| एक तो उस पर हीनता का प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है, जिसे मैं अग्रगामी प्रतिबन्ध कहता हूँ| दूसरा प्रतिबन्ध उसके विद्रोह के स्तर एवं तल पर लगाया या उलझाया जाता है, जिसे मैं पश्चगामी प्रतिबन्ध (आगे और पीछे से प्रतिबंध) कहता हूँ| इसमें विद्रोह के मानक को ही निम्न स्तर एवं तल पर लाकर वह अपनी इस हीनता को स्वीकार कर लेता है| वह अपनी सोच, कार्य, अभिवृति, व्यवहार, ज्ञान का कोई उच्च स्तरीय मानदंड तय नहीं करता है, और उसी हीनता के छोटे चम्मच में डुबकियां लगता रहता है और तैरता रहता है| उसकी दुनिया वही चम्मच हो जाती है| तब विद्रोह का स्तर एवं तल ही उसके जीवन का सार बन जाता है| महिलायें विशेष प्रकार से सजधज कर अपना विद्रोह दर्ज करती है, रंग के आधार पर दमित लोग क्लबों में घुसकर विद्रोह प्रदर्शित करते हैं, जाति के प्रति विद्रोह करने वाले जातीय संगठन बना कर और सतही व मामूली कर्मकांडों का तथाकथित विद्वतापूर्ण विश्लेषण कर विद्रोह प्रदर्शित करते हैं|ऐसे लोगों में हीनता का भाव भरा हुआ होता है, अर्थात उनमें आत्मविश्वास की भारी कमी दिखती होती है| ‘वे कुछ भी करने में समर्थ हैं’, ऐसा सोच ही नहीं ला पाते हैं। ‘हीनता’ का माला जपना ही इनका विद्रोह है|

क्या स्वतन्त्रता या मुक्ति का अर्थ सिर्फ इन प्रतिबंधों से ऊपर उठना ही है, या कुछ और भी उच्च स्तरीय मानक एवं अर्थ भी है? इन्होने अपनी 'सोचने विचारने और समझने की जड़ता' को ही ‘हीनता की जड़ता’ (Inertia) में बदल दिया है| इन्होने अपनी ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक जड़ता’ को ही ‘हीनता की जड़ता’ में बदल दिया है| आजकल विद्रोह के स्वर बहुत मुखर हो गया है, लेकिन उस विद्रोह का स्तर (Level) या तल (Floor) भी हीनता के विरुद्ध होने के कारण निम्न स्तर का हो गया है, और इसीलिए इस विद्रोह का परिणाम ‘मृग मरीचिका’ (Mirage) बन गयी है| सभी को लगता है कि हमारे विद्रोह की दिशा और दशा सही है| बिस्मार्क ने अपने लोगों में ‘उत्कृष्टता’ का ‘आत्म’ भाव भर कर उस जर्मनी का निर्माण कर दिया, जिस शक्ति पर सवार होकर हिटलर ने विश्व को ही रौंद दिया| और भारत के लोग अपने ही लोगों में हीनता की भावना भरने को बेचैन हैं, पता नहीं यह मूर्खतावश है, या धूर्तता वश या अज्ञानता वश है| इसका सम्यक मूल्याङ्कन तो आपको करना है| इसीलिए आज भी भारत बिहार से कम आबादी वाले जापान या छह करोड़ की आबादी वाले जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस को पछाड़ने के प्रयास में लगा हुआ है, चीन और अमेरिका को पछाड़ना तो बहुत दूर की बात है|

लेकिन आत्मविद्रोह’ यानि अपने 'स्वयं' (Self) के विरुद्ध विद्रोह सबसे बड़ा और प्रभाशाली विद्रोह है, जो सब कुछ बदल देता है| बुद्धि के प्रबल ज्ञाता ‘बुद्ध’ ने इसका आविष्कार किया, जिसे आधुनिक युग में श्री सत्यनारायण गोयनका ने प्रसारित प्रचारित करवाया|अपने 'स्वयं का अवलोकन' (देखना) करना इस विद्रोह की शुरुआत है, इसे ही “विपस्सना” कहा गया है| तब आप अपने 'स्वयं' को अर्थात अपने 'चेतनता' को, यानि अपने 'मन' को समझने लगते हैं, उसका विश्लेषण, मूल्यांकन और संबंधित कई प्रश्नों के उत्तर के साथ निष्कर्ष निकालने लगते हैं, तो आप अपने मन को नियंत्रित एवं नियमित करने लगते हैं| तब आपको इस धरती पर अपने आने का प्रयोजन समझ में आने लगता है| तब कोई अपने जीवन मूल्यों को और जीवन के प्रयोजन को जानने समझने लगता है| तब उसमे कुछ नया करने का जज्बा और जुनून पैदा होता है| आजतक कोई भी अपने जज्बा और जुनून पैदा किए बिना सफल नहीं हुआ है। तब वह अपने ‘आत्म’ को ‘अधि’ (ऊपर) यानि अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से जोड़ पाता है| तब वह किसी समस्या के अज्ञात पक्ष को जानने समझने लगता है, उसका अन्तर्ज्ञान (Intuition) विकसित हो जाता है और उसे कई आभास भी आने लगता है। वह अपना स्तर एवं तल को समस्या के स्तर एवं तल से ऊपर उठा कर समस्या का समाधान खोज लेता है| ऐसे ही आध्यात्मिक व्यक्तियों में प्राचीन काल में ‘बुद्ध’ हुए, आधुनिक काल में अल्बर्ट आइन्स्टीन हुए, और इस शताब्दी में स्टीफन हाकिन्स हुए, जिन्होंने समस्या के स्तर एवं तल से बहुत ऊपर उठ कर कई समस्याओं का समाधान पाया| एक जुनूनी व्यक्ति ही समस्याओं के स्तर एवं तल से ऊपर उठकर अनन्त प्रज्ञा के अन्तर्ज्ञान के साथ कुछ सृजन और सकारात्मक कार्य एवं विचार के साथ समस्याओं का समाधान पा सकता है।

कृपया आप स्थिर होकर देखें कि आपके विद्रोह का स्तर एवं तल क्या है?

आचार्य निरंजन सिन्हा

 

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