(Revolt Against)
मैंने कहा – “विद्रोह करें”, परन्तु किसके
प्रति यानि किसके विरुद्ध ‘विद्रोह’ करना है? विद्रोह करने के साथ एक बहुत बड़ी
उलझन है, कि आप जिसके विरुद्ध विद्रोह करते है, आप उसी के स्तर (Strata Level) या तल (Floor) पर पहुँच जाते हैं और उसी प्रतिबंध के स्तर या तल पर उलझ कर रह जाते हैं|अक्सर लोगो की ‘न्याय’ की अवधारणा के प्रति जो समझ होती है, उसे
ही पाने के लिए तत्कालीन व्यवस्था या तंत्र के विरुद्ध विद्रोह करते हैं, या करना चाहते हैं। न्याय
का तात्पर्य है - ‘स्वतंत्रता’, ‘समता’ (एवं समानता, इसे क्रमश: Equality व Equity
भी कहते हैं). एवं ‘बंधुत्व’ की उपलब्धता| लोग इसी चेतनता के अपने बोध के अनुसार इसे पाने के लिए विद्रोह
करते हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिलती है|
जब कोई
किसी व्यवस्था (Order), तंत्र (System), विचार (Thought), मूल्य (Value) आदि के
विरुद्ध विद्रोह करता है, या विद्रोह करना चाहता है, तो वह उस व्यवस्था, तंत्र, विचार
या मूल्य आदि के उसी तत्व (Components) के स्तर एवं तल पर वह ठहर कर उलझ भी जाता है| ये कोई सृजनात्मक और रचनात्मक काम नहीं करना चाहते हैं। जैसे
कोई जाति व्यवस्था का विरोध कर विद्रोह करता है| जाति व्यवस्था ऊँच – नीच के
स्तरीकरण पर खड़ा एक अमानवीय मूल्यों पर आधारित ढांचा है| जब कोई जाति व्यवस्था के
विरुद्ध विद्रोह करता है, तो अक्सर वह इस व्यवस्था के विरुद्ध अपनी जाति का समर्थन
कर जातीय संगठन बना लेता है और उसे सशक्त करने और गौरवपूर्ण बनाने का प्रयास करता है| उसे यह समझ ही नहीं
आता है, कि जिसका वह विरोध करने चला है, दरअसल वह उसी "जाति व्यवस्था" का समर्थन ही कर रहा
है, और उसी को और मजबूत भी कर रहा है|
ऐसे सामान्य लोग समाज में लगे हीन प्रतिबंधों
के विरुद्ध जो विद्रोह करते हैं, उस विद्रोह का स्तर एवं तल भी तो उसी स्तर या तल का
होगा, जिस स्तर या तक का प्रतिबन्ध होगा| अर्थात इनका विद्रोह भी हीन (निम्न मानक का मापदंड) स्तर का ही
होगा, और हीन स्तर एवं तल के विरुद्ध ही विद्रोह कर वह अपना सर्वस्व न्योछावर कर
देगा| इस विद्रोह में वह अपना और अपने समुदाय या समाज का धन, संसाधन, ऊर्जा, समय,
जवानी, उत्साह आदि झोंक कर बर्बाद कर देता है, और अपने समाज के लिए कुछ भी सकारात्मक रचनात्मक सृजन नहीं करता है तथा कोई दिशा भी नहीं देता है| वह समाज इसी स्तर या तल पर आकार ठहर जाता है, और वह
किसी भी उच्च स्तरीय मानक की अपेक्षा नहीं कर पाता है|
ध्यान रहे कि मैं किसी भी प्रतिबन्ध, चाहे उसका
स्तर या तल हीन हो या उच्च स्तर या तल का हो, यदि वह प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध
जाता है, तो मैं ऐसे किसी भी व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि का समर्थन नहीं
कर सकता हूँ| ऐसे किसी भी प्रतिबन्ध को ‘अमानवीय’ प्रतिबन्ध कहा जाता है, जो किसी
के महत्तम सामाजिक विकास में बाधक बनता है, अर्थात जो प्रतिबन्ध किसी की स्वतन्त्रता, समता
एवं बंधुत्व को कम करता है, या बाधित करता है, उसका प्रत्येक सजग, सतर्क एवं विवेकशील व्यक्ति और
समाज विरोध करता ही है| तो ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति या एक समाज को ऐसे प्रतिबंधो से
मुक्ति कैसे मिल सकती है, जो बड़ा अहम् सवाल है?
डॉ भीम राव आम्बेडकर ने 19 जुलाई, 1942 के नागपुर में
दमित वर्गों के सम्मलेन में स्पष्ट आह्वान किया – Educate (शिक्षित करना या होना),
Agitate (मनन मंथन करना या उद्वेलित होना), Organise (उस विषय वस्तु को या उन लोगो
को व्यवस्थित करना या संगठित करना), परन्तु राजनीतिक स्वार्थों के लिए लोगो ने
इनके ‘सूत्र’ के शब्दों के क्रम भी बदल दिया, और शब्दों को भी बदल दिया| अब लोग
Educate से तो शुरू करते हैं, परन्तु दुसरे क्रम में Organise ले आए, और Agitate
को तीसरे क्रम पर लाकर उसे Struggle से प्रतिस्थापित कर दिया| यदि आपने उस महापुरुष के ‘सूत्र वाक्य’ को
बदल दिया, तो उसके साथ आप अपना नाम लगा सकते हैं, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उस महापुरुष के मौलिक सूत्र वाक्य में छेड़छाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं है| शब्दों के
सिर्फ ‘सतही’ (Superficial) अर्थ ही नहीं होते हैं, उसके निहित (Implied) अर्थ भी होते हैं, जो प्रत्येक शब्दों
की एक विशिष्ट संरचना (Structuralism in Language) में निहित होती है| सतही लोगो का ध्यान सिर्फ सतही अर्थ तक
ही रहता है, क्योंकि उनका स्तर भी वही सतही होता है| उनको कम से कम एक विद्वान् के
शब्दों के क्रम एवं चयन के नाम पर रुक कर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए था| लोग अपने
“आत्म विद्रोह” (Agitate) को भूल कर, सीधे व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि के
विरुद्ध कूद जाते हैं|
सामान्यत: लोग जब अपने द्वारा किये गये विद्रोह
का मूल्यांकन करता है, तो व्यवस्था, तंत्र, विचार या मूल्य आदि में आए बदलाव की प्रत्येक
मात्रा के लिए अपने योगदान को आगे रख कर देखते हैं| परन्तु वे अदृश्य “बाजार
की शक्तियों” की क्रियाविधि एवं प्रभाव को नहीं जानते हैं, या उसका मूल्याङ्कन की
क्षमता ही उनमे नहीं होती है| बाजर की शक्तियां ही इतिहास की अवधि में ‘ऐतिहासिक
शक्तियां’ कहलाती है, जो सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था एवं ढाँचा में बड़ी स्थिरता
से रूपांतरण करता रहता है| ये तथाकथित क्रांतिकारी बौद्धिक विद्रोही बाजार की शक्तियों के प्रभाव एवं परिणाम को भी अपनी
उपलब्धि में समेट कर सामान्य जन को गुमराह करते रहते हैं| लेकिन यह भी सही है कि एक
व्यक्ति का भी “तितली प्रभाव” (Butter Fly Effect) होता है| तो ऐसा व्यक्ति कौन
होता है? इसे आगे स्पष्ट किया गया है|
ऐसा निम्न या हीन स्तर या तल पर विद्रोह करने वाला अपने को क्रांतिकारी विद्रोही दिखाना चाहता है कि वह स्वतन्त्रता, समता और बंधुत्व का सजग, सक्रिय एवं विवेकवान समर्थक है। परन्तु वह मूल रूप में उसी स्तर और उसी तल के खूंटे से मजबूती से बंधा होता है, जिसका वह विद्रोह करता है| वह
उसी खूंटे के चक्कर लगाता रहता है और वह तथाकथित न्यायप्रियता के विरुद्ध विद्रोह की ‘आत्ममुग्धता’ के
चम्मच (Spoon) में डुबकियां लगता रहता है| विद्रोह के इस खूंटे के बिना उसको अपने अस्तित्व
का कोई बोध (Perception) ही नहीं होता है| अज्ञात
का समाधान कभी भी ज्ञात से नहीं खोजा जा सकता है| किसी भी समस्या का समाधान
उसी स्तर एवं तल पर रह कर नहीं पाया जा सकता है, जिस स्तर एवं तल का समस्या होता है,
उसके समाधान के लिए समस्या के स्तर एवं तल से ऊपर उठना पड़ता है|
लोगो पर प्रभावी
नियंत्रण का एक सफल एवं कारगर तरीका यह भी है कि लोगों से प्रतिक्रिया लेकर ही उसे
नियंत्रित किया जाय| इस तरीके की यह
बहुत बड़ी खासियत यह है कि प्रतिक्रिया देने वाले को किसी से नियंत्रित होना पड रहा
है, इसका उसे कदापि अहसास ही नहीं होता है| वह प्रतिक्रिया देने वाला अपना समस्त
ज्ञात ज्ञान को उस प्रतिक्रिया में उढेल कर “बौद्धिक’ दिखने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहता है| ऐसा कर
वह आत्ममुग्ध भी रहता है, और नित नए नए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देकर वह खुश भी रहता
है| नित नए नए मुद्दों के अभाव में वह बेरोजगार सा हो जाता है, और इसीलिए व्यवस्था या
तंत्र भी नित नए नए मुद्दे परोसता रहता है| सामान्य जन भी क्रान्ति को गतिमान होने के
आभासी (स्वप्निल) दावे में खुश रहता है, परन्तु मौलिक समस्या जस का तस रहता है| ऐसे तथाकथित
प्रगतिशील बौद्धिकों को लगे रहने की बधाइयां| इस तरह ऐसे विद्रोही बौद्धिक ‘प्रतिक्रिया’
के बंधक बने रहते हैं, जनता मग्न रहती है, और व्यवस्था या तंत्र के संचालक सफल
रहते हैं|
ऐसे दमित (Depressed/ Oppressed) लोगों को ही
विद्रोह करना होता है| ऐसे दमित होने का आधार लैंगिक (Gender, not Sex) हो सकता है,
रंग (श्वेत, अश्वेत) हो सकता है, वर्ग हो सकता है, जाति हो सकता है, भाषा हो सकता है, आस्था (पंथ/ सम्प्रदाय) हो सकता
है या क्षेत्र हो सकता है| ऐसे दमित लोगों को अग्रगामी और पश्चगामी दोनों शक्तियों
से प्रतिबंधित कर बाँध दिया जाता है| एक तो उस पर हीनता का प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है,
जिसे मैं अग्रगामी प्रतिबन्ध कहता हूँ| दूसरा प्रतिबन्ध उसके विद्रोह के स्तर एवं तल पर लगाया
या उलझाया जाता है, जिसे मैं पश्चगामी प्रतिबन्ध (आगे और पीछे से प्रतिबंध) कहता हूँ| इसमें विद्रोह के मानक
को ही निम्न स्तर एवं तल पर लाकर वह अपनी इस हीनता को स्वीकार कर लेता है| वह अपनी
सोच, कार्य, अभिवृति, व्यवहार, ज्ञान का कोई उच्च स्तरीय मानदंड तय नहीं करता है, और
उसी हीनता के छोटे चम्मच में डुबकियां लगता रहता है और तैरता रहता है| उसकी दुनिया वही चम्मच हो
जाती है| तब विद्रोह का स्तर एवं तल ही उसके जीवन का सार बन जाता है| महिलायें विशेष
प्रकार से सजधज कर अपना विद्रोह दर्ज करती है, रंग के आधार पर दमित लोग क्लबों में
घुसकर विद्रोह प्रदर्शित करते हैं, जाति के प्रति विद्रोह करने वाले जातीय संगठन
बना कर और सतही व मामूली कर्मकांडों का तथाकथित विद्वतापूर्ण विश्लेषण कर विद्रोह प्रदर्शित
करते हैं|ऐसे लोगों में हीनता का भाव भरा हुआ होता है, अर्थात उनमें आत्मविश्वास की भारी कमी दिखती होती है|
‘वे कुछ भी करने में समर्थ हैं’, ऐसा सोच ही नहीं ला पाते हैं। ‘हीनता’ का माला जपना ही इनका विद्रोह है|
क्या स्वतन्त्रता या मुक्ति का अर्थ सिर्फ इन
प्रतिबंधों से ऊपर उठना ही है, या कुछ और भी उच्च स्तरीय मानक एवं अर्थ भी है?
इन्होने अपनी 'सोचने विचारने और समझने की जड़ता' को ही ‘हीनता की जड़ता’ (Inertia) में
बदल दिया है| इन्होने अपनी ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक जड़ता’ को ही ‘हीनता की जड़ता’
में बदल दिया है| आजकल विद्रोह के स्वर बहुत मुखर हो गया है, लेकिन उस विद्रोह का स्तर (Level)
या तल (Floor) भी हीनता के विरुद्ध होने के कारण निम्न स्तर का हो गया है, और इसीलिए इस विद्रोह का परिणाम ‘मृग मरीचिका’ (Mirage) बन गयी
है| सभी को लगता है कि हमारे विद्रोह की दिशा और दशा सही है| बिस्मार्क ने अपने
लोगों में ‘उत्कृष्टता’ का ‘आत्म’ भाव भर कर उस जर्मनी का निर्माण कर दिया, जिस शक्ति पर
सवार होकर हिटलर ने विश्व को ही रौंद दिया| और भारत के लोग अपने ही लोगों में
हीनता की भावना भरने को बेचैन हैं, पता नहीं यह मूर्खतावश है, या धूर्तता वश या अज्ञानता वश है|
इसका सम्यक मूल्याङ्कन तो आपको करना है| इसीलिए आज भी भारत बिहार से कम आबादी वाले
जापान या छह करोड़ की आबादी वाले जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस को पछाड़ने के प्रयास में लगा हुआ है, चीन और अमेरिका को पछाड़ना तो बहुत दूर की बात है|
लेकिन ‘आत्मविद्रोह’
यानि अपने 'स्वयं' (Self) के विरुद्ध विद्रोह सबसे बड़ा और प्रभाशाली विद्रोह है, जो सब कुछ
बदल देता है| बुद्धि के प्रबल ज्ञाता ‘बुद्ध’ ने इसका आविष्कार किया,
जिसे आधुनिक युग में श्री सत्यनारायण गोयनका ने प्रसारित प्रचारित करवाया|अपने 'स्वयं का अवलोकन' (देखना) करना इस विद्रोह की शुरुआत
है, इसे ही “विपस्सना” कहा गया है| तब आप अपने 'स्वयं' को अर्थात अपने 'चेतनता' को,
यानि अपने 'मन' को समझने लगते हैं, उसका विश्लेषण, मूल्यांकन और संबंधित कई प्रश्नों के उत्तर के साथ निष्कर्ष निकालने लगते हैं, तो आप अपने मन को नियंत्रित एवं नियमित करने लगते हैं| तब आपको इस
धरती पर अपने आने का प्रयोजन समझ में आने लगता है| तब कोई अपने जीवन मूल्यों को और जीवन
के प्रयोजन को जानने समझने लगता है| तब उसमे कुछ नया करने का जज्बा और जुनून पैदा
होता है| आजतक कोई भी अपने जज्बा और जुनून पैदा किए बिना सफल नहीं हुआ है। तब वह अपने ‘आत्म’ को ‘अधि’ (ऊपर) यानि अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से जोड़ पाता है| तब
वह किसी समस्या के अज्ञात पक्ष को जानने समझने लगता है, उसका अन्तर्ज्ञान (Intuition) विकसित हो जाता है और उसे कई आभास भी आने लगता है। वह अपना स्तर एवं तल को समस्या के स्तर एवं तल से ऊपर उठा कर समस्या का समाधान खोज लेता है| ऐसे ही आध्यात्मिक व्यक्तियों में
प्राचीन काल में ‘बुद्ध’ हुए, आधुनिक काल में अल्बर्ट आइन्स्टीन हुए, और इस
शताब्दी में स्टीफन हाकिन्स हुए, जिन्होंने समस्या के स्तर एवं तल से बहुत ऊपर उठ
कर कई समस्याओं का समाधान पाया| एक जुनूनी व्यक्ति ही समस्याओं के स्तर एवं तल से ऊपर उठकर अनन्त प्रज्ञा के अन्तर्ज्ञान के साथ कुछ सृजन और सकारात्मक कार्य एवं विचार के साथ समस्याओं का समाधान पा सकता है।
कृपया आप स्थिर होकर देखें कि आपके विद्रोह का
स्तर एवं तल क्या है?
आचार्य निरंजन सिन्हा
बहुत ही तर्कपूर्ण एवं प्रेरक आलेख।
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी बहुत ही महत्वपूर्ण है सर
जवाब देंहटाएंप्रेरक लेख सर
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