मंगलवार, 4 जुलाई 2023

साहित्य ज्ञान का केवल एक स्रोत ही नहीं है, साथ ही यह नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है|

भाषा विज्ञान में यानि भाषा के सुव्यवस्थित ज्ञान में साहित्य का बहुत ही अधिक महत्त्व है| एक होमो सेपियंस को एक पशु मानव से अलग करने में भाषा और साहित्य का ही योगदान है, जिसने एक पशुवत मानव को एक सामाजिक मानव (Homo Socious) एवं तकनिकी मानव (Homo Faber) बनाया है| वस्तुत: “साहित्य” शब्द ‘सामाजिक’ ‘हित’ का ‘कृत्य’ (सा + हि + त्य) ही है| लेकिन साहित्य को समग्रता और व्यापकता में समझने के लिए हमें भाषा के उद्विकास (Evolution) को समझना होगा|

जब आदि काल में आदि मानव अपने किए गये शिकार को आग में पकाने के लिए, या ठण्ड या हिंसक पशुओ से बचने के लिए आग को घेर कर बैठने लगा, तब ही मानव में ‘विमर्श’ की प्रक्रिया शुरू हुई| विमर्श मन के सोच पर फिर से सोचना और उसे आपस में साझा करना हुआ, यानि ‘विचार विमर्श’ शुरू हुआ| इससे मानव में संज्ञानात्मक क्रान्ति (Cognitive Revolution) हुई, यानि एक मानव अपने आस पास के चीजों को समझने लगा, विमर्श करने लगा, उस पर मनन मंथन करने लगा, किसी अंतिम निष्कर्ष पर आने लगा और उसे सप्रेषित भी करने लगा|

इसी काल में मानव ने गुफाओं में अपने विचारों एवं भावनाओं को रेखांकन के रूप में व्यक्त करना शुरू कर दिया| इसी से लिपि का आदि स्वरुप उत्पन्न हुआ, जो संशोधित और संवर्धित होते हुए आधुनिक ‘लिपि’ के स्वरुप में आया| विशिष्ट ध्वनि के उद्गार से 'अक्षर' एवं ‘शब्द’ बने और शब्दों के समूह से ‘वाक्य’ बने| इसी के संयुक्त स्वरुप ने आदि स्वरुप में ‘बोली’ (Dialect) को जन्म दिया एवं प्रचलित किया| लेकिन किसी ‘बोली’ का प्रभाव क्षेत्र अत्यंत सीमित होता है| और सुव्यवस्थित व्याकरण के नियमों के अभाव में किसी भी ‘सन्देश’ या ‘समाचार’ के अर्थ का सम्प्रेषण दुसरे छोर पर वही नहीं हो पाता है, जो ‘सन्देश’ या ‘समाचार’ जारी करने वाला देता है| इसने शब्दों, वाक्यों एवं अभिव्यक्ति के सुस्पष्ट नियमों की आवश्यकता जताई|

इस तरह भाषा के सुस्पष्ट नियमों, जिसे व्याकरण भी कहा जाता है, के साथ ‘राजकीय भाषा’ की उत्पत्ति हुई| सुस्पष्ट व्याकरण के नियम और व्यवस्थित लिपि के साथ ही सामाजिक सन्दर्भो को भी भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाने लगा| इसी के साथ भाषा ‘साहित्य’ के स्तर पर पहुँच जाता है| जब एक भाषा अपने साहित्य के द्वारा समाज में विकसित हो रहे विज्ञान, अभियंत्रण एवं तकनिकी को भी अभिव्यक्त करने, संरक्षित करने एवं संप्रेषित करने लगता है, तो एक भाषा अपनी उत्कृष्टता के शिखर को पा लेता है| कभी कभी किसी भी भाषा को जन सामान्य की पहुँच से बाहर कर देना होता है, तो उसे अलंकृत एवं तथाकथित रूप में संस्कारित कर समाज के विशिष्ट एवं तथाकथित उत्कृष्ट लोगों की भाषा बना देनी पड़ती है| विश्व की किसी भाषा के उद्विकास के क्रम में यदि कोई कड़ी लुप्त है, तो उसमे अवश्य ही कोई साजिश है, या कोई फर्जी कहानी है|

इस तरह हम पाते हैं कि जब कोई भाषा समाज के हितों के संरक्षण, समर्थन, संवर्धन एवं विकास के लिए समर्पित होता है, तब वह भाषा उसे विश्व पटल पर किसी उत्कृष्ट साहित्य के रूप में प्रस्तुत कर पाता है| सामाजिक व्यवस्था के लगातार संवर्धन एवं विकास के लिए ज्ञान का नैतिक होना, विवेकपूर्ण होना, तार्किक होना, व्यवस्थित होना और उसे समाज के लिए समर्पित होना अनिवार्य है| यदि साहित्य समाज के हितों के अनुरूप भाषा को दिशा नहीं देगा, तो वह साहित्य विध्वंसात्मक हो जायगा और ‘साहित्य’ के सम्मान से वंचित भी रह जायगा| समाज के हितों के अनुरूप ही भाषा को दिशा देना ही ‘नैतिकता’ का अनिवार्य कार्य या दायित्व है|

नैतिकता सामाजिक मान्यताओं पर आधारित सामाजिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की प्रणाली का आदर्श या मानक होता है, जिसके द्वारा किसी मानव या समूह के कार्य को सही या गलत, यानि उचित या अनुचित माना जाता है| जब एक साहित्य समाज के हितो के लिए ही कृत्यों को सुनिश्चित करता हो, तो वह अवश्य ही ‘नैतिक’ होगा| सामाजिक नैतिकता को ही मानवीय गुण यानि धर्म कहा गया है| इस तरह नैतिकता में मानव, समाज, मानवता और प्रकृति के हित लाभ भी समाहित हो जाता है, क्योंकि ये सभी एक दुसरे से गुंथे हुए हैं और एक दुसरे पर निर्भर भी हैं|

एक साहित्य का विविध स्वरुप हो सकता है, जो अभिव्यक्ति के स्वरुप के अनुसार भिन्न भिन्न तरह से व्यक्त हो सकता है, परन्तु सबके मूल आधार में समाज के हितों का संवर्धन और विकास ही होगा| वह विश्लेषण हो सकता है, विवेचना हो सकता है, मूल्याङ्कन हो सकता है, व्यक्तित्व या घटनाओं का विवरण हो सकता है, या आदर्शों एवं सिद्धांतों का प्रतिपादन हो सकता है, या किसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करता हुआ हो सकता है, लेकिन यदि इनमे सामाजिक हितों का संवर्धन मूलाधार नहीं है, वह अवश्य ही साहित्य का सम्मान नहीं पा सकता है|  

स्पष्ट है कि साहित्य ज्ञान या सूचना का केवल एक स्रोत ही नहीं है, साथ ही यह नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है, सही एवं तथ्यपरक वक्तव्य है| इससे असहमति नहीं जताई जा सकती है|

आचार्य निरंजन सिन्हा  

(मेरे अन्य आलेख के लिए आप www.niranjansinha.com पर अवलोकन कर सकते हैं)

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