(Invisible Mechanism of Cultural Imperialism)
सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद (Cultural Imperialism) को समझने से पहले हमें साम्राज्यवाद की अवधारणा
समझना चाहिए। साम्राज्यवाद वह दृष्टिकोण (perspective) है, या क्रियाविधि (mechanism) है, या व्यवहार (practice) है,
जिसके अनुसार कोई महत्त्वाकांक्षी समाज या वर्ग या राष्ट्र अपनी
शक्ति, प्रभाव , नियंत्रण, लाभ और गौरव को बढ़ाने के लिए अन्य दूसरे के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों
पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है, और अपने निजी स्वार्थ
में उनका उपयोग करता है। यह हस्तक्षेप, प्रभाव या नियंत्रण
राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या अन्य
किसी भी प्रकार का या स्वरुप में हो सकता है। साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक स्वरुप
के अलावा अन्य स्वरुप सर्वज्ञात और दृश्य भी होता है।
लेकिन सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण स्वरुप ही आजकल
"प्रचलित धर्म" कहलाता है। सामन्तवाद और साम्राज्यवाद की संस्कृति को मानव,
समाज, संस्कृति और मानवता के लिए सदैव
नकारात्मक और विध्वंसात्मक माना जाता रहा है। हमें इस महत्वपूर्ण और प्रभावशाली
कारक "संस्कृति" को ही साकारात्मक, रचनात्मक और
सृजनात्मक बनाना है, जो मानवता का संवर्धन करता रहे। यह
सामन्तवाद और साम्राज्यवाद ही उन समाजों में "सामाजिक
पूंजी" (Social Capital) और "सांस्कृतिक पूंजी" (Cultural
Capital) का निर्माण नहीं होने देता। पूंजी वह धन है, जो उत्पादक (Productive) होता
है। यह पूंजी अपने गुणात्मक प्रभाव में वित्तीय एवं
अन्य पूंजी से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का यह स्वरूप भी अदृश्य होता है, या
अदृश्य बना दिया जाता है। आर्थिक साम्राज्यवाद में
क्रमानुसार वणिक साम्राज्यवाद, औद्योगिक
साम्राज्यवाद और वित्तीय साम्राज्यवाद शामिल होता
है। इस तरह आर्थिक साम्राज्यवाद का आधुनिक स्तर 'वित्तीय
साम्राज्यवाद' भी अदृश्य होता है, या
अदृश्य बना दिया जाता है। हालांकि सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और वित्तीय
साम्राज्यवाद का प्रभाव सबसे ज्यादा व्यापक, विस्तृत,
गंभीर एवं खतरनाक स्वरुप का होता है। लेकिन सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद "प्रचलित धर्म" के आवरण (veil) में सदियों तक निरंतरता और प्रभाव रखतीं हैं, जिससे वह
सनातन भी हो जाता है, या ऐसा कहने का दावा किया जाता है। धार्मिक आवरण के कारण ही साम्राज्यवाद के इस मौलिक स्वरूप की ओर किसी का
ध्यान ही नहीं जाता, लेकिन
जिनका ध्यान जाता भी है, तो वे समाज के प्रभुत्व सम्पन्न
समुदाय के होते हैं और वे निजी वर्ग स्वार्थ में चुप रहते है।
विश्व में आज जितने भी अविकसित या तथाकथित विकासशील देश हैं, यानि
वर्तमान संसाधनों के बावजूद अपेक्षाकृत बहुत पिछड़े हुए हैं, वह सभी इन्हीं सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के मारे हुए हैं। सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद तो सदैव धार्मिकता का आवरण ओढ़े ही रहता है, और
इसी स्वरुप में वह क्रियाशील भी रहता है। धार्मिकता
का आवरण दे देने से उपनिवेशित, यानि शोषित भी इसे अपना धार्मिक कर्तव्य समझ कर
पूर्ण मनोयोग और समर्पण से उन कार्यों को करता रहता है, जो
उन्हें नहीं करना चाहिए। तब वह किसी भी प्रकार
के साम्राज्यवाद का शिकार भी है, सामान्यतः ऐसा वह मानने को भी तैयार नहीं होता है,
खासकर जब साम्राज्यवादी तथाकथित अपने ही हों। ऐसा
करना यानि धर्म के नाम पर दिए गए निर्देशों का अनुपालन करना तो उसके लिए अगले जन्म
में बेहतर परिणाम या स्वर्ग पाने के लिए भी आवश्यक होता है, जो
पूर्णतया काल्पनिक होता है। आधुनिक विज्ञान तो इन बकवास अवधारणाओं को कतई मान्यता
नहीं देता है। तब यह सब उसका सांस्कृतिक विरासत और गौरव हो जता है।
अपने मौलिक चरित्र और क्रियाविधि में समानता रखते
हुए भी साम्राज्यवाद जहां आधुनिक युग की अवधारणा है, वहीं
सामन्तवाद मध्ययुगीन अवधारणा है। साम्राज्यवाद जहां दूसरे राष्ट्रीयता के लोगों
पर आरोपित किया जाता है, सामन्तवाद में अपने - पराए की कोई
बाध्यता नहीं होती है, यानि अधिकांशतः अपने ही लोग इसके
शिकार होते हैं या प्रताड़ित हैं। सांस्कृतिक सामन्तवाद ही आधुनिक परम्परागत धर्म
है, जबकि सांस्कृतिक साम्राज्यवाद अपने में सांस्कृतिक
सामन्तवाद को भी शामिल करते हुए इससे विस्तृत अवधारणा है। सांस्कृतिक सामन्तवाद की
कोई चर्चा ही नहीं होती है, क्योंकि इसी के साथ परम्परागत
वर्तमान धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व में आए हैं, जबकि
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद में सिर्फ साम्राज्यवादी देशों के सांस्कृतिक प्रसार और
फैलाव को ही ध्यान में रखा जाता है। ध्यान रहे कि दोनों के मौलिक चरित्र और
क्रियाविधि की वैसी चर्चा नहीं की जाती है, जिससे समाज के
स्थापित परम्परागत समृद्ध और प्रभावशाली वर्गीय हितों को नुक़सान होता है।
इसीलिए कई संस्कृतियों में यह दोनों ही, अर्थात सांस्कृतिक सामन्तवाद और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद एक ही होता है,
जैसे वर्तमान भारतीय संस्कृति की अवस्था। इन
दोनों अवस्था में सामन्तवादी और साम्राज्यवादी भी भारतीय ही हैं और इससे पीड़ित भी
भारतीय ही है। सबसे बड़ी बात यह है कि इनके सामान्य
ऐतिहासिक युग बीत जाने पर भी इसे मिथकों और कहानियों के सहारे आज़ भी जीवन्त बनाए
रखा गया है। अर्थात इनकी प्रसारित ऐतिहासिक
वास्तविकता वह नहीं है, जिसे बताया जाता है। इसी मिथकीय
कहानियों को ही इतिहास मानकर इतिहास के प्रोफेसर और विशेषज्ञ हवाई काल्पनिक युद्ध
भी कर रहे हैं और उसे जीतने का स्वप्न भी देख रहे हैं, जो
कभी इतिहास ही नहीं था। इसे फिर से और ध्यान से पढ़ा जाय।
ज्ञात कभी अज्ञात को नहीं जान सकता। ज्ञात केवल उसी को जान सकता है, जिसे
उसने सीखा है, संचित किया है और समझा है। अज्ञात को
जानने के लिए हमें संदर्भ बदलना ही पड़ता है, पृष्ठभूमि बदलना पड़ता है,
परिभाषा यानि अवधारणा बदलना पड़ता है और संरचनात्मक ढांचा भी बदलना पड़ सकता है। ऐसा बदलना ही "पैरेडाईम शिफ्ट" (Paradigm Shift) कहलाता हैं। रिक्तता, शून्यता,
मौन, और उत्सुकता ही सृजन का, निर्माण का और विकास का आधार होता है, इसके बिना
सृजन संभव नहीं है। अतः किसी भी परम्परागत और सनातन समस्या का समाधान इसी विधि से किया
जा सकता है, किसी भी ज्ञात के आधार पर शताब्दियों की परम्परागत
समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है, जिसे अभी तक नहीं
पाया गया है।
संस्कृति हमारे विचारों, आदर्शों,
मूल्यों, प्रतिमानों, व्यवहारों,
परम्पराओं को नियंत्रित, निर्देशित, नियमित, संचालित और प्रभावित करता रहता है। यह समय
के साथ विकसित होता है और इसके साथ इतिहास भी होता
है और मिथक कहानियां भी होती है। फिर यह संस्कृति
धर्म के आवरण में आ जाती है या लाई जाती है, और तब यह पवित्र भी हो
जाती है। जब इसमें धर्म आ गया, तो यह जड़ भी हो जाता है और
फिर इस पर कोई प्रश्न या शंका करना उस स्थापित संस्कृति के ही विरुद्ध हो जाता है,
माना जाता है।
जब कोई भी चीज जड़ (Stagnant) हो जाता है, तब उसमें
जडत्व (Inertia) आ जाता है और 'जडत्व
की शक्ति' (Power of Inertia) उसे उसके वर्तमान की स्थिति
में ही बनाए रखती है। यही जडत्व यानि जड़ता इसमें निरंतरता देती है। इसे ही
सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) कहते हैं। यही निरंतरता बनाए रखती
है। इससे ही जडत्व में स्वत: स्फूर्तता आ जाती है। इस तरह
सामन्तवाद और साम्राज्यवाद अपने सांस्कृतिक और फिर धार्मिक आवरण में क्रियाशील
रहता है। यदि यह व्यक्ति, समाज, संस्कृति सकारात्मक,
रचनात्मक और सृजनात्मक नहीं है, तो हमें उसे
ऐसा यानि सकारात्मक, रचनात्मक और विकासात्मक बनाना है। यह सामान्य
समाज में व्यापक 'सामाजिक पूंजी' और 'सांस्कृतिक पूंजी' का निर्माण नहीं होने देता।
एक मनुष्य या समाज को अपने समस्याओं के समाधान के लिए अनुक्रिया और
प्रतिक्रिया की क्रियाविधि को समझना जरूरी होता है। यह सिर्फ़ अपने वातावरण और
विविध प्रतिक्रियाओं का ही परिणाम नहीं है, अपितु वह अनन्त प्रज्ञा से भी संबंधित कर आभास के
रूप में भी समाधान प्राप्त करता है। वह वातावरण से अपने पांच शारीरिक इन्द्रियों
के माध्यम से और "मन" की 'मानसिक दृष्टि'
(vision) से ही अनुभूति प्राप्त करता है। वह अपने वातावरण को अपने
इन्द्रियों से प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त कर सकता है, लेकिन
अनन्त प्रज्ञा से जुड़ कर और उसे नियंत्रित करने के लिए उसे अतिरिक्त प्रयास करना
होता है, जो एक कौशल है और इसे कोई भी विकसित कर सकता है। जब किसी का मन (Mind) यानि उसके 'आत्म' (Self) अनन्त प्रज्ञा से जुड़ता है, तो उसे ही आध्यात्म कहते हैं, और प्राप्त ज्ञान को 'आभास' (Intuition) कहा जाता है।
जीवन में विकास या उद्विकास के त्रिस्तरीय आयाम होता है, प्रथम
शारिरिक, द्वितीय मानसिक और तृतीय आध्यात्मिक। शारीरिक विकास
या उद्विकास सामान्यतः प्राकृतिक रूप में होता है और इसके लिए एक मानव को कम
क्रियाशील रहना होता है। मानसिक विकास यानि मानसिक
उद्विकास एक कौशल है और उसके प्रभाव को बढ़ाने के लिए उसे कौशल की तरह ही विकसित
करना होता है, जिसे कोई भी विकसित कर सकता है। ज्ञान का उच्चतर अवस्था आध्यात्मिक होता है, या
कहलाता है। किसी के आत्म को अनन्त प्रज्ञा से
संबंधित होने को ही अध्यात्म कहा जाता है। इस तरह आध्यात्मिक विकास भी एक कौशल ही
है, जो मानवता सहित प्रकृति के विकास के लिए सजगता से प्रयास
किया जाता है। इसलिए हमें किसी के शारीरिक विकास से
तुलनात्मक विश्लेषण नहीं करना चाहिए एवं निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए, सिर्फ
अपना मानसिक और आध्यात्मिक विकास करना चाहिए।
हमें संस्कृति से सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के प्रभाव को
हटा देना चाहिए। इसके लिए इतिहास से मिथकीय कहानियों को हटाना
होगा। इसके लिए पुख्ता प्रामाणिक और वैज्ञानिक साक्ष्यों को ही मान्यता देकर
इतिहास को समझना होगा, बाकी सब कथामात्र है। वह सामन्तवाद की
यानि मध्य युगीन ऐतिहासिक आवश्यकता के कारण ऐतिहासिक प्रतिफल थी। पुनर्जागरण के द्वारा यूरोप में इसके इन्हीं प्रभावों को समाप्त कर यूरोप
में वास्तविक आधुनिक और वैज्ञानिक युग को लाना संभव किया। परन्तु पश्चिम मध्य एशिया, पूर्वी एशिया और भारतीय
उपमहाद्वीप में यह अभी भी मध्ययुगीन संस्कृति को यथावत बनाए हुए है। इस सनातन, पुरातन और गौरवशाली संस्कृति के आवरण में
मौजूद सामन्तवादी और साम्राज्यवादी व्यवस्था को ध्वस्त किए जाने की आवश्यकता है।
इसके बिना समाज और संस्कृति में वैज्ञानिक मानसिकता, आलोचनात्मक
विश्लेषण एवं चिन्तन और विकासात्मक विचारधारा का समुचित विकास नहीं हो सकता है।
इसे ध्यान से पढ़ा जाय। किसी भी समाज, संस्कृति और इतिहास के पिछड़ेपन का मौलिक चरित्र
और क्रियाविधि को समझा जाना अनिवार्य है। विरासत की
निरंतरता होनी चाहिए, लेकिन मिथकीय कहानियों को इतिहास के रूप में
निरंतरता नहीं होनी चाहिए। इतिहास ऐतिहासिक शक्तियों का ही परिणाम होता है। इसी में समाधान है। वैसे आज के
आधुनिक, लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक युग में यह सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक सामन्तवाद दरकता हुआ है और नष्ट होता हुआ है, सिर्फ एक धक्के लगाने की आवश्यकता है।
आचार्य निरंजन सिन्हा।
अति सुन्दर एवं तार्किक आलेख।
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