मंगलवार, 4 जुलाई 2023

‘धर्म के बिना विज्ञान नांगर छै, विज्ञान के बिना धर्म आन्हर छै|”

 (धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है|)

यह बिहार एवं अन्य प्रान्तों में प्रचलित एक लोकोक्ति है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कि धर्म और विज्ञान एक दुसरे के बिना विकलांग है| अर्थात एक दुसरे का पूरक है, यानि एक दुसरे के बिना अधुरा है| यह उक्ति अपनी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए ‘धर्म’ एवं ‘विज्ञान’ की अवधारणा पर आधारित है, यानि ‘धर्म’ एवं ‘विज्ञान’ की परिभाषाओं पर निभर है| इन दोनों की अवधारणा यानि परिभाषा बदल जाने से ही यह उक्ति सत्य हो जाती है, या असत्य हो जाती है|

तो हमें सबसे पहले ‘धर्म’ एवं ‘विज्ञान’ की अवधारणा को समझना चाहिए, यानि इसका आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए| धर्म को पालि में ‘धम्म’ कहा गया और हिंदी एवं संस्कृत में ‘धर्म’ ही है| इस तरह इन दोनों शब्दों का अर्थ या भावार्थ एक ही है| पालि में ‘धम्म’ को इस तरह परिभाषित किया गया है – “धारेति ति धम्मो”| अर्थात जो धारण करने योग्य है, यानि जो धारणीय  है, वही धम्म है, यानि धर्म है| यह व्यापकता एवं विशालता को अपने में सहेजे हुए एक अद्भुत अवधारणा है, जिसमे सजीव एवं निर्जीव सहित मानव भी समाहित हो जाता है| एक धातु का धर्म है – उष्मा एवं विद्युत का संचरण अपने से होने देना| पानी का धर्म है – शीतलता प्रदान करना, जिस पात्र में यह धारित है, उसका आकार ले लेना, और आग को बुझा देना| यह धर्म का एक व्यापक परिभाषा है, जो स्थान एवं समय के निरपेक्ष सत्य एवं स्थिर है| इसी तरह एक मानव का ‘धारणीय गुण’ यानि ‘धर्म’ होगा कि वह समाज, मानवता एवं प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन एवं विकास के लिए कार्य करे, और कोई ऐसा कर्म, व्यवहार एवं मानसिकता नहीं रखे या करे, जो समाज, मानवता एवं प्रकृति के हितो के विरुद्ध हो|

स्पष्ट है कि जब एक धर्म स्थान एवं समय के निरपेक्ष सत्य और स्थिर है, तो यह अवश्य ही तर्कसंगत होगा, विवेकशील होगा, तथ्यपरक होगा और निश्चितया वह वैज्ञानिक भी होगा| तो प्रश्न यह उठता है कि जब एक धर्म स्थान एवं समय के निरपेक्ष सत्य और स्थिर है, तब विश्व में इतने धर्म प्रचलित हैं, वे क्या हैं? दरअसल ये सभी सम्प्रदाय हैं, विश्व के सभी मानवों का तो धर्म एक ही होगा, और यह भिन्न भिन्न हो ही नहीं सकता है| किसी ‘मजलिश’ का क्षेत्रीय सांस्कृतिक आवश्यकता एवं परम्परा एक ‘मजहब’ हो सकता है, किसी ‘रीजन’ (Region) का क्षेत्रीय सांस्कृतिक आवश्यकता एवं परम्परा एक ‘रिलीजन’ (Religion) हो सकता है, परन्तु वैश्विक जगत के सम्पूर्ण मानव का धर्म तो एक ही होगा, जो समाज, मानवता एवं प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन, और विकास के पक्ष में ही होगा| एक सम्प्रदाय क्षेत्रीय आवश्यकताओं एवं परम्पराओं से उपजी एक विशिष्ट सांस्कृतिक बुनावट (Matrix) है|

अत: एक सम्प्रदाय को धर्म से अलग कर देने से सारे सम्बन्धित धुन्ध या भ्रम समाप्त हो जाते हैं| आजकल के सम्प्रदाय को ही धर्म कह देने से ही सारी स्पष्टता समाप्त हो जाती है| दरअसल धर्म को सम्प्रदाय बना देने, यानि मान लेने से इन दोनों एक दुसरे का पर्यायवाची बना दिया गया है| इसे एक दुसरे का पर्यायवाची बना देने से इन ‘सांप्रदायिक नेताओं’ को अपने को ‘धार्मिक नेताओं’ यानि ‘धार्मिक शुभचिंतक’ के रूप में अपने को प्रस्तुत करने में आसानी होती है| फिर इस तथाकथित धर्म में ‘ढोंग’, ‘पाखण्ड’, ‘अंधविश्वास’, ‘कर्मकांड’ स्थापित करने में आसानी हो जाती है, क्योंकि तब यह मानव का धर्म बन जाता है| तब इसके समर्थन के लिए विज्ञान के विरुद्ध ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘स्वर्ग नरक’ और ‘कर्मवाद’ को स्थापित करने की आवश्यकता हो जाती है| सभी वर्तमान परंपरागत ‘धर्मों’ का वर्तमान स्वरुप सामन्ती काल की ऐतिहासिक आवश्यकताओं की देन है|

आधुनिक भौतिकी “हिग्ग्स बोसॉन’ कणिकाओं को ही “गाड़ पार्टीकल” कहता है, ‘आत्म’ (Self) यानि ‘मन’ (Mind) को ‘आत्मा’ का जबरदस्ती पर्यायवाची बना दिया गया| ये ईश्वर, पुनर्जन्म और आत्मा इत्यादि कभी भी विज्ञान सम्मत नहीं हो सकते हैं| आपने भी ध्यान दिया होगा कि इन तथाकथित धार्मिक नेताओं की वैज्ञानिकता संबंधित लम्बी लम्बी बातें सिर्फ सामान्य जन साधारणों के सामने ही होती है, लेकिन इनकी वैज्ञानिकता की बातें वैश्विक वैज्ञानिकों के सामने नहीं होती है| जन साधारण में किसी भी विषय का स्तरीय आलोचनात्मक विश्लेषण की क्षमता एवं स्तर नहीं होता है| एक परंपरागत ‘धर्म’ आस्था खोजता है, और ‘शंका करना’ यानि ‘प्रश्न पूछना’ सख्त मना है|

अब हमें विज्ञान को भी परिभाषित करना चाहिए| ‘विज्ञान’ का अर्थ ही होता है – ‘विवेकपूर्ण, विचारित एवं व्यवस्थित ज्ञान’| कोई भी ज्ञान यदि सुविचारित नहीं है, व्यवस्थित नहीं है और विवेकपूर्ण नहीं है, तो वह ‘विज्ञान’ नहीं है| कोई भी ‘व्यवस्थित, सत्यापित एवं क्रमबद्ध ज्ञान’ ही ‘विज्ञान’ है|  इस तरह स्पष्ट है कि विज्ञान अवश्य ही तार्किक होगा, तथ्यपरक होगा, विवेकपूर्ण होगा, सत्यापित भी होगा, और इसीलिए वह सामान परिस्थितियों में सभी स्थानों एवं समय पर एक समान ही होगा| यह शंकाओं एवं प्रश्नों को प्रोत्साहित करता है, इसीलिए विज्ञान का विकास होता रहता है, और यह इसके मूलभूत आधार बदलने से संवर्धित होता जाता है|

स्पष्ट है कि वैज्ञानिक एवं मानवीय धर्म के आड़ में सम्प्रदाय को ही धर्म कह कर परंपरागत सांप्रदायिक नेताओं ने धार्मिक नेता के रूप में अपनी महत्व बनाने एवं बढाने के लिए ही इस लोकोक्ति को रचा है| ये साम्प्रदायिक लोग ही विज्ञान और धर्म को एक दूसरे का पूरक और अलग अलग अवधारणा साबित करना चाहते हैं, जबकि धर्म भी विज्ञान है, लेकिन सम्प्रदाय नहीं। इस तरह यह लोकोक्ति गलत है, और भ्रामक है|

आचार्य निरंजन सिन्हा  

(मेरे अन्य आलेख के लिए आप www.niranjansinha.com पर अवलोकन कर सकते हैं)

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