आपने
ध्यान दिया है कि आजकल फिर से मूर्तियाँ बनाने का एक प्रतियोगियात्मक अभियान चला
हुआ है, भव्य मूर्तियाँ, विशाल मूर्तियाँ, ऊँची
मूर्तियाँ, महँगी मूर्तियाँ , आदि आदि, यानि मूर्तियों में कोई अलग एवं विशिष्ट
विशेषण लगी हुई मूर्तियाँ| ये मूर्तियाँ क्या काम करती है, यानि जन
मानस पर कैसा प्रभाव डालती है, या सामान्य मानवों को हांक लिए जाने में कैसे
उपयोगी होती है? आप भी सोसल मीडिया में मूर्तियों की विशद, गहन एवं महत्वपूर्ण
चर्चा देख्ते होंगे, तो आप यह भी समझने का प्रयास कीजिए, कि ऐसे लोगों का मानसिक
स्तर क्या है? क्या ये लोग किसी के द्वारा हांक लिए गए लोग हैं? क्या इन पर
मूर्तियों का मनोविज्ञान काम कर रहा है? दरअसल मूर्तियों का मनोविज्ञान का प्रभाव
कोई साधारण नहीं है, ये लोग तो मूर्तियों के मनोविज्ञान पर मस्त होकर थिरक भी
रहे हैं|
तो इस महत्वपूर्ण मनोविज्ञान को हर किसी भी बुद्धिजीवी को, प्रशासक को, या राजनीतिज्ञ को जानना और समझना चाहिए, या यों कहे इसका उपयोग किया जाना चाहिए| जब चतुर - चालाक इस मनोविज्ञान का उपयोग कर रहे हैं, और आप भी यदि बुद्धिजीवी हैं, इस मनोविज्ञान को अवश्य ही समझें| इस मनोविज्ञान को जब आप समझ लेंगे, तो आप भी जन सामान्य को हांक ले सकते हैं| वैसे मूर्तियों के सामान्य उपयोग, जैसे ध्यान लगाना, आदर्श मानना, अनुकरणीय उदहारण के रूप में प्रस्तुत करना इत्यादि की चर्चा मैं नहीं करूंगा, वह आप जानते ही हैं| मैं इसके अलावा अन्य अनछुए पहलुओं पर आपका ध्यान खींचूंगा|
मूर्तियों
का भी मनोविज्ञान होता है| हालाँकि यह बहुत से लोगों को अटपटा लग सकता है, जिन्हें
अपने वर्तमान ज्ञान के क्षितिज से बाहर हर चीज को नए ढंग से देखने में असहजता
महसूस होती है| मूर्तियाँ बनाने का एक लम्बा इतिहास
है और मूर्तियाँ कुछ विशिष्ट एवं ख़ास लोगो की बनाई जाती है| दरअसल मूर्तियों में
तो न ही मन यानि चेतना होता है और न ही दिमाग यानि मस्तिष्क होता है, तो फिर
मूर्तियों का मनोविज्ञान क्या हुआ? लेकिन जैसे धन का, विज्ञान का, सफलता का आदि
आदि का मनोविज्ञान होता है, तो वैसे ही हमलोग एक अनछुए पहलु – मूर्तियों का
मनोविज्ञान समझते हैं|
दरअसल
मूर्तियों के बहाने मानव मन पर कुछ लोगो द्वारा
क्रिया एवं प्रतिक्रिया किया जाता है और प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया लिया जाता है,
इसीलिए मूर्तियों का मनोविज्ञान हुआ| मूर्तियों को देखना, समझना,
पूजना, फूलमाला चढ़ाना, बनाना और अन्य कई कार्य मानव द्वारा ही किए जाते हैं, और एक
मानव में ही मन भी होता है, दिमाग भी होता है और उसे करने या अभिव्यक्त करने के
लिए एक भौतकीय शरीर भी होता है| यह सब एक सामान्य शारीरिक मानसिक विशेषताओं से
युक्त एक मानव ही करता है, तो अवश्य ही वह मनोविज्ञान के तत्व एवं क्रिया से
संचालित, नियंत्रित, निदेशित एवं प्रभावित भी होगा|
तो
सबसे पहले हमें मनोविज्ञान की और मूर्तियों की अवधारणा को जानना एवं समझना चाहिए| मनोविज्ञान
मानव मन यानि आत्म (आत्मा नहीं) यानि चेतनता का अध्ययन है| इस तरह मनोविज्ञान
मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों एवं विभिन्न सन्दर्भों में व्यवहारों का अध्ययन है| हमें
मानसिक (मन – Mind की) क्रियाओं और मस्तिष्क (दिमाग – Brain) की क्रियाओं को एक
नहीं मानना चाहिए| एक मस्तिष्क किसी के मन यानि आत्म
यानि चेतनता की उत्सर्जित तरंगों का एवं अन्य तरंगों का संवर्द्धक (Modulator)
होता है| मानसिक प्रक्रियाओं का आशय किसी चीज को जानने या स्मरण करने
या किसी समस्या का समाधान करने की मन की क्रियाओं से है| अनुभव हमारी चेतना में
रचा –बसा होता है| हमारे व्यवहार में हमारे द्वारा की गई अनुक्रिया एवं
प्रतिक्रिया शामिल रहती है|
अब
हमें मूर्तियों (Statue/ Sculpture) की अवधारणा को समझ लेना चाहिए| किसी की
आकृति को जब तीनों विमाओं (Dimension) में अभिव्यक्त किया जाता है, मूर्ति कहा
जाता है, चाहे वह वास्तविक (Real) हो या आभासी (Virtual) हो| इस तरह मूर्ति
किसी की आकृति का ठोस स्वरुप में दृश्य रूप होता है| यह किसी भी पदार्थ (वास्तविक)
या तरंग (आभासी) से निर्मित होता है| यह शारीरिक
आँखों से हर किसी को दिख जाता है, और इसके लिए कोई मानसिक उपक्रम नहीं करना पड़ता
है| इसी तरह जब कोई आकृति दो विमाओं में यानि समतल में दिखती है, उसे चित्र (Picture) कहते हैं| इस तरह मूर्तियों के
मनोविज्ञान में हमें चित्र को भी समाहित कर लेना चाहिए, क्योंकि यह भी
प्रक्रियाओं, अनुभवों एवं व्यवहारों में मूर्तियों के समान ही होता है|
चूँकि
मनोविज्ञान में मानव मन की विभिन्न अवस्थाओं एवं क्रियाओं, अनुभवों, व्यवहारों और
प्रभावों का अध्ययन किया जाता है, इसीलिए मूर्तियों के बहाने या मूर्तियों के
सहारे मानव मन एवं उससे सम्बन्धित कार्यों एवं व्यवहार का अध्ययन किया जाता है| इस
तरह यहाँ मनोविज्ञान के अध्ययन का मकसद मूर्तियों के सहारे मानव व्यवहार का विवरण
देना, उसकी व्याख्या करना, उनके व्यवहार का पूर्वानुमान करना और उनको परिवर्तित या
नियंत्रित करना होता है| यहाँ मूर्तियों के बहाने
हम मानव मन का संज्ञानात्मक, भावनात्मक एवं व्यवहारात्मक प्रक्रियों समझते हैं और
उसका अपने मन के अनुकूल उपयोग एवं प्रयोग करके मानव समूह को नियंत्रित एवं
प्रभावित करते हैं|
अब
तो यह स्पष्ट हो गया कि यह एक महत्वपूर्ण विषय है, और हमें मूर्तियों के
विश्वव्यापी खेल को समझना चाहिए| सामान्यत: हमारी पांच ज्ञानेन्द्रिया हैं- आँख,
कान, नाक, त्वचा एवं जीभ| इसमें मूर्तियों के सन्दर्भ में सबसे प्रमुख आँख है|
लेकिन बुद्ध ने छठी ज्ञानेन्द्रिय “मन’ यानि चेतना
को बताया| इसे “मानसिक दृष्टि” कहा गया| इसी
का विस्तारित सातवाँ ज्ञानेन्द्रिय अधिचेतना समझाया, जिसे ‘अनन्त प्रज्ञा’ से
जुड़ना भी कहते हैं| इसे ही “आध्यात्मिक दृष्टि” भी कहा जाता है|
मूर्तियाँ किसी साधारण
व्यक्ति की नहीं होती है, वह किसी विशिष्ट व्यक्ति, या किसी देव तुल्य, या किसी
तथाकथित ईश्वर की ही होती है| अर्थात इनके बहुत सारे अनुयायी होते हैं|
इन अनुयायियों में बहुसंख्यक (लगभग 95% से अधिक) में कोई आलोचनात्मक चिंतन का स्तर एवं
क्षमता भी नहीं होता है| ये मानसिक दृष्टि में अंधापन का शिकार माने जाते है| इनकी
सिर्फ शारीरिक आँखें ही काम करती है| ये किसी भी चीज का सिर्फ सतही अर्थ ही समझ
सकते हैं, जो इन्हें सामान्य आँखों से दिखता है| किसी भी चीज का निहित अर्थ यानि
संरचनात्मक अर्थ, यानि विशिष्ट अर्थ समझना इनके स्तर से ऊपर का होता है| यही
स्थिति इनके तथाकथित बुद्धिजीवी नेताओं की भी होती है|
किसी भी विशिष्ट व्यक्ति या देव तुल्य व्यक्ति का आदर्श समझना, और
उसका अनुपालन करना सबके लिए सरल, सहज एवं आसान नहीं होता है| यही स्थिति उन जन
साधारण के नेतृत्वों की भी होती है, वे भी इन महान व्यक्तित्वों के आदर्शों एवं
सिद्धांतों को नहीं समझते हैं| ऐसे तथाकथित ज्ञानी एवं
बुद्धिजीवी नेतृत्व भी महान व्यक्तियों के जन्म तिथि, पुण्य तिथि, कर्म तिथि, गर्भधारण
तिथि, प्रवेश तिथि, निकास तिथि, अपमानित कर दिए जाने की तिथि, आदि आदि के समारोहों तक
अपने को सीमित रखते हैं| चूँकि ऐसे तथाकथित ज्ञानी एवं बुद्धिजीवी नेतृत्व इतना ही
जानते हैं, उनके आदर्शों एवं सिद्धांतो को समझते ही नहीं हैं| अल्बर्ट
आइन्स्टीन ने कहा था कि यदि कोई भी व्यक्ति किसी सामान्य जन को कोई भी बात ठीक से नहीं
समझा पा रहा है, तो वह तथाकथित ज्ञानी एवं बुद्धिजीवी व्यक्ति खुद ही उसे नहीं
समझा है| ऐसे ही आयोजनों एवं समारोहों से जन सामान्य उन्हें क्रान्तिकारी एवं
अभूतपूर्व नेता मान लेती है, तो उन्हें भी जन सामान्य को समझाने के लिए अतिरिक्त मेहनत करने की जरुरत ही नहीं पड़ती
है|
यदि आपको किसी जन समूह को अपने पक्ष में करना है, तो सबसे आसान,
सरल एवं सहज तरीका है कि आप उनके किसी महान आदर्श व्यक्तित्व का भव्य, विशाल, ऊंची एवं
आकर्षक मूर्ति बनवा दीजिए और उनसे सबंधित तिथि को कोई भव्य आयोजन कर दीजिए|
अब आपको उनके आदर्शों के अनुयायी मान लिए जाने का प्रमाण पत्र मिल गया| अब आप उनके
किसी भी, या सभी हितों के विरुद्ध गहन एवं खतरनाक खेल सकते हैं| आप उनके आदर्शों
एवं सिद्धांतों को माने या नहीं माने, या उनके धूर विरोधी ही हो, आपको सिर्फ उनसे
सम्बन्धित आयोजन करना है और मिठाईयाँ बंटवा देनी है , या उनके किसी आयोजन में शामिल होकर फूलमाला, अक्षत या
कोई अन्य चीज अर्पित कर देना है| अब आप बहुसंख्यको की आशंकाओं के घेरे से बाहर हो जाते हैं|
आपने
गौर किया है कि विकसित समाजों में, यानि विकसित संस्कृतियों में उनकी स्मृति में विद्यालय एवं चिकित्सालय
खोलने पर जोर दिया जाता है, लेकिन आलोचनात्मक चिंतन से अभावग्रस्त समाजों, यानि
संस्कृतियों में भव्य, विशाल एवं आकर्षक मूर्तियों का निर्माण प्राथमिकता में होती
है| ये आकर्षक, भव्य एवं विशाल मूर्तियाँ बुद्धिजीवी या प्रबुद्ध समाज या वर्ग के
लिए नहीं होती है, ये जन साधारण के लिए ही होती है, चूँकि इनको इतना ही दिखता है
और इतना समझ में आता है| ऐसा क्यों होता है? जिन्हें उन महान व्यक्तित्वों के
आदर्शों एवं सिद्धांतों को मानने की जरुरत नहीं होती है, और उन आदर्शों एवं
सिद्धांतों के विरुद्ध भी कोई काम करना है, और उनके अनुयायियों को अपने पक्ष में
रखना है, तो सबसे आसान, सरल एवं सहज तरीका है – उनकी मूर्ति बनवाना और उस पर आयोजन
करना एवं समारोह मानना| आप ध्यान दीजिए|
जितने
भी मूर्तियों के उपासक हैं, उनको उनके आदर्शों एवं सिद्धांतों की कोई समझ ही नहीं
होती है| जिन महापुरुषों ने भी स्पष्ट्या अपनी मूर्तियों के पूजन से मना कर दिया,
उनके भी मूर्ति पूजन उन्ही के तथाकथित अनुयायी मना रहे हैं| इससे उन्हें उन्हें उनके
गहन आदर्शों एवं सिद्धांतों पर मनन मंथन करने की जरुरत नहीं पड़ती है| यदि किसी महान पुरुष ने किसी भी विषय पर मनन "मंथन" (AGITATE)
पर गौर करने को कहा, तो उनके अनुयायी उस विशेष शब्द को ही "संघर्ष" (STRUGGLE) से
बदल दिया| ये तथाकथित ज्ञानी एवं बुद्धिजीवी किसी भी चीज के सतही
अर्थ को ही समझते हैं, निहित या संरचनात्मक अर्थ समझना ही नहीं चाहते| ये लोग
सिर्फ विशिष्ट तिथियाँ मनाते रहेंगे, मिठाईयाँ खाते रहेंगे और अपना सब कुछ बदल जाने के दिवास्वप्न में
मस्त रहेंगे|
इसीलिए
अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक बार पागलपन की परिभाषा
में कहा कि “एक काम को बार बार एक ही तरीके से
करना, और परिणाम के बदल जाने की उम्मीद करना ही पागलपन है”| मैं समझता
हूँ कि आप अब मूर्तियों के मनोविज्ञान को समझ गए होंगे|
आचार्य प्रवर निरंजन
महापुरुषों को सर पर लेना आसान है । पर सा में लेना मुश्किल ।
जवाब देंहटाएंकोई उनको सर मे ना ले इसलिए मूर्तिया काम करती है।
बहुतही सुंदर लेख , eye opening writing .