शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

भारत में सृजनात्मक चिंतन का अभाव क्यों?

 Lack of Creative Thinking in India, WHY?

भारत में रह रहे भारतीयों में आजकल सृजनात्मक चिंतन (Creative Thinking) का अभाव दिखता है| इसीलिए आधुनिक युग में किसी भी विधा (Discipline) में कोई मौलिक (Original) एवं नवाचारी (Innovative) सिद्धांत का प्रतिपादन (Exposition) नहीं हो रहा है, सिर्फ पहले से ही निश्चित एवं निर्धारित सिद्धांतों के अनुप्रयोगो (Applications) को ही बढाया जा रहा है| प्राचीन भारत हरेक क्षेत्र में अपनी  सृजनशीलता के लिए अपनी वैश्विक पहचान बनाए हुए था| परन्तु संस्कृति का जो रूपांतरण मध्य काल में सामन्तवाद के प्रभाव में हुआ, उसने भारतीय संस्कृति को ही सामन्ती बना दिया, जो अभी भी मौजूद है|

आज भी वर्तमान भारतीय संस्कृति का जो पक्ष प्राचीन और प्राचीनतम बताया जा रहा है, वे सभी मध्यकालीन उपज हैं और 'कागज' (Paper) के भारत आने के बाद के ही हैं, भले उसे जितना पुरातन एवं सनातन होने का दावा कर लिया जाय| इस तथाकथित पुरातन एवं सनातन के पक्ष में प्राचीन काल का कोई भी 'प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण' नहीं मिल रहा है| इसी मध्यकालीन उत्पन्न सामन्ती प्रभाव से आच्छादित संस्कृति ही भारत में सृजनात्मक चिंतन एवं उसके परिणाम को बाधित कर रहा है| मध्य काल में प्राचीन भारतीय संस्कृति ही विरूपित (Deformed) यानि बिगड़ी हुई स्वरुप में आ गयी, जो आज भी प्रभावी है|

भारत आजकल जाति (शूद्र) और धर्म की राजनीति में उलझा हुआ है| भारत अपनी वृहत आबादी की ‘बाजारू’ यानि “खाने - पचाने की क्षमता” की खपत से जुड़ी उपलब्धियों को विस्तार देकर और इसे वैश्विक पैमाने पर रख कर ही बहुत खुश है| हमें इन स्थितियों का सम्यक विश्लेषण करना चाहिए, ताकि रुके हुए सृजनात्मक चिंतन को सही ढंग से समझा जा सके| इसी समझ से भारत को वास्तविक विकास की गति मिल सकती है| हमें सबसे पहले चिंतन (Thinking) को समझना चाहिए और तब सृजनात्मक चिंतन (Creative Thinking) को समझा  जाना चाहिए| इसके बाद ही भारत में सृजनात्मक चिंतन के आधार को समझा जा सकता है|

चिंतन के इसी सृजनात्मक स्तर ने हमें आधुनिक मानव (Homo Sapiens), सृजनशील मानव (Homo Fabrr) और सामाजिक मानव (Homo Socius) बनाने में सक्षम किया| यह चिंतन प्रणाली सिर्फ मानव में ही पाया जाता है| यह सभी संज्ञानात्मक गतिविधियों या प्रक्रियाओं का आधार है| इसमें हम अर्जित यानि प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण (Analysis) करते हैं, उसका किसी पृष्ठभूमि या सन्दर्भ में मूल्यांकन (Evaluation) करते हैं, फिर इससे प्राप्त सूचनाओं का समेकन (Integration) कर निर्णय (Judgement) करते है| इस तरह चिंतन एक व्यवस्थित, संगठित और लक्ष्य निर्देशित मानसिक प्रक्रिया है|

किसी भी वस्तु (Objects) यानि माल (Goods), या सेवा (Services), या विचार (Thought) का कोई नवीन एवं मौलिक रूप से अलग रचना करना ही “सृजन” है, और ऐसा करने की चिंतन को “सृजनात्मक चिंतन” कहते हैं| इसे किसी समस्या का समाधान करना भी समझा जाता है| इस तरह सृजनात्मक चिंतन में नयापन, अनूठापन और मौलिकता होती है| इसके साथ ही, सृजनात्मक चिंतन वास्तविकता की ओर उन्मुख होता है, समाज के व्यापक हित में होता है, और इसमें सामयिक उपयुक्तता होती है|

हमें सृजनात्मक चिंतन की प्रक्रिया, विकास और इसमें आने वाली अवरोध को समझना चाहिए, ताकि इसके विकास का उपागम यानि उपाय के तरीके को सोचा जा सके| किसी भी नवाचारी चिंतन का प्रारंभ किसी समस्या के समाधान के लिए किए गये प्रयास से होता है| जब भी कोई समस्या समझ में आती है, और उसके समाधान की जरुरत की समझ होती है, तो सृजनात्मक चिंतन की प्रवाह शुरू हो जाती है| इसमें समस्या और उसके समाधान को विभिन्न पृष्ठभूमि में, विभिन्न सन्दर्भ में, नए दृष्टिकोण से, नई सूचनाओं और नई तकनीको के आलोक में देखना और समझना होता है| सृजनात्मक चिंतन के विकास में पर्यावर्णीय और सांस्कृतिक पारितंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो इसे अवरोधित कर भी सकती है, प्रोत्साहित भी कर सकती है या यथास्थिति में छोड़ सकती है|

सृजनात्मक चिंतन में अवरोध यानि बाधा कई स्वरुप में आता है| बाधाओं को जानने एवं समझने से समाधान भी दिखने लगता है| इसमें ‘आदत’ (Habit/ Tendency) सबसे प्रमुख है, जो हमें परम्परागत साँचे (Mould/ Shape/ Pattern) एवं ढाँचे (Fabric/ Structure) में ही किसी समस्या को देखने और उसका समाधान खोजने में सहजता देता है| यह समस्या और उसके समाधान को एक ख़ास पूर्वनिर्धारित दिशा में और दशा में रहने देता है, जिससे बाहर निकालने के लिए सतर्कता के साथ साथ अतिरिक्त सजग प्रयास की अनिवार्यता होती है| किसी समस्या की अतिशीघ्र समाधान खोजने की स्वाभाविक एवं सहज प्रवृति हमें सामान्य एवं परम्परागत घिसे पिटे तरीके को ही अपनाने को बाध्य करता है| भारत में अधिकतर विद्वान और नेतृत्व जानबूझ कर अपने सामाजिक व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण ऐसा ही करते हैं या ऐसा ही होने देते हैं| समाधान खोजने की यही सामान्य एवं परम्परागत घिसे पिटे तरीके कई प्रमुख समस्याओं के समाधान को लटकाए हुए है|

हम अपने विचारों में कोई भी ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) नहीं करना चाहते हैं, जबकि वैश्विक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ यानि कोई भी नवाचारी एवं मौलिक समाधान इसी तरीके से मिला है| अन्य बाधाओं में लोगों में ‘प्रोत्साहन एवं अभिप्रेरणा का अभाव’, ‘असफलता का भय’, ‘सामाजिक उपहास की आशंका’, ‘आत्म विश्वास का अभाव’, ‘नकारात्मक सोच एवं प्रवृति’ प्रमुख है| इन सभी को समेकित रूप में ‘सांस्कृतिक अवरोध’ कह सकते हैं, लेकिन यह ‘सांस्कृतिक अवरोध’ अपने धार्मिक आवरण के कारण किसी को दिखता भी नहीं है| ‘संस्कृति” जीवन को संचालित एवं नियंत्रित करने वाला एक साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रह कर भी सबसे प्रमुख होता है| एक संस्कृति परम्परा, रीति रिवाज, संस्कार, धर्म, मान्यता और धरोहर के नाम पर “सामाजिक दबाब” (Social Pressure) बनाता है|

तो सृजनात्मक चिंतन के विकास के लिए सबसे पहले हम सामाजिक वैज्ञानिको द्वारा प्रतिपादित उपाय को देख लेते हैं, फिर भारत के सन्दर्भ में इसका मूल्याङ्कन करेंगे| सामाजिक वैज्ञानिक बताते हैं कि ‘प्रश्न पूछना’, ‘किसी भी परिस्थिति और वस्तु को अलग ढंग से समझने के लिए मनन करना’, ‘कल्पनाओं को उड़ान देना’, और ‘स्पष्ट समाधान की अपेक्षा भिन्न समाधान खोजने को प्राथमिकता देना’ प्रमुख उपाय है| अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हाकिन्स “कल्पनाओं की उड़ान” को सबसे अधिक महत्त्व देते रहे| विचारों के नए संयोजन से और नए ढंग से पुनर्संयोजन से भी सृजन होता है| किसी भी विचार एवं कल्पना को मुर्खतापूर्ण नहीं माना जाना चाहिए| तर्कसंगत विचार, लेकिन कल्पना ही विज्ञान में ‘परिकल्पना’ (Hypothesis) कहलाता है, जो सत्यापन के बाद ‘सिद्धांत’ (Theory) बन जाता है| अत: कल्पना ही विज्ञान का आधार बनता है| किसी को भी अपनी सृजनात्मक क्षमता को कम नहीं आँकना चाहिए| यह सृजनात्मक क्षमता एक कौशल है, जिसे कोई भी प्रयास एवं अभ्यास से विकसित कर सकता है|

इस तरह यह स्पष्ट है कि सर्जनात्मक होने की सामर्थ्य सभी में होती है, वशर्ते उन्हें समुचित अवसर मिले और कोई उसमे किसी तरह का अवरोध नहीं करे| हमारे चिंतन प्रणाली को हमारी ज्ञान, विश्वास, मूल्य और प्रथा संचालित करता है, जो हमारे समक्ष संस्कृति, धर्म और परम्परा के रूप में आता है| इसी प्रभावकारी भूमिका के कारण ही संस्कृति, धर्म और परम्परा को पुरातन एवं सनातन साबित करना होता है, ताकि लोगो को यह बताया जा सके कि यह सब सभ्यता के शुरुआत से ही ऐसी रही है| इसीलिए संस्कृति, धर्म और परम्परा को साक्ष्यविहीन होने, तर्कहीन होने, और बकवास होने पर भी पुरातन, सनातन और सम्मानित बताया जाता है|

ऊपर के विवेचन से सृजनात्मक चिंतन में अभिप्रेरक एवं बाधक तत्वों को हम समझ गए हैं| हम इसे ‘विज्ञान और आस्था’ के रूप में भी समझ सकते हैं और इसका विश्लेषण भी कर सकते हैं| हमें यह भी समझना है कि हम भारतीय लोग विज्ञान को प्राथमिकता देते हैं, या आस्था को? यानि हम भारतीय तथाकथित धर्म को प्राथमिकता देते हैं, या विज्ञान की प्रगति को? सर्जनात्मक चिंतन में विज्ञान सदैव अभिप्रेरक होता है और आस्था सदैव बाधक होता है| चूँकि आस्था पर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता और इसीलिए आस्था कभी विज्ञान नहीं हो सकता| विज्ञान का मूल एवं मौलिक आधार ‘संशय’ (Doubt) होता है, जबकि आस्था में संशय को कोई स्थान नहीं है| इसी कारण विज्ञान सदैव प्रश्नों का खुले दिल से स्वागत करता है| यही संशय यानि प्रश्न विज्ञान के विकास को आधार देता है| विज्ञान इस मूल आधार पर आधारित होता है, कि इसका मूल आधार कभी भी गलत हो सकता है| स्पष्ट है कि आस्था मूर्खों का क्षेत्र है, और इसलिए यह सृजनात्मकता को बाधित करता है| आस्था में आत्ममुग्धता रहती है और इसीलिए अपने को सर्वोत्तम समझने की मदहोशी भी रहती है| लेकिन विज्ञान ज्ञानियों का विषय है, और इसलिए इस पर सदैव प्रश्नों का बौछार यानि संशय छाया रहता है| विज्ञान ही सत्य को दिशा देने वाला होता है और इसीलिए ही विज्ञान सत्य की दशा भी निश्चित करता है| स्पष्ट है कि जिस देश एवं काल में विज्ञान के ऊपर आस्था हावी यानि प्रभावी होता है, वहाँ सृजनात्मकता मृत हो जाता है| वहाँ सब कुछ का निर्माण एवं विकास ईश्वर के द्वारा ही किया जाना माना जाता है, तो स्पष्ट है कि मानव को किसी भी सृजन किये जाने की आवश्यकता ही नहीं है|

अब हमें अपने निष्कर्ष पर आ जाना चाहिए| भारत में सृजनात्मक चिंतन के अभाव का प्रमुख कारण वर्तमान संस्कृति का स्वरुप एवं इसकी क्रियाविधि है| किसी व्यक्ति या समाज के सृजनात्मक चिंतन में सभी अभिप्रेरक एवं बाधक तत्व उसके संस्कृति में समाहित रहता है| मैंने ऊपर यह स्पष्ट किया है कि किसी समाज का संस्कृति उस समाज को अचेतन, चेतन एवं अधिचेतन स्तर पर संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करने वाला अदृश्य साफ्टवेयर हैं| इसे समझना होगा| हमारी अभिवृति, हमारे जीवन लक्ष्य, हमारे मूल्य एवं प्रतिमान, हमारी परम्परा एवं रीति रिवाज, हमारे विशेषाधिकार एवं निर्योग्यताएँ, धार्मिक सामाजिक पाबंदियां, हमारी पसन्द और नापसन्द, दृष्टिकोण इत्यादि सभी कुछ हमारी संस्कृति की बनावट में हैं| हम जानते हैं कि पाखण्ड यानि अवैज्ञानिकता के पांच ही आधार है- ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’, ‘कर्मवाद’ और ‘नित्यवाद’| जहाँ कहीं भी ये पाँचों तत्व हैं, वहीं आस्था होगी और वह “सर्जनात्मक चिन्तक” बनने ही नहीं देगा| हम भारतीयों को इसके लिए कई फ्रंट पर विचार कर अपनी संस्कृति का मूल्याङ्कन करना होगा  और इसके लिए सजग कार्य करना होगा|

आचार्य प्रवर निरंजन जी 
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

क्या कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानवीय बुद्धिमत्ता से आगे निकल जाएगा?

Will Artificial Intelligence overpower Human Intelligence?

इस आलेख का सन्दर्भ “चैट जीपीटी” है| आजकल “चैट जीपीटी” की चर्चा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) के क्षेत्र में एक नए अवतार के रूप में फिर से आ गयी है| इसके साथ ही यह भी चर्चा में है कि क्या प्राकृतिक मानवीय बुद्धिमत्ता पर मशीनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता हावी हो जाएगी? यानि क्या कृत्रिम बुद्धिमत्ता ही मानवीय बुद्धिमत्ता से आगे निकल जायगी? तो हमें पहले यह समझना चाहिए कि “चैट जीपीटी” क्या है? कृत्रिम बुद्धिमत्ता क्या है? और यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता प्राकृतिक मानवीय बुद्धिमत्ता से अलग कैसे है?

“चैट जीपीटी” वह ‘चैटबाट’ (Chatbot – दोस्ताना बातचीत करना) है, जो अभी हाल ही में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में उभरा है और यह एक Generative Pre-trained Transformer (GPT) की तरह कार्य करता है| इसे कुछ लोग Global Power Transformar (GPT) of Learning भी कहते हैं| चैट (Chat) दोस्ताना बातचीत को कहते हैं| ‘चैटबाट’ वह कम्प्यूटर प्रोग्राम है, जो प्राकृतिक भाषा का उपयोग करते हुए अपने प्रयोगकर्ता से उसकी भावनात्मक समझ रखते हुए पूर्व निर्धारित नियमों एवं आंकड़ों के आधार पर बातचीत करने में समर्थ होता है, या उत्तर देता है| 

इसी तरह ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial Intelligence) मशीनों की ऐसी बुद्धिमत्ता के निर्माण एवं उपयोग से सम्बन्धित है, जो किसी चीज का बोध (Perceive) कर सके, यानि उसे समझ सके, उसका विश्लेषण (Analyse) कर सके, उसका मूल्याङ्कन (Evaluate) कर सके और उसको आवश्यकता अनुसार समेकित (Integrate) कर वांछित परिणाम दे सके| कुछ लोग इसे कृत्रिम मानव भी कहते हैं, जो कुछ मायने सही भी है और गलत भी है| यह सही इस मायने में है, कि यह मानव  के कई कार्यों को सफलतापूर्वक कर मानव की अभूतपूर्व सहायता करता है| यह सौपे गए कार्यो को बड़ी शुद्धता के साथ, बड़ी तेज गति से, बहुत बड़ी मात्रा में और अगम्य स्थान एवं विपरीत परिस्थिति में भी जाकर पूर्व निर्धारित नियमों एवं सूचनाओं के आधार पर वांछित परिणाम देता है| लेकिन इसे कृत्रिम मानव कहना इस आधार पर गलत है, कि यह मशीन आध्यात्मिकता (Spirituality) के आधार पर यानि अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligence) से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि इसमें “स्वयं चेतना” का अभाव होता है|

कृत्रिम बुद्धिमत्ता को दो भागों – प्रतिक्रियात्मक प्रक्रिया (Reactive Process) और मन की क्रियाविधि (Mind Process) में बांटा जा सकता है| जब किसी मशीन का कृत्रिम बुद्धिमत्ता पूर्व निर्धारित नियमों एवं सूचनाओं के आधार पर प्रतिक्रियात्मक रूप में अपना निष्कर्ष देता है, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का “प्रतिक्रियात्मक प्रक्रिया स्वरुप” कहलाता है| लेकिन जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता पूर्व निर्धारित नियमों एवं सूचनाओं के आधार पर निष्कर्ष देने में मानव चेतना की तरह तर्क (Logic), विश्लेषण (Analysis), मूल्यांकन (Evaluation), समेकन (Integration), एवं निष्कर्षण (Conclusion) कर विवेकपूर्ण (Rational) परिणाम (Result) देता है, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का “‘मन’ यानि ‘चेतना’ प्रक्रिया” कहलाता है| इस तरह यह दूसरा प्रकार ‘मानव चेतना’ की अवधारणा पर निर्भर हो गया, कि ‘मानव चेतना’ से हम क्या समझते हैं? तो हमें “मानव चेतना” यानि ‘मानव मन’ को समझना चाहिए|

यह ध्यान रहे कि किसी भी व्यक्ति या किसी भी अस्तित्व का ‘मन’ को हम ‘चेतना’ कह सकते हैं| इस ‘मन’ यानि ‘चेतना’ को उसका “स्वयं” या “आत्म” (यानि Self) भी कह सकते हैं, या कहते हैं| मैंने इस ‘मन’ यानि ‘चेतना’ यानि ‘आत्म’ (आत्मा नहीं) को वैज्ञानिक रूप में परिभाषित किया है| मेरे अनुसार यह मन किसी भी जीव या व्यक्ति विशेष में एक विशिष्ट उर्जा आव्यूह(Energy Matrix) का अस्तित्व है, जो उसके शरीर से संपोषित (Cherished/ Nourished) होता रहता है और उसके अनुभव, ज्ञान, एवं समय के साथ विकसित होता रहता है, लेकिन यह उसके मष्तिष्क (Brain) की क्रिया प्रणाली (Mechanism) से अभिव्यक्त होता है, और अपने संपर्क में आए अन्य ऊर्जा से अनुक्रिया (Actions) एवं प्रतिक्रिया (Reaction) करता रहता है| यह अवधारणा मन से जुड़ी लगभग सभी प्रश्नों को समाधान की ओर दिशा देती है और सभी स्थितियों की संतोषप्रद व्याख्या भी करती है| यही मन सभी मनोवैज्ञानिक क्रियाएँ यथा संवेदन (Sensation), अवधान (Attention), प्रत्यक्षण (Perception), सीखना यानि अधिगम (Learning), स्मृति (Memory), चिंतन (Thinking), आदि आदि को भी सम्पादित करता है|

चूँकि मन उर्जा का एक आव्यूह है, इसलिए मन उर्जा के विभिन्न स्वरुप एवं अवस्था से क्रिया एवं प्रतिक्रिया करता रहता है| कृत्रिम बुद्धिमत्ता भी उर्जा के स्वरूप का उपयोग एवं प्रयोग करता है, लेकिन यह मन की उर्जा की आव्यूह की तरह नहीं होता है| आव्यूह (Matrix) को एक वस्तु (Substance, not Goods), या एक अवस्था (Situation), या एक संरचना (Structure), या एक स्थान, या एक बिंदु, या एक वातावरण (Environment) के रूप में जाना जाता है, और इसमें ही किसी ‘मन’ की उत्पत्ति (Origin) होती है, कोई स्वरुप ग्रहण (Takes Form) करता है या उससे घिरा हुआ (Enclosed) होता है| चूँकि यह किसी के शरीर से संपोषित होता रहता है, इसीलिए उस शरीर के नष्ट हो जाने पर वह उर्जा आव्यूहभी संपोषण एवं संरक्षण के अभाव में खंडित होकर अनन्त ऊर्जा भण्डारमें विलीन हो जाता है और अपना मौलिक स्वरुप को खो देता है, जबकि तथाकथित आत्मा(Soul) अपने तथाकथित मौलिक स्वरुप को यथावत बनाए रखता है, ऐसा माना जाता है|

कोई भी व्यक्ति ‘मन’ या ‘चेतना’ या ‘आत्म’ को अपने अपने ढंग से परिभाषित कर सकता है या करता है, लेकिन सभी का मौलिक एवं सार तत्व एक ही है, जिसे ऊपर परिभाषित किया गया है| विज्ञान यह स्पष्ट करता है कि मानसिक क्रिया (Mental Actions) और मस्तिष्क की क्रिया (Brain Actions) एक ही नहीं है, तथापि ये एक दुसरे पर आश्रित है| मस्तिष्क कोशिकीय (Cellular) क्रियाएँ करता है, जबकि मन उर्जीय (Energetic) क्रियाएँ करता है, लेकिन दोनों एक दुसरे से आच्छादित लगती है, परन्तु वे समरूप (Identical) भी नहीं है| यह भी सत्य है कि मन मस्तिष्क के बिना कार्यरत नहीं रह सकता, फिर भी मन एक पृथक सत्ता है, एक अलग अस्तित्व है| इसलिए एक मानसिक क्रिया एक मस्तिष्क की क्रिया से ज्यादा व्यापक होता है| इस तरह एक मस्तिष्क उसके शरीर के मन का मोड्यूलेटर (Modulator) है| मोड्यूलेटर एक यंत्र होता है, जो डाटा या कम उर्जा वाले तरंगो को क्रियाशील होने योग्य बनाता है| जबकि “चैट जीपीटी” का ट्रांसफार्मर (Transformar) एक ऐसा यन्त्र है जो किसी खास प्रकार की ऊर्जा की प्रकृति को किसी खास दिशा में संवर्धित करता है|

इस तरह स्पष्ट है कि जब तक मन यानि चेतना को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया जाता है, कृत्रिम बुद्धिमत्ता की गुणवत्ता और शक्तियों को मानवीय बुद्धिमत्ता की गुणवत्ता और शक्तियों से तुलना किया जाना समुचित नहीं होगा| कृत्रिम बुद्धिमत्ता और विज्ञान के सहारे कोई “मशीनी मस्तिष्क” (Machine Brain) का स्वरुप दे सकता है, लेकिन क्या कोई व्यक्ति ‘मन’ (Mind) का निर्माण भी कर सकता है, जो अभी तक स्वयं परिभाषित नहीं है?  यही मन यानि चेतना ही अनन्त प्रज्ञा से क्रिया और प्रतिक्रिया कर अंतर्ज्ञान यानि आभास यानि दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है| इसके अतिरिक्त यही ‘मन’ विवेकशीलता (Rationaliy) का भी उपयोग एवं प्रयोग करता है| स्पष्ट है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यह सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता है और इसीलिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता की एक निश्चित सीमा होगी, जबकि मानवीय बुद्धिमत्ता की कोई निश्चित सीमाएं नहीं होगी|

यदि कोई कृत्रिम बुद्धिमत्ता और विज्ञान का उपयोग कर उपर्युक्त परिभाषित यानि अवधारित संकल्पना के अनुसार ‘जीवन्त चेतना’ यानि ‘जीवन्त मन’ का निर्माण करने में सफल हो जाता है, जो मानवीय चेतना की वास्तविक स्वरुप को प्रतिस्थापन्न कर दे, तो निश्चितया कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानवीय बुद्धिमत्ता पर प्रभावी हो जायगा, अन्यथा यह संभव नहीं है| हाँ, यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा मशीन, या उपकरण, या हथियार, या अन्य कोई नाम का ओजार बना ले, जिसका मकसद ही मानव के विरुद्ध दुरूपयोग करना है, तो यह कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रभाव नहीं होकर उस प्रयोगकर्ता व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का प्रभाव माना जाना चाहिए, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रभाव यानि इसका हावी होना नहीं माना जाना चाहिए| इसी तरह किसी आकस्मिक दुर्घटना से उत्पन्न मानवीय संकट को भी कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रभावी परिणाम नहीं माना जा सकता, अपितु यह प्रयोगकर्ता की असावधानी, या असंतुलन, या पूर्वानुमान का अभाव, या चूक का परिणाम माना जाना चाहिए|

स्पष्ट है कि ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ शायद कभी भी ‘मन’ यानि’ चेतना’ यानि ‘आत्म’ के अभाव में मानवीय बुद्धिमत्ता का स्थान नहीं ले सकता है| हाँ, यदि किसी मानव की मंशा ही गलत होगी, तो वह इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दुरूपयोग कर सकता है| लेकिन यह दुरूपयोग करने वाला मानवीय बुद्धिमत्ता ही होगी और यह मानवीय बुद्धिमत्ता अपने प्रयुक्त कृत्रिम बुद्धिमत्ता को मशीन, या उपकरण, या हथियार, या अन्य कोई नाम का ओजार के रूप में उपयोग कर रहा होगा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता अपना स्वयं उपयोग नहीं कर रहा होगा| यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता मस्तिष्क (Brain) का विकल्प बन सकता है, मन (Mind) का विकल्प नहीं, जैसा स्वभाव ऊपर वर्णित है?

अत: यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता कभी भी मानवीय बुद्धिमत्ता पर प्रभावी नहीं होगा, यदि प्राकृतिक चेतना यानि मन (मस्तिष्क नहीं) या आत्म (आत्मा नहीं) का विकल्प उपलब्ध नहीं होता है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

उसने कहा - “तुम कुत्ता हो!”

 उसने मुझे कहा - “तुम कुत्ता हो|”

मुझे ऐसा कहने वाला व्यक्ति हमारे समाज का एक प्रतिष्ठित और स्थापित तथाकथित विद्वान यानि ज्ञानी एवं संस्कारक माना जाता है, इसलिए मुझे गहरा आघात लगा| लेकिन मैंने थोड़ा धैर्य दिखाते हुए उनसे पूछ ही लिया कि आप ऐसा किस आधार पर कह रहे हैं; आखिर मैं भी एक डिग्रीधारी स्थापित बुद्धिजीवी जो ठहरा| उसने तुरंत एक मोटी सी तथाकथित पवित्र पुस्तक निकाली, जो लाल कपड़ा में बंधा हुआ एक तथाकथित पुरातन सनातन ग्रन्थ था| उसने कहा – देखो, यह “कुत्ता” शब्द तुम्हारे समाज के लिए ‘ईश्वर’ ने लिखा है| मैंने फिर विरोध किया - आप किस आधार पर कह रहे हैं, कि इसे ईश्वर ने खुद लिखा है? तब उसने बड़े प्यार से समझाया कि मेरा ज्यादा सवाल करना मेरे द्वारा स्थापित धार्मिक विरोध के स्वभाव को दर्शाता है और मैं धर्म विरोधी हो गया हूँ| अब मुझे चुप हो जाना पडा, क्योंकि धार्मिक होने और धर्म का विरोधी होने का प्रमाण पत्र देने की क़ानूनी अधिकार सिर्फ उन्ही के पास है, जो हमारे ग्रह के न्यायालयों में भी मान्य है|

लेकिन आपसे यह सादर अनुरोध है कि आप उनके और मेरे धर्म और मेरे  धर्मग्रन्थ का नाम मत पूछिए और यह भी नहीं पूछिए कि मैं आपके ब्रह्माण्ड के किस ग्रह पर रहता हूँ| यह सावधानी इसलिए रखनी पड़ती है, क्योंकि कुछ ग्रह वाले जैसे पृथ्वी ग्रह वाले धर्म के मामले में बड़े ही नाजुक होते हैं और बड़ी जल्दी नाराज भी हो जाते हैं| इनके धर्म इतने नाजुक होते हैं कि किसी के कुछ बोलने से ही या किसी के कुछ करने से ही कईयों के धर्म अपवित्र हो जाते हैं | इन मामलों में उनका सर्व शक्तिशाली, सर्व व्यापी और सर्व ज्ञाता ईश्वर भी लाचार रहता है, लेकिन ग्रंथों में ये सर्व शक्तिशाली, सर्व व्यापी और सर्व ज्ञाता माने जाते है| पता नहीं क्यों, उस ईश्वर को तब सब कुछ में सर्व शक्तिशाली, सर्व व्यापी और सर्व ज्ञाता क्यों मान लिया जाता है? पृथ्वी ग्रह वाले लोगों की एक यह भी एक विशेषता है कि किसी भी बात में सिर्फ धर्म शब्द का प्रयोग कर लेने से ही उन सभी बातों को धार्मिक मान ली जाती है|ऐसे लोगों को 'मानवता के दुश्मन' बड़ी आसानी से पशुओं की तरह हांक भी ले जाते हैं और साढ़ों की तरह भड़का भी देने में सफल रहते हैं| इसीलिए मैं यह पृथ्वी ग्रह के वासियों को छोड़ कर अन्य ग्रह वासियों के लिए लिख रहा हूँ|

तो बात मेरे “कुत्ते” होने की चल रही थी| चूँकि यह बात मुझे हमलोगों के समाज के माननीय एवं सम्मानित संस्कारक व्यक्ति ने बतायी थी, और हमारे तथाकथित ईश्वरीय धर्मग्रन्थ का हवाला दिया था, इसलिए मैं इस मामले पर थोडा गंभीर हो गया| अब मुझे कुत्तों के गुणों से अपना विश्लेषण करना था| मैंने पाया कि मुझे भी एक कुत्ते की ही तरह सांस लेने, खाना खाने, और पानी भी पीने की आवश्यकता है, इसलिए मैं सचमुच ही कुत्ता हूँ| तब लगा कि वह गलत नहीं कह रहा था|

लेकिन अपने मुंशी भाई ने बताया कि हमलोग अपने देश के प्रमुख कानून के अनुसार यहाँ के सम्मानित नागरिक हैं, इसलिए धर्म ग्रंथों में लिखी हुई ईश्वरीय बातों के बावजूद हमलोग सभी एक समान हैं| तब मैंने उनसे पूछा कि हमें क्या करना चाहिए? उन्होंने बताया कि हमलोगों को राष्ट्रीय स्तर पर और प्रांतीय स्तर विरोध करना चाहिए, धरना और प्रदर्शन करना चाहिए, सरकार को भी ज्ञापन देना चाहिए| मैंने उनसे सहमति जताई और आन्दोलन तथा प्रदर्शन तेज करने के लिए अपनी कुछ खानदानी जमीन भी बेच कर संसाधन जुटाए| यह सब कुछ विगत कई वर्षो से चल रहा है| मैंने समाज में एक विभाजन रेखा खिची| चूँकि मुझे ऐसा कहने वाले एक ख़ास समाज से हैं, तो मैं भी एक खास समाज से हूँ| उनके तरफ भी कई सामाजिक समूह जुड़े हुए हैं, तो मेरी तरफ भी कई सामाजिक समूह जुड़े हुए हैं| कहने का मतलब यह है कि यह आन्दोलन और प्रदर्शन पहले से चल रहे राष्ट्रव्यापी विरोध एवं समर्थन अभियान का हिस्सा हो गया और इसमें राष्ट्रीय समाज के लगभग सभी वर्गों की हिस्सेदारी हो गयी| आप कह सकते हैं कि हमारे लोग इसके लिए अपना सब कुछ जैसे धन, मन, वैचारिकी, उर्जा, उत्साह, जवानी, संसाधन झोंके हुए हैं| हमें यह लगता है कि हमारे पीछे रह जाने का यही मूल कारण है कि वे लोग हमें कुत्ता समझते हैं, और आन्दोलन करना ही इसका एकमात्र समाधान है|

लेकिन एक दिन प्रोफ़ेसर शिव कुमार जी मिल गए| हालाँकि ये भाषा के प्रोफ़ेसर हैं, लेकिन इनकी समझ गहरी और तेज है| मैंने उन्हें अपनी व्यथा कथा सुनाई, और इसके विरुद्ध अपनी प्रखर बौद्धिक रणनीति को भी स्पष्ट किया| मुझे उनसे पूरा समर्थन यानि धन, मन, उर्जा, उत्साह, जवानी के साथ समर्थन मिलने की आशा थी, क्योंकि मैं एक स्थापित समझदार हूँ और एक लोकप्रिय जननेता भी हूँ| लेकिन उन्होंने मेरी सारी अवधारणा और रणनीति को ही ध्वस्त कर दिया| वे इस समस्या पर एक अलग दृष्टिकोण से प्रकाश डालने लगे, जिसके बारे में यानि उस पक्ष को मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था| मैं पूरी तरह से हिल गया था, मुझे यह समझ में ही नहीं आ रहा था, कि मैं बेवकूफ हूँ, कि खोखला समझदार ही हूँ|

प्रोफेसर ने मुझे समझाया कि मैं इन सभी प्रकरणों को दूसरे सन्दर्भ और पृष्ठभूमि में देखूं| उन्होंने कहा कि मेरे दुश्मन चाहते हैं कि मैं अनावश्यक दिशा में ही उलझा हुआ रहूँ और वे आगे बढ़ते रहें, जिसमे उनको सफलता भी मिलती जा रही है| उन्होंने समझाया कि मैं विगत कई वर्षों से सब कुछ यानि सभी रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य छोड़ कर अपने धन, मन, वैचारिकी, उर्जा, उत्साह, जवानी को यूँ ही बर्बाद करता रहा| यही तो वे लोग चाहते हैं, जिसे मैं अपनी आक्रोश में समझ नहीं पा रहा था| अब मुझे समझ में आया कि मैं तो उनकी ही योजना के अनुसार उनके लिए अपना काम कर रहा था| स्पष्ट है कि इसका लाभ भी वही ले जा रहे थे, क्योंकि उनके आगे बढ़ते क्षेत्रों में हमारे लोग प्रतिद्वंद्विता में कहीं थे ही नहीं| सभी आस्था में डूबे हुए हैं, और समझ रहे हैं, कि पूरा विश्व इनके विशिष्ट सांस्कृतिक ज्ञान से अति प्रभावित हैं| वे तो हमें खाने और पचाने वाले बाजार भर ही समझ रहे थे|

प्रोफ़ेसर साहेब ने कहा कि स्पष्ट है कि उनके द्वारा लिखा ग्रन्थ उनके लाभ के लिए ही लिखा गया है, तो आज के आधुनिक युग में हमें उसे पढने की क्या जरुरत है? उनके ग्रंथों मे स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय की किसी भी बात की कोई चर्चा, आलोचना के रूप में भी, नहीं रहने से ये सब ग्रन्थ आधुनिक युग में समाज से विलुप्त होता गया| मैंने कहा कि मैं आपकी बात नहीं समझ रहा हूँ, क्या मुझे विरोध भी नहीं करना चाहिए? उन्होंने समझाया कि मैं यानि हमलोग उनकी गलत, लेकिन बेकार की बातों का ही विरोध कर यानि उसे चर्चा में लाकर उन गलत बातों और आदर्शो को जीवित ही नहीं रख रहे हैं, बल्कि उसे मजबूत भी कर रहे हैं और उसे समाज में प्रसारित भी कर रहे हैं, जो वे चाहते हैं| उन्होंने कहा कि यह जीतने की रणनीति नहीं है| हमें जो रचनात्मक और सकारात्मक कार्य करना चाहिए, उस ओर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दे रहे हैं| साथ ही याद दिलाया कि इतने दिनों में मैं कितने दिनों उद्यमिता, वित्तीय साक्षरता, सामाजिक अंकेक्षण, बौद्धिक बुद्धिमता, इतिहास, मनोविज्ञान, कानून और दर्शन का अध्ययन किया है? स्पष्ट था कि मैं इन सब विषयों से अपना ध्यान हटा लिया था, जबकि इस तेजी से बदलती दुनिया में हमेशा अपडेट रहने की आवश्यकता है|

आगे उन्होंने कहा कि शासन संख्या बल से भले ही चलता हुआ दिखता है, लेकिन शासन बुद्धि बल से ही किया जाता है|

शासन नीति निर्धारण में सदैव ही बहुत कम लोग शामिल रहते हैं,

जिसके लिए अध्ययन करना पड़ता है और

विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट भी करना पड़ता है|

सिर्फ पुराने महान विचारकों के नाम जपने से ही बात आगे नहीं बढती है, बल्कि समय के सन्दर्भ में विचारों की अवधारणा, क्रियाविधि और उपागम भी बदलना पड़ता है| इसलिए कभी सत्ता में आ भी जाइएगा, तो वहां से हटने में देर भी नहीं लगती है| वे तो चाहते हैं कि हम अपने युवाओं को दिशाहीन करते रहे और उनकी सकारात्मक उर्जा एवं उत्साह को विध्वंसात्मक दिशा में मोड़ दें, जो हम करते आ रहे हैं|

तब वीरेंदर भाई ने कहाआपलोग ‘शूद्र’ वाले प्रसंग में तो यह सब नहीं कह रहे हैं?

प्रोफेसर साहब कोई जबाव दिए बगैर अपनी गाड़ी में प्रस्थान कर गए| मैं तो वहीं उमड़ घुमड़ रहे विचारों में खो गया| मेरा दिमाग ठनका| आपको क्या लगता है?

आचार्य निरंजन सिन्हा 

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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

कुंठा में जी रहा भारत

 (India living in Frustration)

आजकल का भारत अपनी कुंठा (Frustration) के अतिरेक (Extreme) में जी रहा है| यह कुंठा भारतीय समाज की है, जो कई खण्डों और स्तरों में विभाजित है| अर्थात भारतीय समाज का हर उपसमाज अपने अपने ढंग से एक ख़ास तरह की कुंठा में जी रहा है, या घुट घुट कर मर रहा है| यानि भारत का वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का हर समूह अपने अपने ढंग से एक खास तरह की कुंठा में घुट घुट कर जी रहा है| इस तरह पूरा भारत ही एक ख़ास तरह की कुंठा में फंसा हुआ, इसमें सभी जातियाँ एवं सभी वर्ण के समूह शामिल है|

ध्यान रहे कि मैंने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को एक साथ लिखते हुए भी अलग अलग बताया है यानि दोनों को एक दुसरे का भाग नहीं बताया है, जैसा कि सामान्यत: माना जाता है| ऐसा इसलिए कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था एक दुसरे के समानान्तर कभी नहीं मिलने वाली अलग अलग व्यवस्था रही है और दोनों एक दूसरे के पूरक रही है| ‘वर्ण’ सामन्तों की यानि शासकों की व्यवस्था रही और ‘जाति’ सामान्य जनता की यानि शासितों की व्यवस्था रही| इन दोनों भिन्न व्यवस्थाओं को मिलाने यानि एक दुसरे का हिस्सा बनाने की जरुरत लोकतान्त्रिक चुनावी व्यवस्था की प्रकृति के कारण हुई| इन दोनों व्यवस्थाओं को एक दुसरे में समाहित करने यानि इन दोनों को मिलाने की एक नई साजिश विगत एक शताब्दी मात्र पुरानी है| और इसे अभी जबरदस्त ढंग से मजबूती दिया जा रहा है|

तो कुंठा क्या है, जिस पर मैं बहुत जोर दे हूँ? जब कोई व्यक्ति या समूह अपने इच्छित लक्ष्य को अवरुद्ध पाता है यानि उसै पाने में असफल हो जाता है, तब वह कुंठित हो जाता है| इस तरह कुंठा तब पैदा होती है, जब उसके इच्छित लक्ष्य में बाधा आती है तथा उसके अभिप्रेरणा में अवरुद्धता यानि बाधा आती है| इस कुंठा से उत्पन्न व्यवहार में ‘आक्रामकता’, ‘पलायन’, ‘परिहार’ ‘निराशा’ एवं ‘रोना’ आदि आता है| वैसे कुंठा के प्रमुख स्रोत में किसी को किसी ख़ास लक्ष्य को पाने से रोकने वाली शक्तियां हैं, उस व्यक्ति अयोग्यताएँ हैं, संसाधन की अपर्याप्ताएँ हैं, या अन्य विभिन्न द्वन्द भी हो सकता है|

अब मुझे कुंठा की उक्त अवधारणा एवं प्रकृति के आलोक में वर्तमान भारत के समस्त वर्गों की कुंठा का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करना चाहिए| इस कुंठा का आधार ‘संस्कृति’ की तथाकथित पुरातनता एवं सनातनता को बताया जाता है, जिसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है| अर्थात किसी विशेषाधिकार के छूट जाने की कुंठा है, तो किसी को निर्योग्यता को खंडित नहीं किए जाने की कुंठा है, लेकिन कोई इस कुंठा से बाहर निकलने के लिए वैज्ञानिकता का सहारा नहीं लेना चाहता। कोई परम्परागत सांस्कृतिक घेरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। इनमें कोई वैज्ञानिकता है या नहीं है, का तात्पर्य यह है कि इनकी कोई तार्किकता नहीं है, कोई प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य नहीं है और कोई विवेकशीलता भी नहीं है| 

यहां हमें विज्ञान और आस्था को भी समझ लेना चाहिए। आस्था पर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता और इसलिए आस्था कभी विज्ञान नहीं हो सकता। संशय करना यानि प्रश्न किया जाना ही विज्ञान का मूलाधार है। अर्थात विज्ञान कभी भी ग़लत हो सकता है, परन्तु आस्था कभी ग़लत नहीं हो सकता है। स्पष्ट है कि आस्था मूर्खों का विषय है और इसलिए इसमें आत्ममुग्धता रहती है और मदहोशी भी रहती है। विज्ञान ज्ञानियों का विषय है और सदैव संशय में रहता है और इसलिए सदैव सत्य की खोज में रहता है। अतः किसी भी विषय को आस्था के विषय बनाने के लिए धर्म और संस्कृति जैसे भावनात्मक आवरण चढ़ा दिया जाता है। फिर यह पुरातन और सनातन होकर आस्था का विषय बन जाता है।

आज भारत में कोई अपनी अवैज्ञानिक, आधारहीन एवं मिथ्या आधारित मान्यता पर ‘वर्ण’ की सर्वोच्चता के धराशायी होने की आशंका से कुंठित है, तो कई जातियाँ अपने को वर्ण व्यवस्था में “क्षत्रिय” होने के या नहीं हो पाने के प्रयास में कुंठित है| ये जातियाँ या इन जातियों के तथाकथित ठेकेदार इन्हें वर्ण व्यवस्था में शामिल करने के लिए उस समाज की सारी शक्ति, संसाधन, ऊर्जा, समय, धन, उत्साह एवं जवानी झोंके हुए हैं| किन्ही को भी भारतीय गणतंत्र की संविधान प्रदत्त सम्मानजनक ‘नागरिकता’ पसंद नहीं है| ऐसे तमाशे से डुगडुगी बजाने वाले मजा ले रहे हैं| कोई वर्ण व्यवस्था का तथाकथित सर्वोच्च वर्ण यानि "संस्कारक वर्ग"  को पाना नहीं चाहता, जबकि यह सर्वोच्च पद पाना हर समाज के लिए बहुत आसान है| इसके लिए हर समाज को अपने समाज के अन्दर अपने बीच से अपना ‘संस्कारक’ तैयार करना होगा| अधिकतर जाति सिर्फ क्षत्रिय ही बनना चाहता है, यानी संस्कारक के सर्वोच्च अवस्था से नीचे ही रहना चाहता है| इसके लिए काल्पनिक पुस्तकों को आधार मान कर बड़ी- बड़ी और गहरी काल्पनिक जड़ें तैयार किया जा रहा है| आज भारतीय समाज में व्याप्त आक्रमकता को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वैज्ञानिकता को बढ़ावा देना ही इस आक्रमकता का ईलाज है।

यह सब क्या है? यह सब भारतीय समाज का वर्तमान कुंठा का विविध स्वरुप है| इन तथाकथित बुद्धिजिवियों को आधुनिक युग की वैज्ञानिकता से कोई मतलब नहीं है| किसी भी बुद्धिजीवी को अपने ज्ञान या कौशल अर्जन पर कोई विश्वास नहीं, सभी को अपने जन्म के वंश को मध्य कालीन उत्पन्न सामन्ती व्यवस्था के वर्ण व्यवस्था में ही शामिल करना है| ध्यान रहे कि जाति व्यवस्था में कोई ऊँच -नीच नहीं रहा है, वर्ण व्यवस्था में उर्ध्वाकार विभाजन भले रहा, लेकिन इतिहास के मूल्यांकन से इनके आधार कारण स्पष्ट होता है| शासक वर्ग यानि क्षत्रिय वर्ग अपनी सामन्ती झगड़ों और जनता की विद्रोहों को सम्हालने में ही परेशान रहा, और इसीलिए चाह कर भी अपना इतिहास यानि ग्रंथ खुद नहीं लिख पाया| वणिकों यानि वैश्यों को अपनी सम्पत्ति, सामन्ती व्यवस्था में इनकी हथियार एवं आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की आवश्यकता और इनकी गत्यात्मकता के कारण इन्हें इन इतिहास लेखन की कोई जरुरत ही नहीं रही, यानि वर्ण व्यवस्था में इनको दिए गए स्थान की ओर ध्यान ही नहीं दिया| शुद्र तो अपनी संख्या और अपनी भूमिका में वास्तव में क्षुद्र (नगण्य) ही थे| इसलिए इत्मीनान से बैठा हुआ वर्ग इतिहास लेखन में यानि ग्रंथ लेखन में अपने को सर्वोच्च घोषित कर लिया|

आज जिसको भी समुचित अवसर, माहौल यानि परिवेश और शिक्षण –प्रशिक्षण मिलता है, वह अपनी महत्ता का झन्डा गाड़ ही दे रहा है| ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि सभी मानव एक ही व्यक्ति की संतान हैं, जो आज से कोई एक लाख वर्ष पहले अफ्रिका के वोस्त्वाना के मैदान में विकसित हुआ था| हम सभी जानते हैं कि वर्तमान दिखने वाली सभी विभाजनकारी स्थिति प्राकृतिक चयन, अनुकूलन, उत्परिवर्तन, समायोजन, प्रवासन आदि के कारण ही है| यह सब जानते हुए भी हम अपनी कुंठा का आधार अवैज्ञानिकता को बनाये हुए हैं, जो भारत की सारी शक्ति, संसाधन, ऊर्जा, समय, धन, उत्साह एवं जवानी को उलझाए हुए हैं|

लोकतान्त्रिक चुनावी व्यवस्था की प्रकृति की आवश्यकताओं के कारण भारतीय समझदारों ने जाति व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था का अहम् हिस्सा मान कर इसे बहुप्रचारित कर दिया, यानि जाति व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया, जो कभी नहीं रहा। इन भारतीय समझदारों ने समूची जाति व्यवस्था को ‘वर्ण व्यवस्था’ में शामिल करने के लिए ‘विलुप्त’ हो चुकी चौथे वर्ण “क्षुद्र” यानि अपभ्रंशित “शुद्र” वर्ण में डाल दिया| ये क्षुद्र यानि शुद्र अपनी संख्या में और अपनी भूमिका की प्रकृति में नगण्य थे यानि अत्यन्त कम थे, इसीलिए ये क्षुद्र यानि शुद्र कहलाते थे| वस्तुत: शुद्र सामन्तों के व्यक्तिगत सेवक यानि नौकर थे| आज भी व्यक्तिगत सेवकों की संख्या 20-25 व्यक्ति के परिवार में एक या दो नौकर की होती हैं, उस समय भी कमो बेश यही स्थिति थी| इस तरह क्षुद्रों यानि शूद्रों की संख्या कुल आबादी की आधी प्रतिशत भी नहीं थी| ये क्षुद्र यानी शुद्र ब्रिटिश काल में अर्थव्यवस्था की ऐतिहासिक शक्तियों के कारण लुप्त हो गई| वस्तुत: भारत की शेष आबादी यानि वर्ण व्यवस्था से बाहर की आबादी शासितों की थी, जो वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता रहे, जिनकी कमाई पर ही शासकों यानि सामन्तों की व्यवस्था टिकी हुई थी| ये शेष आबादी जाति व्यवस्था में शामिल थी, लेकिन यह वर्ण व्यवस्था से अलग एवं समानातर थी| इस मौलिकता को कोई समझना नहीं चाहता| कोई किसी को तुच्छ बता दिया, और तथाकथित बुद्धिजीवी जन इसी ‘दिव्य ज्ञान’ के आधार पर अपने में वैसे ही तुच्छ गुण और विशेषता देखने और खोजने लग जाते हैं, तो इनकी तथाकथित बौद्धिकता पर प्रश्न खड़ा हो जाता है|

धन्य है भारत,

जिसके बुद्धिजीवियों को

भारतीय गणतंत्र की संविधान प्रदत्त सम्मानजनक ‘नागरिकता’ पर भरोसा नहीं है,

लेकिन वर्ण एवं जाति आधारित अपनी कुंठा पर गर्व है|

ये बुद्धिजीवी इसी कुंठा के आधार पर भारत को वैश्विक नेतृत्व देने का दावा करते हैं|

इस पर आप भी विचार कीजिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा

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रविवार, 5 फ़रवरी 2023

आज का भारत

जब शासक वर्ग कुछ खास वर्गो का ही प्रतिनिधित्व करता हो, और शासक वर्ग की इच्छाएँ समाज की बाकी वर्गो पर थोपी जाती हो, तो मुझे कार्ल मार्क्स याद आते हैं। कार्ल मार्क्स ने राज्य की परिभाषा में स्पष्ट किया - "राज्य एक ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा शासक वर्ग की इच्छाएँ समाज के बाकी वर्गो पर थोपी जाती है।" ऐसा करने का राज्य का प्रयास रहता है, कि वह समाज के अन्दर परम्परावादी व्यवस्था को बरकरार रखे और प्रचलित वर्ग व्यवस्था को जीवित रखें।

तो भारत में वर्ग क्या है? क्या भारत में वर्ग अर्थ - आधारित समूह -- अमीर और गरीब है? भारत में वर्ग स्थायित्व क्या अर्थ आधारित कर्म के आधार पर है या जन्म के वंश यानि परिवार के आधार पर है, या कोई अन्य प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष कारण भी है? इसका उत्तर भ्रामक भी हो सकता है। तो क्या भारत में वर्ग को धर्म के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है? यदि भारत में ‘वर्ण’ एवं 'जाति' को उपरोक्त व्याख्या मे वर्ग माना जाय, तो राज्य की शक्ति और इच्छा की व्याख्या की जा सकती है। वर्ण एवं जाति भारत की अनूठी प्रणाली है, जिसकी समानता विश्व के किसी भी वर्ग से नहीं की जा सकती है। हालांकि भारत के वैसे विद्वान जो परम्परावादी व्यवस्था को यथास्थिति मे बनाए रखने के पक्ष में है, वर्ण एवं जाति को विश्व पटल पर भ्रामक रुपान्तरण मे रखते हैं, ताकि विश्व के विभिन्न विद्वान इसकी अनूठी विशेषताओं एवं विशिष्ट उद्देश्य को नहीं समझ सकें और अमानवीयता के आधार पर इसका आलोचना भी नहीं कर सकें। इस तरह भारत में लम्बी अवधि तक वर्ण एवं जाति व्यवस्था को बनाए रखा जा सकता है। ‘वर्ण’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘वर्ण’ (Varn) रखना, लेकिन ‘जाति’ का अंग्रेजी अनुवाद ' कास्ट' (Caste) मे करना भी एक ऐसा ही प्रयास माना जाना कदापि असंगत नहीं होगा। ‘कास्ट’ एक पुर्तगाली शब्द है, जो वहाँ की परम्परागत सामाजिक समूह को चिन्हित करता है, जिसे जबरदस्ती ही उपरी तौर पर जाति का ही पर्यायवाची दिखाया जाता है। जाति जन्म पर आधारित तो होता है, परन्तु इसके साथ ही यह पूर्ण स्थायी होता है। एक व्यक्ति जिस वर्ण या जाति मे जन्म लेता है, उसी मे ही मरता भी है; भले ही उसकी शैक्षणिक, आर्थिक, धार्मिक या सरकारी पद बदल जाय। ‘कास्ट’ मे अपरिवर्तनशीलता नही रहती है। कास्ट मे बदलाव लाया जा सकता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि ‘जाति’ का विश्वभाषा- अंग्रेजी में अनुवाद ‘कास्ट’ नहीं, ‘जाति’ ही रहनी चाहिए, जैसे साडी और धोती का अंग्रेजी अनुवाद भी साडी और धोती ही होता है।

भारत में हम देखते हैं, कि शासक वर्ग एक या कुछ अल्प संख्या में वर्णो एवं जातियों का समूह है, तो क्या इन अल्प संख्या वाले इन वर्णों एवं जातियों की इच्छाएँ शेष जातियों पर थोपी जा रही है? वैसे वर्ण एवं जाति मे इतनी ही समस्याएँ नहीं है। इसके साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विशेषाधिकार और निर्योग्यताएँ भी जुडी रहती है। विशेषाधिकार को कुछ लोग जन्म आधारित आरक्षण भी कहते हैं, जैसे मंदिर में पुजारी होना भी जन्म आधारित आरक्षण की श्रेणी में आता है। इन ऐतिहासिक निर्योग्यताओं को प्रभावहीन बनाने के प्रयास को भारतीय संविधान में भी विशेष प्रवधानों के द्वारा शामिल किया गया है, ताकि समरुप समाज का निर्माण हो तथा क्षमता के अनुरूप लोग योगदान दे सकें, यानि जन्म के परिवार यानि वंश को महत्ता नहीं देकर उसके अर्जित ज्ञान एवं कौशल को महत्व दिया जा सके। इसी के क्रम में देश की सेवाओं में जाति के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने के लिए विशेष प्रयास किया गया है, ताकि पिछड़ा, अस्पृश्य, नीच एवं निर्योग्य मानी जानी वाली जाति के लोग भी राष्ट्र अर्थात सर्वजन की सेवा में आ सके। इधर कुछ लोग सेवा में सुविधा को नौकरी में सुविधा से जोड़ कर देखने लगे हैं। बल्कि यह कहना उचित होगा कि सेवाओं में आरक्षण को नौकरियों में आरक्षण से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। नौकरी का मूल रोजगार पाना है, आर्थिक उपार्जन करना है, ताकि परिवार को सम्हाला जा सके। नौकरी अर्थात रोजगार की जरूरत सबको है। चूंकि भारत में वर्ण एवं जाति ही वर्ग है, अतएव सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिए सेवाओं में समुचित प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण मे जाति ही आधार बनाया गया है। नौकरी एक परिवार आधारित भावनात्मक शब्द है। लोग शब्दों के प्रतिस्थापन से भ्रमित हो जाते हैं, और राज्य को यथास्थितिवाद बनाए रखने या पुनर्स्थापित करने में सहायता मिलती है।

आपने इस आलेख में यह ध्यान दिया होगा कि मैंने सदैव वर्ण एवं जाति लिखा है| ऐसा इसलिए है, क्योंकि वर्ण एवं जाति सामानांतर व्यवस्था है, यानि दोनों एक दुसरे से अलग और आपस में नहीं मिलने वाली व्यवस्था है| यदि वर्ण के रूप में लें, तो भारतीय समाज ‘सवर्ण’ एवं ‘अवर्ण’ वर्ग में विभक्त रहा है| ‘सवर्ण’ का अर्थ हुआ ‘वर्ण’ के साथ| ‘अवर्ण’ का अर्थ हुआ ‘वर्ण’ से बाहर यानि ‘वर्ण’ के अतिरिक्त| ‘वर्ण’ व्यवस्था में चार हिस्से हुए – ‘शासक’, ‘पुरोहित’, ‘वणिक’ एवं  उनके व्यक्तिगत सेवक| भारत में सामन्त काल में इन्हें क्रमश: क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य एवं शुद्र या क्षुद्र कहा गया| सामन्त काल में क्षत्रिय वर्ग आपसी सामन्ती झगड़ों एवं शासितों के विद्रोह को सुलझाने में उलझे रहे, और परिणामत: उन्हें अपने शासन एवं व्यवस्था का इतिहास लिखने का फुर्सत नहीं मिला| इसका परिणाम यह हुआ कि इनका इतिहास विवरण पुरोहितों ने लिखा| इसी कारण वर्ण के वर्गीकरण में पुरोहितों ने यानि ब्राह्मणों ने अपने वर्ग को सर्वोच्च स्थान पर रखा और शासक वर्ग यानि क्षत्रिय को सर्वोच्च होते हुए भी द्वितीय स्थान पर रखा| वणिक वर्ग यानि वैश्य को इस वर्गीकरण से कोई मतलब नहीं था, क्योंकि ये अपनी व्यवसायिक गतिशीलता के कारण किसी भी क्षेत्रीय शासक के अधीन जबरदस्ती नहीं रोके जा सकते थे| ये अन्य आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावे हथियारों के भी आपूर्तिकर्ता थे और आवश्यकता पड़ने पर सामन्तों को ऋण भी उपलब्ध कराते थे|

शुद्र वस्तुत: तीनों वर्ण के व्यक्तिगत नौकर यानि सेवक थे| व्यक्तिगत सेवकों की संख्या एवं भूमिका सदैव नगण्य ही रही है, और इसीलिए इन्हें क्षुद्र भी कहा या माना जाता रहा| यही क्षुद्र अपभ्रंशित होकर ‘शुद्र’ कहलाया| आजकल ‘अवर्णो’ को भी शुद्र श्रेणी में लाने का वृहत अभियान चलाया हुआ है, यह लोकतंत्र की चुनावी अनिवार्यता का खेल का अहम् हिस्सा है| यह स्पष्ट हो जाना चाहिए, कि शुदों का अस्तित्व ही अपनी नगण्य संख्या एवं नगण्य भूमिका के कारण ब्रिटिश काल में समाप्त हो गया| लेकिन आजकल कुछ लोग अपनी “चटक बौद्धिकता” के उपयोग के लिए शुद्र शब्द का प्रयोग एवं उपयोग करते हैं: मुझे इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना है| इसीलिए इस लोकतंत्र के आगाज के साथ ही ‘हिन्दू’ शब्द का धार्मिक उपयोग यानि प्रयोग किया जाने लगा| इसी कारण ‘हिन्दू’ शब्द का धार्मिक उपयोग यानि प्रयोग का इतिहास कोई एक शताब्दी पुराना या इसी के आस पास का है| इसीलिए आप किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रथ में ‘हिन्दू’ शब्द का धार्मिक उपयोग या प्रयोग नहीं पाते हैं|

‘अवर्ण’ व्यवस्था में वस्तुओं के उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता वर्ग ही शामिल हैं, और इन्हें ही जाति व्यवस्था कहा जाता है| इसीलिए इसमें कई राज्यों के अगड़े यथा गुजरात के पाटीदार या पटेल एवं तेलंगाना के कम्मा आदि सहित भारतीय समाज के पिछड़े एवं वंचित वर्ग शामिल होते हैं| ध्यान रहे कि भारतीय जनजाति समुदाय इस वर्ण एवं जाति व्यवस्था से सदैव ही बाहर ही रहे हैं| इस कारण अवर्ण में भारतीय संविधान के अनुसार कई राज्यों के सामान्य वर्ग, अन्य पिछड़ी जाति एवं अनुसूचित जाति समुदाय के लोग आते हैं|

अब स्पष्ट हो जाना चाहिए, कि वर्ण व्यवस्था शासको से सम्बन्धित रहा, जबकि जाति व्यवस्था शासितों से सम्बन्धित रहा| इसी कारण वर्ण व्यवस्था को शोषको का वर्ग एवं जाति व्यवस्था को शासितों का वर्ग भी माना जाता है| दोनों एक दुसरे पर आश्रित था, जैसे आज का भारत व्यवस्था सामान्य जनता पर आश्रित है| आज के भारत में शासन में चार वर्ग हैं – प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी तथा शासित वर्ग सामान्य जनता है| इस तरह दोनों वर्ग व्यवस्था सामानांतर रही है| वर्ण व्यवस्था में जहां एक अनुक्रम मिलता है, वहीं जाति व्यवस्था में कोई अनुक्रम नहीं मिलता है| अर्थात वर्ण व्यवस्था में कोई एक दुसरे से ऊँच या नीच हो सकता है, लेकिन जाति व्यवस्था में कोई भी एक दुसरे से ऊँच या नीच नहीं होता है| आज की लोकतान्त्रिक व्यवस्था जनमत का खेल है, और इसी कारण यह जनमत के ध्रुवीकरण का खेल तमाशा होता है| कुछ नादानों को हांककर और उनकी कोमल भावनाओं को उभार कर किसी भी दिशा में हांक लिया जाता है, इन्हें कुछ लोग ‘मुर्ख’ की श्रेणी में भी रखते हैं|

किसी भी बीमारी के ईलाज के लिए बीमारी का कारण गहराई से समझना होता है, ताकि बीमारी का ईलाज दुरुस्त किया जा सके। भारत को ‘अपंग राष्ट्र’ बनाने वाली ऐतिहासिक व्यवस्था, जिसे सांस्कृतिक व्यवस्था भी माना जाना चाहिए, को यदि कुछ लोग या कुछ वर्ग यथास्थितिवाद में बनाए रखना चाहते हैं, या पुनर्स्थापित करना चाहते हैं, तो ऐसा या तो अज्ञानतावश किया जा रहा है, या तो स्वार्थपरतावश किया जा रहा है। यह देश यदि इस बीमार व्यवस्था का ईमानदारी से निराकरण कर ले, तो यह देश विश्वपटल पर सर्वोच्च शक्ति बन जाएगा। तब देश में प्रसन्नता और समृद्धता सर्वव्यापी होगा।

स्टीव जॉब्स ने एक बार कहा कि विश्व में जितना परिवर्तन विगत पाँच हजार वर्षो मे हुआ है, नए तकनीकों के उपयोग एवं प्रयोग से उससे ज्यादा परिवर्तन अर्थात प्रगति अगामी कुछ दशक में होगा। संचार एवं परिवहन क्रांति विश्व समाज को एकत्रित कर एक ‘वैश्विक गाँव’ में बदल दिया है। आर्थिक आवश्यकताएं एवं भविष्य के प्रति सजगता विश्व समाज को समान मंच पर ला रहा है।

यहाँ फिर कार्ल मार्क्स याद आते हैं। वर्ण एवं जाति समाप्त होने से भारत का एक महत्वपूर्ण अवैज्ञानिक वर्ग समाप्त हो जाएगा। तब राज्य की शक्तियों एवं आवश्यकताओं का स्वरुप भी बदल जाएगा। भारत फिर विश्व गुरु बन रहा है। इस प्रक्रिया में जो अवरूद्धता है, वह अज्ञानता के कारण है। जनमत की मंशा ईमानदार है। युवा उचित एवं सम्यक निदेश के इंतजार में है। आज का भारत बहुत कम समय में बदलना चाह रहा है। बदलाव की आवश्यकता को समझना होगा।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

The Mistakes in the Upbringing of Children

Upbringing is the way parents guide and treat their children to help them understand the changing world and eventually lead it. It is the p...