Lack of Creative Thinking in India, WHY?
भारत में
रह रहे भारतीयों में आजकल सृजनात्मक चिंतन (Creative Thinking) का अभाव दिखता है| इसीलिए
आधुनिक युग में किसी भी विधा (Discipline) में कोई मौलिक (Original) एवं नवाचारी (Innovative)
सिद्धांत का प्रतिपादन (Exposition) नहीं हो रहा है, सिर्फ पहले से ही निश्चित एवं
निर्धारित सिद्धांतों के अनुप्रयोगो (Applications) को ही बढाया जा रहा है| प्राचीन भारत हरेक
क्षेत्र में अपनी सृजनशीलता के लिए अपनी
वैश्विक पहचान बनाए हुए था| परन्तु संस्कृति का जो रूपांतरण मध्य काल में
सामन्तवाद के प्रभाव में हुआ, उसने भारतीय संस्कृति को ही सामन्ती बना दिया, जो अभी भी मौजूद है|
आज भी वर्तमान
भारतीय संस्कृति का जो पक्ष प्राचीन और प्राचीनतम बताया जा रहा है, वे सभी
मध्यकालीन उपज हैं और 'कागज' (Paper) के भारत आने के बाद के ही हैं, भले उसे जितना पुरातन
एवं सनातन होने का दावा कर लिया जाय| इस तथाकथित
पुरातन एवं सनातन के पक्ष में प्राचीन काल का कोई भी 'प्राथमिक प्रमाणिक प्रमाण' नहीं मिल रहा है| इसी मध्यकालीन उत्पन्न
सामन्ती प्रभाव से आच्छादित संस्कृति ही भारत में सृजनात्मक चिंतन एवं उसके परिणाम
को बाधित कर रहा है| मध्य काल में प्राचीन भारतीय संस्कृति ही विरूपित (Deformed)
यानि बिगड़ी हुई स्वरुप में आ गयी, जो आज भी प्रभावी है|
भारत आजकल जाति (शूद्र) और धर्म की राजनीति में
उलझा हुआ है| भारत अपनी वृहत आबादी की ‘बाजारू’ यानि “खाने - पचाने की क्षमता” की खपत
से जुड़ी उपलब्धियों को विस्तार देकर और इसे वैश्विक पैमाने पर रख कर ही बहुत खुश
है| हमें इन स्थितियों का सम्यक विश्लेषण करना चाहिए, ताकि रुके हुए सृजनात्मक
चिंतन को सही ढंग से समझा जा सके| इसी समझ से भारत को वास्तविक विकास की गति मिल
सकती है| हमें सबसे पहले चिंतन (Thinking)
को समझना चाहिए और तब सृजनात्मक चिंतन (Creative Thinking) को
समझा जाना चाहिए| इसके बाद ही भारत में
सृजनात्मक चिंतन के आधार को समझा जा सकता है|
चिंतन के
इसी सृजनात्मक स्तर ने हमें आधुनिक
मानव (Homo Sapiens), सृजनशील मानव (Homo Fabrr) और सामाजिक मानव (Homo Socius) बनाने में
सक्षम किया| यह चिंतन
प्रणाली सिर्फ मानव में ही पाया जाता है| यह सभी संज्ञानात्मक गतिविधियों या
प्रक्रियाओं का आधार है| इसमें हम अर्जित यानि
प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण (Analysis) करते हैं, उसका किसी पृष्ठभूमि या सन्दर्भ
में मूल्यांकन (Evaluation) करते हैं, फिर इससे प्राप्त सूचनाओं का समेकन (Integration)
कर निर्णय (Judgement) करते है| इस तरह चिंतन एक व्यवस्थित, संगठित और लक्ष्य
निर्देशित मानसिक प्रक्रिया है|
किसी भी
वस्तु (Objects) यानि माल (Goods), या सेवा (Services), या विचार (Thought) का कोई
नवीन एवं मौलिक रूप से अलग रचना करना ही “सृजन” है, और ऐसा करने की चिंतन को “सृजनात्मक
चिंतन”
कहते हैं| इसे किसी समस्या का समाधान करना भी समझा जाता है|
इस तरह सृजनात्मक चिंतन में नयापन, अनूठापन और मौलिकता होती है| इसके साथ ही,
सृजनात्मक चिंतन वास्तविकता की ओर उन्मुख होता है, समाज के व्यापक हित में होता
है, और इसमें सामयिक उपयुक्तता होती है|
हमें सृजनात्मक चिंतन की प्रक्रिया, विकास और
इसमें आने वाली अवरोध को समझना चाहिए, ताकि इसके विकास का उपागम यानि उपाय के
तरीके को सोचा जा सके| किसी भी नवाचारी चिंतन का प्रारंभ किसी समस्या के समाधान के
लिए किए गये प्रयास से होता है| जब भी कोई समस्या
समझ में आती है, और उसके समाधान की जरुरत की समझ होती है, तो सृजनात्मक चिंतन की
प्रवाह शुरू हो जाती है| इसमें समस्या और उसके समाधान को विभिन्न
पृष्ठभूमि में, विभिन्न सन्दर्भ में, नए दृष्टिकोण से, नई सूचनाओं और नई तकनीको के
आलोक में देखना और समझना होता है| सृजनात्मक चिंतन के विकास में पर्यावर्णीय और
सांस्कृतिक पारितंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो इसे अवरोधित कर भी सकती
है, प्रोत्साहित भी कर सकती है या यथास्थिति में छोड़ सकती है|
सृजनात्मक
चिंतन में अवरोध यानि बाधा कई स्वरुप में आता है| बाधाओं को जानने एवं समझने से समाधान भी दिखने
लगता है| इसमें ‘आदत’ (Habit/ Tendency) सबसे
प्रमुख है, जो हमें परम्परागत साँचे (Mould/ Shape/ Pattern) एवं ढाँचे (Fabric/
Structure) में ही किसी समस्या को देखने और उसका समाधान खोजने में सहजता देता है| यह
समस्या और उसके समाधान को एक ख़ास पूर्वनिर्धारित दिशा में और दशा में रहने देता
है, जिससे बाहर निकालने के लिए सतर्कता के साथ साथ अतिरिक्त सजग प्रयास की अनिवार्यता
होती है| किसी समस्या की अतिशीघ्र समाधान खोजने की स्वाभाविक एवं सहज प्रवृति हमें
सामान्य एवं परम्परागत घिसे पिटे तरीके को ही अपनाने को बाध्य करता है| भारत में अधिकतर
विद्वान और नेतृत्व जानबूझ कर अपने सामाजिक व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण ऐसा ही करते
हैं या ऐसा ही होने देते हैं| समाधान खोजने की यही सामान्य एवं परम्परागत घिसे
पिटे तरीके कई प्रमुख समस्याओं के समाधान को लटकाए हुए है|
हम अपने
विचारों में कोई भी ‘पैरेड़ाईम
शिफ्ट’ (Paradigm Shift)
नहीं करना चाहते हैं, जबकि वैश्विक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ यानि कोई भी नवाचारी एवं
मौलिक समाधान इसी तरीके से मिला है| अन्य बाधाओं में लोगों में ‘प्रोत्साहन एवं अभिप्रेरणा
का अभाव’, ‘असफलता का भय’, ‘सामाजिक उपहास की आशंका’, ‘आत्म विश्वास का अभाव’, ‘नकारात्मक
सोच एवं प्रवृति’ प्रमुख है| इन सभी को समेकित
रूप में ‘सांस्कृतिक अवरोध’ कह सकते हैं, लेकिन यह ‘सांस्कृतिक अवरोध’ अपने धार्मिक आवरण के
कारण किसी को दिखता भी नहीं है| ‘संस्कृति” जीवन
को संचालित एवं नियंत्रित करने वाला एक साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रह कर
भी सबसे प्रमुख होता है| एक संस्कृति परम्परा,
रीति रिवाज, संस्कार, धर्म, मान्यता और धरोहर के नाम पर “सामाजिक दबाब” (Social Pressure) बनाता है|
तो सृजनात्मक चिंतन के
विकास के लिए सबसे पहले हम सामाजिक वैज्ञानिको द्वारा प्रतिपादित उपाय को देख लेते
हैं, फिर भारत के
सन्दर्भ में इसका मूल्याङ्कन करेंगे| सामाजिक
वैज्ञानिक बताते हैं कि ‘प्रश्न पूछना’, ‘किसी भी परिस्थिति और वस्तु को अलग ढंग
से समझने के लिए मनन करना’, ‘कल्पनाओं को उड़ान देना’, और ‘स्पष्ट समाधान की
अपेक्षा भिन्न समाधान खोजने को प्राथमिकता देना’ प्रमुख उपाय है| अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन
हाकिन्स “कल्पनाओं की उड़ान” को सबसे
अधिक महत्त्व देते रहे| विचारों के नए संयोजन से और नए ढंग से पुनर्संयोजन से भी
सृजन होता है| किसी भी विचार एवं कल्पना को मुर्खतापूर्ण नहीं माना जाना चाहिए| तर्कसंगत विचार, लेकिन कल्पना ही विज्ञान में ‘परिकल्पना’ (Hypothesis)
कहलाता है, जो सत्यापन के बाद ‘सिद्धांत’ (Theory) बन जाता है| अत: कल्पना ही विज्ञान का आधार
बनता है| किसी को भी अपनी सृजनात्मक क्षमता को कम नहीं आँकना चाहिए| यह सृजनात्मक क्षमता एक कौशल है, जिसे कोई भी प्रयास एवं अभ्यास
से विकसित कर सकता है|
इस तरह यह
स्पष्ट है कि सर्जनात्मक होने की सामर्थ्य सभी में होती है, वशर्ते उन्हें समुचित
अवसर मिले और कोई उसमे किसी तरह का अवरोध नहीं करे| हमारे चिंतन प्रणाली को हमारी ज्ञान, विश्वास,
मूल्य और प्रथा संचालित करता है, जो हमारे समक्ष संस्कृति, धर्म और परम्परा के रूप
में आता है| इसी प्रभावकारी भूमिका के कारण ही संस्कृति, धर्म और परम्परा को पुरातन
एवं सनातन साबित करना होता है, ताकि लोगो को यह बताया जा सके कि यह सब सभ्यता के शुरुआत से
ही ऐसी रही है| इसीलिए संस्कृति, धर्म और परम्परा को साक्ष्यविहीन होने, तर्कहीन
होने, और बकवास होने पर भी पुरातन, सनातन और सम्मानित बताया जाता है|
ऊपर के विवेचन से सृजनात्मक चिंतन में अभिप्रेरक एवं बाधक तत्वों को हम
समझ गए हैं| हम इसे ‘विज्ञान और आस्था’ के रूप में भी समझ सकते हैं और
इसका विश्लेषण भी कर सकते हैं| हमें यह भी
समझना है कि हम भारतीय लोग विज्ञान को प्राथमिकता देते हैं, या आस्था को? यानि हम
भारतीय तथाकथित धर्म को प्राथमिकता देते हैं, या विज्ञान की प्रगति को? सर्जनात्मक चिंतन में विज्ञान सदैव अभिप्रेरक होता है और
आस्था सदैव बाधक होता है| चूँकि आस्था पर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता
और इसीलिए आस्था कभी विज्ञान नहीं हो सकता| विज्ञान
का मूल एवं मौलिक आधार ‘संशय’ (Doubt) होता है, जबकि आस्था में संशय को कोई स्थान नहीं है|
इसी कारण विज्ञान सदैव प्रश्नों का खुले दिल से स्वागत करता है| यही संशय यानि
प्रश्न विज्ञान के विकास को आधार देता है| विज्ञान इस मूल आधार पर आधारित होता
है, कि इसका मूल आधार कभी भी गलत हो सकता है| स्पष्ट है कि आस्था मूर्खों का क्षेत्र
है, और इसलिए यह सृजनात्मकता को बाधित करता है| आस्था में आत्ममुग्धता रहती है
और इसीलिए अपने को सर्वोत्तम समझने की मदहोशी भी रहती है| लेकिन विज्ञान
ज्ञानियों का विषय है, और इसलिए इस पर सदैव प्रश्नों का बौछार यानि संशय छाया रहता
है| विज्ञान ही सत्य को दिशा देने वाला होता है और इसीलिए ही विज्ञान सत्य की दशा
भी निश्चित करता है| स्पष्ट है कि जिस देश एवं काल
में विज्ञान के ऊपर आस्था हावी यानि प्रभावी होता है, वहाँ सृजनात्मकता मृत हो
जाता है| वहाँ सब कुछ का निर्माण एवं विकास ईश्वर के द्वारा ही किया
जाना माना जाता है, तो स्पष्ट है कि मानव को किसी भी सृजन किये जाने की आवश्यकता
ही नहीं है|
अब हमें अपने निष्कर्ष पर आ जाना चाहिए| भारत में सृजनात्मक चिंतन के अभाव का प्रमुख कारण वर्तमान
संस्कृति का स्वरुप एवं इसकी क्रियाविधि है| किसी व्यक्ति या समाज के
सृजनात्मक चिंतन में सभी अभिप्रेरक एवं बाधक तत्व उसके संस्कृति में समाहित रहता है|
मैंने ऊपर यह स्पष्ट किया है कि किसी समाज का संस्कृति उस समाज को अचेतन, चेतन एवं
अधिचेतन स्तर पर संचालित, नियंत्रित, नियमित एवं प्रभावित करने वाला अदृश्य
साफ्टवेयर हैं| इसे समझना होगा| हमारी अभिवृति, हमारे जीवन लक्ष्य, हमारे मूल्य
एवं प्रतिमान, हमारी परम्परा एवं रीति रिवाज, हमारे विशेषाधिकार एवं
निर्योग्यताएँ, धार्मिक सामाजिक पाबंदियां, हमारी पसन्द और नापसन्द, दृष्टिकोण इत्यादि
सभी कुछ हमारी संस्कृति की बनावट में हैं| हम जानते
हैं कि पाखण्ड यानि अवैज्ञानिकता के पांच ही आधार है- ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘पुनर्जन्म’,
‘कर्मवाद’ और ‘नित्यवाद’| जहाँ कहीं भी ये पाँचों तत्व हैं, वहीं आस्था होगी और वह
“सर्जनात्मक चिन्तक” बनने ही नहीं देगा| हम
भारतीयों को इसके लिए कई फ्रंट पर विचार कर अपनी संस्कृति का मूल्याङ्कन करना होगा
और इसके लिए सजग कार्य करना होगा|