(India living in Frustration)
आजकल का भारत अपनी
कुंठा (Frustration) के अतिरेक (Extreme) में जी रहा है| यह कुंठा भारतीय समाज की
है, जो कई खण्डों और स्तरों में विभाजित है| अर्थात भारतीय
समाज का हर उपसमाज अपने अपने ढंग से एक ख़ास तरह की कुंठा में जी रहा है, या घुट
घुट कर मर रहा है| यानि भारत का वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का हर
समूह अपने अपने ढंग से एक खास तरह की कुंठा में घुट घुट कर जी रहा है| इस तरह पूरा
भारत ही एक ख़ास तरह की कुंठा में फंसा हुआ, इसमें सभी जातियाँ एवं सभी वर्ण के
समूह शामिल है|
ध्यान रहे कि
मैंने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को एक साथ लिखते हुए भी अलग अलग बताया है यानि
दोनों को एक दुसरे का भाग नहीं बताया है, जैसा कि सामान्यत: माना जाता है| ऐसा इसलिए कि वर्ण
व्यवस्था और जाति व्यवस्था एक दुसरे के समानान्तर कभी नहीं मिलने वाली अलग अलग
व्यवस्था रही है और दोनों एक दूसरे के पूरक रही है| ‘वर्ण’ सामन्तों की यानि शासकों
की व्यवस्था रही और ‘जाति’ सामान्य जनता की यानि शासितों की व्यवस्था रही|
इन दोनों भिन्न व्यवस्थाओं को मिलाने यानि एक दुसरे का
हिस्सा बनाने की जरुरत लोकतान्त्रिक चुनावी व्यवस्था की प्रकृति के कारण हुई|
इन दोनों व्यवस्थाओं को एक दुसरे में समाहित करने
यानि इन दोनों को मिलाने की एक नई साजिश विगत एक शताब्दी मात्र पुरानी है|
और इसे अभी जबरदस्त ढंग से मजबूती दिया जा रहा है|
तो कुंठा
क्या है, जिस पर मैं बहुत जोर दे
हूँ? जब कोई व्यक्ति या समूह अपने इच्छित लक्ष्य को अवरुद्ध पाता है यानि उसै पाने
में असफल हो जाता है, तब वह कुंठित हो जाता है| इस
तरह कुंठा तब पैदा होती है, जब उसके इच्छित लक्ष्य में बाधा आती है तथा उसके
अभिप्रेरणा में अवरुद्धता यानि बाधा आती है| इस
कुंठा से उत्पन्न व्यवहार में ‘आक्रामकता’, ‘पलायन’, ‘परिहार’ ‘निराशा’
एवं ‘रोना’ आदि आता है| वैसे कुंठा के प्रमुख स्रोत में किसी को किसी
ख़ास लक्ष्य को पाने से रोकने वाली शक्तियां हैं, उस व्यक्ति अयोग्यताएँ हैं, संसाधन
की अपर्याप्ताएँ हैं, या अन्य विभिन्न द्वन्द भी हो सकता है|
अब मुझे कुंठा की उक्त अवधारणा एवं प्रकृति के आलोक में वर्तमान भारत के समस्त वर्गों की कुंठा का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन करना चाहिए| इस कुंठा का आधार ‘संस्कृति’ की तथाकथित पुरातनता एवं सनातनता को बताया जाता है, जिसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है| अर्थात किसी विशेषाधिकार के छूट जाने की कुंठा है, तो किसी को निर्योग्यता को खंडित नहीं किए जाने की कुंठा है, लेकिन कोई इस कुंठा से बाहर निकलने के लिए वैज्ञानिकता का सहारा नहीं लेना चाहता। कोई परम्परागत सांस्कृतिक घेरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। इनमें कोई वैज्ञानिकता है या नहीं है, का तात्पर्य यह है कि इनकी कोई तार्किकता नहीं है, कोई प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य नहीं है और कोई विवेकशीलता भी नहीं है|
यहां हमें विज्ञान और आस्था को भी समझ लेना चाहिए। आस्था पर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता और इसलिए आस्था कभी विज्ञान नहीं हो सकता। संशय करना यानि प्रश्न किया जाना ही विज्ञान का मूलाधार है। अर्थात विज्ञान कभी भी ग़लत हो सकता है, परन्तु आस्था कभी ग़लत नहीं हो सकता है। स्पष्ट है कि आस्था मूर्खों का विषय है और इसलिए इसमें आत्ममुग्धता रहती है और मदहोशी भी रहती है। विज्ञान ज्ञानियों का विषय है और सदैव संशय में रहता है और इसलिए सदैव सत्य की खोज में रहता है। अतः किसी भी विषय को आस्था के विषय बनाने के लिए धर्म और संस्कृति जैसे भावनात्मक आवरण चढ़ा दिया जाता है। फिर यह पुरातन और सनातन होकर आस्था का विषय बन जाता है।
आज
भारत में कोई अपनी अवैज्ञानिक, आधारहीन एवं मिथ्या आधारित मान्यता पर ‘वर्ण’ की
सर्वोच्चता के धराशायी होने की आशंका से कुंठित है, तो कई जातियाँ अपने को वर्ण
व्यवस्था में “क्षत्रिय” होने के या नहीं हो पाने के प्रयास में कुंठित है|
ये जातियाँ या इन जातियों के तथाकथित ठेकेदार इन्हें वर्ण व्यवस्था में शामिल करने
के लिए उस समाज की सारी शक्ति, संसाधन, ऊर्जा, समय, धन, उत्साह एवं जवानी झोंके
हुए हैं| किन्ही को भी भारतीय गणतंत्र की संविधान प्रदत्त सम्मानजनक ‘नागरिकता’ पसंद
नहीं है| ऐसे तमाशे से डुगडुगी बजाने वाले मजा ले रहे हैं| कोई वर्ण व्यवस्था का तथाकथित सर्वोच्च वर्ण यानि "संस्कारक वर्ग" को पाना नहीं
चाहता, जबकि यह सर्वोच्च पद पाना हर समाज के लिए बहुत आसान है| इसके लिए हर समाज
को अपने समाज के अन्दर अपने बीच से अपना ‘संस्कारक’ तैयार करना होगा| अधिकतर जाति
सिर्फ क्षत्रिय ही बनना चाहता है, यानी संस्कारक के सर्वोच्च अवस्था से नीचे ही
रहना चाहता है| इसके लिए काल्पनिक पुस्तकों को आधार मान कर बड़ी- बड़ी और
गहरी काल्पनिक जड़ें तैयार किया जा रहा है| आज भारतीय समाज में व्याप्त आक्रमकता को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वैज्ञानिकता को बढ़ावा देना ही इस आक्रमकता का ईलाज है।
यह सब क्या
है? यह सब भारतीय समाज का वर्तमान कुंठा का विविध स्वरुप है| इन तथाकथित बुद्धिजिवियों
को आधुनिक युग की वैज्ञानिकता से कोई मतलब नहीं है| किसी भी बुद्धिजीवी को अपने ज्ञान
या कौशल अर्जन पर कोई विश्वास नहीं, सभी को अपने जन्म के वंश को मध्य कालीन उत्पन्न
सामन्ती व्यवस्था के वर्ण व्यवस्था में ही शामिल करना है| ध्यान रहे कि जाति
व्यवस्था में कोई ऊँच -नीच नहीं रहा है, वर्ण व्यवस्था में उर्ध्वाकार विभाजन भले
रहा, लेकिन इतिहास के मूल्यांकन से इनके आधार कारण स्पष्ट होता है| शासक वर्ग यानि
क्षत्रिय वर्ग अपनी सामन्ती झगड़ों और जनता की विद्रोहों को सम्हालने में ही परेशान
रहा, और इसीलिए चाह कर भी अपना इतिहास यानि ग्रंथ खुद नहीं लिख पाया| वणिकों यानि वैश्यों
को अपनी सम्पत्ति, सामन्ती व्यवस्था में इनकी हथियार एवं आवश्यक वस्तुओं की
आपूर्ति की आवश्यकता और इनकी गत्यात्मकता के कारण इन्हें इन इतिहास लेखन की कोई जरुरत ही
नहीं रही, यानि वर्ण व्यवस्था में इनको दिए गए स्थान की ओर ध्यान ही नहीं दिया| शुद्र तो अपनी संख्या और अपनी भूमिका में वास्तव में क्षुद्र (नगण्य) ही
थे| इसलिए इत्मीनान से बैठा हुआ वर्ग इतिहास लेखन में यानि ग्रंथ लेखन में अपने को
सर्वोच्च घोषित कर लिया|
आज जिसको
भी समुचित अवसर, माहौल यानि परिवेश और शिक्षण –प्रशिक्षण मिलता है, वह अपनी महत्ता
का झन्डा गाड़ ही दे रहा है| ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि सभी मानव एक ही व्यक्ति की संतान हैं, जो आज
से कोई एक लाख वर्ष पहले अफ्रिका के वोस्त्वाना के मैदान में विकसित हुआ था|
हम सभी जानते हैं कि वर्तमान दिखने वाली सभी विभाजनकारी स्थिति प्राकृतिक चयन,
अनुकूलन, उत्परिवर्तन, समायोजन, प्रवासन आदि के कारण ही है| यह सब जानते हुए भी हम अपनी कुंठा का आधार अवैज्ञानिकता को
बनाये हुए हैं, जो भारत की सारी शक्ति, संसाधन, ऊर्जा, समय, धन, उत्साह एवं
जवानी को उलझाए हुए हैं|
लोकतान्त्रिक
चुनावी व्यवस्था की प्रकृति की आवश्यकताओं के कारण भारतीय समझदारों ने जाति
व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था का अहम् हिस्सा मान कर इसे बहुप्रचारित कर दिया, यानि जाति व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया, जो कभी नहीं रहा। इन भारतीय समझदारों ने
समूची जाति व्यवस्था को ‘वर्ण व्यवस्था’ में शामिल करने के लिए ‘विलुप्त’ हो चुकी
चौथे वर्ण “क्षुद्र” यानि अपभ्रंशित “शुद्र” वर्ण में डाल दिया| ये क्षुद्र
यानि शुद्र अपनी संख्या में और अपनी भूमिका की प्रकृति में नगण्य थे यानि अत्यन्त
कम थे, इसीलिए ये क्षुद्र यानि शुद्र कहलाते थे| वस्तुत: शुद्र सामन्तों के
व्यक्तिगत सेवक यानि नौकर थे| आज भी व्यक्तिगत सेवकों की संख्या 20-25 व्यक्ति
के परिवार में एक या दो नौकर की होती हैं, उस समय भी कमो बेश यही स्थिति थी| इस तरह क्षुद्रों यानि शूद्रों की संख्या कुल आबादी की आधी
प्रतिशत भी नहीं थी| ये क्षुद्र यानी शुद्र ब्रिटिश काल में अर्थव्यवस्था की
ऐतिहासिक शक्तियों के कारण लुप्त हो गई| वस्तुत: भारत
की शेष आबादी यानि वर्ण व्यवस्था से बाहर की आबादी शासितों की थी, जो वस्तुओं के
उत्पादक एवं सेवाओं के प्रदाता रहे, जिनकी कमाई पर ही शासकों यानि सामन्तों की
व्यवस्था टिकी हुई थी| ये शेष आबादी जाति
व्यवस्था में शामिल थी, लेकिन यह वर्ण व्यवस्था से अलग एवं समानातर थी| इस
मौलिकता को कोई समझना नहीं चाहता| कोई किसी को तुच्छ बता दिया, और तथाकथित बुद्धिजीवी जन इसी ‘दिव्य
ज्ञान’ के आधार पर अपने में वैसे ही तुच्छ गुण और विशेषता देखने और खोजने लग जाते हैं, तो इनकी
तथाकथित बौद्धिकता पर प्रश्न खड़ा हो जाता है|
धन्य है भारत,
जिसके
बुद्धिजीवियों को
भारतीय गणतंत्र
की संविधान प्रदत्त सम्मानजनक ‘नागरिकता’ पर भरोसा नहीं है,
लेकिन वर्ण एवं
जाति आधारित अपनी कुंठा पर गर्व है|
ये बुद्धिजीवी
इसी कुंठा के आधार पर भारत को वैश्विक नेतृत्व देने का दावा करते हैं|
इस पर आप भी
विचार कीजिए|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
www,niranjansinha.com
समाज के प्रबुद्घ वर्ग को उनके सामाजिक सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति जागरूक एवं जिम्मेवार बनाने के लिए निरंतर संवाद जारी रखने की चेष्टा करनी है। इसके लिए अनवरत सभा, सेमिनार/वेभीनार,संगोष्ठी एवं सोशल मीडिया पर जन -चेतना का संचार करना चाहिए।
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