रविवार, 12 जून 2022

क्रान्ति कैसे होती है?

क्रान्ति कैसे होती है, इसे समझने से पहले यह समझना होगा कि क्रान्ति क्या है? एक छोटे अवधि में बहुत बड़ा सकारात्मक परिवर्तन ही “क्रान्ति” (Revolution) कहलाती है| इसके द्वारा पुरानी अवधारणा, पुरानी व्यवस्था, पुराना तंत्र, पुरानी सोच आदि सब कुछ एक झटके में बदल जाता है| सामान्यत: लोग क्रान्ति का अर्थ एक राजनीतिक क्रान्ति से लेते हैं, जिसमे अवैधानिक हिंसक तरीके से राजनीतिक सत्ता बदल दिया जाता है| यह एक क्रान्ति का बहुत ही क्षुद्र अर्थात बहुत संकीर्ण अर्थ हुआ| एक क्रान्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में, किसी प्रक्रिया (Process/ Method) में, किसी विचारधारा (Ideology) में, किसी उत्पादन (Production) व्यवस्था में, किसी तंत्र (System) में, किसी नजरिया (Attitude) में, किसी जीवन पद्धति (Life Style) आदि में हो सकता है| मतलब यह है कि किसी भी क्षेत्र में बहुत ही कम समय में कोई बहुत बड़ा बदलाव होना ही उस क्षेत्र में क्रान्ति है|

क्रान्ति कई कई क्षेत्रों में हो सकती है| इसके उदाहरणों में सांस्कृतिक क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति, वैज्ञानिक क्रान्ति, आत्म क्रान्ति (Self Revolution), कृषि क्रान्ति, दुग्ध  क्रान्ति, सफ़ेद क्रान्ति, नीली क्रान्ति, हरित क्रान्ति, शैक्षणिक क्रान्ति, राजनीतिक क्रान्ति, आदि आदि| कोई भी क्रान्ति हो, उसके मौलिक अवधारणा (Concept) में, या उसके संरचना (Structure) में यानि उसके मौलिक बनावट में, या उसके उत्पादन या वितरण या विनिमय पद्धति (Method) में, या उसके प्रक्रिया (Process) में, या उसके परिप्रेक्ष्य (Perspective) यानि सन्दर्भ (Reference) में बहुत बड़ा बदलाव (Paradigm Shift) कर ही क्रान्ति लायी जा सकती है| उपरोक्त सभी क्रांतियों में यही आधारभूत तत्व होते हैं| सामान्यत: पहले से ही स्थापित पैरेडाईम का विस्तार होता रहता है, कई दृष्टिकोणों से इसका विश्लेषण होता रहता है एवं इसका ही संश्लेषण कर कई विविध प्रतिरूप एवं संयोजन कर विविध उपयोग किया जाता रहता है|

प्रोफ़ेसर थामस सैम्युल कुहन ने 1962 में एक पुस्तक – The Structure of Scientific Revolution” लिखी| इसमें इन्होने पहली बार एक शब्द युग्म पैरेड़ाईम शिफ्ट (Paradigm Shift)” का प्रयोग किया, जो बाद में काफी प्रचलित हो गया| मूल रूप में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ में विचारों, अवधारणाओं, संरचनाओं, प्रक्रियाओं आदि में बहुत अलग एवं बहुत बड़ा बदलाव को इंगित करता है| इसके बिना कोई क्रान्ति हो ही नहीं जा सकती, सिर्फ विकास (Development) एवं वृद्धि (Growth) हो सकता है|

हालाँकि इनका सन्दर्भ वैज्ञानिक क्रान्ति के सन्दर्भ में था, लेकिन इसके मूल स्वभाव को यदि समझा जाय, तो यह पैरेड़ाईम शिफ्ट” सभी क्रांतियों का सबसे मूल (Prime), मौलिक (Basic), आधारभूत (Fundamental), आवश्यक (Compulsory) तत्व (Element) है, और इसके बिना किसी भी क्रान्ति की कल्पना संभव नहीं है, चाहे वह वैज्ञानिक क्रान्ति हो, सामाजिक क्रान्ति हो, सांस्कृतिक क्रान्ति हो, आर्थिक क्रान्ति हो, या राजनीतिक क्रान्ति ही हो| यह किसी भी क्रान्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त है| और इसीलिए किसी भी क्रान्ति का जब सावधान (Cautious), सूक्ष्म (Micro), तीक्षण (Sharp/ Penetrating), शुद्ध (Accurate) सरल (Simple) एवं साधारण (Ordinary) विश्लेषण (Analysis) की जायगी, तो यही पैरेड़ाईम शिफ्ट” तत्व सबके मूल (Prime) में रहेगा, और मौलिक (Basic), एवं आधारभूत (Fundamental) होगा| यदि ऐसे तत्व यानि “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) किसी प्रक्रिया (Process/ Method), किसी विचारधारा (Ideology), किसी उत्पादन (Production), किसी तंत्र (System), किसी नजरिया (Attitude), किसी जीवन पद्धति (Life Style) में नहीं है, तो वह क्रान्ति नहीं है; महज एक नाटक है, नौटंकी है, झूठ है, ठगी है, धोखा है, और विश्वासघात है|

हम जरा ठहर कर “सामान्यीकरण का सिद्धांत” (Theory of Generalization) का समझते हैं, जो बहुत ही महत्वपूर्ण है, और इसीलिए आवश्यक भी है| वैसे सामान्यीकरण के सिद्धांत के सामान्य लाभ लिए जाते हैं, परन्तु इसका एक नकारात्मक एवं दोषपूर्ण प्रयोग भी किया जाता है| इसीलिए “सामान्यीकरण का सिद्धांत” एक भयानक (Horrible/ Terrible), मूर्खतापूर्ण (Idiotic/ Silly), विध्वंसकारी (Destructive) एवं खतरनाक (Hazardous) सिद्धांत है, जो समाज का, जीवन का, राष्ट्र का, एवं मानवता का समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, ज्ञान, उत्साह (Enthusiasm/ उमंग) एवं जवानी (Springtime of Life) का नाश भी करता है| इसे थोडा और विस्तार से समझते हैं| कोई भी क्रान्तिकारी सफल व्यक्ति अवश्य ही अपने विचारों में, अवधारणाओं में, प्रक्रियाओं में, परिप्रेक्षयों में पैरेड़ाईम शिफ्ट किया है, और इसीलिए वह व्यक्ति अपने चिंतन में तार्किक होगा, अपने उपागम (Approach) में विश्लेषणात्मक होगा, निर्णय में विवेकशील होगा, और आधारभूत रूप में वैज्ञानिक मानसिकता का होगा| ऐसे व्यक्ति भी ऊँचे पद एवं प्रतिष्ठा के होते हैं| परन्तु कुछ परम्परागत यानी पिछड़े हुए समाजो एवं राष्ट्रों में, जहां रट्टा योग्यता (Rote Qualification) को ज्यादा मान्यता दिया जाता है, या उसी को ही सिर्फ मान्यता दिया जाता है, वहां पद और प्रतिष्ठा ज्यादा इन्हीं रट्टूओं को दे दिया जाता है| ऐसे समाज या राष्ट्र में “सामान्यीकरण के सिद्धांत” के अनुसार इन्हें यानि इन रट्टूओं को ही या इन रट्टूओं को भी ‘तार्किक’, ‘विश्लेषण क्षमतावान’. ‘विवेकशील’. एवं ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ का मान लिया जाता है, जबकि इन रट्टू लोगों में कोई तार्किकता नहीं होती, कोई विश्लेषण क्षमता नहीं होता, विवेकशीलता भी शून्य होती है, और वैज्ञानिक मानसिकता के अभाव में ये पाखंडी, रुढ़िवादी एवं अन्धविश्वासी होते हैं|

सन्दर्भवश यह बताते चले कि ‘आत्म क्रान्ति’ (Self Revolution) किसी व्यक्ति के स्वयं में बहुत बड़ा बदलाव करने के सम्बन्ध में है| इसके लिए किसी को भी अपने नजरिया या मानसिकता में एक पैरेड़ाईम शिफ्ट करना होता है| इसे “मानसिक क्रान्ति” भी कह सकते है, परन्तु यह आत्म क्रान्ति का पूर्ण विकल्प नहीं हो सकता है| सामान्यत: लोग अपनी समस्याओं, उलझनों, एवं परेशानियों का कारण अपने से बाहरी दुनिया में देखते है, समझते हैं और बाहरी दुनिया में ही समाधान भी खोजते हैं| लेकिन मानसिकता में एक पैरेड़ाईम शिफ्ट में यह करना होता है कि हमें बाहरी दुनिया को देखने, समझने एवं उसमे समाधान खोजने की अपेक्षा हमें अपने अन्दर देखना, समझना एवं समाधान खोजना होता है| इसी को “विपस्सना” भी कहते हैं| अत: सभी समस्याओं का समाधान अपने स्वयं के अन्दर मिल जाता है| हम अपने को बदलकर यानि सामान्य बुद्धिमत्ता के अलावे भावनात्मक बुद्धिमत्ता, सामाजिक बुद्धिमत्ता, एवं बौद्धिक बुद्धिमता लाकर ही विश्व को भी बदल सकते है| यह सभी क्रांतियों का मूल (Prime) तत्व हैं, इस पर ज़रा ठहर के मनन करना होगा|

‘सामान्यीकरण के सिद्धांत’ के अनुसार ये अपनी बातों में तो क्रान्तिकारी दिख तो सकते हैं, परन्तु ये काफी घिसे पिटे हुए सोच एवं समझ वाले लोग होते हैं| ये अपने को क्रान्तिकारी समझते भी हैं, परन्तु इनकी सोच, मानसिकता, अवधारणा – सभी शताब्दियों पुरानी होती है| घिसे पिटे सोच, मानसिकता, अवधारणा पर चलने वाले समाज और राष्ट्र की एक साधारण पहचान यह है कि इन समाजों या राष्ट्रों में सामान्यत: रहने वाले लोगों को “नोबल पुरस्कार” नहीं ही मिलता है, यदि मिलता भी है तो वह अपवाद हो सकता है, या राष्ट्रीय समग्र आबादी के सन्दर्भ में नगण्य हो सकता है| लेकिन इसका यह अर्थ यह नहीं है कि यह पुरस्कार विवादित नहीं है| “वैश्विक सामान्यीकरण के सिद्धांत” (Theory of Global Generalization) के अनुसार यानि वैश्विक स्तर के पद एवं प्रतिष्ठा का सामान्यीकरण क्षेत्रीय स्तर के संस्कृति या सामाजिक शर्तों के अनुरूप कर दिया दिया जाता है, तब इन रट्टूओं को भी वैश्विक स्तर के महान लोगों की श्रेणी में डाल दिया जाता है| यानि अपने क्षेत्रीय यानि स्थानीय प्रफेस्सरों को भी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों के समतुल्य तार्किक, विवेकशील एवं ज्ञानवान मान लेते हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है| ऐसा नहीं है कि इन ‘सामान्यीकरण के सिद्धांतों’ के झांसे में सिर्फ अनपढ़ एवं गवार लोग ही आते हैं, अपितु पद एवं प्रतिष्ठा वाले तथाकथित बड़े लोग भी खूब रहते हैं| इसमें एक स्पष्टीकरण यह है कि इसमें उस राष्ट्र के बड़े प्रशासनिक पदाधिकारी, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, कंपनियों के संचालक एवं निदेशक, सहित समस्त समाज के अन्य अधीनस्थ भी शामिल किए जा सकते हैं| इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि इसके अपवाद सामान्य नहीं होते अर्थात इसके अपवाद भी खूब होते हैं| यह एक अति सामान्य सामाजिक विश्लेषण है, जो विश्व के सभी पिछड़े हुए समाजो के लिए सही है|  

अब एक नजर सामाजिक क्रान्ति करने चले शूरवीरों का भी कर लिया जाय| इसका एक छोटा विश्लेषण सामान्य तर्क एवं विवेक पर कर लिया जाय| इन तथाकथित क्रान्तिकारी शूरवीरों में विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, एवं समाज के बड़े बौद्धिक नेताओं की बेशुमार संख्या है, जो किसी विशेष समुदाय को गाली देते है, पुरे मनोयोग से चीखते- चिल्लाते हुए तथाकथित बासी (Stale/ Musty) ज्ञान परोसते हैं, सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावनाओं में श्रोताओं को बहा ले जाते हैं| 'बासी' इसलिए कि दशकों सदियों पुराने अवधारणाओं को नए शोधों, नई वैज्ञानिकता, और नए सन्दर्भ में परिमार्जित नहीं किया जाता है| ये सामाजिक क्रान्ति के अधिकतर नाटकबाज और नौटंकीबाज नेता होते हैं, लेकिन ऐसा क्यों कहा जा रहा है? ऐसा इसलिए कि इनकी तथाकथित क्रान्ति के मौलिक अवधारणा एवं विचार अभी भी सौ साल से अधिक पुराना है| यदि ये अवधारणा और विचार पर्याप्त क्रान्तिकारी होते, तो यह अब तक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया होता| इसमें नए शोधों को कोई स्थान नहीं है, अवधारणा और विचार में कोई पैरेड़ाईम शिफ्ट नहीं है, और समाज के मनोविज्ञान यानि मानवीय मनोवैज्ञानिक समझ को कोई स्थान नहीं है| इन सभी में कोई मौलिक बदलाव किए बिना क्रान्ति की उम्मीद करना बेतुका है|

इसी कारण ये चीखने चिल्लाने वाले नेता व्यवस्था यानि तंत्र (System) को बदल नहीं पाते हैं, सिर्फ तंत्र यानि व्यवस्था के व्यक्ति को बदल पाते है और उसी तंत्र का एक हिस्सा बन जाते हैं| तंत्र या व्यवस्था वही रहता है, सिर्फ चेहरे बदल जाते हैं| जब इनका सोच और अवधारणा वही शताब्दियों पुरानी, बेकार और बासी होगी, निश्चित है कि कोई क्रान्ति नहीं होगी| ये सिर्फ क्रान्ति का अहसास दिलाते हैं, और सामान्य जनता इसी आस में अपना जीवन पार कर लेता है|

इसलिए ये बहके हुए, भटके हुए, बिके हुए या भटकाए हुए क्रान्तिकारी लोग है, तथाकथित क्रान्ति योद्धा है, जिनका तथाकथित क्रान्ति महज एक नाटक है, नौटंकी है, झूठ है, ठगी है, धोखा है, और समाज के साथ विश्वासघात है| यह सब क्रान्ति के नाम पर समाज और राष्ट्र के लिए एक भयानक, मूर्खतापूर्ण, विध्वंसकारी, एवं खतरनाक कदम है, जो समाज का, जीवन का, राष्ट्र का, एवं मानवता का समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, ज्ञान, उत्साह एवं जवानी (Springtime of Life) का नाश करता है|

आप भी इस पर सम्यक विचार करें|

निरंजन सिन्हा

www,niranjansinha,com

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1 टिप्पणी:

  1. एक उत्तम आलेख जो उन पाखंडी क्रांतिकारियों को उजागर करता है,जो खुद तो दोगली प्रवृत्ति के हैं,और आम भोली-भाली जनता को किसी के एजेंडे का मोहरा बनाकर दिन-रात ठगने का काम करते हुए अपने को सार्वजनिक रूप से कुछ और ही प्रदर्शित करते हैं।
    पिछड़े और विकासशील देशों की यह सबसे बड़ी विडंबना है।

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