सवाल यह है कि मंदिर क्यों टूटा? इसके लिए मंदिर को समझना होगा, उस काल को समझना होगा जिसमे मंदिर टूटा, उस प्रक्रिया को समझना होगा जिन प्रक्रियाओं से यह टूटा, और उन स्थितियों को समझना होगा जिन परिस्थितियों में यह टूटा| फिर हमें यह भी समझना होगा कि हमें आज क्या चाहिए? सिर्फ वही मंदिर चाहिए या अपने नागरिकों के लिए और भी कुछ ज्यादा चाहिए?
एक मंदिर
क्या है? प्राकृत बहुत प्राचीन भाषा है, क्योंकि यह ‘प्रा’ एवं ‘कृत’
से बना है| ‘कृत’ का अंग्रेजी अर्थ होता है - Creation यानि ‘किसी
चीज के बनने की स्थिति’ या 'कोई रचना', और ‘प्रा’ (Pre) का अर्थ हुआ 'पहले" यानि पूर्व की स्थिति| इस तरह 'प्राकृत' का अर्थ हुआ - किसी भी रचना की पहले की अवस्था| यानि किसी भाषा की रचना की
पूर्व अवस्था| प्राकृत का उद्भव क्षेत्र मगध माना जाता है और आज भी यह मगही भाषा या
मागधी भाषा के रूप में जीवित है| मगही में ‘मंदिर’ को “मंदिल” (मन + दिल) कहा जाता है, जो ‘मन’ और ‘दिल’ के
संयोग से बना है| अर्थात यह ‘मन’ और ‘दिल’ से सम्बंधित है| ‘मन’ मानव के चेतना से सम्बंधित है और ‘दिल’ मानव की भावनाओं से संबधित माना जाता है| इस तरह एक “मंदिल” (MANDIL)
यानि मंदिर चेतना को प्रखर करता है और भावनाओं को बौद्धिक बनाकर एक मानव को समझदारी एवं सुकून देता है| मंदिर का उपरी आकृति ब्रह्माण्डीय किरणों को मंदिरों के मध्य में केन्द्रीत करता है। यह भारत की
परंपरा रही है|
यदि
हम भारत में मंदिल यानि मंदिर की परम्परा देखें, तो यह पायेंगे कि यह परंपरा भारत
के सभी पन्थो के साथ रही| बौद्ध परंपरा हो या जैन परंपरा या अन्य कोई और परंपरा,
भले आज उनके अवशेष मिलते हों या भग्न अवस्था में हो, यह परंपरा प्राचीन भारत में
भी यानी बौद्धिक काल में भी रही है|प्राचीन काल में यह चैत्यो की परम्परा थी। मध्यकाल यानि सामन्ती काल में हिन्दू परम्परा,
जिसे प्रोफ़ेसर आर्थर लेवेलिन (ए एल) बाशम ब्राह्मणी परंपरा कहते हैं, के हिन्दु मंदिर
बनने शुरू हो गए| सभी क्षेत्रों के भवनों को उनके भौगोलिक अनिवार्यताओं, उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं, सामाजिक एवं
जनान्कीय (Demographic) आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना एवं ढालना होता है, यानि संरचनात्मक आंतरिक एवं बाह्य आकृति और स्वरुप को बदलना होता है|
जनान्कीय एवं सामाजिक बाध्यताओं में आबादी की मात्रा और भागेदारियों का सामाजिक स्तरीकरण महत्वपूर्ण
रहा| अर्थात आबादी के अनुसार इस मंदिरों का आकार छोटा –बड़ा हो सकता है| सामाजिक स्तरीकरण
में पुरुष एवं स्त्री का विभेद, गुरु –शिष्य का अंतर, या और कोई अन्य सामाजिक
स्तरीकरण जैसे वर्ण यां जाति का अंतर संरचना की आन्तरिक रुप रेखा को तय करता है और इसलिए भी यह सब इसकी इसकी बनाबट और सजावट में शामिल हो जाती रही। भौगोलिक आवश्यकताओं में उस क्षेत्र में
बर्षा, धुप एवं हिमपात की मात्रा, तीव्रता और प्रवृत्ति प्रमुख कारक होगा| अत्यधिक वर्षा के क्षेत्र में
छतों को ढालुआ (Steeep) होना होता है, बर्फ गिरने के क्षेत्र में छतों और अत्यधिक
ढालुआ बनाया जाता है, लेकिन कम बर्षा या नगण्य बर्षा क्षेत्र में ढालुआ नहीं भी
बनाया जा सकता है, जैसे गुप्त कालीन ‘देवगढ’ का मंदिर|
लेकिन
मंदिरों के छतों की अभियांत्रिकी संरचना के सम्बन्ध में एक और दूसरा तथ्य महत्वपूर्ण है| प्राचीन कालीन
बौद्ध मंदिर “चैत्य” भी कहलाते थे, जहां मानवीय चेतानाओं का अध्ययन किया जाता था, उस
पर विमर्श किया जाता था, और वहां सामान्य जन एवं बौद्धिक लोग इसे विस्तार से समझते
थे| इसकी छतें गुम्बदाकार (Dome) होती थी या ढालुआ (Steepy) होती थी| यह तकनीक ईसा
पूर्व में भारत से पश्चिम चला गया, जिसने मस्जिद, चर्च एवं अन्य भवनों को आकार दिया| लेकिन और पश्चिम एवं उत्तर (यूरोप)
में बर्फ गिरने का क्षेत्र था, जिसने बर्फ गिरने की मात्रा एवं प्रकृति के अनुसार
चर्चों को और ढालुआ बना कर आकार दिया| गुम्बदाकार छत की अभियांत्रिकी में तनाव (Tension) बल कम और
दवाब (Compression) का बल (Force) ही ज्यादा लगता है, और उसमें 'नमन आघूर्ण' (Bending
Moment) बल नहीं लगता है, जिससे गर्भ गृह बड़ा हो जाता है| इंटों के समतल छत का गर्भ गृह बहुत
बड़ा नहीं हो सकता, इसलिए ईंटों की छतों के साथ साथ गुम्बदाकार छतों की लम्बाई ही बढा दी जाती है, जैसा चैत्यों एवं दक्षिण के मंदिरों में होता रहा है|
वैसे छतों की गोलाई का एक प्रमुख कारण आकाशीय विकिरण तरंगों (Cosmic
Radiation Waves) का एक मुख्य स्थल पर अपवर्तन (Refraction) द्वारा संकेन्द्रण (Concentration) रहा है| इसी
तकनीक का प्रयोग कर पिरामिडों में वस्तुओं को संरक्षित किया जाता रहा है| छतों का
क्षेत्रफल बढ़ा देने से विकिरण संकेन्द्रण की मात्रा भी बढ़ जाती है, चाहे उसकी
सामग्री कुछ भी हो| छतों के परावलीय (Parabolic) होने या तीखा ढालुआ (Steepy) होने से यही प्रभाव उत्पन्न होता है| छतों के आकार बढ़ने से ज्यादा लोगों की उन
सभाओं में हिस्सेदारी बढती है| ऐसे में सभा स्थल
उर्जावान रहते हैं| इस पक्ष पर भी ध्यान देने की जरुरत है| यह सब एक पूजा
स्थल यानि प्रार्थना स्थल यानि आध्यात्मिक स्थलों की विशेषताएं हैं|
अब
हम मंदिरों के टूटने पर वापस आते है| हमको यह ध्यान
रखना चाहिए कि सभी परम्परागत धर्मों (पंथों/ सम्प्रदायों) की उत्पति एवं विकास सामन्ती काल में सामन्ती
आवश्यकताओं के अनुरूप हुई है| यह काल इतिहास का मध्य काल है| हम इसके पहले के काल में परंपरागत धर्म (धर्म का वर्तमान मान्यता) का जो भी दावा कर लें, हमें तथाकथित धर्म के समर्थन में कोई भी प्रमाणिक प्राथमिक
साक्ष्य उप्लब्ध नहीं करा सकता| मौखिक परम्परा का दावा और अन्य साक्ष्यों का समय
काल में नाश हो जाने का दावा हर कोई कर सकता है, जिसे कुछ लोग 'थेथ्रोलाजी' भी मानते हैं| प्राचीन काल "बुद्धि के विकास" का काल था यानि बौद्धिक काल था| इसलिए मानवीय
चेतनाओं या समझदारी को विकसित करने या शान्ति पाने के केंद्र को नष्ट करने या बदलने
की जरुरत नहीं पड़ी| यह आवश्यकता सामन्ती काल में पड़ी, क्योंकि यह सामन्ती व्यवस्था
के अनुरूप समकालिक शक्तियों की मांग थी| मध्य
काल के पहले के जिन धार्मिक महापुरुषों का नाम आता है, वे वस्तुत: उन क्षेत्रों में सामाजिक सांस्कृतिक सुधारों एवं मानवीय मूल्यों के महान क्रान्तिकारी अग्रदूत रहे हैं| इसीलिए उनके सम्मानीय नामों को उन तथाकथित
धर्म से जोड़ने या मिलाने का जुगत बाद में किया गया या उन्हीं के नाम पर कर किया गया|
जब
ऐतिहासिक शक्तियों अर्थात तात्कालिक समकालीन शक्तियों के प्रभाव में समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं का बदलना शुरू हुआ, तब बहुत से बदलाव हुए और बहुत कुछ में निरंतरता भी बनी
रही| हम जानते हैं कि सामन्ती व्यवस्था का आगमन ही प्राचीन काल का समापन है| यह
समकालिक शक्तियों का ऐतिहासिक परिणाम एवं प्रभाव है| सामाजिक,
आर्थिक एवं राजनीतिक अनिवार्यताओं ने बहुत सी धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन किए और परिणामस्वरूप
लोगों ने अपनी आस्थाओं में भी परिवर्तन कर लिए| लोग वही रहे, निवास स्थान वही रहे,
जीविका के साधन भी मूलत: वही रहे, सांस्कृतिक अवस्था भी कमोबेश वही रहा, समाज का
पिछड़ापन भी स्थिर रहा, सामाजिक व्यवस्था भी वही रहा और सामाजिक सामुदायिक सम्पदा भी वही रहा, लेकिन उन्होंने अपनी धार्मिक आस्था बदल लिया| अब उन्ही लोगों को अपने
आराधना स्थल, यानि पूजा स्थल यानि प्रार्थना स्थल की अतिरिक्त जरुरत थी|
वे लोग अपने हिस्से के पहले से मौजूद (जिस सम्प्रदाय को अब बदल दिया था) आराधना स्थल यानि पूजा स्थल के आन्तरिक संरचना और बाह्य स्वरूप को भी बदल दिया|
चूँकि वे उनके बाप दादाओं के अराधना स्थल थे,
उनकी स्मृतियाँ सम्मानित थी,
उसे इसीलिए उन स्मृतियो को संरक्षित कर दिया,
और बाकी संरचनाओ में अपनी आवश्यकतानुसार
रूप परिवर्तन एवं संरचना परिवर्तन कर दिया|
यह
ऐसा ही हुआ, जैसे किसी को अपने हिस्से में मिले चीजों या मकानों में यानि सम्पदा में आवश्यकता अनुसार बदलाव, परिवर्द्धन, संशोधन, परिवर्तन, परिमार्जन, विलोपन एवं रूपांतरण की जरुरत पड़ती है|
प्राचीन काल के बौद्धों एवं अन्य सम्प्रदाय के आराधना या पूजा या
प्रार्थना स्थलों को समयानुसार मध्य काल में मंदिर आदि में बदल देना पड़ा| ऐसे ही मंदिरों को समाज के
कुछ लोगों द्वारा अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था बदलने के कारण उनके हिस्से के आध्यात्मिक स्थलों को अपनी
आवश्यकतानुसार बदल देना पडा| प्राचीन काल में अधिकतर लोग बौद्धिक संस्कृति के थे, जो
सामन्ती शक्तियों के प्रभाव में हिन्दू संस्कृति में ढल गए| परिणामस्वरूप लगभग सभी
बौद्धिक संस्कृति के आध्यात्मिक भवनों को उन्ही लोगों ने हिन्दू मंदिरों में बदल दिया, क्योंकि परम्परा से वे सब उन्ही के थे| बाद में इस्लाम की आस्था अपनाने वाले अनुयायियों ने भी अपनी आस्था बदलने के बाद अपने हिस्से के साथ भी ऐसा ही
हुआ|
भारत
में विदेशों से आने वाले इस्लाम के अनुयायियों की संख्या सम्पूर्ण आबादी का नगण्य
हिस्सा है| सामन्ती काल में सामन्ती व्यवस्था के निचले सामंतो के आतंक एवं शोषण से
पीड़ित लोगों को यह विकल्प मिल गया था, कि वे बड़े सामंतों की आस्था के अनुयायी बन
कर उनके नजदीकी बन कर अपने शोषण को कम कर सकते थे या कमतर महसूस कर सकते थे| उन्होंने समाज में यह पाया
कि छोटे सामंत बड़े सामंतो की कृपा दृष्टि पाने के लिए बड़े सामंतो से वैवाहिक सम्बन्ध भी बना रहे थे| इसलिए छोटे सामंतो के व्यवहार एवं प्रतिमान उनके लिए अनुकरणीय बन कर समाधान का
प्रकाश बना| इन्होने आस्था बदल लिया, पर इनके
संस्कार वही रहे, इनके निवास स्थान वही रहे, और उसने अपने पूर्व के आराधना स्थल
वही रखे, जिसका सिर्फ बाह्य एवं आंतरिक स्वरुप बदल दिया| ये भी भारत के ही धरती पुत्र थे, इन भारत पुत्रों ने सामान्य तरीके से सब कुछ
अपने नए आस्था के अनुरूप व्यवस्थित कर लिया| आज हमें यह बदलाव वर्तमान चश्मों में अटपटा सा लग रहा है| इसके लिए
हमें “इतिहास का गुरुत्वीय ताल” (Gravitational Lensing of History) की अवधारणा समझनी होगी|
अब हमें यह निर्णय करना है कि भारत को आज यदि विश्व की शक्ति बननी है, तो इन घटनाओं का इसमें योगदान क्या हो सकता है और यह कैसे काम करेगा, इसे भी समझना है?
निरंजन सिन्हा
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