शनिवार, 27 नवंबर 2021

हिन्दू धर्म की आलोचना क्यों?

के के भाईजी हमेशा हिन्दू धर्म और संस्कृति की आलोचना करते रहते हैं। एक दिन मैं भी उखड़ गया। पूछ बैठा - आप हिन्दू हो कर हिन्दू धर्म और संस्कृति के इतने विरोधी क्यों हैंआप हमेशा हिन्दू संस्कृति की आलोचना करते हैंमानों दूसरे धर्मों में कोई गड़बड़ी है ही नहीं ।

के के भाईजी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा - बैठिए सर। आपको बताता हूं।  अपने जूते के अंदर का कंकड़-पत्थर जितना कष्ट देते हैंउतना कष्ट जूते के बाहर का कंकड़-पत्थर नहीं देता है। मेरी संस्कृति महान है, लेकिन इसका ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास और अनावश्यक कर्मकांड कंकड़-पत्थर की तरह हमलोगों को चुभते रहते हैं। अपने धर्म से मुझे पग-पग पर कष्ट मिलता हैकभी जाति की निम्नता के नाम पर और कभी पाखंडआडम्बरअंधविश्वासढोंग के नाम परदूसरे के धर्म में मैं अपना माथा क्यों लगाऊं?

यह एक बुद्धिजीवी का उत्तर था। मुझे चुप हो जाना पड़ा। उनकी बात सही हैदूसरे का घर कितना देखेंजब अपना ही घर दुरुस्त नहीं है? रहना इस घर में हैतो सुधारना और सजाना भी तो इसी घर को है। इन्हें अपने इस धर्म से घृणा रहतातो वे अब तक अपना धर्म बदल लिए होते। मतलब कि इन्हें अपने जन्मजात धर्म से प्यार भी है और गहरी पीड़ा भी| ये इसे छोड़ना भी नहीं चाहतेये तो इसे ही सुधारना और सजाना चाहते हैंइसीलिए मैंने भी इन्हें सुनने का मन बना लिया|

फिर भी मैंने उन्हें छेड़ने के ख्याल से पूछ ही बैठा। क्या दिक्कत है आपको इस धर्म और संस्कृति सेक्या दूसरे धर्मों में पाखंडआडम्बरअंधविश्वासढोंग नहीं है? उन्होंने बताया कि इस धर्म में न्यायसमानतास्वतंत्रता और भाई चारा तो है ही नहींइस धर्म में जाति के नाम और आधार पर ही योग्यताएं और निर्योग्यताएं निश्चित हैंइसमें व्यक्ति की योग्यता और गुणवत्ता का महत्व ही नहीं हैबल्कि जन्म के परिवार और वंश का ही महत्व है|

उन्होंने कहा कि आप ही बताइए कि आपको जाति में वैज्ञानिकता दिखती है? जाति में तो सामंतवादी भाव दिखता है, सांस्कृतिक जड़ता रहती हैजाति में जन्म के आधार पर योग्यता का निर्धारण होता है, और ऐसा उदहारण विश्व के किसी भी धर्म में हो तो बताइएमेरे पास तो कोई उत्तर नहीं थाअब तो विश्व के वैज्ञानिक भी 'यूनेस्को घोषणा पत्रमें मान चुके हैंकि 'होमो सेपिएन्समानव में जातिधर्म और संस्कृति के आधार पर योग्यता एवं गुणवत्ता में भिन्नता नहीं हैमुझे भी मानना पड़ा कि इस 'जाति व्यवस्थामें कोई वैज्ञानिकता नहीं है|

मैंने टोका कि आपने दूसरे धर्म के पाखंडआडम्बरअंधविश्वासढोंग के बारे में कुछ नहीं कहातब उन्होंने कहा- इस सम्बन्ध में दो बाते हैंएकमुझे दूसरे धर्म की परवाह नहीं| और दूसरा यह किबाकि धर्मों में ठगी का आधार जन्म के वंशज - आधार पर नहीं होताजबकि 'हिन्दूधर्म में  ठगी का एकाधिकार जन्म के वंश के आधार पर ही तय होता हैइस मामले में अब मुझे चुप हो जाना पड़ा|

लेकिन अचानक मुझे भारत के गौरव की याद आ गयीमैंने उन्हें इस धर्म की सनातनताप्राचीनता और गौरव की याद दिलायातब वह कुछ उल्टा ही बोलने लगेवह बोलने लगे कि कैसी सनातनताकैसी प्राचीनता और कैसा गौरववे कहने लगे – सभी धर्मों का वर्तमान स्वरूप दसवीं शताब्दी के बाद ही आयाचाहे आप उसे किसी भी प्राचीन नाम से जोड़ दें|यह तत्कालीन "सामंतवादी व्यवस्था" की आवश्यकता रहीऔर उसी के अनुरूप उपरोक्त चीजें बनी एवं ढलींवे बताने लगे कि हिन्दू धर्म का यह स्वरूप ही दसवीं शताब्दी के बाद ही आया| वे कहने लगे कि आप लंबा- लंबा दावा चाहे जो कर लेंक्या कोई ढंग का साक्ष्य आपके पास हैइसकी सनातनता और प्राचीनता के समर्थन मेंमुझे चुप हो जाना पड़ामुझे याद आया कि भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा ने भी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिनेर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी पुस्तक – भारत का प्राचीन इतिहास में वैदिक सभ्यता के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया हैजिसकी नीव पर आज के 'हिन्दू धर्मकी पूरी इमारत खड़ी है। अपने समर्थन में उन्होंने काफी तथ्यतर्कसाक्ष्य और सन्दर्भ भी दिया हैमेरे पास के के भाईजी के सवालों का तो कोई जवाब नहीं थापरन्तु यदि आपको कोई जवाब सूझे तो मुझे अवश्य बताइयेगा|

अब मैंने भी अपना रंग बदलामैंने कहा – उमेश जीफिर आपके और एक देशद्रोही की भाषा में क्या अंतर रह गयाउन्होंने आश्चर्य से कहा एक देशद्रोही से मेरी तुलनाआप सठिया तो नहीं गए हैं सर ? मैंने प्यार से कहा - आप नाराज क्यों हो गएक्या इसका जवाब आपको नहीं सूझता हैतब उन्होंने कहा – सरदेशद्रोही तो वे हैं, जो अपने निजी स्वार्थ में 'जाति और धर्मके नाम पर समाज और देश को बांटते हैंऔर उसे तोड़ते हैंवे लोग देशद्रोही हैंजो लोगों को गैर संवैधानिक ढंग से "जाति और धर्म" का  भक्त बनाते हैंजिस चीज का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होऔर जो वैज्ञानिकता के बिल्कुल विरुद्ध होउसी जाति व्यवस्था का समर्थन कर देश को हजारों खंड में जो बांटता होवही वास्तव में  देशद्रोही है| वे पूरी तरह से भड़क गए थेकहने लगे कि इतना बड़ा देशइतना अपार संसाधनइतनी बड़ी आबादी और उस पर भी हमारे भारत देश की यह दुर्गतिक्या हमें दुख नहीं है? लेकिन इन आधारों (जातियों) को तोड़ने वाली कोई पहल अभी तक किसी व्यवस्था ने नहीं किया|

मैंने कहा – मतलब यह कि आप समझदार हैंऔर बाकि के लोग मुर्ख और धूर्त हैंउन्होंने कहा – सररुकिएआप मूर्ख और धूर्त से क्या समझते हैंमैंने कहा आप ही समझाइएउन्होंने कहा – जो अज्ञानी हैंजो चीज़ों को ढंग से नहीं समझतेवे मूर्ख हैं| दूसरी तरफजो ज्ञानी हैंजो चीजो को अच्छी तरह और उचित संदर्भों में समझते हैंलेकिन फिर भी अपने निजी स्वार्थ में अंधे होकर 'जाति और धर्मका दुरूपयोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में करते हैंवे ही लोग धूर्त हैं| ये लोग कानून की नजर में अपराधी यानि क्रिमिनल हैंक्योंकि  उनका प्रत्येक कार्य और उनकी प्रत्येक गतिविधि सदैव गलत इरादे (Intention) से प्रेरित होती है| इन लोगों को तो सजा मिलनी चाहिएमैंने स्पष्ट करने के लिए कहा कि आपके अनुसार जो जाति व्यवस्था के समर्थक हैंवे इसकी अवैज्ञानिकता को जानते हुए भी देश और समाज के व्यापक हितों के विपरीत अपने जन्म आधारित लाभों को बनाये रखने के लिए ऐसा कर रहे हैंवे अपराधी हैंऐसे अपराधी लोगो पर तो मुकदमा चलना चाहिएऔर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।इस पर उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति दी|

के के भाईजी ने मुझसे पूछा – क्या आप किसी गैर हिन्दू व्यक्ति को हिन्दू बना सकते हैं? मैं हाँ कहने ही वाला थाकि मुझे याद आया कि उस पुराने धर्म को छोड़ कर हिन्दू धर्म में आने वाले को कौन सी जाति दी जाएगीबिना जाति के तो आजकल कोई हिन्दू ही नहीं सकता, और कोई उसे सर्वोच्च जाति का नाम या स्थान दे भी नहीं सकतामुझे तो दूसरों को हिन्दू धर्म में लाने के बारे में असहमति दिखानी पड़ीउन्होंने पूछा कि क्या किसी दूसरे धर्म में ऐसी व्यवस्था हैइसके लिए मैं भारत के अन्य धर्मों को दोष नहीं दे सकता था|

अब बात समाप्त हो गई थी। लेकिन अचानक के के भाईजी बोले कि मेरे एक सवाल पर गौर किया जाए। मैंने पूछा कि बताइएगा। उन्होंने कहा कि हिन्द की इस धरती की संस्कृति को हिन्दू कहा जाता है, यह एक भौगोलिक अर्थ देता हुआ एक सामासिक संस्कृति तो है, लेकिन इसके पीछे कौन-कौन खिलाड़ी है, जो इसके नामकरण और मूल को बार-बार संशोधित करते रहते हैं और बदलते रहते हैं? इसका कोई प्रमाणिक प्राथमिक साक्ष्य प्राचीन काल में नहीं है। यह पहली बार साक्ष्यात्मक रुप में मध्य काल में आया। मध्य सामंती प्रारम्भिक काल में यह वैदिक संस्कृति के नाम से आया, जिसे बिना किसी पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण के प्राचीनतम बताया गया। फिर मुगल काल में यह ब्राह्मण संस्कृति हो गया, जो ब्रिटिश काल में आर्य संस्कृति हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के समय वैश्विक लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक व्यवस्था के शानदार आगाज की आहट में हिन्दू संस्कृति हो गया, जिसे अब सनातनी संस्कृति कहा जाने लगा। इतना बदलाव - वैदिक से ब्राह्मणी, फिर आर्य, फिर हिन्दू और अब सनातनी। इतना मनमानी बदलाव क्यों हुआ, यही बता दीजिए। मैं तो निरुत्तर हो गया, आप भी मेरे समर्थन में आइए और कुछ बताइए।

अंत में मैंने उनसे इसका समाधान भी पूछ ही लियाकि आपके पास इसका कोई समाधान है तो बताया जायउन्होंने कहायदि ईमानदार शुरुआत हो तो एक दिन में ही जाति व्यवस्था का समाधान हो जायेगा| एक दिन मेंमैंने आश्चर्य किया|

उन्होंने कहा – हाँ सरएक दिन काफी है|

कैसे?

उन्होंने कहा – सभी को अपना नाम और परिवार का नाम कभी भी बदलने की स्वतंत्रता होनी चाहिएजब कोई चाहे तो अपना नाम एवं उपनाम बदल सकता है| यह नाम “आधार” (ADHAAR) से जुड़ा होगा| शायद आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं होगीयदि आरक्षण की आवश्यकता हुई भी तो, आरक्षण के प्राधिकारी ही इस गोपनीय जानकारी को पा सकते हैंइसी तरह पुलिस प्राधिकारी भी अपराधों के मामलों में सही और मौलिक जानकारी पा सकते हैंकिसी की वास्तविकता को जानने का अधिकार बहुत ही सीमित होगा, जो लिखित कारणों से इसे जान सकेंगे| किसी का नाम ही तो समाज में किसी का पहचान है, और हर इंसान का यही वैज्ञानिक आधार है| मुझे लगा कि यह एक विचारणीय समाधान हो सकता हैइस सन्दर्भ और इस दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है|

अब मुझे समझ में आया कि किसी का स्वस्थ आलोचना उसी के हित में होता हैऔर उसी के सम्यक विकास के लिए होता है| इसीलिए मुझे के के भाईजी की आलोचना में कोई खराबी नहीं दिखाई दीवैसे आप विद्वान पाठक गणों का मत और सुझाव अलग हो सकता हैपर यदि आप कुछ बताएँगे तो हम लोग एक अच्छे समाधान की ओर बढ़ सकते हैंहम लोग आपके अमूल्य विचारों और सुझावों की प्रतीक्षा में है|

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निरंजन सिन्हा

 

शनिवार, 20 नवंबर 2021

भगवान राम और भगवान बुद्ध में सम्बन्ध

भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने हाल ही में एक संदर्भ में बताया कि भगवान श्री राम और भगवान बुद्ध में गहरा संबंध है। तो मैं यह सोचने पर विवश हो गया कि दोनों में क्या संबंध हो सकता है? चूंकि यह विचार माननीय के हैं, तो गहराई से अवलोकन की आवश्यकता हो गई।

मैने इस पर विचार किया और गहराई से छानबीन किया| तत्पश्चात इनमें समानताओं को एकत्र करना शुरू कर दिया। तब मुझे आश्चर्यजनक रूप से कई क्षेत्रों में समानता मिलनी शुरू हो गईं। ये समानताएं महानता, भगवान की उपाधि, वैवाहिक जीवनप्रदेश, अवतार, उद्देश्य एवं व्यवस्था आदि कई क्षेत्र में हैं| मिथक एवं ऐतिहासिकता एक ही भाव की दो अलग अवधारणाएं(Concepts) हैं| मिथक बिना साक्ष्य अर्थात कल्पना पर आधारित कहानी होता है, जबकि इतिहास साक्ष्य युक्त सत्यता यानि वास्तिवकता पर आधारित कहानी होता है| अर्थात समानता कहानी की होती है, मिथक में आधार विहीन विश्वास होता है, जबकि इतिहास में ठोस साक्ष्य युक्त विश्वास होता है|

महानता:

ये दोनों ही भारत भूमि पर अपने अपने काल में लोगों के आदर्श रहे एवं लोकप्रिय रहे| बुद्ध प्राचीन भारत में भारतीय समाज के आदर्श रहे, तो राम मध्यकालीन भारत में भारतीय समाज के आदर्श रहे| इन दोनों की लोकप्रियता की स्थिति भी ऐसी ही है|

भगवान की उपाधि:

दोनों के नाम के आगे विशेषण यानि उपाधि भगवान लगाया जाता है - भगवान श्री राम और भगवान बुद्ध। लेकिन दोनों "भगवान" के अर्थ में काफी अंतर है। श्री राम के आगे भगवान (संस्कृत का शब्द) का अर्थ 'ईश्वर' है, जबकि बुद्ध के दर्शन में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। बुद्ध के भगवान (पालि का शब्द) वे व्यक्ति हैं, जिसने अपने राग (Attachment) एवं द्वेष (Detachment) को भग्न (Eliminate / Destroy) कर लिया है। इन शब्दों में समान अक्षरों की समान बनाबट के बावजूद भी भावार्थ में अंतर है।

वैवाहिक जीवन:

दोनों के वैवाहिक जीवन असामान्य रहे| दोनों का अपनी पत्नियों से अलग रहने की कहानी है| बुद्ध को रोहिणीनदी के जल उपयोग विवाद में गणराज्य के परिषद् (Council) के निर्णय के आलोक में राज्य त्यागना पड़ा| राम को भी घरेलू विवाद में राज्य का त्याग करना पड़ा| बुद्ध के राज्य एवं गृह त्याग पर अलग अलग मत है, पर दोनों को राज्य का त्याग करना पडा| दोनों को ही राज्य त्याग के प्रक्रम में ही पत्नी से भी अलग रहना पड़ा| बहुत बाद में पत्नी से मिलना भी हुआ, तो वैवाहिक जीवन में कोई सुखद अनुभव नहीं रहा|

प्रदेश:

जब इन दोनों महापुरुषों के जन्म प्रदेश यानि इलाका (क्षेत्र) पर ध्यान गया तो उसमें भी समानता दृष्टिगत हुई| दोनों कोशल प्रदेश से जुड़े हुए हैं। बुद्ध कोशल के अधिराज्य (Dominion) शाक्य गणराज्य से थे, तो श्री राम भी कोशल प्रदेश के अयोध्या से थे। ध्यान रहे कि शाक्य गणराज्य कोशल राज्य का एक सीमांत (Frontier) प्रदेश था और कोशल नरेश का अधिराज्य था| दोनों मध्य गंगा के मैदान के हैं और एक ही भौगोलिक क्षेत्र के हैं। बुद्ध का ससुराल पडोसी कोलिय गणराज्य था, तो राम का ससुराल पडोसी राज्य मिथिला था|

अवतार:

दोनों को ही भगवान विष्णु का अवतार (Incarnation) माना गया है| 'सामंत काल' (9वीं से 12वीं शताब्दी) में बुद्ध को विष्णु की परम्परा में शामिल बताया गया| यह 'सामंत काल' की आवश्यकता थी| भगवान राम को शुरू से ही विष्णु की परम्परा में शामिल बताया गया|

वैसे 'बुद्ध' भी एक परम्परा का ही नाम है, जो नगरीय समाज एवं राज्य के उदय के साथ भारत भूमि पर शुरू हो गयी थी। गोतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम भी कहा जाता है, बुद्धों की परम्परा में 28 वें बुद्ध हुए। इस परंपरा में विशिष्ट बुद्धि वाले को बुद्ध कहा गया, और उस समय की संस्कृति को बौद्धिक संस्कृति कहा गया। भगवान श्री राम भी "भगवानों की परम्परा" में एक कड़ी माने जाते हैं।

उद्देश्य एवं व्यवस्था:

दोनों का उद्देश्य लोगों का व्यापक हित रहा है। दोनों ने नए संदर्भ काल में व्यवस्था बनाने का काम किया। दोनों ने अपने समय के शैतानोंको मारने का काम किया| एक शैतान के शारीरिक अस्तित्व को सदा के लिए समाप्त कर देते थे, ताकि उसकी शैतानी सदा के लिए समाप्त हो जाय| जबकि दुसरे जन व्यक्ति के मानसिक शैतान को मार कर उस व्यक्ति को सकारात्मक एवं सृजनात्मक बना देते थे| एक हथियार का प्रयोग कर शैतान को नष्ट करते थे, जबकि दुसरे जन बुद्धि का प्रयोग कर शैतान को नष्ट करते थे| परन्तु दोनों शैतान को ही नष्ट करते रहे| इन दोनों का उद्देश्य एक ही रहा|

यह अलग बात है कि बुद्ध की 'व्यवस्था' बौद्धिक संस्कृति की आवश्यकता थी, परन्तु राम की 'व्यवस्था' सामंतवादी संस्कृति की आवश्यकता थी। दोनों ने ही अपने समय की आर्थिक शक्तियों के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था बनाने का प्रयास किया और उसमें सफल भी रहे| इसे बढ़िया से समझने के लिए 'बौद्धिक संस्कृति' एवं 'सामंतवादी संस्कृति' को तथा तत्कालीन आर्थिक शक्तियों को अच्छी तरह समझना होगा|

आर्थिक शक्तियों में उत्पादन, वितरण, विनियम और उपभोग को प्रभावित करने वाली शक्तियों और उनके अन्तर्सम्बन्धों को लिया जाता है| इसके आधार पर इतिहास यानि 'सामाजिक रूपांतरण' की व्याख्या वैज्ञानिक तौर पर एवं समुचित ढंग से हो जाती है

मिथक और इतिहास:

इन दोनों में एक 'मिथक' (Mythology) है, और दूसरा 'इतिहास' (History) है| फिर भी इस मामले में दोनों में समानताएं हैं| किसी की ऐतिहासिकता के लिए सबसे जरूरी बात यह है, कि संबंधित व्यक्ति अर्थात व्यक्तित्व का ऐतिहासिक होना जरूरी होता है। अर्थात ऐतिहासिक व्यक्तित्व को इतिहास की पुस्तकों में दर्ज किया हुआ होता है| यदि किसी व्यक्ति को इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं दिया गया है, तो स्पष्ट है कि कोई भी प्राधिकार (Authority) उसे ऐतिहासिक नहीं मानता है। ऐतिहासिक होने के लिए ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य होना चाहिए अर्थात उसे इतिहास के किसी काल खंड में वास्तविक जीवन में होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है, तो उसे मिथक ही कहेंगे; इतिहास एवं ऐतिहासिक बिल्कुल नहीं कहेंगे।

इतिहास में कोई 28 बुद्धों की चर्चा मिलती है, और 7 बुद्धों के तो आज भी पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं, एवं समकालीन विदेशी साहित्य में भी उन्हें स्थान प्राप्त है। इस तरह गोतम बुद्ध, जो तथागत बुद्ध के नाम से भी जाने जाते हैंएक ऐतिहासिक व्यक्ति रहे हैं । लेकिन  जिसकी कहानी इतिहास की पुस्तकों में दर्ज नहीं है, वह व्यक्ति ऐतिहासिक नहीं है, और इसलिए ऐसे व्यक्तियों को ऐतिहासिक नहीं माना जाता है। राम की कहानी को भारत के किसी भी इतिहास की पुस्तकों में स्थान अभी तक नहीं दिया गया है| इसमें समस्या यह है कि ऐतिहासिक व्यक्ति होने के लिए ऐसे ठोस पुरातात्विक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जिसे वैश्विक मान्यता मिले। आज विश्व एक वैश्विक गांव (Global Village) हों गया है, और कोई इस मुख्य धारा से अलग नहीं रह सकता। यदि किसी भी बात को विश्व नकारता है तो इसका अर्थ है कि उसे विश्व की आबादी का 83% का समर्थन है। वैश्विक मान्यता की उपेक्षा आज के समय में नहीं किया जा सकता है।

आस्था को ऐतिहासिकता का विकल्प नहीं माना जा सकता। ऐसा लगता है,कि बुद्ध की जीवनी पर आधारित मिथक ही राम की जीवनी है। इसी संबंध से इन दोनों में संबंध स्थापित किया जा सकता है, और जिसके बारे में माननीय प्रधानमंत्री जी ने इशारा किया है।

हम जानते हैं कि जब किसी ऐतिहासिक व्यक्ति के जीवन पर आधारित कोई कहानी लिखी जाती है, या फिल्म बनाई जाती है, तो तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ही एक 'संशोधित मॉडल' को अपनाया जाता है। ऐसा किया जाना सामान्य घटना होता है। ऐसा ही कालान्तर के सामंतवादी काल में बुद्ध की जीवनी पर आधारित सामंतवादी व्यवस्था के अनुरूप एक मिथक की आवश्यकता रही। और ध्यान रखने वाली बात है, कि जिस कहानी में ऐतिहासिकता नहीं होती है, उसे मिथक ही कहेंगे।

यह समानताएं बहुत गहरी हैं, और दोनों लोक आस्थाओं से जुड़ी हुई हैं। चूंकि दोनों में ही संबंध है, इसलिए यह लोक संस्कृति का भाग है। चूंकि दोनों दो भिन्न-भिन्न संदर्भों और आवश्यकताओं के परिणाम रहे, इसलिए संदर्भ के अनुसार चरित्र एवं आदर्श के विवरण में शाब्दिक समानता नहीं है, परन्तु भावनात्मक समानताएं पर्याप्त हैं।

इतने महत्वपूर्ण संबंध को रेखांकित करने के लिए मैं माननीय प्रधानमंत्री जी को सादर नमन करता हूं। ऐसा गहन एवं व्यापक संबंध किसी अलौकिक प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व की दृष्टि में ही आ सकता है। इसे  नए सन्दर्भों, दृष्टिकोणों, संबंधों और आर्थिक बदलाव की प्रक्रियात्मक "पैरेडाईम शिफ्ट"  के नजरिए से देखें जानें की आवश्यकता है। इससे भारतीय लोक आस्थाओं को सही, तथ्यात्मक और वैज्ञानिक आधार पर मजबूत किया जा सकता  है।

(आप मेरे अन्य आलेख    www.niranjansinha.com या   niranjan2020.blogspot.com  पर  देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा|

सोमवार, 15 नवंबर 2021

"पशुवत मानव" की पहचान?

हमारी प्रतिक्रिया (Reaction) और हमारे विकास के स्तर  में भी कोई सबंध है क्या? हां, बहुत गहरा संबंध है। यह संकेतक यह बताता है कि हमारा बौद्धिक स्तर किस स्तर पर है यानि पशुवत है या बौद्धिक है?

वस्तुत: हमारी प्रतिक्रिया मात्र हमारे विकास के स्तर का संकेतक (Indicator) है, कि हम विकास के किस स्तर पर हैं और हम कहाँ जा रहे हैं? यह प्रतिक्रियाएं हमें अपने सामान्य जीवनमें और सोशल मीडियामें बहुत देखने को मिलती हैं| इस संकेतक से हमें यह पता चलता है कि अब हमें क्या करना चाहिए? प्रतिक्रिया क्या है? जब यह महत्वपूर्ण है, तो हमें इसे समझना चाहिए|

मैं प्रतिक्रियाका यहाँ अर्थ विरुद्ध क्रिया” (Against Action) से ले रहा हूँ| इसे प्रतिवचन (Response), उत्तर (Answer), या प्रतिपुष्टि (Feedback) भी माना जाना चाहिए| जैसा कि आप भी जानते हैं कि आइजक न्यूटन ने यांत्रिकी के क्रियाविधि (Mechanics) को समझाने के लिए गतिकी (Motion) के तीन नियम (Laws) दिए (1687 – Mathematical Principles of Natural Philosophy)| पहले नियम में बल (Force) की परिभाषा (Definition) दिया, दुसरे में बल को मापने (Measurement) का सूत्र (Formula) दिया, तो तीसरे में बल की विशेषता (Characteristic) यानि उसकी प्रकृति (Nature) को बताया है| “प्रत्येक क्रिया के विपरीत एवं बराबर प्रतिक्रिया होती है” – यही गति का तीसरा नियम है| अत: यह सभी वस्तुओं का प्राकृतिक स्वभाव है|

लेकिन हमलोग वस्तुओं (Objects) से कई अर्थों में भिन्न होते हैं| हम लोगों में चेतनता (Consciousness) होती है, जो वस्तुओं में नहीं होती है| इसीलिए हमलोगों को मानवीय मनोविज्ञान समझना होता है| चेतनता तो सभी जीवों (Organism) और पशुओं में भी होती है| सभी जीव सोच (Think) नहीं सकते, परन्तु हम लोग सोच सकते हैं| ‘सोचतो पशु (Animal – Mammal) भी लेते हैं| परन्तु हमलोग और अन्य पशुओं में इस सोचके मामले में भी अंतर है| हमलोग अपने सोचपर भी सोच’ (Think over Think) सकते हैं, जो पशुओं से नहीं होता है| स्वत: स्फूर्त क्रिया” (Reflex Action) से प्रतिक्रिया सभी जीव करते हैं, पशु भी और हमलोग भी| साधारण शब्दों में, त्वरित प्रतिक्रिया को Reflex Action कहते हैं और विचारित प्रतिक्रिया को मानसिक क्रिया (Mental Action) कहते हैं।

हमलोग और पशु अपनी प्रतिक्रिया में स्वत: स्फूर्त क्रिया” (Reflex Action) तथा मानस क्रिया (Mind Action) दोनों का उपयोग करते हैं| लेकिन पशु की यह मानसिक क्षमता नहीं होती कि वह अपनी सोचपर विचार कर सके| चूँकि एक मानव अपनी सोच पर विचार कर सकता है, और इस प्रक्रिया में कुछसमय लगता है; इसीलिए एक मानव प्रतिक्रिया में अपने मस्तिष्क (Mind) का उपयोग करता है| इसी कारण एक मानव को होमो सेपियन्स (Homo Sapiens) कहते हैं, जिसका अर्थ बुद्धिमान मानव” (Wise Man) होता है|हमें Reflex (Spinal Cord) Action और Mind Action में अन्तर समझना चाहिए।

तब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि जब एक बुद्धिमान मानव सिर्फ स्वत: स्फूर्त क्रिया” (Reflex Action) से ही प्रतिक्रिया देता हो, तो क्या उसे भी मानव समझा जाय? ऐसा प्रतिक्रिया तो जीव एवं पशु ही देते हैं| इस तरह मानव का भी दो प्रकार हो गया पशुवत मानवएवं बुद्धिमान मानव| इस तरह हमलोग दोनों वर्गीकरण में आ जाते हैं| ऐसा लिखना तो कड़वा लगता है, परन्तु यह कटु सत्यहै| अब हम सामान्य जीवन में जो तत्काल प्रतिक्रियादेते हैं, उससे क्या निर्धारित होता है? विचार करें

ऐसी स्थिति भारत में बहुसंख्यकों की है। विचारक बताते हैं कि तात्कालिक प्रतिक्रिया से 'प्रतिक्रिया देने वाले' को ही नुकसान होता है, लेकिन प्रतिक्रिया विचार कर देने से क्रिया वाले को नुक़सान होता है मतलब 'तात्कालिक प्रतिक्रिया'' प्रतिक्रिया देने वाले' के लिए ही ज़हर है और 'विचारित प्रतिक्रिया' 'क्रिया करने वाले' के लिए ही ज़हर है। अन्तर पर ध्यान दिया जाए।

प्रतिक्रिया के विषय वस्तु एवं स्वभाव पर Eleanor Roosevelt (एलिनोर रूज़वेल्ट) की टिपण्णी महत्वपूर्ण है| उन्होंने 3 “I” -  ‘Idea’ (विचार, ), ‘Incidence’ (घटना), and ‘Individual’ (व्यक्ति, व्यक्तिगत) के बारे में बताया| बड़े लोग यानि स्तरीय एवं बौद्धिक लोग विचारोंपर विमर्श (Discuss) करते हैं, मध्यम (औसत) दर्जे के लोग (Mediocre) घटनाओं को विस्तार से कहते (Elaborate) रहते हैं, एवं निम्न तथा गरीब लोग (Lower People n Poor) व्यक्तियों पर आख्यान देते (Narrate) रहते हैं, लेकिन उनके विचारों से कुछ नहीं सीखते, उसे नहीं अपनाते| इसे एक बार फिर पढ़ें|

Great People – Discuss – IDEA

Mediocre People – Elaborate – INCIDENCE

Lower People and the Poor – Narrate - INDIVIDUAL

इसे दुसरे शब्दों में --

बड़े, स्तरीय एवं बौद्धिक लोगों का समय, संसाधन, धन, उत्साह एवं उर्जा किसी बडे विचारों (Ideas) के विमर्श (Discuss) में लगता है| अर्थात Idea को Discuss करने वाले लोग ही बड़े एवं बौद्धिक हैं| यही विकसित देशों एवं समाजों में है|

मध्यम (औसत) दर्जे के लोग (Mediocre) घटनाओं (Incidence) को विस्तार से कहते (Elaborate) रहते  हैं, अर्थात पूरे मन से और उत्साह से उनका वर्णन करते रहते हैं| अर्थात सदैव घटनाओं को विस्तार से वर्णन करने वाले लोग ही औसत लोग हैं|

निम्न एवं गरीब लोग व्यक्तिगत लोगों पर बहुत विस्तार से व्यौरा देते रहते हैं और इस पर ही समय देते हैं| ऐसे लोग हर बार और हर समय व्यक्तिगत टिपण्णी तक ही सीमित होते हैं| अर्थात सदैव व्यक्तिगत टिपण्णी देने वाले लोग निम्न सोच के हैं| इनकी प्रतिक्रिया को कोसना’, ‘उलाहनातथा शिकायतकरने की श्रेणी में रखते हैं| यह सब नकारात्मकता की श्रेणी में आता है| ऐसे लोग कुछ भी सकारात्मक नहीं करते, सिर्फ दूसरों की आलोचना में लगे रहते हैं।

कभी-कभी और अक्सर शासन व्यवस्था (System) सामान्य लोगो का समय, संसाधन, धन, उत्साह एवं उर्जा को खपाने (Consume) यानि बर्बाद करने के लिए भी प्रतिक्रियालेता रहता है| यह व्यवस्था की रणनीति  (Policy) है, उपागम (Approach) है, विचार है| ऐसा करना शासन व्यवस्था के लिए भी आवश्यक है, क्योंकि ऐसा करने से  शासन व्यवस्था के विरुद्ध मुख्य मुद्दों की ओर सामान्य लोगों का ध्यान नहीं जाता। जनता अपनी तथाकथित प्रतिक्रिया में अपनी बहादुरी और दिलेरी दिखाने में मस्त रहता है और शासन अपने मूल एजेंडे पर कार्यरत रहता है। इस खेल को समझिए। इसलिए चतुर शासन अपने देश की जनता को विवादास्पद मुद्दों को प्रस्तुत करता रहता है, ताकि उस देश की जनता पशुवत प्रतिक्रिया देने में उलझी रहे। 

इसलिए शासन व्यवस्था के लोग बड़े विचारक होते हैं| यथास्थितिवादी भी अपने देश एवं समाज के बड़े हिस्से यानि बहुसंख्यकों को इसी में उलझाए रखते हैं। इसके लिए कभी-कभी बेतुकेविषय या बयान आते रहते हैं| इस पर मध्यम दर्जे एवं निम्न तथा गरीब लोगों की प्रतिक्रिया तात्कालिक होती है, पशुओं की तरह स्वत: स्फूर्त (Reflex Action) होती है| इन विषयों पर बहुसंख्यकों द्वारा बहुत उत्साहपूर्ण एवं विद्वतापूर्ण तथ्यों का उपस्थापन (Presentation) होता है| ये पशुओं की तरह चीखते चिल्लाते होते हैं और पशुओं की तरह ही शारिरिक गतिविधियां भी दिखाते रहते हैं। ध्यान दें, यही तात्कालिक, उत्साहपूर्वक एवं स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया सामान्य जीव करते हैं, जिनमें दिमाग (Mind) नहीं लगाना पड़ता है| हम सामान्य जीव को पशु भी कहते हैं| हमारा विकास भी इन्हीं के स्तर के अनुरूप तय है|

हम देखते हैं कि ऐसे लोगों या समूहों के पास कोई सकारात्मक कार्यसूची नहीं होती है, कोई सृजनात्मक योजना का विचार ही नहीं होता इनके पास। ये बस सिर्फ प्रतिक्रिया देने के लिए विषयों के इन्तजार में रहते हैं| यदि शासन या व्यवस्था या समाज कोई बेतुका या बेकार बात नहीं कहता है, तो ये मध्यम एवं निम्न दर्जे के लोग एवं तथाकथित क्रान्तिकारी नेता बेरोजगारहुए रहते हैं| ये नेता अपने समाज से “Reflex Action” के सहारे ही अपनी नेतागिरी चलाते है| ये नेता इसीलिए लोगों को पशुओं की तरह हांक (Drive) ले जाते हैं| या यो कहें अपनी आजीविका चलाते रहते हैं| उन्हें भी विचारों एवं नीतियों का पता नहीं होता, क्योंकि इसके लिए विचारों में पैरेडाइम शिफ्ट करना होता है| इसलिए चेहरे बदलते रहते हैं, व्यवस्था या नीतियाँ नहीं बदलती|

एक बार अल्बर्ट आइन्स्टीन ने पागलपनकी परिभाषा में बताया कि प्रत्येक दिन एक ही तरह का काम करना और परिणाम नया खोजना ही पागलपन है’| क्या हमें ऐसे कार्य से बदलाव यानि परिवर्तन की आशा करनी चाहिए? विचारों एवं व्यवहारों में बिना किसी पैरेडाइम शिफ्ट” (Paradigm Shift) के बदलाव की उम्मीद भी पागलपन ही तो है, चाहे हम हवा में कितनी भी क्रान्तिकारी (Revolutionary) बात कर लें|

(आप मेरे अन्य आलेख   www.niranjansinha.com  या  niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

निरंजन सिन्हा|

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