गुरुवार, 9 सितंबर 2021

कानून का मजाक (The Joke of Law)

कानून का मजाक कौन करता है? कानून समाज में व्यवस्था बनाने के लिए होता हैकानून समाज के लिए, समाज का, और समाज के द्वारा होता है| हमारे समाज का अर्थ हुआ मानवता के लिए हमारा सामाजिक संगठन| इस मानवता के तत्व के अभाव में कोई सामाजिक संगठन गिरोह कहलाता हैं| गिरोह कुछ खास छोटे समूह के हितों को ध्यान में रख कर कार्य करता होता है|

व्यवस्था बनाने के लिए शासन के चार अंग होते हैं – विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, एवं संवादपालिका| ये समाज में व्यवस्था और सम्यक विकास के लिए कार्यरत है| इन सभी का उद्देश्य में समाज में मानवता के साथ सुख, शांति, संतुष्टि, समृद्धि औए विकास करना होता है| यह सब न्याय (Justice) से आता है, जो समानता, स्वतंत्रता, एवं बंधुत्व आधारित होना चाहिए| इस सभी को बनाये रखने की जबावदेही मूलत: जनता की ही यानि समाज की ही होती है|

समाज में सम्यक न्याय के लिए कानून विधायिका बनाती है| इस ज़माने में सामान्यत: यह समाज के निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा किया जाता है| इन कानूनों के सम्यक कार्यान्वयन (Execution) का जिम्मा कार्यपालिका का होता है| इन कानूनों के सम्यक अनुपालन में कुछ आवश्यक व्याख्या एवं नियंत्रण की आवश्यकता हो जाती है| इन कानूनों के सम्यक व्याख्या एवं नियंत्रण की जबावदेही न्यायपालिका को दी गयी है| संवादपालिका कानून के सफल कार्यान्वयन का पर्यवेक्षण (Supervision) करता है| संवादपालिका को ही सामान्य जन मीडिया कहता है| इसमें प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक एवं सोशल मीडिया भी शामिल होते हैं|

विधायिका सामाजिक व्यवस्था एवं विकास के लिए कानून बनाती है| कुछ कानून को संदर्भिक बनाने लिए समय समय पर आवश्यक संशोधन, विलोपन (Deletion), एवं बदलाव किया जाता है| सम्यक कानून के लिए समुचित बदलाव के अभाव में ही कानून का मजाक हो सकता है| भारतीय संविधान न्यायपालिका की आलोचना करने की मनाही करता है| कुछ न्यायमूर्ति अपने कार्यकाल में और अवकाशप्राप्ति  के बाद बहुत कुछ अवैज्ञानिक एवं अतार्किक बात कह देते हैं, जिसे वैश्विक समाज अच्छा नहीं मानता| संवादपालिका सामाजिक व्यवस्था एवं विकास के समुचित पर्यवेक्षण का अपेक्षित कर्तव्य नहीं कर पाता है| लगभग सभी मीडिया अपने लाभ हानि के मूल एवं मुख्य उद्देश्य से संचालित होते है, क्योंकि ये निजी क्षेत्रों में हैं| इन पर आरोप लगता है कि ये के वंचित एवं पिछड़े हिस्सों तथा क्षेत्रों की उपेक्षा करते हैं| इनकी कोई वैधानिक जबावदेही भी तय नहीं है| इस तरह उपरोक्त तीनों कानून के मजाक बनाने के दायरे से बाहर हो जाते हैं|

कानून के मजाक के लिए सामान्यत: सबसे ज्यादा दोषी कार्यपालिका को ही माना जाता है| समाज में किस तरह के कानून की आवश्यकता है, इसकी शुरुआत भी कार्यपालिका के द्वारा ही होती है| कानून का मसौदा तैयार करने वक्त इसमें इतने परन्तुक एवं अपवाद दिए जाते हैं, कि कानून को कभी कभी वकीलों का स्वर्ग भी कह दिया जाता हैकभी कभी कानून में इतने अव्यवहारिक बातें दे दिया जाता है, जिसका ध्यान कार्यान्वयन करने वाले कार्यपालिका को ही नहीं रहता|

कार्यपालिका द्वारा कानून का सबसे ज्यादा मजाक प्रशासनिक कानून की प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय के अवधारणा (Concept of Natural Justice) से सम्बंधित है| कार्यपालिका के अधिकांश अधिकारी प्रशासनिक कानून की प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय की आवश्यकता से बेखबर हैंप्राकृतिक न्याय के लिए दोनों पक्षों को समुचित ढंग से सुना जाना (समुचित अवसर) एवं दोनों पक्षों को अपनी बात को रखने के लिए समुचित समय दिया जाना ये दोनों शर्त अन्य तत्वों की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण है| कार्यपालिका द्वारा कानून का सबसे ज्यादा मजाक इन्ही कारणों से हो जाता हैअक्सर कार्यपालिका शिकायतों के सुनवाई के क्रम में यह गलती किया करते हैं| मैं कुछ उदहारण देना चाहूँगा| मैंने यूको बैंक के पटना स्थित आंचलिक कार्यालय के कार्य प्रणाली के विरुद्ध इनके कोलकाता मुख्यालय में शिकायत की| बिना मेरे पक्षों को पूछे एवं जाने उस करवाई के समापन की सुचना दे दी गई| इसी तरह इसके विरुद्ध भारतीय रिज़र्व बैंक में पटना स्थित बैंक लोकपाल ने बिना मेरा पक्ष जाने अपनी करवाई समाप्ति की सुचना दे दी| स्पष्ट है कि इन्हें प्राकृतिक न्याय की अवधारणा सम्बन्धित प्रशिक्षण नहीं दिया गया है या ये अपने पद का मनमाना प्रयोग करते है| इनके ऊपर सुनवाई की कोई व्यवस्था नहीं दिखती| यह स्पष्टतया कार्यपालिका के द्वारा कानून के मजाक का उदहारण है|

ये कार्यपालिका के अकर्मण्यता को छुपाने के लिए तथ्यात्मक आरोपों को भावनात्मक भी बना देते हैं| ये कानूनों के उद्देश्यों को समझते हुए भी बाल का खाल निकालते हैं| इन सबो की उचित व्याख्या करने एवं सुनने की कोई व्यवस्था नहीं होती|

कभी कभी कार्यपालिका प्रशासनिक न्याय की प्रक्रिया के लिए समुचित व्यवस्था नहीं करता| इसके कारण भी कानून का मजाक बनता है| अक्सर आप देखेंगे कि अधिकतर कार्यालयों में किसी शिकायती कागजातों की प्राप्ति देने का पर्याप्त व्यवस्था नहीं होता| इस कुव्यवस्था के विरुद्ध भी कोई सुनने वाला नहीं होताशिकायतों के साथ विहित शुल्क की नगद जमा करने की वैधानिक प्रावधान के बावजूद भी कही भी नगदी राशि हाथों हाथ नहीं लिया जाता| सुचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत ली गई नगदी शुल्क के राजकीय कोष में जमा की जाने वाली राशि से इस आरोप का सत्यापन किया जा सकता है|

यह कार्यपालिका के कार्यान्वयन प्रणाली का स्पष्ट दोष है| इस पर अपेक्षित ध्यान दिए बिना कानून का मजाक होता रहेगा| आप मीडिया के समर्थन से चाहे जो दावा करते रहें|

निरंजन सिन्हा 

मौलिक चिन्तक, व्यवस्था विश्लेषक एवं बौद्धिक उत्प्रेरक 

6 टिप्‍पणियां:

  1. सारानीय लेखन सर प्रणाम 🙏🙏🙏

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  2. बहुत ही बढ़िया विश्लेषण सर... संवादपालिका जैसे नए शब्द से परिचय कराने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद...कई मौकों पर न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका को कानून की अवहेलना/ न्यायादेश की अवहेलना के मामले में कड़ी फटकार और तल्ख टिप्पणी का सामना करना पड़ा जो यह बताता है कि कार्यपालिका कैसे कंगारू कोर्ट के तरह व्यवहार करता है... आपकी लेखन शैली के जज्बे को सलाम सर💐💐🙏🙏

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  3. आलेख बहुत अच्छा है, क्योंकि यह पाठक के मन में तमाम सारे सवाल पैदा करता है, जैसे..
    1).समाज क्या होता है?
    2). प्राकृतिक न्याय क्या है?
    3). प्रशासन क्या होता है?
    4). संवाद पालिका या मीडिया क्या है,और यह कितने प्रकार का होता है।
    लोकतंत्र में इसकी हैसियत क्या होती है?
    5). सामंतवादी काल के भांटो (सत्ता का महिमागान तथा उसके गुणों का प्रचार प्रसार करने वालों का परंपरागत समूह) तथा आधुनिक मीडिया में क्या समानताएं और भिन्नताएं हैं?
    ..... इत्यादि।

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