विचारों
के युवाओं से ..........
मेरा
सवाल बड़ा ही अटपटा है| हमारी बुद्धिमता कहाँ है? मुझे कभी कभी लगता है कि
मैं बुद्धिमान हूँ| मेरी बुद्धि की मात्रा आपके या उनके
अनुसार कम या ज्यादा हो सकती है या नहीं भी हो सकती है| मै
अपने बारे में अपनी बुद्धिमता के सम्बन्ध में किसी निरपेक्ष परिणाम पर पहुँच सकता
हूँ? क्या मैं अपने बुद्धिमता के स्तर को जान सकता हूँ?
मैं इसी द्वन्द में हूँ| मैंने सोचा कि आपको
भी इस विमर्श में शामिल कर लिया जाए तो संभव है कि आप मेरा समाधान करने में सहायक
बनेगें|
विद्वानों
ने बुद्धिमता को भी कई प्रकार में बाँट दिया है| सामान्य बुद्धिमता, संवेगात्मक यानि भावनात्मक बुद्धिमता,
और सामाजिक बुद्धिमता| सामान्य बुद्धिमता ज्ञान के उपलब्ध जानकारी को
जानना और आवश्यकता पड़ने पर उसका पुरोत्पादन कर देना ही है| साधारण शब्दों में रट्टू होना
ही सामान्य बुद्धिमता है| इसे ही IQ (Intelligent
Quotient) कहते है| दुसरे के संवेगों या
भावनाओं को समझ कर अपनी नियंत्रित प्रतिक्रिया देना ही संवेगात्मक या भावनात्मक
बुद्धिमता है| इसे ही EQ (Emotional Quotient) कहते हैं| डेनिएल गोलमैन (Daniel
Goleman) बताते हैं कि किसी की सफलता में EQ का योगदान 80% होता है और IQ का योगदान 20% होता है|
सामाजिक बुद्धिमता समाज के व्यापक कल्याण को ध्यान में रख कर होता
है| इसे SQ (Social Quotient) भी
कहा जाता है| इसे IQ और EQ का योग कहा जाता है| कार्ल अल्ब्रेच (Karl
Albretch) के अनुसार जहाँ EQ वर्तमान
से सम्बन्धित है, वही SQ भविष्य से सम्बन्धित
है| कार्ल
अल्ब्रेच ने तो इसे सफलता का विज्ञान ही कह दिया| मैं यहाँ यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि समाज के खिलाड़ी हमारी किन
बुद्धिमताओं से खेलते हैं, यह जानने के बाद आप मेरा
बेहतर सहयोग कर सकते हैं|
समाज
के खिलाडी कई खेल खेलते हैं और कई खेल खेलवाते भी हैं| माहिर खिलाडी खेलते कम हैं और
दूसरों को खेलवाते ज्यादा हैं| या यों कहे कि वे खेलते ही
नहीं हैं, और सिर्फ खेलवाते ही रहते है| उनका ध्यान सिर्फ उनके अपने आदर्श पर होता है जिसे पूरा करने या पाने के
लिए उनकी सुविचारित, सुनियोजित, और
सुव्यवस्थित रणनीति, योजना होता है एवं चक्रव्यूह बनाते है|
वे उद्देश्य या आदर्श से भटकते नहीं है, क्योंकि
वह उनके रणनीति का हिस्सा होता है| हम तो डुगडुगी के निकलने
वाली आवाज पर, उसके ध्वनि के उतार चढाव पर, उसके विभिन्न आवृति और उसके तरीको पर प्रतिक्रिया देने लगते हैं| चूँकि हमें उस डुगडुगी के
नेपथ्य का भाव पढ़ने नहीं आता है तो हमें लगता है कि यह हमें अपनी बुद्धिमता दिखाने
की बेहतरीन अवसर दे रहा है| वास्तव में हम उस ध्वनि पर
खेल ही नहीं रहे; हम नाच रहे हैं और हमें लग रहा है कि हम
अपनी बुद्धिमता का उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहे हैं| और हम जुट
जाते हैं कि उनके तर्कों और तथ्यों को इतिहास में तथा वैधानिक प्रावधानों में गलत
साबित कर देने में| यही तो वे चाहते है कि हम और हमारे लोग
अपनी तथाकथित बुद्धिमता दिखाने के नाम पर अपना पूरा समय, संसाधन और समर्पण झोंक दें| हम अपने बुद्धिमता से
उनके बातों को तर्कहीन और तथ्यहीन करने ही वाले होते हैं कि वे डमरू से डुग डुगी
के स्वर बदल देते हैं| हम उनके नए स्वर को तुरंत पहचान लेते
हैं और उस ध्वनि को समझ भी जाते हैं| उनके विरोध में हम
तुरन्त अपनी बुद्धिमता दिखाने को तत्पर हो जाते हैं| इस
बुद्धिमता के उभार में हम अपना पूरा कौशल, समझदारी, समय और संसाधन झोंक देते हैं| फिर डुगडुगी का स्वर
बदल जाता है| हम यह समझने का कोशिश ही नहीं करना चाहते हैं
कि यह डुगडुगी क्यों बजाई जा रही है? यह मार्केटिंग का नया
अवधारणा है| इसे आप विचारों का मार्केटिंग भी कह सकते हैं|
कभी
कभी तो लगता है कि यदि डुगडुगी का स्वर नहीं बदला तो हमें अपनी बुद्धिमता दिखाने
का अवसर ही नहीं मिलेगा| मेरा अचेतन इन आवाजों का ऐसा अभ्यस्त हो गया है कि इस डुगडुगी के आवाज
नहीं सुनने पर मेरा मन बेचैन हो जाता है| हमें तो यह डर लगने
लगता है कि हमारा सामाजिक और राजनितिक पहचान ही इसी से है और इस आवाज के नहीं
बदलने से मेरा क्या होगा; यह मैं नहीं, मेरा अचेतन एवं अवचेतन मन कह रहा है| इसीलिए तो इसे
अवसर मान कर हम और हमारे जुझारू लोग अपनी बुद्धिमता के जबरदस्त उपस्थापन में लग ही
नहीं जाते, भिड भी जाते हैं और फतह हासिल करने के करीब पहुँच
जाते हैं| ऐसा नहीं है कि हम और हमारे लोग गलत हैं; हम और हमारे लोग विद्वान हैं तथा फतह करने योग्य भी हैं| पर डुगडुगी के स्वर बदल जाते है और हम सबों की सामाजिक एवं राजनितिक पहचान
बनी रह जाती है| यदि ऐसा नहीं हो तो हमें राजनितिक नेतृत्व
थामने में भी कठिनाई होगी| ऐसा नहीं होने से लोग भावनाविहीन
मुद्दों जैसे बेरोजगारी, गरीबी, असमानता
और पिछड़ेपन से जुड़ने लगते हैं| यह भावनाविहीन मुद्दें लोगों
के दिलों पर असर नहीं करते हैं और हमें भी लोगो को सम्हालने में कठिनाई होने लगती
है|
लोग
तो रोग के लक्षणों को ही रोग मानकर ईलाज करने लगते हैं| रोग क्या है – यह जानने की कोशिश ही नहीं करते| एक अच्छा चिकित्सक
रोग की पहचान करना चाहता है, जब रोग की पहचान कर लेता है तो
ईलाज बहुत आसन हो जाता है| माना कि किसी को टाईफायड हो गया
है| तब उसे बुखार आएगी| सामान्य लोग उस
बुखार का ईलाज करते हैं और समस्या जटिल होती जाती है| जब तक
रोग की पहचान नहीं हो, तबतक सब प्रयास बेकार है| अत: किसी समस्या के मूल पर जाईए, लक्षणों की ईलाज कर
संतुष्ट नहीं हो| लक्षण से मूल रोग का पता लगाएं| सामान्य आदमी को यह सब समझना होगा| अन्यथा सबों का
समय, साधन और धन बर्बाद होता रहता है|
अल्बर्ट
आइंस्टीन ने सापेक्षिता का सिद्धांत देकर सामाजिक विज्ञान को भी उलझा दिया है|
अब हमें सामाजिक विज्ञान में भी सापेक्षिता नजर आने लगती है| लोगो के सोच के अनुसार उनका नजरिया बदलता रहता है| लोगो का सोच भी उनके
पृष्ठभूमि से निर्धारित होता है और उनका मेरे बारे में नजरिया भी उनके सोच से ही
निर्धारित होता है| लोगो के सांस्कृतिक और शैक्षणिक स्तर अलग अलग होते हैं और चीजो को समझने
का नजरिया भी अलग अलग हो जाता है| यदि लोग मध्यम आर्थिक स्तर के होते हैं तो वे
धार्मिक,
राजनितिक और महिलाओं के चरित्र पर उनका निर्णय उनके भावनाओं के
अनुरूप होता है; उनके बुद्धि के अनुरूप नहीं होता है|
“दिमाग हमेशा दिल से हार
जाता है अर्थात बुद्धिमता हमेशा भावनाओं से हार जाता है; यह मध्यम वर्ग के लिए ही
ज्यादा सही होता है|”
इनकी
एक खासियत होती है जिसके उल्लेख के बिना इनकी बात अधूरी रहेगी| ये मध्यम दर्जे में इसलिए हैं
क्योंकि इनकी सामान्य बुद्धिमता ठीक रहती है और दूसरों के लिए सेवा देने योग्य
होती है यानि किसी सेवा में होते हैं| इनकी सम्वेदनात्मक और
सामाजिक बुद्धिमता की बात करने की हमें हिम्मत नहीं है| हाँ,
इनकी एक विशेषता होती है| यदि धर्म, राजनितिक, और महिलाओं के चरित्र पर सामने वाले के
मानसिकता के अनुकूल ही मैंने अपने विचार व्यक्त कर दिए तो उनकी नजरो में मैं बड़ा
ही ज्ञानी, समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति होते हैं; पर यदि इन मुद्दों पर सामने वाले की मानसिकता से भिन्नता हुई तो उनके लिए
मैं पढ़ा- लिखा एक अच्छा डिग्रीधारी होते हुए भी निपट मुर्ख और बेहूदा व्यक्ति हूँ|
अब
आप समझ गए होंगे कि मैंने धर्म, राजनितिक, और महिलाओं के चरित्र की बाते क्यों की? समाज का सवर्जन और कतिपय उच्च वर्ग भी मध्य वर्ग को ही प्रबुद्ध मान कर
चलता है| यदि आपने इस प्रबुद्ध वर्ग की मानसिकता और अचेतनता
एवं अवचेतनता को समझ लिया तो निश्चित है कि डुगडुगी वाले भी इसको समझते ही होंगे| इस तरह उनको डमरू बजाने में सहुलिअत होती है| बस,
उन्हें इतना ही ध्यान रखना होता है; हम और
हमारे लोग हर ताल एवं सुर पर उनका पुरे मनोयोग से साथ देगे और हम एवं हमारे लोग
अपनी सम्पूर्ण बुद्धिमता पूरी तन्मयता से उस डुगडुगी पर उढ़ेल देंगे| ये मध्य वर्ग चूँकि आस्थावान होते है, और इसीलिए
तर्क एवं विश्लेषण से दूर रहते है| सामान्यत: इनमे
विश्लेषणात्मक और तार्किक क्षमता कम होती है और इसीलिए ये आस्थावान भी होते हैं|
वे इलेक्ट्रोनिक डिब्बे पर आकर्षक चेहरों द्वारा कहे गए बातों पर
पूरा भरोसा करते हैं| मैं सामान्य अपवादों की बात नहीं कह
रहा हूँ, मैं तो सामान्य विश्लेषण कर रहा हूँ ताकि आपको
मेरे सम्बन्ध में निर्णय लेने में सुविधा हो|
अब
हम सवाल कर रहे हैं कि तब हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें डुगडुगी पर ध्यान
नहीं देना चाहिए? क्या हमें विरोध नहीं करना चाहिए? वे तो आपके विरोध को विरोध ही नहीं मानते| वे तो इसे
मानते कि आप उनके उलझन में खेल खेल कर भटक गए हैं और उनके योजना के अनुसार ही खेल
रहे हैं| जंगल में शेर जंगल के अन्य पशुओं के शिकार के लिए पहले उसे दौड़ा- दौड़ा कर
थका देते हैं, और फिर आराम से शिकार कर लेते हैं| लगता है कि आप भी दौड़- दौड़ कर जल्दी ही थकने वाले हैं| जो थोड़े तथाकथित बुद्धिमान हैं, वे इस खेल में अपना
समय, समर्पम, और संसाधन झोंक रहे हैं|
उनको और क्या चाहिए? उनकी योजना और रणनीति
उनको उनके लक्ष्य तक पहुंचा रहा है|
हमें
समझना है कि वह डुगडुगी बजाने वाला कौन है? क्या वह एक व्यक्ति है या एक संस्था? यदि वह व्यक्ति
है तो वह उस गड़ेरिये के समान है जिसके सन्दर्भ से बाहर होते ही कोई भी उसके भेड़ को
बिना किसी प्रतिरोध के उठा ले सकता है| यदि वह साधारण
डुगडुगी वाला है तो उसका कोई आदर्श नहीं है| क्योकि जिसका भी आदर्श होता है,वह संस्था वाला हो जाता है|
किसी आदर्श के बिना संस्था हो ही नहीं सकता, भले
हमें जानने एवं समझने नहीं आता है| परन्तु वह
डुगडुगी वाला एक संस्था का समर्पित कार्यकर्त्ता है तो? संस्था है तो उसका स्पष्ट निहित आदर्श होगा, भले
हमें देखना और समझना नहीं आए| भले संस्था के आदर्श
बाहरी (दिखावटी) और अंदरूनी अलग अलग हो जैसे हाथी के बाहरी दांत और अंदरूनी दांत
अलग अलग होते हैं| जिसका भी आदर्श होगा, निश्चित ही उसका संगठन भी होगा| संगठन है तो
निश्चिततया उसके कई कार्यशील एवं समर्पित इकाइयां होगी| जिसके आदर्श होते हैं, जिसके पास संस्था होते हैं|
और जिसके पास संगठन एवं विभिन्न अंग होते है, तो
निश्चिततया ही उनके पास उस आदर्श को पाने का समयबद्ध, निश्चित,
सुनियोजित, सुविचारित योजना होगा और समर्पित
कार्यकर्ताओं की फौज होगी|
तो
मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ| मैं आपको भी उसके लिए एक रणनीति समझा रहा हूँ| बड़े
कारपोरेट का कभी खेल समझने की कोशिश करें| यदि आप उसके आदर्श
को ही शून्य या उसे समाप्त कर दें तो? तो वह संस्था भी बेकार
हो जाएगा यानि शून्य हो जाएगा और उसको या तो उत्पाद बदल देना होगा या संस्था को ही
बंद कर देना होगा| तब वह संगठन भी बिना मतलब का हो जाएगा|
तब उसके भेड़ को कोई भी उठा ले सकता है, आप भी|
क्या यह संभव है? इस पर कभी किसी ने विचार
नहीं किया| “आउट ऑफ़ बॉक्स” तो
हमारे नजरिए से ही बाहर है| कभी इस पर भी
विचार हो| अल्बर्ट आइंस्टीन ने समय और स्थान के सन्दर्भ में गुरुत्व के प्रभाव में समय एवं स्थान को
ही मोड़ दिया| कहने
का तात्पर्य यह है कि सबकुछ संभव है|
पर यह संभव के बारे में सोचने से ही शुरू हो सकता है| संभव के बारे में सोचा जाए|
लगता
है हमें उनके डुगडुगी पर प्रतिक्रिया बंद करनी चाहिए और उसके आदर्श पर ही चोट करनी
चाहिए| इसके लिए
हमें उसका आदर्श समझना होगा| तब उसके आदर्श की तथाकथित
सत्यता की जांच करनी होगी| आप विमर्श तो करें| डुगडुगी वाला कौन है और उसका आदर्श क्या है? इसे आप
अपने समाज में, व्यवस्था में, संस्थान
में या अंतर्राष्ट्रीय व्यापकता पर इस्तेमाल कर सकते हैं|
अब
आप बताएँ कि हमारी बुद्धिमता कहाँ है? वैसे मैंने इस “हम” में आपको
भी शमिल कर लिया है| यह समान रूप से आप पर भी लिखा गया है|
आपका डुगडुगी पर कैसा प्रतिक्रिया होता है? क्या
आप डुगडुगी के मूल तक पहुँच सकते हैं? इतिहासकार ई० एच० कार कहते हैं कि इतिहास तथ्यों और
इतिहासकार के मिलने से बनता है| वे कहते हैं कि किसी इतिहास को समझने के
लिए इतिहासकार के भावों को पढ़िए|
यदि आप यह नहीं पढ़ पाते हैं तो आपका इतिहास बोध नहीं है या आप बहरा
हैं| यही हमारे साथ लागु होता है| आप बुद्धिमान दिखना
चाहते हैं या समाज को रूपांतरित करना चाहते हैं? थोडा रुक कर
इस पर गंभीर विचार करे|
ई०
निरंजन सिन्हा
व्यवस्था-
विश्लेषक एवं चिन्तक|
पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद में निशब्द एवं स्तब्ध हूं कोई अपनी दिल की सुने या दिमाग की । किसी भी परिस्थिति में दिल और दिमाग का सामंजस्य बहुत जरूरी है वरना मदारी के बंदर वाली स्थिति रहा जाएगी ।।।।
जवाब देंहटाएं... towards real thinker of psy-socio-politico fabrics of demographic....
जवाब देंहटाएंसारगर्भित सम्पूर्ण निष्पक्ष निरपेक्ष व आत्मावलोकन कराने वाला intense लेख । एक-एक शब्द व वाक्य, उसके लिए किए गए व्यापक और तंत्रिका तंत्र को झंकृत करने वाले मानसिक मंथन व परिश्रम की परिणति को प्रदर्शित कर रहा है।
जवाब देंहटाएंकुल मिलाकर डुगडुगी पिटवाने वाले narrative निर्धारित करते हैं अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष 'आदर्श' को tactical या strategic रूप से साधने हेतु संस्थागत अनवरत प्रयास करते हैं ।
इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष 'आदर्श' तथा 'प्रति-आदर्श' का चिंन्हीकरण , परीक्षण व शुद्धता अति आवश्यक है ।
पथ प्रदर्शक लेख व आपको सादर प्रणाम ।
सर ये लेख जबर्दस्त फिलॉसफी को सँजोये हुये है। आपने अपनी लेखनी से बिना कुछ कहे सबकुछ बिलकुल तह से बेपर्दा कर दिया है सर। इसे समझने के लिए भी अधिक ज्ञान एवं शांत चित्त चाहिए। इसे कई बार पढ़ने की जरूरत है। सर आपने बहुत मिहनत किया है इस आर्टिकल को लिखने के लिये। इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर।
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