बुधवार, 5 अगस्त 2020

सामाजिक संघर्षों की सफल रणनीति

यदि आपको सामाजिक संघर्षों में दमदार सफलता पानी हो, तो यही एक मात्र रणनीति है, जो आपको निश्चित सफलता दिलाएगी| बाकी तमाशा करने के लिए बहुत मजेदार है| यह भी निश्चित है कि इन तमाशों में तालियाँ भी खूब गडगड़ाती है| विषय गंभीर है|

संघर्ष यानि लड़ाई सामाजिक मुद्दों की हो, तो इसके मूल को ही ‘सांस्कृतिक’ मुद्दा कहा जाता है| जब बात सांस्कृतिक मुद्दों की होती है, तो यह अपने में सामाजिक मुद्दों के अलावे, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि कई मुद्दों को अपने में समेट लेती है| सामाजिक लड़ाईयों में मुद्दा समाज के हित में परिवर्तन या रूपांतरण का होता है| जब समाज ही लक्ष्य है, तो इसका स्पष्ट मतलब है कि एक बड़ी आबादी इसके लक्ष्य में समाहित है| समाज का एक बड़ा हिस्सा ‘भीड़’ के रूप में होता है, जिसकी मनोवैज्ञानिक ढांचा एवं संरचना ही सामान्य लोगों से भिन्न रहती है|

एक कहावत है कि ‘भेड़’ को, यानि भेड़ों के झुण्ड को हथियाने से पहले ‘गड़ेरिया’ को ही संदर्भ से बाहर निकलना होता है। ‘गड़ेरिया’ के उपस्थिति में उसके समर्थक एवं रक्षक कुत्ते भौंकते हैंदौड़ाते हैंकाटते हैं और आपको भगा भी देते हैं। इसके अतिरिक्त गड़ेरिया भी आपका दुश्मन बन जायगा| दरअसल ‘भेड़’ और ‘भीड़’ का स्वभाव, प्रकृति एवं प्रवृति भी एक ही समान होता है| मतलब कि ‘भीड़’ का गड़ेरिया भी भेड़ के ही गड़ेरिया के समान होता है|  तो सबसे अहम सवाल यह है कि गड़ेरिया कैसे कैसे होते हैं? उसकी प्रकृति क्या है, और उसकी क्रियाविधि क्या है? उसी की प्रकृति एवं प्रवृति के अनुरूप ही उस पर विजय पाने की रणनीति काम करेगी और उस पर विजय हासिल होगी|

गड़ेरिया या तो एक ‘व्यक्ति’ होगा, या ‘व्यक्तियों का एक समूह’ होगा, या कोई एक “संस्था” (Institution) होगा| यहाँ तीन स्थिति है, और तीनों का स्वभाव एवं प्रकृति अलग अलग है – व्यक्ति, समूह एवं संस्था| एक व्यक्ति सीमित मात्रा में ही काम कर सकता है, भले ही वह एक समूह के रूप में कार्य करे या एक व्यवस्था के रूप में कार्य करे| एक व्यक्ति के मामले में उस व्यक्ति विशेष का भौतिक अस्तित्व ही सब कुछ है, और उसकी कोई भिन्न एवं स्पष्ट, सशक्त विचारधारा नहीं होती है| इनके मामले में कोई समूह भी मात्र सलाहकार की हैसियत में, या भूमिका में ही होते हैं| आपने भी देखा होगा कि मामले चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक हो, ऐसे लोगों का, यानि ऐसे गड़ेरिये का प्रभाव क्षेत्र कुछ सीमित क्षेत्रों तक ही सीमित होता है| इन सीमित क्षेत्रों को कुछ लोग क्षेत्र या प्रान्त भी कहते हैं| ऐसे व्यक्ति विशेष गड़ेरियों को सन्दर्भ से बाहर करने के लिए उन्ही व्यक्ति विशेष को घेरे में लेना होता है|

इस ‘घेरे में लेने’ की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा प्रचलित तरीका उन पर ‘भ्रष्टाचार’ का आरोप लगाना होता है, चाहे आरोप तथ्य आधारित हो या बेबुनियाद हो| यह तरीका सबसे सरल, साधारण और सवसे ज्यादा प्रचलित है| आरोप तीखा और संवेदनशील होना चाहिए, उसकी सत्यता के तथाकथित जाँच में ही दशकों के समय को निकाल दिया जा सकता है, या निकाल दिया जाता है| यदि कम समय में ही उस तथाकथित जाँच के परिणाम आ भी जाय, और परिणाम उस व्यक्ति विशेष के पक्ष में ही आ जाय, तो आरोपकर्ता एक माफीनामा दाखिल कर देता है और उसे काफी मान लिया जाता है, लेकिन तबतक काफी खेल बिगाड़ दिया जा सकता है| उस व्यक्ति का यानि उस गड़ेरिये का ‘चरित्र हनन’ करना भी एक सशक्त उपाय है| इसीलिए उस व्यक्ति या उसके परिवार के ही किसी मुख्य एवं नजदीकी सदस्य के चरित्र हनन करना या करवाना भी एक प्रचलित एवं आसान कदम हो सकता है| इस चरित्र हनन में कुछ मूर्खतापूर्ण एवं अज्ञानतापूर्ण बातें या हरकतें करने का, भले ही नकली हो, एडिटेड हो, मनगढ़ंत हो, आरोप शामिल किया जा सकता है| यदि आपका मीडिया प्रबंधन मजबूत हो और आपके प्रभाव में हो, तो झूठ –पर- झूठ  लगातार प्रसारित प्रचारित करने से भी वह सत्य का प्रभाव बनाता है| हिटलर भी कहा करता था कि किसी के विरुद्ध एक ही झूठ कई तरीके से बार बार बोला जाय, तो वह ‘झूठ’ भौतिक चट्टान की तरह मजबूत, सशक्त, कठोर और अटल बन जाता है|

यदि भेड़ या भीड़ का गड़ेरिया भी एक समूह है, समुदाय है, या गिरोह है, तो इसका भी स्वाभाव, प्रवृति एवं प्रकृति भी मौलिक रूप में एक व्यक्ति विशेष की ही होती है| और इसीलिए ऐसे समूह, समुदाय, या गिरोह पर भी नियंत्रण के लिए व्यक्ति विशेष के ही नियम प्रभावी होते हैं, जैसे भ्रष्टाचार र्के आरोप, चरित्र हनन के आरोप, विदेशी एजेंट होने के आरोप लगाये जा सकते हैं| लेकिन विदेशी एजेंट के आरोप में उस सम्बन्धित देश की औकात आदि का ध्यान रखना होता है, जो स्वयं ही एक संवेदनशील मामला होता है, और इसीलिए इस हथियार का प्रयोग कम ही किया जाता है, या नहीं ही किया जाता है|

गड़ेरियों की तीसरी श्रेणीं सबसे प्रमुख एवं महत्वपूर्ण है| यह “संस्था” (संस्थान नहीं) के स्वरुप में होती है| स्पष्ट है कि इसमें कोई भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह महत्त्वपूर्ण या प्रमुख नहीं होता है| कोई भी संस्था का निर्माण किसी स्पष्ट आदर्श की स्थापना एवं उसकी प्राप्ति के लिए ही होता है, अन्यथा संस्था की आवश्यकता ही नहीं होती| यह आदर्श एक स्पष्ट विचार धारा होता है, या एक स्पष्ट विचारधारा पर आधारित होता है, या एक जीवन दर्शन होता है, और इसी आदर्श के केंद्र बिंदु के परिधि में पूरा संगठन कार्य करता हुआ होता है| एक ‘संस्था’ में व्यक्ति आते जाते रहते हैं, परन्तु ‘संस्था’ का आदर्श जीवित रहता है, स्थिर रहता है, कार्यरत रहता है और पूरे संगठन को प्रेरणा देता रहता है|

इसीलिए ऐसे संस्था के कई अंग होते हैं, लाखों करोड़ों समर्पित सदस्य या समर्थक हो सकते हैं| यह भी सुनिश्चित है कि ऐसे संस्था के पास अपार धन होता है, संसाधन होता है, कई संगठन होते हैं, कई प्रभावकारी एवं नियंत्रणकारी यन्त्र होता है और यह पूरे तंत्र को भी संचालित करा हुआ हो सकता है| इसीलिए ऐसे संस्था का प्रभाव क्षेत्र किसी सीमित क्षेत्र तक सीमित नहीं होता है, बल्कि एक ही साथ बड़े एवं विस्तृत क्षेत्रों में यानि विभिन्न प्रान्तों में भी फैला हो सकता है| इसके समर्थक उस देश से बाहर भी हो सकते हैं| विचार का यही आधार उन संस्थानों को विस्तृत क्षेत्रों में यानि विभिन्न प्रान्तों में फैलने का आधार होता है, और इसके उदाहरण आप राजनीति के क्षेत्र में भी आसानी से देख सकते हैं|

यही ‘आदर्श’, यानि यही ‘विचार धारा’ ही उस संस्था का ‘आत्म’ (Self) या प्रचलित ‘आत्मा’ (Soul) होता है|  मतलब यही आदर्श यानि विचार धारा ही उस संस्था का प्राणशक्ति होता है, यही उस आदर्श, यानि विचार धारा में ही निहित है, और उससे बाहर कहीं नहीं है| अत: संस्थागत गड़ेरिये को नियंत्रण में पाने के लिए किसी भी व्यक्ति या उनके समूह के विरुद्ध लड़ाई की जरुरत नहीं होती है, और उसके किसी भी अंग पर नियंत्रण पाने की जरुरत नहीं होती है| आप यहाँ तक कह सकते हैं कि उन अंगों की किसी भी मुद्दों पर भी प्रतिक्रया देने की भी जरुरत नहीं होती है| आप उनके मुद्दों पर अपनी प्रतिक्रया देकर अपना समय, धन, संसाधन, उर्जा, वैचारिकी, और अपनी जवानी (उत्साह) को झोके जा रहे हैं और अपने लोगों को भी उसी में डुबाये जा रहे हैं| उनका तो कुछ ठोस बिगड़ता नहीं है और आप आसानी से उनसे नियंत्रित होते रहते हैं| तब विरोध का खेल चलता रहता है, और वे आपके ‘नादानी’ का ‘चाय के चुस्की’ लेते रहते हैं| तब आपको भी एक सशक्त क्रान्तिकारी होने का सुखद भ्रम या बहम का अहसास होता रहता है|

इस संस्था के नायक का महत्व किसी व्यक्ति विशेष गड़ेरिए का नहीं होता है। किसी ‘सं’स्था’ में सिर्फ वह ‘आदर्श’ और ‘दर्शन’ ही महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए वह संस्था स्थापित और कार्यरत हैं। ऐसे संस्था का नेतृत्वकर्ता अहम नहीं होताआदर्श और दर्शन महत्वपूर्ण होता है। ऐसे संस्था के सैकड़ों कार्यरत एवं सक्रिय अंग होते हैं। वे मुद्दे बनाते हैं और उसके विरोधी उसमें उलझते जातें हैं। इन विरोधियों को लगता है कि उनका तर्क और तथ्य मजबूत और कारगर है एवं कोई फतह के निकट है। पर फिर मुद्दा ही बदल जाता है। इन हवा हवाई क्रांतिकारियों का कोई स्पष्ट एवं सुनिश्चित सकारात्मक एवं सृजनात्मक कार्य योजना नहीं होता, और ये बौद्धिक सिर्फ प्रतिक्रिया देने तक ही अपने को क्रान्तिकारी बनाते एवं समझते हैं| स्पष्ट है कि ऐसे बौद्धिक एक संसाधन सम्पन्न, सक्षम एवं सक्रिय ‘संस्थागत किले’ के सामने असहाय होते है। किसी भी संस्थागत तंत्र की कार्य प्रणाली भी काफी प्रतिभाशाली और सशक्त होती है, इसे भी समझना चाहिए। मार्केटिंग (चाहे वे आदर्शों या विचारों का हो) के वैश्विक माने जाने वाले गुरु फिलिप कोटलर कहते हैं कि आज ‘सूचनाओं का युग’ नहीं है, बल्कि ‘ सूचनाओं को शेयर करने’ का युग है।

अन्त में, यह स्पष्ट है कि उस संस्थगत गड़ेरिये पर नियंत्रण पाना सबसे आसन और सरल होता है| आपको सिर्फ उस आदर्श, यानि उस विचार धारा पर नियंत्रण पाना होता है| आपको सिर्फ उस आदर्श को, यानि उस विचार धारा को ही अतार्किक, तथ्यहीन, साक्ष्य विहीन, गैर ऐतिहासिक, अवैज्ञानिक, अमानवीय, गलत और झूठ आधारित प्रमाणित कर देना है| बस, उस संस्था की ही कहानी खत्म| तब उस संस्था के सभी अंग, सभी संसाधन, सभी व्यक्ति एवं समूह प्रयोजन विहीन हो जाते हैं, मतलब उस “संस्थागत गड़ेरिये” की ही जरुरत नहीं होती है, उसकी कोई उपादेयता ही नहीं होती है| चूँकि इस संथागत ढाँचा में कोई व्यक्ति, या कोई व्यक्ति समूह, या कोई अंग, या कोई समर्थक महत्वपूर्ण नहीं होता है, और इसीलिए इनमे में से किसी भी पर कोई ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती| ये सभी उस संस्था के कठपुतली मात्र होते हैं| और यह संस्था उस आदर्श, यानि उस विचार धारा पर ही टिका हुआ होता है| इस तरह वह ‘संस्था” अपने ढांचे के साथ, अपनी संरचना के साथ पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है|

निष्कर्ष यही है कि यदि उस ‘संस्थागत गड़ेरिये’ (जो काफी मजबूत है, सशक्त है, प्रभावशाली है) का आदर्श और दर्शन ही शून्य हो जाए, यानि वह आदर्श और दर्शन ही बकवासनिरर्थकसंदर्भविहिन और गलत साबित हो जाए, तो?

तब वह संस्था ही शून्य  हो जाएगा।

सारा खेल समाप्त।

विचार करें।

गंभीर विचार करें।

निरंजन सिन्हा

आचार्य प्रवर निरंजन 

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