(Why History?)
आजकल
सामान्य समाज में यह प्रश्न अक्सर कौंधता रहता है कि आज के वर्तमान एवं आधुनिक युग
में इतिहास के अध्ययन या अवलोकन की क्या अनिवार्यता है? अर्थात इतिहास
क्यों पढ़ना चाहिए?
हमें आगे देखना चाहिए, या पीछे देखना चाहिए? दरअसल ऐसे लोग इतिहास को जानते समझते ही नहीं है? ऐसे लोगों में तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या कम नहीं है|
यदि
एक शिकारी हिरणों का शिकार करता है| यदि इन घटनाओं पर इतिहास लिखा जाना हो, तो इतिहास
लिखने वाले तीन तरह के जीव होंगे - पहला लेखक स्वयं शिकारी वर्ग हो सकता है, दूसरा लेखक स्वयं हिरण वर्ग ही हो सकता है, और तीसरा कोई
प्रकृति संरक्षक, या कोई अन्य तथाकथित ‘तटस्थ’ कहे जाने वाला लेखक हो सकता है| शिकारी के इतिहास लेखन में शिकारियों का शौर्यगाथा, हिरणों की मूर्खता, हिरणों के मांस की उपयोगिता और
उसके लजीज स्वाद का विषद वर्णन रहता है, या रह सकता है| हिरणों को तो अपनी बौद्धिकता के अभाव में
अपना इतिहास लिखना ही नहीं आता, कुछ हिरणों ने तो इस दिशा में थोडा प्रयास भी किया है, जिन्होंने ‘शिकारियों’ के
इतिहास रचना के पन्नों से कुछ अपने पक्ष की सामग्री समझ कर इतिहास लिख दिया है|
ऐसे ‘हिरण’ उन्हीं ‘शिकारियों’ के संरचनात्मक ढांचे में उलझ कर और इसके
परिणाम एवं प्रभाव जाने बिना सारे भारत में और विदेशों में घूम घूम कर ‘इतिहास’ पर व्याख्यान देते हुए वस्तुत: मूर्खतापूर्ण
नृत्य कर रहे हैं| तटस्थ दिखने वाले ‘प्रकृति संरक्षक’ या ‘अन्य’
के इतिहास पर भी टिप्पणी जरुरी है| ये ‘प्रकृति संरक्षक’ या ‘अन्य’
हैं भी तो आखिर शिकारियों के ही परिवार से ही| ये ‘प्रकृति
संरक्षक’ या ‘अन्य’ लेखक भी शिकारियों को अपराधी तो घोषित कर नहीं सकते, चूँकि उनमे इतनी हिम्मत है ही नहीं| स्पष्ट
है कि हिरणों
को अपने मनन और मंथन से,
खुद के स्वविवेक से, और उन शिकारियों के ‘संरचनात्मक ढांचे’ के बहार अपने इतिहास की रचना करनी
है|
तो
प्रश्न यह है कि इतिहास क्या है? इतिहास क्यों जरुरी है? इतिहास कैसे लिखा जाता
है? इतिहास व्यक्ति को, परिवार
को, समाज को, राष्ट्र
को, और मानवता को क्या देता है? इतिहास इन सबों को चेतन, अचेतन, अवचेतन और अधिचेतन पर कैसे संचालित, नियंत्रित,
नियमित और प्रभावित करता है, या करता रहता है? क्या इतिहास आधुनिकता की नींव है और आधुनिकता को स्वरुप देता है? कुल मिलकर ‘इतिहास’ को पढ़ना
और समझना क्यों जरुरी है? इन सभी को समझने और जानने के लिए
ही यह आलेख है|
इतिहास क्या है?
इस
विषय पर प्रो० एडवर्ड हैलेट कार
(ई० एच० कार) की पुस्तक “इतिहास क्या है?” (What
is History?) से अधिक और जानने की
आवश्यकता नहीं है| उन्होंने ऐक्टन को उद्धृत करते हुए कहा है
कि – “हम अपने जीवन में कोई अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन
हम परम्परागत इतिहास को अवश्य ही रद्द कर सकते हैं|” सभी ऐतिहासिक अवधारणाएं
व्यक्तियों यानि लेखकों तथा उनके दृष्टिकोणों के माध्यम बनती है| वस्तुत: ऐतिहासिक सत्य जैसी कोई चीज नहीं होती, क्योंकि
कोई भी इतिहास का उपस्थापन वैज्ञानिक तथ्यों और प्रविधियों पर नहीं करता है,
या नहीं कर सकता है| और ‘विज्ञान’ के आधार के बदलते रहने से भी ‘इतिहास’ को बदल जाना पड़ता है, और
विज्ञान नित्य नूतन होता रहता है| ‘ऐतिहासिक तथ्य’ ‘इतिहास’ के लिए ‘कच्चा मॉल’ नहीं होता, बल्कि ये “इतिहासकार” के लिए ‘कच्चा मॉल’ होता है, जो ‘ऐतिहासिक तथ्य’ को इतिहासकार के संस्कृतियों, परिस्थितियों, मूल्यों
और उनके पूर्वाग्रहों से निर्धारित, व्याख्यापित और सम्पादित
करता है|
जनता
या जनमत के मंतव्यों, रायों, अवधारणाओं और विचारों को प्रभावित करने का सबसे असरदार तरीका यह है, कि वह इतिहासकार अपने इतिहास लेखन से जो प्रभाव जनता में उत्पन्न करना
चाहता है, उन्हीं आवश्यकताओं के अनुरूप ही उन ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ का उपस्थापन और व्याख्या
उन उपलब्ध तथ्यों के नाम पर करें| वे ऐतिहासिक तथ्य भी वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उन तथ्यों
से बोलवाना चाहता है| यह उपस्थापन एवं व्याख्या भी अधिकतर उस
देश और काल की व्यवस्था के अनुकूल ही होता है| किसी भी उपस्थापन एवं
व्याख्या को व्यवस्था के अनुकूल होना ही होता है, यानि “यथास्थितिवादी”
होना ही होता है| प्राचीन काल के इतिहास में कई अंतराल खंड “अन्धकार”
से भरे पड़े है, जिनकी व्याख्या ‘यथास्थितिवादी इतिहासकार’ अपने पक्ष में ही करते रहे
हैं| कार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं, कि प्राचीन और मध्य काल के इतिहास के तथ्य के
रूप में हमें जो कुछ मिलता है, उनका चुनाव ऐसे
इतिहासकारों की पीढ़ियों द्वारा किया गया था, जिनके लिए धर्म
का सिद्धांत और व्यवहार एक पेशा था और आज भी है| मध्यकालीन धार्मिक तस्वीर
जो आज हमें तथ्य के रूप में प्राप्त हैं, हमारे लिए
उसका चुनाव बहुत पहले ऐसे लोगों द्वारा किया गया, जो उस
धार्मिक बनावट में विश्वास रखते थे और चाहते थे कि दुसरे भी उसमे विश्वास करें| उन ऐतिहासिक तथ्यों का एक बहुत बड़ा भाग, जिनमे
इनकी मान्यताओं एवं विश्वासो के विरोधी प्रमाण थे, नष्ट
हो चुका है, या ‘सांस्कृतिक धार्मिक
सामंतवादियों” द्वारा नष्ट किए जा चुके हैं, और जिन्हें पुन: कभी नहीं पाया जा सकता| भारत
में तो इन साक्ष्यों को ‘नष्ट करने वाले सामंतवादियों’
ने तो इस बदलाव का भी “धार्मिककरण” कर अपनी पहचान को बचा लेने का प्रयास किया है; पर
यह अब सब खुलने लगा है|
“यथास्थितिवादी इतिहासकारों” के लिए पहली आवश्यकता
लोगों की अज्ञानता होती है| लोग यदि अशिक्षित हो, उनमे ‘आलोचनात्मक चिंतन’ भी
नहीं हो और ये लोग आर्थिक रूप से इतने कमजोर भी हो, कि उनको
जीवन बनाए रखने के ही लिए अतिरिक्त समय नहीं बचता हो, तो ऐसी
स्थिति में ऐसे इतिहासकारों के लिए नई और मनमानी इतिहास बनाने में और आसानी होती
है| मध्यकाल में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सामंतवाद के समय लोगों को अशिक्षित
बनाने के लिए ही भारत की एक भाषा पालि को ‘संस्कारित’ कर संस्कृत भाषा को विकसित किया गया, और इसे प्रश्नों से बचाने के लिए देवभाषा भी घोषित कर
दिया गया| पढ़ना- लिखना समाज के पुरोहित एवं संस्कारक
वर्ग के लिए आरक्षित कर दिया गया और सामान्य जनों को इस शिक्षा से वंचित कर दिया
गया| नए इतिहास को लिखने और उसकी मान्यता को सर्वमान्य
एवं सर्वग्राह्य बनाने के लिए ऐसा करना अनिवार्य हो गया था| पहले का ऐतिहासिक एवं लिखित साक्ष्य या तो नष्ट कर दिया गया, या जला दिया गया, ताकि सक्ष्यात्मक विरोध की कोई
गुंजाईश ही नहीं रहे| इतिहास के तथ्य कभी शुद्ध रूप में निष्पक्ष नहीं रहते, क्योंकि वह निरपेक्ष नहीं
होते और ये तथ्य इतिहासकारों के विचारों के रंग में रंजित होकर ही निकलते हैं| प्रो० कार स्पष्ट करते हैं, कि जब आप इतिहास की कोई पुस्तक
पढ़ते हैं, तो आप हमेशा अपनी कान को उस इतिहासकार के पीछे लगाकर उसकी आवाज सुनें| अगर आपको इतिहासकार के इतिहास रचना में कोई आवाज नहीं सुनाई देती है,
तो इसका एक अर्थ यह है कि आप या तो एकदम बहरे हैं, या आपका इतिहासबोध ही शून्य है| इतिहासकार जिस प्रकार के तथ्यों की खोज
कर रहा है, या करता है, वह इतिहास में
उसी प्रकार के तथ्यों को ही पाएगा| इतिहास का अर्थ ही होता है, उन ऐतिहासिक तथ्यों की
व्याख्या, जो उस इतिहासकार ने समझा है, या जो वह बताना या समझाना चाहता है|इतिहासकार अपने युग के साथ
अपने मानवीय शारीरिक अस्तित्व की शर्तों पर जुड़ा होता
है| इतिहासकार के द्वारा प्रस्तुत इतिहास को समझने के
लिए उस इतिहासकार के अध्ययन की भी दक्षता होनी चाहिए|
जबतक
आप इतिहासकार की मानसिकता, यानि इतिहास लेखन का उद्देश्य नहीं समझ लें, तबतक आप उस इतिहास को नहीं समझ सकते हैं| यह
इतिहासकार कौन है और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है? क्या वह इतिहासकार किसी प्रकार के सामंतवादी पृष्ठभूमि से है और उसकी सामंतवाद
के बारे में चेतन और अचेतन स्तर पर क्या निर्धारित है – यह जानना भी बहुत महत्वपूर्ण है| क्या वह
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को यथास्थिति में
बनाए रखना चाहता है, या वह देश एवं समाज हित में सामाजिक,
सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूपांतरण भी करना चाहता है? हमें इतिहासकार का उस सन्दर्भ यानि पृष्ठभूमि का तात्पर्य समझ लेना आवश्यक
होता है| किसी तथ्य या प्रस्तुतीकरण अपने आप में इतिहास
नहीं बन जाते है, जबतक कि ये मानव के सामाजिक विकास की गाथा
में प्रासंगिक नहीं बन जाते| क्रोशे ने घोषणा की, कि सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैं| इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि इतिहास
का लेखन ही वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने के लिए ही अतीत की जड़ों को देखना है| एक वैज्ञानिक एवं आधुनिक इतिहासकार का मुख्य कार्य समय काल में विवरण
देना नहीं होता है, अपितु उस काल का मूल्याङ्कन करना होता है और जनता को अपनी मनोवांछित इच्छा
से सहमत कराना भी होता है| इतिहास वही होता है, जो इतिहासकार बनाता है| इतिहासकार अतीत में जाकर वर्तमान और भविष्य को
गढ़ता है, बनाता है और निर्धारित करता है| अतीत आधार है, जिस
पर वर्तमान –भविष्य का अधिसंरचना खड़ा किया जाता
है| ‘इतिहास’ को ‘तथ्य’ एवं ‘तथ्यों की व्याख्या’
का संयुक्त स्वरुप माना जाता है| इतिहासकार
वर्तमान में होता है, जबकि उसके तथ्य अतीत के होते हैं,
और उसकी व्याख्याएँ ‘वर्तमान’ एवं ‘भविष्य’ के लिए होती है| तथ्यों के बिना इतिहासकार बेकार है और इतिहासकार के बिना तथ्य मृत एवं
अर्थहीन होता है| इतिहास इतिहासकार और उसके तथ्यों की
क्रिया- प्रतिक्रिया है, जो सदैव जारी रहेगा| यह हमेशा ध्यान में रहना
चाहिए,
कि इतिहासकार स्वयं इतिहास का उत्पाद होता है|
इतिहास क्यों जरुरी है?
चूँकि
इतिहास अब तक का बीत गया काल से सम्बद्ध है, और इसीलिए इतिहास अब तक के बीत गए कालों में मानव ने जो सीखा, अर्जित किया, जो समझा है; उसका सारांश में वृतांत है| इतिहास हमें सोचने, व्यवहार करने, कार्य करने और अपने एवं समाज के
प्रति जो नजरिया है; उसकी उत्पति, विकास और भविष्य के बारे में
क्रिया विधि समझाता है| अपने आपको, परिवार को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र को और मानवता को समझने और समझाने के उपकरण का नाम ही इतिहास
है| सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक विन्यास, प्रशासनिक शासन, सामंती विचार एवं दृष्टिकोण, सामाजिक प्रतिमान; इन सभी को सम्यक ढंग से समझने और समझाने के लिए इतिहास का सम्यक अध्ययन आवश्यक है| इसे विस्तारित किया जा सकता है, पर यहाँ स्थानाभाव में
विस्तारित नहीं किया जा रहा है|
‘संस्कृति’ समाज का सॉफ्टवेयर है, यदि ‘सभ्यता’ समाज का हार्डवेयर है| किसी भी समाज, राष्ट्र और मानवता के विकास
सिर्फ हार्डवेयर के विकसित होने से नहीं हो जाती अर्थात इनके भौतिक स्वरुप के
विकास ही सभ्यता का विकास है जैसे सड़क, भवन, बाँध, नहरे, विद्यालय, अस्पताल आदि आदि| इसके साथ ही इनके विकास के
लिए इनके सॉफ्टवेयर का समुचित होना जरुरी है| व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का इतिहास बोध (Perception
of History) ही, यानि उस इतिहास के प्रति जो
अवधारणा बनी, वही उनकी संस्कृति का निर्माण करता है| उस देश और समाज को उसकी
संस्कृति ही हर स्तर- चेतन, अचेतन, अवचेतन और अधिचेतन संचालित कराती रहती
है| बिना सम्यक के इतिहास के किसी भी देश और समाज की
संस्कृति में संशोधन एवं संवर्धन नहीं किया जा सकता है, और
इसी कारण इसके बिना यानि नए इतिहास के बिना उसका सम्यक विकास भी नहीं हो सकता है|
इतिहास कैसे लिखा जा सकता है?
खासकर हिरणों का इतिहास हिरणों के लिए? सारे
विश्व के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वैज्ञानिक आविष्कार (Invention) करते हैं, और नया ज्ञान प्राप्त करते हैं, लेकिन विज्ञान इस नए ज्ञान
के लिए वे किसी सूक्षम एवं युक्तियुक्त नियमों की स्थापना नहीं करते; बल्कि ऐसी कल्पनाओं अथवा
अनुमानों का प्रतिपादन करते है, जिनसे सम्भावनाओं के नए आयाम
खुलते जाते हैं| प्रत्येक प्रकार के चिंतन प्रक्रिया में हमें कुछ पूर्व धारणाएं बनाना और
स्वीकार करना पड़ता है| वैज्ञानिकों का यह भी मानना है
कि ‘अज्ञात को ज्ञात से कभी नहीं जान जा सकता है|’ ये अवधारणायें (Postulation) वैज्ञानिक प्रक्रिया में तभी ही सहायक
होती है, जब इनका आधार अनुमान
के अतिरिक्त अवलोकन और पर्यवेक्षण (Observation
n Supervision) भी हो| इसमे
संशोधन और सुधार की पुरी संभावना रहनी चाहिए| यदि ये
अवधारणाएं हमें नई अंतर्दृष्टि देने और हमारा ज्ञान बढ़ने में सहायक या समर्थ है,
तो ये अवधारणाएँ सही एवं सम्यक है| इनमे
सामान्य जन के भविष्य को सुधारने वाला सूत्र बनने की क्षमता होनी चाहिए| इससे वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने की क्षमता होनी चाहिए| विज्ञान की सापेक्षता के
सिद्धांत की तरह ही इतिहास भी सापेक्ष होता है, अर्थात कोई भी इतिहास उस
इतिहासकार के व्यक्तित्व और उनके लक्ष्य के अनुरूप ही होता है| इन हिरणों को अपने
ऊपर विश्वास ही नहीं है, कि वे अपना कोई इतिहास भी लिख सकते
हैं, और इसीलिए ये अपने शिकारियों के रचित इतिहास के
संरचनात्मक ढांचे में ही उलझे हुए होते हैं; यही इनकी सबसे
बड़ी समस्या है|
शिकारी
अपने इतिहास लेखन में कुछ ऐसा लिख डालते हैं, कि जिससे हिरणों को लगता है कि उन्हें उनका उद्धार करने वाला सूत्र मिल
गया है और वे अपना सम्यक इतिहास लिख ही लेंगे| वस्तुत:
हिरणों के प्रत्यक्ष समर्थन में दिखता ऐतिहासिक सामग्री उन हिरणों की हितों के ही
विरुद्ध अचेतन और अधिचेतन स्तर कैसे सफलतापूर्वक काम कर रहा है, यह सब उन हिरणों के समझ के परे होता है| वस्तुत:
यह उनके विरुद्ध काम भी कर रहा है, इसका अहसास ही
उन्हें नहीं होता है| ये इतिहास तो लिखते हैं, परन्तु उसके प्रभावों का मूल्यांकन बहुत दूर तक नहीं कर पाते हैं और
इसीलिए उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा है| आइंस्टीन ने एक बार पागलपन की परिभाषा दिया था, जिसमे उसने कहा कि “एक ही काम को एक ही तरीके से रोज रोज करना और उसके किसी नए परिणाम की आशा
करना, ही पागलपन है|” इन हिरणों को उनकी समस्याओं का समाधान इसीलिए
नहीं मिल रहा, क्योंकि वे अपनी समस्याओं के मूल जड़ तक पहुँच नहीं पा रहे हैं| इनका सम्यक इतिहास एक नए तरीके से लिखना तो दूर की बात है; क्योंकि किसी भी इतिहास – लेखन का एक लक्ष्य और एक
दर्शन होता है| इनको अपने लक्ष्य का तो इन्हें पता है, पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इनको इनका “इतिहास-दर्शन”
(Historiography) का पता ही नहीं है|
मैं
इन ‘हिरणों’
के ‘सम्यक दर्शन’ या ‘सम्यक इतिहास दर्शन’ की बात नहीं कर रहा हूँ; क्योंकि इनके ‘सम्यक’ या ‘अनुचित’ दर्शन की बात तो दूर की है, इन्होंने अभी तक अपना दर्शन ही नहीं तय किया है, जिस
पर उनको अपना इतिहास लिखना है| इतिहास लेखन के लिए किसी सम्यक दर्शन की
अनिवार्य आवश्यकता होती है| इन हिरणों ने कभी इस दिशा
में सोचा ही नहीं है और इसीलिए उन्हें मेरी ये बातें अटपटी ही लग सकती है, पर मैं अति गंभीर बात कर रहा हूँ| यही कारण है
कि भारत इतनी बड़ी आबादी के देश होने के बावजूद विकासशील
देश बनने के दौड़ में शामिल होना चाहता है और मानव-विकास के सूचकांक पर बहुत नीचे
है| भारत की पाँच प्रतिशत की आबादी भी विकसित देशों के
नागरिकों के समतुल्य नहीं हैं, अन्यथा यह भारत विश्व का सबसे
अग्रणी देश होता| समाज के सामंतवादी मानसिकता यथास्थिति बनाए
रखना चाहते हैं और राष्ट्र का विकास उन सामंतवादियों तक सीमित रखना चाहते हैं| आप समझ सकते हैं कि मानव- विकास के सूचकांक में पिछड़ने का राष्ट्रीय दर्द
कैसा होता है| आप से ही तो समाज और राष्ट्र को उम्मीद
भी है|
इतिहास मानव को क्या देता है?
इतिहास
मानव को संस्कृति देता है, जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में एक
सॉफ्टवेयर की तरह मानव, परिवार, समाज, राष्ट्र
और मानवता को चेतन, अचेतन, अवचेतन
और अधिचेतन पर संचालित, नियंत्रित, नियमित,
प्रभावित और निर्देशित करता रहता है| चूँकि यह सॉफ्टवेयर है और
तंत्र को संचालित करता है; अत: यह विकास को दिशा भी
देता है, या अवरुद्ध भी करता है| भारत में विकास के बाधा को
समझने के लिए भारत की संस्कृति और उसकी जड़ें को इतिहास में जानना और समझना जरुरी है| वर्तमान
भारतीय इतिहास को सांस्कृतिक सामन्तवाद के सापेक्ष समझना बहुत जरुरी है| इसी कारण इतिहास आधुनिकता की नींव है, आधार है,
जिस पर आधुनिकता का भव्य इमारत खडा होता है|
थोरो
ने कहा था कि पेड़ की हर जहरीली पत्तियों और
फलों पर प्रहार करते रहने से बेहतर है; कि उस जहरीले पेड़ की जड़ पर ही प्रहार कर
उसे ही नष्ट किया जाना बुद्धिमत्ता है|
किसी
भी संस्कृति या इतिहास के पेड़ के द्वारा उत्पादित फलों की एक निश्चित विचारधारा या
आदर्श होता है| उसके हर जहरीले बात या उत्पाद के जबाव देने या उसे नष्ट करने के प्रयास से
बहुत अच्छा है कि उस ‘आदर्श’ को
उत्पन्न करने वाले उस पेड़ को ही नष्ट कर किया जाय| इसके लिए आपको अपना इतिहास
लिखना होगा| सामाजिक संत्रासों या कष्टों या मानसिक
गुलामी को दूर करने का एकमात्र यही प्रभावी और समझदारी भरा उपाय है|
इतिहास (लेखन) की सही पद्धति क्या है?
डा०
दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी ने इतिहास
यानि सामाजिक रूपांतरण को “उत्पादन की शक्तियों और उनके अंतर प्रक्रियाओं के अंतर संबंधों के आधार पर
समझने और समझाने की प्राविधि बताया है|” भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के
संस्थापक अध्यक्ष प्रो० रामशरण शर्मा ही डॉ० कोसाम्बी की इस विधि का बार बार
उल्लेख करते रहे हैं| इस प्रक्रियात्मक प्राविधि में मैं एक संशोधन के साथ इसे एक नए स्वरुप में
प्रस्तुत करता हूँ – ‘इतिहास’ यानि ‘सामाजिक
रूपांतरण का प्रक्रियात्मक विवरण’ मानव के ‘उपभोग’, ‘उत्पादन’, ‘वितरण’,
एवं ‘विनिमय; के ‘साधनों’ एवं ‘शक्तियों’
के अंतर्संबंधों के आधार पर आधारित है| इस आधार पर भारत की सभी
समस्याओं का समाधान होता है, इतिहास की सभी परतों पर से
रहस्य उठ जाता है, और वर्तमान धार्मिक यानि सांस्कृतिक
सामंतवाद की पोल खोलता है| यह जातिवाद, वर्णवाद, धर्म और सम्प्रदाय के आंतरिक अंतर संबंधों को और उसके उत्त्पत्ति को भी
उद्घाटित करता है| इसके
लिए ही इतिहास का नविन अध्ययन एवं लेखन आवश्यक है, परन्तु
इसके लेखन के लिए शिकारियों के इतिहास, उसके मंतव्य, उसके साक्ष्यों को छोड़ कर अपना अवलोकन, मनन, मंथन और चिंतन करना होगा| यही एकमात्र विकल्प
है, बाकि सब तमाशा ही है|
आचार्य
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक
सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|
(भारतीय
संस्कृति का ध्वजवाहक)
बहुत खूब, आचार्य निरंजन सिन्हा सर। यह लेख पढ़ कर शिकारी एवं हिरण, दोनों का पक्ष से अवगत हो पाया। आप की पैनी नजर के लिए आभार।
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