मार्केटिंग प्रबन्धन का
विज्ञान(और बुद्ध )
(Science of Marketing Management n Buddha)
एक
अच्छा मार्केटिंग प्रबंधन की विधा कला एवं विज्ञान का योग होता है| इसकी सफलता के लिए काफी सावधानी
के साथ योजना बनाना एवं उसका कार्यान्वन करना होता है| मार्केटिंग में मानवीय एवं सामाजिक अवश्यकताओ एवं मांगों की
पहचान करना और उसको पूरा करना होता है, परन्तु लाभ के साथ| लाभ के साथ इसलिए ताकि
मार्केटिंग तंत्र को संचालित रखने के लिए उर्जा के रूप में ईंधन की अबाध आपूर्ति
होते रहे| मार्केटिंग इस तरह किया जाता है कि इसके लाभों से अधिकतम लोगो को लाभ
मिलें अर्थात इन उत्पादों का व्यापक प्रसार करना मार्केटिंग की मौलिक आवश्यकता है|
व्यापक प्रसार के लिए संसाधनों की अबाध आपूर्ति भी एक
आवश्यक शर्त है| संसाधनों में धन और सामाजिक समर्थन आवश्यक हो जाता है| इस तरह मार्केटिंग
प्रबंधन में एक कला एवं एक विज्ञान की तरह लक्षित बाज़ार का चयन करना होता है और
ग्राहकों को उच्चतर मूल्यों को उपलब्ध कराने, आपूर्ति करने तथा सम्प्रेषण करने के
लिए ग्राहकों को बनाना, बनाए रखना और उसमे वृद्धि करना शामिल है| मार्केटिंग
एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमे व्यक्तिगत एवं समूह अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की
पूर्ति कर पाता है| एक अच्छा विपणनकर्ता यानि मार्केटर
समाज को उच्चतर जीवन स्तर प्रदान करता है| बुद्ध को एक सफ़ल विपणनकर्ता कहा
जाना चाहिए जिन्होंने अपने उत्पादों का विश्व व्यापी प्रसार एवं प्रचार किया|
एक सफल विपणनकर्ता अपने उत्पादों
(विचारों, शिक्षाओं, सेवाओं) की आपूर्ति अपने लक्षित बाज़ार (समाज) को ध्यान में रख
कर करता है और उससे सूचना एवं संसाधन (धन) प्राप्त करता है| इसी मौलिक सिद्धांत पर
बाजार एवं विपणनकर्ता काम करता है| मार्केटिंग के शोधकर्ताओं के अनुसार मार्केटिंग के प्रवृति में विगत वर्षो में काफी बदलाव
आए हैं जैसे तकनीकी (Technology)
, वैश्वीकरण (Globalisation) और सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibility)| इन तीन परिस्थितियों को बुद्ध के सन्दर्भ में देखते हैं| बुद्ध का
कपिलवस्तु से राजगीर आना उनका तकनीक के प्रति आकर्षण ही था| उस समय राजगीर या
राजगृह मगध की राजधानी थी और यह कृषि तकनीक, औद्योगिक तकनीक, अध्ययन तकनीक एवं
सामाजिक प्रयोगों की तकनीक की प्रयोगशाला रही| आज के मार्केटिंग दार्शनिक यानि
शिक्षक बताते हैं कि आज सूचनाओं का युग नहीं रहा अपितु सूचनाओं के
प्रसार (Sharing Information is Power) का युग है| बुद्ध को जब ज्ञान की प्राप्ति हुई तो वे अपनी
ज्ञान (सूचनाओं) के प्रसार करने यानि बाँटने के लिए गया से सारनाथ पहुँच थे और बाद
में तत्कालीन दुनिया में इसे शेयर करना चाहा| वैश्वीकरण की नीति आज के शोधकर्ताओं के लिए एक नई खोज लग
सकती है, परन्तु बुद्ध ने तत्कालीन दुनिया के कई राज्यों एवं साम्राज्यों (भले ही
सब तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप में ही थे) तक इसे पहुचाया| इनकी वैश्वीकरण की नीति के कारण ही बाद के अनुयायी शासकों एवं
शिष्यों ने तत्कालीन दुनिया में पहुंचाया| यह उनकी वैश्वीकरण की समझ और परिणाम थी|
आज के कतिपय शोधकर्ताओं को सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR- Corporate Social Responsibility) एक नया मार्केटिंग अवधारणा
लगता है| बुद्ध ने इसकी आवश्यकता की पहचान उसी समय कर ली थी या कहें कि यह उस समय से
ही परम्परा रही|
यदि हम विपणन के सम्पूर्णता के अवधारणा (Holistic Marketing Concept) को देखे तो बुद्ध ने संबंधों का विपणन (Relationship Marketing), समन्वित विपणन (Integrated Marketing), आन्तरिक विपणन (Internal Marketing) एवं प्रदर्शन या उपलब्धि
विपणन (Performance Marketing) किया था जो आज एक आधुनिक
अवधारणा माना जाता है| बुद्ध ने सम्बन्धो के विपणन में आम जनता के साथ साथ राजाओं
एवं सम्राटों से मधुर सबंध बनाए| उन्होंने सम्बन्धो को बनाने एवं उसको बनाए रखने
पर विशेष ध्यान दिया| इन्होंने अपने समन्वित विपणन में विपणन के सभी पहलुओं और
पक्षों को ध्यान में रखकर एक समेकित नीति बनाई थी| उसने जीवन के सभी पक्षों को
ध्यान में रखा| विपणन के आतंरिक हिस्से में उन्होने संघ की स्थापना एवं संचालन किया| प्रदर्शन या उपलब्धि विपणन हर विपणन का
लक्ष्य और प्राप्ति होता है| इसी से विपणन के सफलता का स्तर जाना जाता है|
किसी भी विपणन यानि मार्केटिंग के चार अंतर्दृष्टि (Marketing Insight) (चार आर्य सत्य) होता है- 1. स्वीकार्यता (Acceptability) –बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं के लिए
कोई औपचारिकता नहीं रखी| इसमे कोई कर्मकांड या पाखण्ड या ढोंग को कोई स्थान नहीं
दिया जिससे उनकी स्वीकार्यता काफी बढ़ी हुई थी| 2.सामर्थ्यता (Affordability) – इसका खर्च को कोई भी वहन कर
सकता था क्योंकि इसमे कोई खर्च की कोई शर्त ही नहीं थी| 3.
अभिगम्यता (Accessibility) – अभिगम्यता का अर्थ पहुँच से है|
इनकी शिक्षाओं की पहुँच सभी – स्त्री एवं पुरुष, राजा एवं प्रजा, गरीब एवं अमीर,
निम्न वर्गीय एवं उच्च वर्गीय या समाज के किसी भी स्तर के लोग हो, तक थी| 4.
जागरूकता (Awareness) – इन्होंने अपनी शिक्षाओं के
प्रति सभी वर्गों के लोगो में जागरूकता लायी| यही कारण है कि एक वेश्या, एक दस्यु
या इन्ही के समतुल्य अन्य की भी पहुँच इन तक रही थी|
विचारों एवं शिक्षाओं के सफल
प्रचार एवं प्रसार (मार्केटिंग) के लिए इन्होंने संघ का निर्माण किया ताकि हर
क्षेत्र में इनके शिक्षाओं का प्रचार एवं प्रसार हो सके| संघ विमर्श का भी एक
केंद्र होता है| संघ में बदले हुए काल एवं संस्कृति के अनुरूप इन शिक्षाओं के
स्वरुप पर विमर्श कर यथावश्यक संशोधन होता रहता था| सभी जनों के लिए आष्टाँगिक मार्ग का सिद्धांत दिया, परन्तु परिव्राजकों (सेल्समेन)
के लिए दस पारमिताएं का अतिरिक्त सिद्धांत दिया| बुद्ध का मानना था कि प्रचारकों
को आदर्श व्यवहार का होना चाहिए क्योंकि लोग
उन्हें ही प्रथमत: पालनकर्ता का आदर्श मानते हैं| वैसे भी माना जाता है कि सेल्समैन का सामान बाद में बिकता है, पहले खुद सेल्समैन
बिकता है अर्थात सेल्समैन को आकर्षक एवं नैतिक
व्यक्तित्व का होना चाहिए ताकि उसको हर जगह एवं हर समाज में प्रवेश मिल
सके| इसी के निमित्त इन्होंने इन्हें शील का पथ या सद्गुणों का मार्ग
बताया| उन्होंने समझाया कि शील के पथ का पथिक होने का अर्थ है इन दस सद्गुणों का
सम्यक अभ्यास करना| ये सद्गुण हैं- शील, दान, उपेक्षा, नैष्क्रम्य, वीर्य,
शान्ति, सत्य, अधिष्ठान, करुणा, मैत्री|
1. शील का अर्थ हुआ
कि परिव्राजकों में नैतिकता हो तथा बुराई करने में लज्जा भय रहे| अच्छा कार्य करने
की प्रवृति तथा बुरा कार्य नहीं करने की प्रवृति शील में ही शामिल है| लज्जा-
भय के कारण पाप से बचे रहने की प्रयास करना ही शील है| नैतिकता – अनैतिकता का
विवाद समय एवं संसाधन की बरबादी है| अत; ऐसे कामों से बचा ही रहना चाहिए जो
अनावश्यक विवाद में घसीटता हो|
2. नैष्क्रम्य का अर्थ है सांसारिक काम- भोगों का त्याग यानि परिवार
आदि के बंधन से मुक्त रहना| सांसारिक काम-भोगों की अधिकता को ही व्यभिचार माना
जाता है और इसलिए इसका सर्वथा त्याग ही परिव्राजकों के लिए अनिवार्य कर दिया गया
है| ऐसा व्यक्ति सदैव अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहता है|
3. दान का अर्थ
होता है बदले में किसी भी प्रकार की स्वार्थ- पूर्ति के आशा के बिना दूसरों की
भलाई के निमित्त अपनी संपत्ति का ही नहीं, अपने रक्त, अंग या प्राण तक का भी दान
करना| अर्थात एक परिव्राजक का अपना कुछ भी नहीं होता, उसका सभी कुछ समाज के लिए
सदैव समर्पित होता है| निश्चित ही ऐसे व्यक्ति का सभी सुनते एवं सम्मान करते
हैं| संभावित ग्राहकों से सम्मान पाना और अपनी बातों को सुनाने के लिए संभावित
ग्राहकों को तैयार कर लेना ही पहली सफलता होती है| ऐसे दानी की छवि वाले को अपनी
बात रखने और सुनाने का अवसर अवश्य मिलता है|
4. वीर्य का अर्थ
होता है सम्यक प्रयत्न| इसके अनुसार जो कुछ एक बार करने का निश्चय कर
लिया अथवा जो कुछ करने का संकल्प कर लिया गया, उसे पूरा करने में अपना सामर्थ्य
लगा देना ही वीर्य कहलाता है| यदि किसी ने एक बार परिव्राजक बनाने का निर्णय
ले लिया तो उसमे परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए| पालि के इस शब्द का संस्कृत में
अर्थ विकृत कर शुक्राणु के पर्यायवाची कर दिया गया और इसी कारण सामान्य लोगों को
इसे समझने में कठिनाई होती है|
5. शान्ति का अर्थ क्षमा-
शीलता से लिया जाता है| घृणा से अर्थात घृणा करके घृणा को नहीं मिटाया जा सकता
है| यह सभी जीवों के लिए लागू होता है पर परिव्राजको के लिए पारमिता की सूचि में
रखा गया है| क्षमा शीलता से ही घृणा का नाश या घृणा को समाप्त किया जा सकता है|
मार्केटिंग के लिए लक्षित कोई भी उपभोक्ता
यानि संभावित ग्राहक घृणा का पात्र नहीं होता| क्षमा- शीलता से हर तरह का ग्राहक
आपकी उपयोगिता बढा देता है यानि आपको लक्ष्य पाने में आपका सहायक होता है|
7. अधिष्ठान का अर्थ अपने उद्देश्य तक पहुँचने यानि अपने लक्ष्य को पाने का दृढ़ निश्चय करना होता है| जहाँ वीर्य सम्यक प्रयत्न करने से सम्बन्ध रखता है, वही अधिष्ठान सम्यक लक्ष्य से सम्बन्ध रखता है| हर परिव्राजक से यह उम्मीद की जाती है कि प्रत्येक अपने प्रचार- प्रसार (मार्केटिंग) के लक्ष्य को प्राप्त करे|
8.
करुणा का अर्थ होता है सभी के
प्रति प्रेमभरी दया का भाव| करुणामयी व्यक्ति लम्बे दौड़ में अपनी पहचान बना
लेता है| करुणामयी व्यक्ति एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी होता है| करुणा
का भाव उसके आँखों एवं व्यवहार से झलकता है| एक करुणामयी सेल्समैन अपने ग्राहकों
से समानुभूति (Empathy) ही नहीं रखता, अपितु ग्राहकों की स्थिति के अनुसार उसे
आस्थगित मूल्यों या किश्तवार मूल्यों की सुविधाये भी उपलब्ध करा कर अपना लक्ष्य
प्राप्त करता है और संगठन को लाभ पहुंचाता है|
9. मैत्री का अर्थ
होता है सभी प्राणियों के प्रति भाई चारे का भाव रखना| यह भाव मित्रो के
अतिरिक्त शत्रुओं के प्रति भी समान रूप से होना चाहिए| मित्र हो या शत्रु ,
उत्पादों के संभावित ग्राहकों के रूप में सभी समान रूप में मूल्यवान एवं
महत्वपूर्ण हैं| इसीलिए एक परिव्राजक को सभी के प्रति समान मैत्री भाव रखना चाहिए|
एक सेल्समैन को यह भाव रखना उसके लिए आवश्यक होता है| हर व्यक्ति एक संभावित
ग्राहक है|
10. उपेक्षा का अर्थ है अनासक्ति|
यह चित्त यानि मनोभाव की वह अवस्था है जिसमे प्रिय या अप्रिय कुछ नहीं होता| परिणाम
कुछ भी हो, उसकी ओर से निरपेक्ष रहना ही उपेक्षा है| यह किसी के सुख- दुःख के
प्रति निरपेक्ष भाव रखने से सर्वथा भिन्न वस्तु है| एक परिव्राजक को एक निश्चित
परिणाम की आशा किए बिना ही सभी के पास जाना चाहिए| एक सेल्समैन से भी यही आशा की
जाती है कि वह किसी भी परिणाम की आशा किए हर संभावित ग्राहक के पास जाए| कहा जाता
है कि यदि आप किसी दस व्यक्ति के पास जाते हैं और किसी एक व्यक्ति को अपना उत्पाद
लेने को राजी कर पाते हैं तो आप एक सफल सेल्समैन हैं|
मैं भी उपरोक्त दसों बिन्दुओं को एक सेल्समैन के लिए आवश्यक
गुण मानता हूँ| एक परिव्राजक बुद्ध की शिक्षाओं यानि विचारों का प्रचार- प्रसार कर
रहे थे, उसी तरह एक सेल्समैन अपने किसी भी उत्पाद का विपणन (Marketing) कर सकते हैं|
इन्होंने विचार एवं दर्शन और
शासनात्मक नीतियों एवं आयोजनाओ के सम्यक प्रचार और प्रसार के लिए मार्केटिंग
प्रबंधन का सिद्धांत दिया जो आज भी उपयुक्त है और अध्ययन का विषय है| केलौग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के मार्केटिंग प्रबंधन के प्रोफेसर फिलीप
कोटलर भी विचारों और नीतियों के मार्केटिंग प्रबंधन सिद्धांत दिए हैं जो इसी दर्शन
पर आधारित कहा जा सकता है| बुद्ध का ही सफल मार्केटिंग
प्रबंधन था जिसके कारण इनके दर्शन को जनता और शासकों का अपार समर्थन मिला और बाद
में इसी के आधार पर विश्व को प्रभावित किया| आज जब बेहतर
मार्केटिंग प्रबंधन के सिद्धांतों का अवलोकन एवं अध्ययन किया जाता है तो बुद्ध के
दर्शन के मार्केटिंग प्रबंधन से काफी समानता मिलती है जो एक अलग अनुसंधान का विषय
है| इस तरह बुद्ध को मार्केटिंग प्रबंधन के प्रथम
सिद्धांतकार कहा जाना चाहिए|
वर्तमान अर्थव्यवस्था के चौथे और पंचक क्षेत्रक को जानने के
बाद यह बड़े गर्व के साथ कहा जा सकता है कि बुद्ध
का स्तर इन वर्तमान चौथे और पंचक क्षेत्रक पर रहा था| इन्होंने ज्ञान
और सूचनाओं को नए तरीके से व्याख्यापित किया| नव निर्माण पर केन्द्रित हो कर मन की
क्रियाविधि को उद्घाटित किया| आत्म- अवलोकन, आत्म- केन्द्रण, आत्म- परिक्षण विधियों
का पदार्पण नए तकनीकों के उपयोग और मूल्यांकन पर आधारित था| वे तत्कालीन कई
दार्शनिकों के सानिध्य में रहकर जो सिखा, उनके पुनर्विन्यास और पुनर्गठन से कई नए सिद्धांत
दिए जो नव उदित नगरीय समाजों और नव उदित राज्यों के सम्यक विकास के लिए महत्वपूर्ण
था जिसे जानने और सिखने के लिए ही तत्कालीन दुनियाँ के विभिन्न क्षेत्रों से कई
विद्वान् भारत भूमि आए और रहकर ज्ञान अर्जित किया|
निरंजन
सिन्हा,
व्यवस्था
विश्लेषक एवं चिन्तक
(निरंजन
सिन्हा की प्रकाशनाधीन पुस्तक – “बुद्ध: दर्शन एवं
रूपांतरण” से)
.... सूक्ष्म एवं सम्यक विश्लेषण..... बुद्ध समय सीमा से काफी आगे थे।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया। विचारोत्तेजक।
जवाब देंहटाएंबेहतर
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन लेख.. बिल्कुल नये तथ्यों और अवधारणाओं के साथ.. धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंहिरेन्द.....समय से आगे का नाम बुद्ब.......
जवाब देंहटाएं