संस्कृति और आष्टांगिक मार्ग
संस्कृति जीवन जीने की विधि है| संस्कृति मानव जनित एक मानसिक पर्यावरण है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढी से दूसरी पीढी को प्रदान करते हैं| संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर संप्रेषण करते हैं, विचार करते हैं, और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं| किसी देश या समाज की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है| यह किसी समाज में गहरार्इ तक व्याप्त गुणों की समग्रता है जो उस समाज के सोचने, विचारने, और कार्य करने से बना है| इसकी अभिव्यक्ति इनके साहित्य, प्रगति, स्तर, व्यवहार, कार्य, आनन्द आदि के तरीकों से दृश्य (visible) होती है| संस्कृति का संबंध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है और उसका निवास उसके मानस में होता है| हम कह सकते हैं कि संस्कृति मानवीय समाजों में पाए जाने वाले सामाजिक व्यवहार और सामाजिक प्रतिमान (norm, model, pattern) है| यह पीढी दर पीढी सीखी जाती है|
भारतीय उपमहाद्वीप में सभ्यता के उदय के साथ जिस संस्कृति का उदय
हुआ और जिसमें भारतीयता रची बसी है, वही भारत की बौद्धिक संस्कृति है| यही भारत की मूल
संस्कृति है|
विश्व
की कर्इ सभ्यताओं - माया, ह्वांगहो नदी, दजला फरात नदी, नील नदी एवं सिन्धु नदी की धाटी की
सभ्यताओं के साथ गंगा - यमुना नदी की घाटी की सभ्यता का भी उदय हुआ| मानव (होमो सेपिएंस) अपनी उत्पत्ति के साथ आखेटन करने लगा| सबसे पहले आखेटक (Hunting) संस्कृति (अर्थव्यवस्था)
विकसित हु़ई| इसके बाद पशुचारण संस्कृति (अर्थव्यवस्था) का
विकास हुआ| पशुचारण संस्कृति से कृषि संस्कृति का विकास हुआ|
इसके बाद बौद्धिक संस्कृति आयी जिसे बुद्धि की
संस्कृति भी कही गयी| पशुचारण संस्कृति में पारिवारिक व्यवस्था का उदय हुआ और मजबूत हुआ|
कृषि संस्कृति में परिवार समाज की ओर अग्रसर हुआ| कृषि संस्कृति में जब अतिरेक उत्पादन (Surplus Production) हुआ तो नगर, शिल्प एवं सेवाओं के विकास को आधार मिला
और समाज एवं राज्य का उदय हुआ| समय के साथ समाज एवं राज्य के
बेहतर वर्त्तमान एवं भविष्य के विकास के लिए बेहतर दर्शन की आवश्यकता हु़ई|
तत्कालीन कई विद्वानों और दार्शनिकों ने अपने ज्ञान एवं समझ के आधार
पर कई दर्शन तैयार किए| कहा जाता है कि भारत में राज्यों के
उदय के समय में कुल 62 दर्शन प्रचलित थे| सबसे उत्तम दर्शन उसे माना गया जो समाज में सुख, शांति, और समृद्धि स्थापित
करें| इसके लिए दर्शन को न्याय, समानता,
स्वतंत्रता, और बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए,
परन्तु इसका मार्ग अति गंभीर, अति कष्टकारी,
अति विशिष्ट, और अति जटिल नहीं हो| यह बुद्धि पर आधारित होने पर बौद्धिक संस्कृति कही गयी|
इन सबमें सबसे व्यवस्थित,
व्यवहारिक, वैज्ञानिक, तार्किक,
कल्याणकारी, विकासवादी और मानवतावादी दर्शन
बुद्ध का रहा है; कालान्तर में यह दर्शन और अधिक विशद एवं
बारीक होने लगा| बुद्ध का दर्शन मूल भारतीय दर्शन है क्योंकि यह दर्शन सभी भारतीय दर्शनों
के मंथनों के उपरान्त निकला निष्कर्ष- दर्शन है और पूर्णतया भारतीय परिस्थितियों
में भारतीयों के सबसे अनुकूल दर्शन है| यह सफल जीवन जीने के लिए सभी मानव का जीवन दर्शन है| विश्व में आज जितनी भी संस्कृतियाँ विकसित हैं, सभी
प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: बुद्ध के दर्शन एवं शिक्षाओं पर आधारित है| अत: मैंने भारत के मूल एवं मौलिक
संस्कृति को वैज्ञानिक अवधारणाओं के आधार
पर उपस्थापित कर व्याख्यापित करने का प्रयास किया है| इसी को विकासवादी विज्ञान भी
कहते हैं| यही आधुनिक विज्ञान का पौराणिक स्वरुप है|
बौद्ध दर्शन दरअसल बुद्धि के विकास
के दर्शन की परम्परा है जो सभ्यता के विकास के साथ शुरू हुई थी|
सिन्धु घाटी सभ्यता भी बौद्ध दर्शन के साक्ष्य देते है| सिन्धु नदी घाटी सभ्यता में बौद्ध
विहार, बौद्ध मठ, पोशाक- विन्यास,
प्रार्थना- शैली, योग मुद्रा, पीपल पत्र, धर्म चक्र इत्यादि के साक्ष्य स्पष्ट
करते हैं कि बुद्धि यानि बुद्ध की परम्परा भारत में शुरू से ही रही है| उस समय के धर्म चक्र में छः तीलियाँ थी जो बुद्ध के समय आठ तीलियाँ हो गई|
बुद्ध मानवता को सम्यक मार्गदर्शन
देने के लिए ही जाने जाते हैं| संसार के इतिहास में इससे पहले कभी किसी ने यह शिक्षा नहीं
दी कि अविद्या ही सब दुखों का कारण है| अधिकांश विद्वान मानते हैं कि नव
उदित समाज (नगरीय समाज) और नई राजनीतिक संस्था- राज्य के समुन्नत विकास के लिए भी
एक सम्यक विकास एवं समृद्धि का दर्शन चाहिए था| मानव जीवन से
दु:खों के निवारण के उपाय चाहिए ताकि मानव जीवन में और समाज में सुख, शांति, और समृद्धि स्थापित हो| बुद्ध ने इसके लिए जीवन में सामान्य आचार संहिता निर्धारित किया गया जो
आष्टांगिक मार्ग के नाम से जाना जाता है| इन्हीं सामान्य
आचार संहिता में आष्टांगिक मार्ग आता है| यही सम्यक मार्ग और
मध्यम मार्ग कहलाता है| इसमें कुल आठ मार्ग हैं जिन्हें
समुचित (सम्यक) बताया गया है|
1.सम्यक दृष्टि - आदमी को प्रकृति
(विज्ञान) और मानवीय-सामाजिक संबंधों के नियमों को जानने और समझने के लिए सम्यक
दृष्टिकोण रखना चाहिए| जब तक आदमी में वैज्ञानिक
मानसिकता का विकास नहीं होगा, तब तक आदमी में सम्यक दृष्टि
की समझ नहीं आएगी| सम्यक दृष्टि के लिए सम्यक ज्ञान अर्थात
सम्यक विद्या का होना अत्यन्त आवश्यक शर्त है| अविद्या के
नाश से ही सम्यक दृष्टि के लिए क्षमता आती
है| विद्या से ही विश्लेषण क्षमता, तर्क
क्षमता, निष्कर्ष क्षमता,अनुमान क्षमता
और परिक्षण क्षमता आता है जिससे ही सम्यक दृष्टि विकसित होती है| ऐसे लोगों की सत्य- असत्य,
उचित- अनुचित, सदाचार- दुराचार, अच्छे कर्म एवं बुरे कर्म में विभेद करने की क्षमता बढ़ती है| बुद्ध का सम्यक दर्शन की सम्पूर्ण ज्ञान एवं समझ ही किसी व्यक्ति को सम्यक
दृष्टि प्रदान कर सकता है|
एक
सम्यक दृष्टि का व्यक्ति अंधविश्वास, ढोंग,
पाखण्ड और अनावश्यक कर्मकांड से मुक्त होता है| वह हर सोच एवं विचार का विश्लेषण करने औए तार्किक ढंग से देखने एवं समझने
का नजरिया एवं क्षमता रखता है| वह हर घटना का कारण को जानता
है या जानने की कोशीश करता है अर्थात वह
यह समझता कि हर घटना का कोई न कोई कारण अवश्य होता है| वह
प्राकृतिक शक्तियों और उसके व्यक्तिकरण (Personofication) किए
गए के स्वरुप के स्वार्थ को यानि देवी- देवताओं के नाम पर किए साजिश को एवं स्वार्थ को समझता है| अर्थात वह ईश्वर में विश्वास नहीं करता है| वह
काल्पनिक और कल्पना आधारित बातों पर भी विश्वास नहीं करता| वह
आत्मा, पुनर्जन्म, और कर्म के सिद्धांत
में विश्वास नहीं करता है| वह परिवर्तन के नियमों को जानता
और समझता हो| वह मानव और प्रकृति के स्वाभाव एवं व्यवहार को
समझता हो| वह सभी चीजों को जानना एवं समझना चाहता हो|
वह हमेशा विद्या ग्रहण को उत्सुक रहे| सम्यक
दृष्टि एक व्यापक वैज्ञानिक, तार्किक एवं विश्लेष्णात्मक
दृष्टिकोण को समाहित करता है|
2.सम्यक संकल्प – इनके अनुसार लक्ष्यहीन मानव का जीवन
पशुतुल्य है| हर मानव के जीवन में एक निश्चित
लक्ष्य अवश्य हो जिसे प्राप्त करने का मापदण्ड उसे दिखता रहे| लक्ष्य अर्थात संकल्प से उसे
प्रेरणा मिलती रहती है| हर मानव का संकल्प उँचे स्तर की आकांक्षाओं के अनुरुप हो
जो मानव के कल्याणार्थ हो और संकल्प दृढ भी हो| सम्यक संकल्प
को राग-द्वेष रहित एवं दुसरे से तुलनात्मक नहीं हो अर्थात प्रतियोगात्मक नहीं होना
चाहिए| संकल्पहीन व्यक्ति पतवार (Rider) विहीन नाव (बोट) के समान दिशाहीन होता है जो चलता तो है पर मंजिल का पता
नहीं होता| ऐसे ही नाव की तरह संकल्पहीन या सम्यक संकल्प के बिना
व्यक्ति का जीवन दिशाहीन हो जाता है|
हर
मानव का संकल्प ऐसा हो जिससे समाज में सुख, शान्ति,
संतुष्टि और समृद्धि स्थापित होता रहे| सम्यक
संकल्प से किसी को न्याय की हानि नहीं हो|
ऐसे संकल्प से प्राप्त लक्ष्य में हर्ष, प्रेम, सुख, संतुष्टि और
शान्ति मिला हुआ होता है| आजकल सम्यक संकल्प को स्मार्ट (SMART)
संकल्प कहा जाता है अर्थात संकल्प विशिष्ट (Specific) होना चाहिए, मापने योग्य (Measurable) होना चाहिए, पाने योग्य (Achievable) होना चाहिए, वास्तविक (Realistic) होना चाहिए, और संकल्प समयबद्ध (Time- bound) होना चाहिए|
विशिष्ट का अर्थ है संकल्प (लक्ष्य) को परिभाषित होना चाहिए,
न कि अपरिभाषित| विशिष्ट का अर्थ होता है
लक्ष्य सामान्य या अस्पष्ट नही हो,
बल्कि सभी को समझने योग्य हो| संकल्प मापने
योग्य हो अर्थात यह मापा जा सके कि कब कितना लक्ष्य पूरा हुआ है और कितना भाग या
प्रतिशत और होना बाकी है| संकल्प पाने योग्य होना चाहिए
परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि “आउट ऑफ़ बॉक्स” सोचा ही नहीं जाना चाहिए| सोचना और संकल्प अलग अलग की अवस्था है| सोचना एवं
विचार करना संकल्प की पूर्व अवस्था है| संकल्प वास्तविक एवं
व्यवहारिक होना चाहिए यानि विधिपूर्ण एवं नैतिक होना चाहिए| निश्चित
समय सीमा के बिना संकल्प का कोई अर्थ नहीं होता है| हर
संकल्प के लिए एक निश्चित समय सीमा निर्धारित होना चाहिए| इससे
संकल्प से भटकाव नहीं होता| पहले संकल्प पूरा होने पर ही
दूसरा संकल्प किया जाना चाहिए| निश्चित समय सीमा से पहला
संकल्प जल्दी पूरा होता है और संसाधन एवं समय का बचत होता है|
3.सम्यक वाणी -
वाणी ही विचारों एवं भावनाओं की सम्प्रेषण का माध्यम है और यही किसी के व्यक्तित्व
की पहचान का प्राथमिक आधार बनता है| कहा
जाता है कि किसी व्यक्ति की वाणी ही किसी को सम्मान दिलाती है तो किसी को अपमान भी
दिलाती है| सम्यक वाणी में सहृदयता, विनम्रता,
मधुरता का होना भी सही एवं तथ्यात्मक होने के अतिरिक्त होना चाहिए|
इसे बुद्ध ने धम्म- वार्ता भी कहा है| अत: यह
बुद्धिसंगत हो, सौम्य हो, सार्थक हो,
सोद्देश्य हो, कल्याणकारी हो और सत्य हो|
सम्यक
वाणी में सत्यता होनी चाहिए परन्तु मधुरता का अभाव नहीं होना चाहिए|
आप कितना भी ज्ञानी हो, आपके वाणी में शिष्टता
और सौम्यता अवश्य होनी चाहिए| आपके वचनों से कठोरता, अभद्रता, अशिष्टता और दुर्व्यवहार नहीं झलकनी चाहिए|
आपकी बातों में वकवास यानि व्यर्थ और फिजूल की बातें नहीं होनी
चाहिए| आपकी बातें ऐसी नहीं हो कि उससे अव्यवस्था एवं शान्ति
भंग हो जाए| मूर्खतापूर्ण बहस यानि बेमतलब के विमर्श से बचना
चाहिए| अपनी बातों पर यह ध्यान रहना चाहिए कि बाते
बुद्धिमतापूर्ण हो, उत्पादक हो, कल्याणकारी
हो| एक सम्यक व्यक्ति किसी व्यक्ति एवं घटनाओं के बारे में विवरण यानि विस्तार बताने में कम
समय देता है| वह दुसरे व्यक्तियों की कम से कम आलोचना करता
है|
यह
विज्ञान है कि जब आप किसी बात को बोलते हैं तो आप उस वस्तु या भावना का अपने
मष्तिष्क में चित्रण करते हैं| कोई भी चीज जब आपके
मष्तिष्क में आती है यानि उसका चित्र आपके मष्तिष्क में बनता है तो उस चित्रण में
उर्जा का प्रवाह शुरू हो जाता है| उर्जा के प्रवाह से चित्रण
की प्रवृति उस चित्रण को साकार यानि मूर्त रूप लेने की हो जाती है| वाणी के शब्दों के भाव कितना महत्वपूर्ण होता है, इसे
मैं एक उदहारण से समझाना चाहता हूँ| महान संत मदर टेरेसा
कलकत्ता में रहती थी| एक व्यक्ति उन्हें एक युद्ध- विरोधी
रैली में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने गया था| उसने
युद्ध- विरोधी रैली में शामिल होने से मना कर दिया, पर एक और
बात उससे कहा| उस महान संत ने कहा यदि तुम शान्ति के समर्थन
में रैली निकलना तो मुझे जरुर बुलाना| पहली बात में दो
नकारात्मक बाते थी- यद्ध एवं विरोध| परन्तु दूसरी बात में
दोनों शब्द सकारात्मक थे- शान्ति एवं समर्थन| यह उपयुक्त
शब्दों की महता को रेखांकित करता है| किसी व्यक्ति के वाणी
से ही उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का दर्शन एवं पहचान होता है और इसी कारण वाणी का
सम्यक, संतुलित एवं बुद्धिमतापूर्ण होना आवश्यक होता है|
4.सम्यक कर्मान्त – अच्छे कर्म,
अच्छे आचरण, और अच्छे व्यवहार को सम्यक
कर्मान्त या सम्यक कर्मांक कहा गया है| यह योग्य व्यवहार की
शिक्षा देता है| इसके अंतर्गत अहिंसा एवं सदाचार के नियमों
का पालन बताया गया है| हमारा हर कार्य ऐसा हो कि जिसको करते
समय हमें दूसरो की अधिकारों एवं भावनाओं का ध्यान रहे| इसमें
दुसरे के प्रति सहानुभूति (Sympathy) के साथ साथ समानुभूति (Empathy)
भी होनी चाहिए| इसी में संवेगात्मक यानि
भावनात्मक बुद्धिमता (Emotional Intelligence) के साथ साथ
सामाजिक बुद्धिमता (Social Intelligence) का भी ध्यान रखना
चाहिए अर्थात दूसरों एवं समाज की भावनाओं की समझ के साथ साथ अपनी भावनाओं की पहचान
एवं इस पर नियंत्रण होना चाहिए| आज सामाजिक बुद्धिमता को
सफलता का नया विज्ञान बताया जाता है| सामाजिक बुद्धिमता
वास्तव में जीवन में सफलता पाने का कला
एवं विज्ञान है| इसी को बुद्ध ने सम्यक कर्मान्त कहा था|
यह आज नए शब्दों के साथ सामाजिक एवं भावनात्मक बुद्धिमता कहलाता है|
हमारे हर कर्म (कार्य,
व्यवहार) से दूसरों का अहित नहीं हो और समाज में सुख, शान्ति, एवं समृद्धि स्थापित हो| आधुनिक युग में इसकी महत्ता समझी जा रही है| आज समाज
अपने क्षेत्र से बाहर निकल कर एक विश्वव्यापी सघन समाज का एक हिस्सा हो गया है|
विभिन्न समाजो एवं विभिन्न संस्कृतियों को समझना और उसको नेतृत्व
देना आज सफलता का एक आवश्यक शर्त हो गया है जो सम्यक कर्मान्त को समझने से ही समझा
जा सकता है| इन दोनों (भावनात्मक एवं सामाजिक बुद्धिमता) को
ही समेकित रूप में सम्यक कर्मान्त कहा गया है|
5.सम्यक आजीविका -
प्रत्येक आदमी को अपने पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिए
आजीविका चलानी पडती है, जो आवश्यक भी है| परन्तु यह ध्यान रखना है कि उस आजीविका से समाज और व्यवस्था को हानि नहीं
हो और आजीविका मानवीय गरिमा के विरुद्ध नहीं है| अपनी जीविका
चलाने के लिए कोई अनैतिक कार्य नहीं करना चाहिए, हर आजीविका
विधि से सुसंगत होना चाहिए, कोई भी आजीविका समाज या व्यवस्था को अव्यवस्थित करने या भंग
करने वाला नहीं हो| आपके आजीविका से किसी दुसरे को हानि नहीं
होना चाहिए और आपके या किसी अन्य के मानवीय गरिमा एवं सम्मान के विरुद्ध भी नहीं
होना चाहिए|
किसी
भी व्यक्ति को वैसी ही आजीविका को चुनना चाहिए जिसे करने उसे आनंद आता हो|
किसी भी व्यक्ति को ऐसा आजीविका नहीं चुनना चाहिए जो उसे यह पसंद
नहीं हो और दुसरे के द्वारा आपकी इच्छा के विरुद्ध थोपा गया हो| ऐसे थोपे गए आजीविका से कोई भी व्यक्ति अपनी महत्तम क्षमता का उपयोग नहीं
कर पाता और वह समाज को पूर्ण उत्पादकता से योगदान नहीं कर पाता है| ऐसे आजीविका से किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का महत्तम विकास नहीं हो
पाता है| मन के विरुद्ध आजीविका करने में कोई भी व्यक्ति
बहुत जल्दी ही थक और उब जाता है| मन पसंद आजीविका में कोई भी
व्यक्ति काम नहीं करता हुआ होता है, बल्कि अपने मनपसंद के
काम में आनंदित होता रहता है| जो अपनी इच्छा के विरुद्ध
आजिविका करता है, चूँकि वह काम करता हुआ होता है और इसीलिए वह काम से थक भी जल्दी जाता है|
सम्यक आजीविका का यह सबसे महत्वपूर्ण बात है जिस पर लोग सबसे कम
ध्यान देते हैं|
6.सम्यक व्यायाम – व्यायाम का सामान्य
अर्थ अभ्यास होता है| सम्यक व्यायाम का
अभिप्राय है कि नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए ज्ञानयुक्त प्रयत्न या प्रयास
या अभ्यास करना है| अविद्या को नष्ट करने के प्रयास को ही
सम्यक व्यायाम कहा जाता है| सम्यक व्यायाम के चार अवस्था है|
पहला, आष्टांगिक- मार्ग विरोधी चित्त-
प्रवृतियों की उत्पत्ति को रोकना| दूसरा, ऐसी चित्त- प्रवृतियों को दबाना जो उत्पन्न हो गई हो| तीसरा, ऐसी चित्त- प्रवृतियों को उत्पन्न करना,
जो आष्टांगिक- मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हो| चौथा एवं अंतिम, ऐसी उत्पन्न चित्त- प्रवृतियों में और
भी अधिक वृद्धि करना तथा उनका विकास करना|
इसी के अंतर्गत अहंकार,
क्रोध, ईर्ष्या, आदि
तृष्णाओ का दमन करना माना गया है| मन (चित्त) और मस्तिष्क
(विचार) स्वस्थ्य शरीर में ही वास करता है| मन एवं शरीर को
स्वस्थ्य रखने के लिए किया गया प्रयास, कर्म और गतिविधि सम्यक
व्यायाम है| इन्हें मात्र सैद्धांतिक तौर पर पढ़ने से जीवन
में सफलता का मिलना शुरू नहीं होता है, अपितु उसका सम्यक
अभ्यास अर्थात सम्यक व्यायाम से ही इसे अपने जीवन में उतर कर सफलता पाई जा सकती है| हर व्यक्ति अपने अचेतन अर्थात
आदत से संचालित होता है| आदत में परिवर्तन करने के लिए सजग
एवं सतत प्रयास कर अपने अचेतन स्तर पर बदलाव करना होता है| एक
बार अचेतन स्तर पर बदलाव हो जाता है तो आदत में बदलाव हो जाता है| आदत में परिवर्तन होते ही सब कुछ अपने आप ही होने लगता है| जीवन में हर महत्वपूर्ण को सीखने के लिए सम्यक प्रयास यानि सम्यक व्यायाम
करना होता है| यह अभ्यास तैरना सीखने या किसी स्वचालित वाहन
को चलाने सीखना जैसा है जिसे प्रारम्भ में प्रयास कर अभ्यास करना होता है| फिर वह तैरने एवं वाहन चलने में अभ्यस्त हो जाता है|
7.सम्यक
स्मृति (सति) –
स्मृति का अर्थ होता है याद रखना यानि चेतन अवस्था पर किसी चीज को ध्यान में रहना|
यह मन की सतत जागरूकता का दूसरा नाम है| आदमी
को विचारों के मस्तिष्क और मन में प्रवेश के लिए सजग चौकसी करनी पडती है| यदि एक व्यक्ति स्मृति में आए विचार की सचेतन चौकसी नहीं करेगा तो उस
व्यक्ति के अचेतन में बेकार एवं फ़ालतू विचारों का जंगल फ़ैल जाएगा| विचार ही आदमी के अचेतन में बैठकर आदमी को संचालित करता रहता है| इसीलिए कल्याणकारी एवं विकासवादी बातों को ही स्मृति में रखा जाना चाहिए
और बेकार, अनुत्पादक, अकल्याणकारी
विचारों के अचेतन मस्तिष्क में प्रवेश की सजग एवं सतत चौकदारी करनी पड़ती है|
यह
धम्म का सबसे महत्वपूर्ण भाग है| बौद्ध दर्शन में
धम्म की परिभाषा में बताया गया है – धारेति ति धम्मों| जो
धारण करने योग्य है वही धम्म है| अर्थात जो कुछ भी किसी का
गुण है, स्वभाव है, वही उसका धम्म है|
पानी का धम्म है शीतलता प्रदान करना, सतह पर
बह जाना, पात्र में रखे जाने पर पात्र का स्वरुप को ग्रहण कर
लेना| इसी तरह जो मानव को धारण करने योग्य गुण या स्वाभाव है,
वही मानव का धम्म है| मानव का यह गुण एवं
स्वभाव उसके सम्यक स्मृति से ही आता है| मानव प्रबुद्ध बने,
कल्याणकारी बने, और अन्य ऐसे ही उपयोगी गुणों
एवं स्वभावों से सम्पन्न बने, यह मानव के सम्यक स्मृति से होता है| यही मानव का
धम्म है|
आज
का विज्ञान का कहता है कि आप जिस भी चीज पर ध्यान देते है,
उस पर आप उर्जा का प्रवाह सुनिश्चित करते है और इस तरह उसमे ऊर्जा
बढ़ाते हैं| उर्जा मिलने से सभी चीजे बढती है| इसी तरह स्मृति में आए अनावश्यक एवं फिजूल की बातों पर ध्यान देकर उसे
नहीं हटाने से इन बातों को ही उर्जा मिलती है और ये ही बातें मस्तिष्क यानि चेतन
एवं अचेतन में बढती जाती है| इन अनुत्पादक, फजूल, बेकार की बातों और विचारों पर ध्यान देकर इनकी
उर्जा प्रवाह को रोक कर ही सम्यक स्मृति बनाई जा सकती है| इसके
लिए सम्यक व्यायाम करने से ऐसा करने की आदत बन जाती है और हम बिना मिहनत किए ही इन
बेकार, फालतू एवं अनुत्पादक बातों को अचेतन में जाने से रोक
देते हैं| यह आदत निर्माण में बहुत ही महत्वपूर्ण है|
8.सम्यक समाधि –
समाधि का अर्थ होता है केवल चित्त की एकाग्रता| एक
व्यक्ति को जो सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक
आजीविका, सम्यक व्यायाम, और सम्यक
स्मृति को प्राप्त करना चाहता है, उसके मार्ग में ये पाँच
बाधाएं- लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा, तथा अनिश्चय आती है| सामान्य समाधि से वैसे ध्यानो को प्राप्त किया जा सकता है जिसके रहते एक
व्यक्ति बाधा उत्पन्न करने वाली - लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा, तथा
अनिश्चय – ये पांचो संयोजन से बचे रह पाते हैं या बंधन को स्थगित रख पाते हैं|
लेकिन ध्यान की ये अवस्थाएं अस्थायी होती है| इसलिए
संयोजन या बंधन भी अस्थायी तौर पर ही स्थगित रहते हैं| आवश्यकता
है कि चित में स्थाई परिवर्तन लायी जाए| इस ध्यान में स्थाई
परिवर्तन लाने की प्रविधि को ही सम्यक समाधि कहा
जाता है|
सम्यक
समाधि एक भावनात्मक वस्तु है| यह मन को कुशल कर्मो
यानि अच्छे कर्मो का एकाग्रता के साथ चिंतन करने का अभ्यास डालती है| इस प्रकार यह मन की संयोजनात्मक अकुशल कर्मो की ओर आकर्षित होने की
प्रवृति को ही समाप्त कर देती है| चित्त में परिवर्तन कर
चित्त को शांत एवं स्थायी करने की विधि सम्यक समाधि है| मानव
की हर गतिविधि यानि दृष्टि, वाणी, संकल्प,
कार्य, स्मृति आदि सभी मन के अधीन है यानि सोच
के अधीन है| अत: मन पर नियंत्रण ही मुख्य है| सम्यक समाधि ही मन को नियंत्रित करने की सम्यक विधि है| सम्यक समाधि मन को हमेशा ही कल्याण एवं भलाई सोचने की आदत डाल देती है|
सम्यक समाधि किसी भी व्यक्ति को यह शक्ति प्रदान करती है जिससे वह
व्यक्ति कल्याणरत हो जाता है| विपश्यना को सम्यक समाधि माना जाना चाहिए|
विश्व के हर सफल व्यक्ति के साथ
ये सद्गुण अवश्य होता है; चाहे वह इसका नाम या इसके प्रवर्तक
नाम जाने या नहीं जाने| इसे आप हर सफल व्यक्ति के जीवन में
जांच सकते हैं| हमें भी इस पर मनन मंथन करना चाहिए|
निरंजन
सिन्हा|
(निरंजन सिन्हा की प्रकाशनाधीन पुस्तक- “बुद्ध:
दर्शन एवं रूपान्तरण” से )
बहुत विचारोत्तेजक और शिक्षाप्रद पोस्ट हैं सर ..आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआपकी अच्छी कोशिश के लिए बहुत बहुत बधाई एवं आभार।
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