(Self and Soul)
किसी के आत्म (Self), मन (Mind), चित्त (चेतना
- Consciousness की अवस्था) एवं आत्मा (Soul) में सम्बन्ध को समझने के लिए सबसे
पहले हमें इन अवधारणाओं को समझना होगा| ‘आत्म’ किसी के ‘स्वयं’
(Self) के लिए प्रयुक्त होता है| इस प्रकार ‘आत्म’ का तात्पर्य किसी के अपने
सन्दर्भ में है| इसमें किसी व्यक्ति के सचेतन अनुभवों, आदर्शों, विचारों, भावनाओं
एवं व्यवहारों की समग्रता समाहित होता है| इसी ‘आत्म’ को ‘मन’ भी कहते हैं| इस तरह यह ‘मन’
किसी के शारीरिक अंग यथा ‘मस्तिष्क’ (Brain) से अलग हो जाता है| किसी
का ‘मस्तिष्क’ उसके ‘मन’ एवं शरीर के लिए एक ‘मोड्यूलेटर (Modulator)’ की तरह
कार्य करता है| किसी के ‘मन’ को शरीर से भिन्न परन्तु शरीर पर निर्भर एक ‘उर्जा आव्यूह’ (Energy
Matrix) समझा जा सकता है, जो ‘मस्तिष्क’ के माध्यम शरीर को संचालित करती है|
यदि ‘चेतना’ किसी भी चीज को समझने और
जानने की अवस्था है, तो किसी के चेतना के कार्य उसके ‘मन’, यानि उसके स्वयं’, यानि
उसके ‘आत्म’ के द्वारा सम्पादित होते हैं| यहाँ यह प्रश्न उठता है कि फिर इस ‘आत्मा’ की आवश्यकता
क्यों है और यह क्या है? ‘आत्म’ और ‘आत्मा’ एक जैसे शब्द होते लिए भी
दोनों भिन्न भिन्न संरचनात्मक अर्थ, यानि निहित अर्थ रखते हैं, जो ‘अर्थ’ को ‘अनर्थ’
बना देता है| तो ‘आत्म’ के होते हुए ‘आत्मा’ की कोई आवश्यकता नहीं थी| इसीलिए यहाँ
एक गहरी बौद्धिक साजिश नजर आने लगती है| यहाँ ‘आत्म’, ‘मन’, ‘चित्त’, ‘आत्मा’, ‘Soul’,
एवं ‘Spirit’ में सजिशतन भ्रम पैदा की गयी है| यह भी यहाँ समझना है|
अब हमलोग ‘आत्म’ यानि ‘मन’, चेतना या
चेतनता या सचेतनता के महत्त्व एवं क्रियाविधि को समझते हैं| सबसे पहले ‘आत्म’ यानि ‘मन’
की क्रिया विधि (Mechanics of Mind) को बुद्ध ने समझया| बुद्ध ने मन को
सभी चीजों का केंद्र बिदु स्वीकार किया| उन्होंने ही मन को सभी चीजों का पूर्वगामी माना| मन उर्जा (तरंग) पर प्रभाव डालकर उन चीजों को उत्पन्न करता है, जिनको मन उत्पन्न
करना चाहता है| मन यदि नियन्त्रण में है तो सब कुछ नियंन्त्रण में है| मन ही सब मानसिक क्रियाओं में प्रधान है| मन ही मुख्य है| मन ही सभी चैतसिक (चित्त या चेतन संबंधी) क्रियाओं का उपज का आधार है| इसलिए सबसे मुख्य बात मन की साधना है| मन एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से व्यक्ति को ज्ञान
एवं दिव्यता की प्राप्ति हो सकती है| हम जिस किसी भी दिशा में अपने मन को ले जाना चाहें, हम उसे उस दिशा में ले जा सकते है| आज हम जो कुछ हैं, वह अब तक के मन के सोच का परिणाम हैं| बदले इच्छित स्वरूप में खुद को पाने के लिए आज से ही अपनी सोच को बदलना होगा| हम जो सोचते रहते हैं, जिस सोच में हम विश्वास करते हैं, हम वहीं बन जाते हैं|
फिर सोच क्या है ? किसी स्थिति पर मन के विचार का ठहराव ही सोच है|
मन ही सोच का उत्पादनकर्त्ता है| मन को नियन्त्रण में रखना और मन को इच्छित दिशा में संचालित करना ही बुद्ध का एक मुख्य अनुसंधान है, जिसे विपश्यना कहा गया है| बुद्ध
की गया के ऊरूवेला वन में छह बर्षो की साधना का यह भी एक पारतोषिक है|
आधुनिक भौतिकी के स्ट्रिंग सिद्धांत (String Theory) के अनुसार प्रत्येक
वस्तु एक विमीय कम्पनकृत धागा (One Dimentional Vibrating String) है,
जो अतिसूक्ष्म अवस्था में कम्पन करता हुआ होता है| प्रत्येक
वस्तु इस कम्पनकृत धागा के अतिरिक्त कुछ नहीं है| इस
कम्पनकृत धागा के कम्पन प्रतिरूप (Pattern) और दिशा निर्धारण
(Orientation) आदि के समुचित व्यवस्थापन (Arrangement)
से ही उत्पादित वस्तुओं की प्रकृति निश्चित होती है| इसी उत्पादित वस्तुओं के विशिष्ट संयोजन से ही विशिष्ट पदार्थ का निर्माण
होता है| इसी कम्पनकृत धागा से किसी पदार्थ में उर्जा या
पदार्थ की मात्रा बढ़ती या घटती है| इस ब्रह्माण्ड में सभी
वस्तुएँ तरंग एवं पदार्थ दोनों रूपों में एक साथ उपलब्ध रहता है|
क्वांटम भौतिकी के अनुसार जिस क्षण उन तरंगों का
अवलोकन (observation) किया जाता है, उसी
क्षण उसकी तरंगीय प्रकृति पदार्थ में रूपान्तरित हो जाती है, वशर्ते उस वस्तु की
उस क्षेत्र में पाए जाने की असीम संभावना हो| अवलोकन प्रक्रिया के
द्वारा उस तरंगीय अवस्था में उर्जा का प्रवाह बढ़ता है और वहाँ उर्जा का संकेन्द्रण
बढ़ता है| इससे
मन में बने स्वरुप का ठोसीकरण (Solidification) उस तरंगीय
उर्जा का होने लगता है, जिसको अवलोकित किया गया है, लेकिन यह सब उस परितंत्र में
पाए जाने की पूर्व शर्त के अधीन है| इसे अवलोकनकर्ता के
प्रभाव का सिद्धांत (Theory of Observer Effects) कहते हैं|
तरंगीय प्रकार्य सिद्धांत (Wave Function Theory) में किसी भी वस्तु के कहीं पाए जाने की ज्यादा
संभाव्यता को व्यक्त करता है| जहाँ कहीं अवलोकन किया
जाएगा, वही उस वस्तु के प्रकट हो जाने की संभावना बढ़ जाता है
और वह इच्छित वस्तु प्रकट हो सकता है| यहाँ यह ध्यान रखना
महत्वपूर्ण है कि उस वस्तु के वहाँ पाए जाने का पहले से संभावना यानि माहौल पहले
से ही उपलब्ध हो| विज्ञान के अध्यारोपण (अध्यास्थापन) सिद्धांत
(Theory of
Superposition) के अनुसार किसी भी वस्तु के सर्वत्र पाए जाने की
सम्भावना है, परन्तु उस वस्तु के किसी एक स्थान
पर पाए जाने की संभावना सबसे अधिक होती है| इसके अनुसार किसी
भी वस्तु के कहीं भी पाए जाने की संभावना नहीं होती है| इन
सिद्धांतों का निष्कर्ष यह है कि जहाँ कहीं भी मन की
शक्तियों का संकेद्रण होगा, वहाँ उस वस्तु के पाए जाने की
संभावना अधिक हो जाती है, जिस वस्तु को पाए जाने के लिए मन को संकेद्रित किया गया
था|
वैज्ञानिक सर रोजर पेनरोज ने मन एवं चेतनता के संबंध की वैज्ञानिक व्याख्या की है| जब हम किसी वस्तु पर मन स्थिर करते हैं अर्थात् अपनी सोच को स्थिर करते हैं, तो उस वस्तु के उन तरंगीय उर्जा में से प्रकटीकरण की संभावना बढ़ जाती है, जिस वस्तु को हम प्रकट देखना या पाना चाहते हैं| इसके लिए मन का संकेन्द्रण आवश्यक है जो विपश्यना से उपलब्ध होता है| विपश्यना विधि पूर्णतया एक पंथ निरपेक्ष, सरल, साधारण एवं व्यवहारिक
विधि है, जैसे शरीर के लिए व्यायाम और औषधि पंथ निरपेक्ष है| विपश्यना में मन का संकेन्द्रण अभ्यास की शुद्धता से आता है| वैसे विपश्यना में मन के अंदर आ रही भावनाओं एवं स्थितियों का स्व अवलोकन किया जाता है| मन और चेतनता के संबंधों के अध्ययन के लिए रोजर पेनरोज, अल्फ्रेड नार्थ हाइटेड, बर्टेंड रसेल, जे राबर्ट ओपेनहाइमर, जीन पीगेट आदि के अध्ययनों का अवलोकन किया जा सकता है| मन की शक्ति की क्रिया विधि को सबसे पहले बुद्ध ने समझा| किसी
लक्ष्य को प्राप्त करने का विज्ञान की कार्यविधि के संबंध में पहला वैज्ञानिक सम्मत स्पष्ट दर्शन बुद्ध का ही
है, जिसको आधुनिक विज्ञान और आगे बढ़ाता है| इसके आधार पर मानवीय सफलताओं को नयी ऊचाइयाँ एवं नयी उपलब्धियाँ हासिल हो पायगी| बुद्ध ने मन पर नियन्त्रण एवं मन की शक्ति का प्रयोग कर आदमी को अपने जीवन में सफलता पाने का विधि समझाया| इसी को दुख एवं कलह का निवारण करने के उपाय भी बताया हैं|
मन पर नियन्त्रण कर ही आदमी अपने जीवन में सुख, शान्ति और समृद्धि पा सकता है| मन को संकेन्द्रित कर आदमी अपनी वैचारिक उत्पादकता को भी बढ़ाता है और नवाचारी विचार लाता है| यदि आप
अपने मन पर नियंत्रण करना जानते हैं और अपने मन को नियंत्रित कर सकते हैं, तो आप
कोई भी सफलता पा सकते हैं| आज विश्व के सभी सफल व्यक्ति, चाहे वह उद्यमी हो या निवेशक हो, चाहे वह चिकित्सक हो या इंजीनियर हो, या कोई भी
प्रमुख हस्ती हो, सभी मन की साधना की बात करते हैं| महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिन्स बैठे बैठे मन की कल्पनाओं के आधार पर गूढ वैज्ञानिक प्रश्नों का समाधान किया जिसे वैज्ञानिक वर्ग ने सही पाया| अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक बार कहा था कि
“कल्पना अर्थात मन की उडान किसी के ज्ञान (जानकारी) से ज्यादा महत्वपूर्ण है”|
मन के बारे इतनी गूढ बातें बुद्ध ने सबसे पहले रेखाकिंत किया था| बुद्ध के अनुसार आत्मा (SOUL) पूर्णरूपेण कल्पना है, मिथ्या है, तथ्यहीन है, अवैज्ञानिक है| सभ्यता एवं संस्कृति के उद्विकास के
पूर्व से ही सभी चेतन एवं अचेतन वस्तुओं एवं क्रियाओं में किसी ‘आत्मा’ यानि ‘शक्ति-
पुंज’ के होने की अतार्किक अवधारणा वर्तमान थी, जिसे तार्किकता के आधार पर संशोधित
एवं अलग कर ‘आत्म’ का स्वरुप दिया गया| सामन्ती काल में, यानि मध्य काल में फिर से
उस ‘आत्म’ को ‘आत्मा’ से भ्रमित कर दिया गया| आत्मा के अस्तित्व का कोर्इ साक्ष्य नहीं है, जो इसके होने का तार्किक एवं बुद्धिमतापूर्ण प्रमाण दें और उसे सामान्य समझदार आदमी भी समझ सके| आत्मा अज्ञात है, अदृश्य है| जो चीज वास्तव में है, वह मन या चित्त या सचेतनता है, परन्तु आत्मा नहीं है| मन या चित्त आत्मा से भिन्न है|
चुंकि आत्मा काल्पनिक है एवं गलत उद्देश्य के लिए अवधारित किया गया है और इसिलिए यह अवधारणा गलत है| चूंकि आत्मा गलत अवधारणा है, इसलिए परम आत्मा (परमात्मा) तथा महान आत्मा (महात्मा),
ब्रह्मात्मा एवं देवात्मा भी गलत अवधारणा है| इसी कारण बुद्ध को महात्मा बुद्ध कहना गलत है और अवैज्ञानिक है|
आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करने वालों के अनुसार आत्मा वह तत्व विशेष है जो शरीर से पृथक है परन्तु उसके शरीर के भीतर उसके जन्म से मृत्यु तक बना रहता है और मृत्युपरान्त उसका अस्तित्व शरीर से अलग होकर स्वतंत्र रूप में इस धरती से परे किसी निश्चित स्थान पर रहने लगता है| यह आत्मा शरीर के साथ नहीं मरता है तथा इसके दूसरे शरीर (किसी भी जीव) में भी प्रवेश करने की संभावना रहती है| इसके विरूद्ध कर्इ तर्को के अतिरिक्त यह भी तर्क है कि जब इस संसार का उद्विकास (evolution) हुआ है, तब बढ़ते हुए जीवों के लिए इतने आत्मा कैसे निर्मित हुए या पैदा लिए? आत्मा के अस्तित्व में नहीं होने को ही अनात्मवाद कहा गया है| इस आत्मा का अघ्ययन करना समय की बरबादी है और इसका कोर्इ सामाजिक उपयोग नहीं है| आत्मा के संबंध में विद्या सिर्फ
तथाकथित विद्वता के लिए ही है ताकि उस व्यक्ति विशेष को विद्वान, ज्ञानी माना जा सके| चूँकि यह आत्मा की अवधारणा ही गलत है तो इस पर विद्वतापूर्ण आख्यान का काल्पनिक ग्रंथ बनाना उचित नहीं है|
जब किसी व्यक्ति को संविधान के अनुच्छेदों की व्याख्या समझने में समस्या आती है तो इसके उद्देशिका (Preamble) को देखा जाता है, जिससे यह पता चलता है कि इस संविधान का निर्माण किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुआ है| इसी तरह जब आत्मा की बात आती है, तो इसके निर्माण के उद्देश्य का अवलोकन किया जाना महत्त्वपूर्ण है| आत्मा की अवधारणा के निर्माण का मूल उद्देश्य है कि किसी आदमी के मरने के बाद भी उस मृत आदमी के उत्तराधिकारी को उस मृत आदमी के आत्मा को तथाकथित
सुख या कष्ट देने यानि उसे नियंत्रित करने के नाम पर ठगा जा सकता है| अर्थात् आदमी के मृत हो जाने पर भी आत्मा के नाम पर ‘धार्मिक संस्कारक’ उस मृत आदमी के उत्तराधिकारी को प्रभावित करता रहता है| इसी आधार पर ‘धार्मिक
संस्करक’ मृत आदमी के पास भौतिक पदार्थ भेजने के नाम पर आत्मा के सुखदुख के लिए भौतिक पदार्थ लेता रहता है| उस मृतक के सम्पत्ति के उत्तराधिकारी को इसके लिए ‘धार्मिक संस्करकों’ को खुश करना पडता है ताकि धार्मिक
संस्कारक मृत आत्मा के कष्ट दूर कर सके और उसे भौतिक सुख दे सके| इसी खतरनाक साजिश का उद्घाटन बुद्ध ने किया है| अब आप समझ गए होंगे कि आत्मा की अवधारणा क्यों बनायी गयी|
जब मन, चित्त और सचेतनता एवं आत्मा एक ही है या एक ही उद्देश्य को पूरा करता है तो आत्मा की अलग अवधारणा की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी| आत्मा के अवधारणा के समर्थक बताते है कि
मन, चित्त और आत्मा एक ही है| जब जीव में चित्त, चेतनता का उदय होता है तो वह आदमी या जीव जीवित प्राणी बनता है| इसी मन, चित्त, चेतनता ही आदमी के जीवन में प्रधान वस्तु है| यही मन, चित्त या चेतनता ज्ञान मूलक है, भावना मूलक है और क्रिया मूलक है| चित्त या चेतनता के कार्य निर्धारण के बाद आत्मा के लिए अलग कोर्इ कार्य नहीं बचता, सिवाय कि मृत आदमी पर इसके माध्यम नियंत्रण बताया जाय और उसके बहाने मृत के उत्तराधिकारी का दोहन किया जाय|
चेतनता से सम्बन्धित भौतिकी में प्रसिद्ध प्रयोग
किया गया जिसे क्वांटम पारस्पारिता का
सिद्धांत (Quantum Entanglement Theory) कहा गया| इस प्रयोग में एक फोटोन को दो उप- फोटोन में खंडित किया गया| इन दोनो खंडित युग्मक को
ब्रह्माण्ड में अलग अलग कही पर एवं कितनी भी दुरी पर रखा गया और इसके किसी भी
युग्मक पर कोई भी क्रिया करने पर तत्क्षण इसके दुसरे युग्मक पर सामान एवं विपरीत
प्रतिक्रिया हो जाती है| इसमे गति कोई बाधा नहीं होती है|
वैज्ञानिकों के अनुसार इसके प्रतिक्रिया समय के अनुसार यह पाया गया
है इसकी गति को आइंस्टीन की प्रकाश की सीमित गति भी बाधित नहीं करता है| अर्थात इसकी गति प्रकाश की गति से भी तेज है जो आइंस्टीन के अनुसार संभव नहीं है|
इस प्रयोग में सन्देश तत्क्षण दुसरे उप- फोटोन
तक पहुँच गयी जैसे चेतनता पहुचती है| यह सन्देश इतना स्पष्ट
पाया गया कि एक उप- फोटोन को यदि धनात्मक दिशा में घुमाया गया तो तत्क्षण इसका
दूसरा युग्मक उप- फोटोन भी ऋणात्मक दिशा में घूम गया| यदि
चित्त, मन या चेतनता तत्क्षण कहीं भी पहुँच जाता है तो फिर
आत्मा का किस अलग प्रयोजन के लिए बनाया गया है? इसका अर्थ है
कि आत्मा का अवधारणा किसी छुपे हुए षड़यंत्र का भाग है जिसके द्वारा पुनर्जन्म और
कर्म का सिद्धांत को स्थापित किया जाता है| आत्मा के समर्थन
में विज्ञान किसी भी रूप में समर्थन नहीं करता है| कुछ
भारतीय लोग विदेशी अनुसंधानों के चेतनता के प्रायोगिक निष्कर्ष में सजिशतन चेतनता
का हिन्दी या भारतीय अनुवाद आत्मा कर लोगों को भ्रमित करते हैं| स्पष्ट है कि आत्मा का अवधारणा लोगों को ठगने एवं मुर्ख बनाने
के लिए करते हैं, जो पूर्णतया कल्पना पर आधारित है| वही
चित्त या मन या चेतनता या सचेतनता का अवधारणा
विज्ञान सम्मत है|
आत्मा के समर्थन में विज्ञान किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं है| स्पष्ट है कि आत्मा का अवधारणा ठगी करने के उद्देश्य से कल्पना पर आधारित है, जबकि चित्त, मन एवं सचेतना पर आधारित अवधारणा विज्ञान सम्मत है| चित्त, मन एवं सचेतनता को आधुनिक भौतिकी का समर्थन इसके भविष्य के उपयोग को और आगे बढ़ाएगा| बुद्ध
के अनात्मवाद को भी आधुनिक विज्ञान का समर्थन है|
‘आत्मा’ के द्वारा ही ‘पुनर्जन्म’ संभव है|
जब ‘पुनर्जन्म’ होगा तब ही ‘कर्म का सिद्धांत’
लागू हो सकता है|
‘कर्म का सिद्धांत’ कहता है कि इस जन्म में जो
आपकी अवस्था या दुर्दशा है,
वह आपके पिछले जन्म के आपके कर्म का परिणाम है|
इसीलिए आपकी दुर्दशा के लिए शासन
या व्यवस्था कतई जिम्मेवार नहीं है,
बल्कि आप ही का पहले जन्म के कर्म दोषी है| और इस
तरह यह शासन को कुव्यवस्था के दोष से सर्वथा मुक्त कर देता है|
यह है आत्मा का असली उपयोग, जिस पर लोग ध्यान हो
नहीं देते हैं| इसलिए ही मन एवं चित्त के अतिरिक्त इस आत्मा
की जरुरत है| इसलिए आप भी इस पर विचार करें|
आचार्य प्रवर निरंजन
व्यवस्था- विश्लेषक एवं चिन्तक
Excellent conclusion��
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