रविवार, 19 जुलाई 2020

इतिहास क्यों?

 (Why History?)

आजकल सामान्य समाज में यह प्रश्न अक्सर कौंधता रहता है कि आज के वर्तमान एवं आधुनिक युग में इतिहास के अध्ययन या अवलोकन की क्या अनिवार्यता है? अर्थात इतिहास क्यों पढ़ना चाहिए? हमें आगे देखना चाहिए, या पीछे देखना चाहिए? दरअसल ऐसे लोग इतिहास को जानते समझते ही नहीं है? ऐसे लोगों में तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या कम नहीं है|

यदि एक शिकारी हिरणों का शिकार करता हैयदि इन घटनाओं पर इतिहास लिखा जाना हो, तो इतिहास लिखने वाले तीन तरह के जीव होंगे - पहला लेखक स्वयं शिकारी वर्ग हो सकता हैदूसरा लेखक स्वयं हिरण वर्ग ही हो सकता है, और तीसरा कोई प्रकृति संरक्षक, या कोई अन्य तथाकथित तटस्थकहे जाने वाला लेखक हो सकता है| शिकारी के इतिहास लेखन में शिकारियों का शौर्यगाथाहिरणों की मूर्खता, हिरणों के मांस की उपयोगिता और उसके लजीज स्वाद का विषद वर्णन रहता है, या रह सकता हैहिरणों को तो अपनी बौद्धिकता के अभाव में अपना इतिहास लिखना ही नहीं आताकुछ हिरणों ने तो इस दिशा में थोडा प्रयास भी किया है, जिन्होंने शिकारियोंके इतिहास रचना के पन्नों से कुछ अपने पक्ष की सामग्री समझ कर इतिहास लिख दिया है| ऐसे हिरणउन्हीं शिकारियोंके संरचनात्मक ढांचे में उलझ कर और इसके परिणाम एवं प्रभाव जाने बिना सारे भारत में और विदेशों में घूम घूम कर इतिहासपर व्याख्यान देते हुए वस्तुत: मूर्खतापूर्ण नृत्य कर रहे हैंतटस्थ दिखने वाले प्रकृति संरक्षकया अन्यके इतिहास पर भी टिप्पणी जरुरी हैये प्रकृति संरक्षकया अन्यहैं भी तो आखिर शिकारियों के ही परिवार से हीये प्रकृति संरक्षकया अन्यलेखक भी शिकारियों को अपराधी तो घोषित कर नहीं सकते, चूँकि उनमे इतनी हिम्मत है ही नहीं| स्पष्ट है कि हिरणों को अपने मनन और मंथन से, खुद के स्वविवेक से, और उन शिकारियों के संरचनात्मक ढांचेके बहार अपने इतिहास की रचना करनी है|

तो प्रश्न यह है कि इतिहास क्या है?  इतिहास क्यों जरुरी हैइतिहास कैसे लिखा जाता हैइतिहास व्यक्ति कोपरिवार को,  समाज कोराष्ट्र कोऔर मानवता को क्या देता हैइतिहास इन सबों को चेतनअचेतनअवचेतन और अधिचेतन पर कैसे संचालित, नियंत्रित, नियमित और प्रभावित करता है, या करता रहता हैक्या इतिहास आधुनिकता की नींव है और आधुनिकता को स्वरुप देता हैकुल मिलकर इतिहासको पढ़ना और समझना क्यों जरुरी है? इन सभी को समझने और जानने के लिए ही यह आलेख है|

इतिहास क्या है?

इस विषय पर प्रो० एडवर्ड हैलेट कार (ई० एच० कार) की पुस्तक इतिहास क्या है?” (What is History?) से अधिक और जानने की आवश्यकता नहीं हैउन्होंने ऐक्टन को उद्धृत करते हुए कहा है कि – हम अपने जीवन में कोई अंतिम इतिहास नहीं लिख सकते, लेकिन हम परम्परागत इतिहास को अवश्य ही रद्द कर सकते हैं|” सभी ऐतिहासिक अवधारणाएं व्यक्तियों यानि लेखकों तथा उनके दृष्टिकोणों के माध्यम बनती हैवस्तुत: ऐतिहासिक सत्य जैसी कोई चीज नहीं होती, क्योंकि कोई भी इतिहास का उपस्थापन वैज्ञानिक तथ्यों और प्रविधियों पर नहीं करता है, या नहीं कर सकता है| और विज्ञानके आधार के बदलते रहने से भी इतिहासको बदल जाना पड़ता है, और विज्ञान नित्य नूतन होता रहता हैऐतिहासिक तथ्य’ ‘इतिहासके लिए कच्चा मॉलनहीं होताबल्कि ये इतिहासकारके लिए कच्चा मॉलहोता है, जो ऐतिहासिक तथ्यको इतिहासकार के संस्कृतियों, परिस्थितियों, मूल्यों और उनके पूर्वाग्रहों से निर्धारित, व्याख्यापित और सम्पादित करता है|

जनता या जनमत के मंतव्यों, रायों, अवधारणाओं  और विचारों को प्रभावित करने का सबसे असरदार तरीका यह है, कि वह इतिहासकार अपने इतिहास लेखन से जो प्रभाव जनता में उत्पन्न करना चाहता है, उन्हीं आवश्यकताओं के अनुरूप ही उन ऐतिहासिक तथ्यों’ का उपस्थापन और व्याख्या उन उपलब्ध तथ्यों के नाम पर करेंवे ऐतिहासिक तथ्य भी वही बोलता है, जो वह इतिहासकार उन तथ्यों से बोलवाना चाहता है| यह उपस्थापन एवं व्याख्या भी अधिकतर  उस देश और काल की व्यवस्था के अनुकूल ही होता हैकिसी भी उपस्थापन एवं व्याख्या को व्यवस्था के अनुकूल होना ही होता है, यानि यथास्थितिवादीहोना ही होता है| प्राचीन काल के इतिहास में कई अंतराल खंड अन्धकारसे भरे पड़े है, जिनकी व्याख्या यथास्थितिवादी इतिहासकारअपने पक्ष में ही करते रहे हैंकार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं, कि प्राचीन और मध्य काल के  इतिहास के तथ्य के रूप में हमें जो कुछ मिलता हैउनका चुनाव ऐसे इतिहासकारों की पीढ़ियों द्वारा किया गया था, जिनके लिए धर्म का सिद्धांत और व्यवहार एक पेशा था और आज भी है| मध्यकालीन धार्मिक तस्वीर जो आज हमें तथ्य के रूप में प्राप्त हैंहमारे लिए उसका चुनाव बहुत पहले ऐसे लोगों द्वारा किया गया, जो उस धार्मिक बनावट में विश्वास रखते थे और चाहते थे कि दुसरे भी उसमे विश्वास करेंउन ऐतिहासिक तथ्यों का एक बहुत बड़ा भागजिनमे इनकी मान्यताओं एवं विश्वासो के विरोधी प्रमाण थेनष्ट हो चुका है, या सांस्कृतिक धार्मिक सामंतवादियोंद्वारा नष्ट किए जा चुके हैं, और जिन्हें पुन: कभी नहीं पाया जा सकताभारत में तो इन साक्ष्यों को नष्ट करने वाले सामंतवादियोंने तो इस बदलाव का भी धार्मिककरणकर अपनी पहचान को बचा लेने का प्रयास किया हैपर यह अब सब खुलने लगा है|        

यथास्थितिवादी इतिहासकारोंके लिए पहली आवश्यकता लोगों की अज्ञानता होती हैलोग यदि अशिक्षित होउनमे आलोचनात्मक चिंतनभी नहीं हो और ये लोग आर्थिक रूप से इतने कमजोर भी हो, कि उनको जीवन बनाए रखने के ही लिए अतिरिक्त समय नहीं बचता हो, तो ऐसी स्थिति में ऐसे इतिहासकारों के लिए नई और मनमानी इतिहास बनाने में और आसानी होती है| मध्यकाल में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सामंतवाद के समय लोगों को अशिक्षित बनाने के लिए ही भारत की एक भाषा पालि को संस्कारित’ कर संस्कृत भाषा को विकसित किया गया, और इसे प्रश्नों से बचाने के लिए देवभाषा भी घोषित कर दिया गयापढ़ना- लिखना समाज के पुरोहित एवं संस्कारक वर्ग के लिए आरक्षित कर दिया गया और सामान्य जनों को इस शिक्षा से वंचित कर दिया गयानए इतिहास को लिखने और उसकी मान्यता को सर्वमान्य एवं सर्वग्राह्य बनाने के लिए ऐसा करना अनिवार्य हो गया थापहले का ऐतिहासिक एवं लिखित साक्ष्य या तो नष्ट कर दिया गया, या जला दिया गया, ताकि सक्ष्यात्मक विरोध की कोई गुंजाईश ही नहीं रहेइतिहास के तथ्य कभी शुद्ध रूप में निष्पक्ष नहीं रहते, क्योंकि वह निरपेक्ष नहीं होते और ये तथ्य इतिहासकारों के विचारों के रंग में रंजित होकर ही निकलते हैं| प्रो० कार स्पष्ट करते हैं, कि जब आप इतिहास की कोई पुस्तक पढ़ते हैं, तो आप हमेशा अपनी कान को उस इतिहासकार के पीछे लगाकर उसकी आवाज सुनेंअगर आपको इतिहासकार के इतिहास रचना में कोई आवाज नहीं सुनाई देती है, तो इसका एक अर्थ यह है कि आप या तो एकदम बहरे हैं, या आपका इतिहासबोध ही शून्य है| इतिहासकार जिस प्रकार के तथ्यों की खोज कर रहा है, या करता है, वह इतिहास में उसी प्रकार के तथ्यों को ही पाएगाइतिहास का अर्थ ही होता है, उन ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या, जो उस इतिहासकार ने समझा है, या जो वह बताना या समझाना चाहता है|इतिहासकार अपने युग के साथ अपने मानवीय शारीरिक अस्तित्व की शर्तों पर जुड़ा  होता हैइतिहासकार के द्वारा प्रस्तुत इतिहास को समझने के लिए उस इतिहासकार के अध्ययन की भी दक्षता होनी चाहिए|   

जबतक आप इतिहासकार की मानसिकता, यानि इतिहास लेखन का उद्देश्य नहीं समझ लें, तबतक आप उस इतिहास को नहीं समझ सकते हैंयह इतिहासकार कौन है और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या हैक्या वह इतिहासकार किसी प्रकार के सामंतवादी पृष्ठभूमि से है और उसकी सामंतवाद के बारे में चेतन और अचेतन स्तर पर क्या निर्धारित है – यह जानना भी बहुत महत्वपूर्ण हैक्या वह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को यथास्थिति में बनाए रखना चाहता है, या वह देश एवं समाज हित में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूपांतरण भी करना चाहता हैहमें इतिहासकार का उस सन्दर्भ यानि पृष्ठभूमि का तात्पर्य समझ लेना आवश्यक होता हैकिसी तथ्य या प्रस्तुतीकरण अपने आप में इतिहास नहीं बन जाते है, जबतक कि ये मानव के सामाजिक विकास की गाथा में प्रासंगिक नहीं बन जातेक्रोशे ने घोषणा की, कि सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैंइसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि इतिहास का लेखन ही वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने के लिए ही अतीत की जड़ों को देखना है| एक वैज्ञानिक एवं आधुनिक इतिहासकार का मुख्य कार्य समय काल में विवरण देना नहीं होता है, अपितु उस काल का मूल्याङ्कन करना होता है और जनता को अपनी मनोवांछित इच्छा से सहमत कराना भी होता हैइतिहास वही होता है, जो इतिहासकार बनाता हैइतिहासकार अतीत में जाकर वर्तमान और भविष्य को गढ़ता है, बनाता है और निर्धारित करता है| अतीत आधार है, जिस पर वर्तमान –भविष्य का अधिसंरचना खड़ा किया जाता है| ‘इतिहासको  ‘तथ्यएवं तथ्यों की व्याख्याका संयुक्त स्वरुप माना जाता हैइतिहासकार वर्तमान में होता है, जबकि उसके तथ्य अतीत के होते हैं, और उसकी व्याख्याएँ वर्तमानएवं भविष्यके लिए होती हैतथ्यों के बिना इतिहासकार बेकार है और इतिहासकार के बिना तथ्य मृत एवं अर्थहीन होता हैइतिहास इतिहासकार और उसके तथ्यों की क्रिया- प्रतिक्रिया है, जो सदैव जारी रहेगायह हमेशा ध्यान में रहना चाहिए, कि इतिहासकार स्वयं इतिहास का उत्पाद होता है|

इतिहास क्यों जरुरी है?

चूँकि इतिहास अब तक का बीत गया काल से सम्बद्ध हैऔर इसीलिए इतिहास अब तक के बीत गए कालों में मानव ने जो सीखाअर्जित कियाजो समझा हैउसका सारांश में वृतांत हैइतिहास हमें सोचनेव्यवहार करनेकार्य करने और अपने एवं समाज के प्रति जो नजरिया  हैउसकी उत्पतिविकास और भविष्य के बारे में क्रिया विधि समझाता हैअपने आपको,  परिवार कोअपने समाज कोअपने राष्ट्र को और मानवता को समझने और समझाने के उपकरण का नाम ही इतिहास है| सामाजिक व्यवस्थासांस्कृतिक विन्यासप्रशासनिक शासनसामंती विचार एवं दृष्टिकोणसामाजिक प्रतिमानइन सभी को सम्यक ढंग से समझने और समझाने के लिए इतिहास का  सम्यक अध्ययन आवश्यक हैइसे विस्तारित किया जा सकता हैपर यहाँ स्थानाभाव में विस्तारित नहीं किया जा रहा है|

संस्कृतिसमाज का सॉफ्टवेयर है, यदि सभ्यतासमाज का हार्डवेयर हैकिसी भी समाजराष्ट्र और मानवता के विकास सिर्फ हार्डवेयर के विकसित होने से नहीं हो जाती अर्थात इनके भौतिक स्वरुप के विकास ही सभ्यता का विकास है जैसे सड़कभवनबाँधनहरेविद्यालयअस्पताल आदि आदिइसके साथ ही इनके विकास के लिए इनके सॉफ्टवेयर का समुचित होना जरुरी हैव्यक्तिसमाजराष्ट्र का इतिहास बोध (Perception of History) ही, यानि उस इतिहास के प्रति जो अवधारणा बनी, वही उनकी संस्कृति का निर्माण करता है| उस देश और समाज को उसकी संस्कृति ही हर स्तर- चेतनअचेतनअवचेतन और अधिचेतन संचालित कराती रहती हैबिना सम्यक के इतिहास के किसी भी देश और समाज की संस्कृति में संशोधन एवं संवर्धन नहीं किया जा सकता है, और इसी कारण इसके बिना यानि नए इतिहास के बिना उसका सम्यक विकास भी नहीं हो सकता है|  

इतिहास कैसे लिखा जा सकता है?

 खासकर हिरणों का इतिहास हिरणों के लिएसारे विश्व के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि वैज्ञानिक आविष्कार (Invention) करते हैं, और नया ज्ञान प्राप्त करते हैंलेकिन विज्ञान इस नए ज्ञान के लिए वे किसी सूक्षम एवं युक्तियुक्त नियमों की स्थापना नहीं करते; बल्कि ऐसी कल्पनाओं अथवा अनुमानों का प्रतिपादन करते है, जिनसे सम्भावनाओं के नए आयाम खुलते जाते हैं| प्रत्येक प्रकार के चिंतन प्रक्रिया में हमें कुछ पूर्व धारणाएं बनाना और स्वीकार करना पड़ता हैवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अज्ञात को ज्ञात से कभी नहीं जान जा सकता है|’ ये अवधारणायें (Postulation) वैज्ञानिक प्रक्रिया में तभी ही सहायक होती हैजब इनका आधार अनुमान के अतिरिक्त अवलोकन और पर्यवेक्षण (Observation n Supervision) भी होइसमे संशोधन और सुधार की पुरी संभावना रहनी चाहिएयदि ये अवधारणाएं हमें नई अंतर्दृष्टि देने और हमारा ज्ञान बढ़ने में सहायक या समर्थ है, तो ये अवधारणाएँ सही एवं सम्यक हैइनमे सामान्य जन के भविष्य को सुधारने वाला सूत्र बनने की क्षमता होनी चाहिएइससे वर्तमान की समस्यायों को सुलझाने की क्षमता होनी चाहिएविज्ञान की सापेक्षता के सिद्धांत की तरह ही इतिहास भी सापेक्ष होता है, अर्थात कोई भी इतिहास उस इतिहासकार के व्यक्तित्व और उनके लक्ष्य के अनुरूप ही होता है|  इन हिरणों को अपने ऊपर विश्वास ही नहीं है, कि वे अपना कोई इतिहास भी लिख सकते हैं, और इसीलिए ये अपने शिकारियों के रचित इतिहास के संरचनात्मक ढांचे में ही उलझे हुए होते हैं; यही इनकी सबसे बड़ी समस्या है|      

शिकारी अपने इतिहास लेखन में कुछ ऐसा लिख डालते हैं, कि जिससे हिरणों को लगता है कि उन्हें उनका उद्धार करने वाला सूत्र मिल गया है और वे अपना सम्यक इतिहास लिख ही लेंगेवस्तुत: हिरणों के प्रत्यक्ष समर्थन में दिखता ऐतिहासिक सामग्री उन हिरणों की हितों के ही विरुद्ध अचेतन और अधिचेतन स्तर कैसे सफलतापूर्वक काम कर रहा हैयह सब उन हिरणों के समझ के परे होता हैवस्तुत: यह उनके विरुद्ध काम भी कर रहा हैइसका अहसास ही उन्हें नहीं होता हैये इतिहास तो लिखते हैंपरन्तु उसके प्रभावों का मूल्यांकन बहुत दूर तक नहीं कर पाते हैं और इसीलिए उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहा हैआइंस्टीन ने एक बार पागलपन की परिभाषा दिया था, जिसमे उसने कहा कि एक ही काम को एक ही तरीके से रोज रोज करना और उसके किसी नए परिणाम की आशा करना, ही पागलपन है|” इन हिरणों को उनकी समस्याओं का समाधान इसीलिए नहीं मिल रहा, क्योंकि वे अपनी समस्याओं के मूल जड़ तक पहुँच नहीं पा रहे हैंइनका सम्यक इतिहास एक नए तरीके से लिखना तो दूर की बात हैक्योंकि किसी भी इतिहास लेखन का एक लक्ष्य और एक दर्शन होता हैइनको अपने लक्ष्य का तो इन्हें पता हैपर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इनको इनका इतिहास-दर्शन” (Historiography) का पता ही नहीं है| 

मैं इन हिरणोंके सम्यक दर्शनया सम्यक इतिहास दर्शनकी बात नहीं कर रहा हूँक्योंकि इनके सम्यकया अनुचितदर्शन की बात तो दूर की हैइन्होंने अभी तक अपना दर्शन ही नहीं तय किया है, जिस पर उनको अपना इतिहास लिखना हैइतिहास लेखन के लिए किसी सम्यक दर्शन की अनिवार्य आवश्यकता होती है| इन हिरणों ने कभी इस दिशा में सोचा ही नहीं है और इसीलिए उन्हें मेरी ये बातें अटपटी ही लग सकती हैपर मैं अति गंभीर बात कर रहा हूँयही कारण है कि भारत इतनी बड़ी आबादी के देश होने के बावजूद  विकासशील देश बनने के दौड़ में शामिल होना चाहता है और मानव-विकास के सूचकांक पर बहुत नीचे हैभारत की पाँच प्रतिशत की आबादी भी विकसित देशों के नागरिकों के समतुल्य नहीं हैं, अन्यथा यह भारत विश्व का सबसे अग्रणी देश होता| समाज के सामंतवादी मानसिकता यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं और राष्ट्र का विकास उन सामंतवादियों तक सीमित रखना चाहते हैंआप समझ सकते हैं कि मानव- विकास के सूचकांक में पिछड़ने का राष्ट्रीय दर्द कैसा होता हैआप से ही तो समाज और राष्ट्र को उम्मीद भी है|     

इतिहास मानव को क्या देता है?

इतिहास मानव को संस्कृति देता है, जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में एक सॉफ्टवेयर की तरह मानवपरिवारसमाजराष्ट्र और मानवता को चेतनअचेतनअवचेतन और अधिचेतन पर संचालितनियंत्रित, नियमित, प्रभावित और निर्देशित करता रहता है| चूँकि यह सॉफ्टवेयर है और तंत्र को संचालित करता हैअत: यह विकास को दिशा भी देता है, या अवरुद्ध भी करता हैभारत में विकास के बाधा को समझने के लिए भारत की संस्कृति और उसकी जड़ें को  इतिहास में  जानना और समझना जरुरी है| वर्तमान भारतीय इतिहास को सांस्कृतिक सामन्तवाद के सापेक्ष समझना बहुत जरुरी है| इसी कारण इतिहास आधुनिकता की नींव हैआधार है, जिस पर आधुनिकता का भव्य इमारत खडा होता है|

थोरो ने कहा था कि पेड़ की हर जहरीली पत्तियों और फलों पर प्रहार करते रहने से बेहतर है; कि उस जहरीले पेड़ की जड़ पर ही प्रहार कर उसे ही नष्ट किया जाना बुद्धिमत्ता है|

किसी भी संस्कृति या इतिहास के पेड़ के द्वारा उत्पादित फलों की एक निश्चित विचारधारा या आदर्श होता हैउसके हर जहरीले बात या उत्पाद के जबाव देने या उसे नष्ट करने के प्रयास से बहुत अच्छा है कि उस आदर्शको उत्पन्न करने वाले उस पेड़ को ही नष्ट कर किया जाय| इसके लिए आपको अपना इतिहास लिखना होगासामाजिक संत्रासों या कष्टों या मानसिक गुलामी को दूर करने का एकमात्र यही प्रभावी और समझदारी भरा उपाय है|

इतिहास (लेखन) की सही पद्धति क्या है?

डा० दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी ने इतिहास यानि सामाजिक रूपांतरण को “उत्पादन की शक्तियों और उनके अंतर प्रक्रियाओं के अंतर संबंधों के आधार पर समझने और समझाने की प्राविधि बताया है|” भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष प्रो० रामशरण शर्मा ही  डॉ० कोसाम्बी की इस विधि का बार बार उल्लेख करते रहे हैं| इस प्रक्रियात्मक प्राविधि में मैं एक संशोधन के साथ इसे एक नए स्वरुप में प्रस्तुत करता हूँ – इतिहासयानि सामाजिक रूपांतरण का प्रक्रियात्मक विवरणमानव के उपभोग’, ‘उत्पादन’, ‘वितरण’, एवं विनिमय; के साधनोंएवं शक्तियोंके अंतर्संबंधों के आधार पर आधारित है| इस आधार पर भारत की सभी समस्याओं का समाधान होता है, इतिहास की सभी परतों पर से रहस्य उठ जाता है, और वर्तमान धार्मिक यानि सांस्कृतिक सामंतवाद की पोल खोलता है| यह जातिवादवर्णवादधर्म और सम्प्रदाय के आंतरिक अंतर संबंधों को और उसके उत्त्पत्ति को भी उद्घाटित  करता हैइसके लिए ही इतिहास का नविन अध्ययन एवं लेखन आवश्यक है, परन्तु इसके लेखन के लिए शिकारियों के इतिहासउसके मंतव्यउसके साक्ष्यों को छोड़ कर अपना अवलोकनमननमंथन और चिंतन करना होगायही एकमात्र विकल्प है, बाकि सब तमाशा ही है|

आचार्य निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्तबिहारपटना|

(भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक)

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

भौतिकी के नई विमाएँ (New Dimensions in Physics)

आधुनिक भौतिकी पर आलेख

महान वैज्ञानिक स्टीफन्स हाकिन्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम के अंतिम पृष्ठ के अंत में सामान्य जनों का आह्वान किया था कि नवाचार (Innovations) कहीं से भी आ सकता है और सभी इसमे योगदान करें| एक दुसरे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने जब अपनी सापेक्षता का सिद्धांत दिया था, उस समय ये एक भौतिकविद नहीं थे बल्कि ये पेटेंट कार्यालय के किरानी थे| सापेक्षता का सिद्धांत परंपरागत विज्ञान का आधार बदल दिया और इसी कारण ये विश्व प्रसिद्ध हुए| बाद में उन्हें फोटो इलेक्ट्रिक प्रभाव” (Photo Electric Effect) की व्याख्या करने के लिए नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया|

 परम्परागत विज्ञान में किसी भी वस्तु (Object) की आकाश (Space) अवस्थिति जानने के लिए तीन विमाए (आयाम) (Three Dimensions) पर्याप्त था| इन्हें लम्बाई (Length), चौड़ाई (Width), गहराई (Depth, ऊँचाई -Height) कहा जाता है और इन्हें क्रमश: X-axis, Y-axis, एवं  Z-axis से भी प्रतिनिधित्व किया जाता है| इन्हें निर्देशांक ज्यामिति या वैश्लेषिक ज्यामिति (Analytic Geometry या  Coordinate Geometry) भी कहा जाता है और इसमे इसका विस्तृत अध्ययन किया जाता है| परम्परागत  विज्ञान में किसी भी किसी भी परम्परागत वस्तु की अवस्थिति को जानने के लिए इतना ही काफी था| पर अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के साथ चौथा विमा समय (Fourth Dimension TIME) को बताया जो आधुनिक विज्ञान को समझने का एक महत्वपूर्ण अवधारणा (Concept) और उपकरण (Tool) साबित हुआ| गणीतिय संगणनाओं  के अनुसार सैद्धांतिक रूप में कुल 12 विमाए (कुछ के अनुसार 10 विमाए) होने चाहिए|

 मैं भौतिकीविद नहीं हूँ पर मेरे अनुसार इस चौथे विमा के बाद आगे जो भी विमाओं के दावे किए जा रहें हैं; उनसे मुझको सहमत होने में कठिनाई है| मुझे नहीं पता कि विश्व के आधुनिक विज्ञान और क्वांटम विज्ञान के वैज्ञानिकों की इस सम्बन्ध क्या धारणा है? इस सम्बन्ध में मेरी भी कुछ मान्यताएं है जो विज्ञान के नजदीक है, तार्किक है और सहज ग्राह्य भी है| यह विज्ञान के कई नए आयामों को खोलेगा|

 गुरुत्व (Gravity) प्रकृति  के चार मौलिक बल या अंतर्क्रिया (Four Fundamental Forces or Interactions) (अन्य तीन इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फ़ोर्स, वीक फ़ोर्स, स्ट्रांग फ़ोर्स – Electromagnetic Force, Weak Forces, Strong Forces ) में एक हैगुरुत्व बल प्रकृति के सभी द्रव्यमानों (Masses) या  उर्जा (Energy) के बीच आकर्षण बल (Attraction Forceको कहा जाता है| यह एक दुसरे को नजदीक लाता है और इस बल के उत्त्पत्ति का कारण अभी तक अज्ञात है| यह चारों में यह सबसे कमजोर है और सूक्ष्म कणों पर लगभग प्रभावहीन है; फिर भी मौलिक होने के कारण महत्वपूर्ण है| इसका प्रभाव  विश्यव्यापी है या यों कहे कि प्रकृति के क्षेत्र में व्यापक है| मेरे अनुसार इसी कारण गुरुत्व को पांचवा विमा (Gravity is Fifth Dimension) माना जाना चाहिए| गुरुत्व एक आकर्षण बल है पर यह जितना सरल (Simple) लगता है,उतना सरल नहीं है| यह सरल सीधी रेखा (Straight Line) में ही अस्तित्व में नहीं है, अपितु वक्राकार रेखा (Curve Line) में भी उपस्थित है| इसे पांचवे विमा मान लेने से आकाश में तीन निर्देशांक और समय में समानता होते हुए भी गुरुत्व बल के प्रभाव में स्थिति भिन्न हो सकती है| इस विमा को बड़े वस्तु के सन्दर्भ में अटपटा माना जा सकता है परन्तु सूक्षम कणों के सम्बन्ध में सही माना जा सकता है| सूक्षम कण अपने वेव फंक्शन (Wave Functions) की अवस्था में मौजुद रहते हैं और इसी कारण इस विमा का सन्दर्भ महत्वपूर्ण हो जाता हैअध्यारोपण सिद्धांत (Superposition Theory) के अनुसार सूक्ष्म कणों के सम्बन्ध में एक ही तरह के विभिन्न समय में किए गए प्रयोगों के भिन्न भिन्न परिणाम आते हैं| ऐसे परिणामों में इन पांचवे, छठवें, और सातवें विमाओं की भूमिकाएँ हो सकती है| गुरुत्व का प्रभाव भले ही सूक्ष्म है, पर यह यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विभिन्न समय में, और ब्रह्माण्ड के विभिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न तीव्रता में मौजूद है और स्थिति को प्रभावित करती है|  

 मेरे अनुसार छठा विमा  इलेक्ट्रो स्थैतिक बल (Sixth Dimension is Electro- Static Force) है| ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुएँ पदार्थ एवं उर्जा से बनी हुए है और पदार्थ एवं उर्जा का एक दुसरे में रूपांतरण होता रहता है या हो सकता है| प्रत्येक उर्जा या पदार्थ के कणों या तरंगों में आवेश (Charge) होता है और यह आवेश दुसरे आवेश को संपर्क में आकर या बिना संपर्क में आए ही  प्रभावित करती रहती है| इसके साथ ही यह आवेश दुसरे पदार्थ के सतह पर बिना सम्पर्क में आए ही  विपरीत प्रकृति और सामन मात्रा में आवेश को उत्प्रेरित (Induce) करता है| इस तरह यह भी विश्वव्यापी प्रभाव में है; भले इसकी मात्रा अलग अलग समयों  और स्थानों में अलग अलग है| यह सूक्ष्म और बृहत् सभी वस्तुओं एवं उर्जाओं के लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण है| वैज्ञानिक इसे छठवें विमा के रूप में मान कर इसका परिक्षण करें|   

 मेरे अनुसार सातवाँ विमा चुम्बकीय बल (Seventh Dimension is Magnetic Force) है| सभी पदार्थों के कणों में चुम्बकीय गुण पाए जाते हैं; भले ही उसकी मात्रायों में भिन्नता हो| यह आवेशों की गत्यात्मकता से भी उत्पन्न होता है और प्रभावित होता है| इस तरह यह चुम्बकीय बल पदार्थों और आवेशों के स्थान परिवर्तन, पुनर्विन्यास और गत्यात्मकाताओं (समय के सापेक्ष गति) से बदलता रहता है| इसका प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर है और यह एक महत्वपूर्ण विमा है|

 जिस तरह प्रथम तीन परंपरागत विमाओं से सहज होना और सहजता से समझ आना आसन रहा है; चौथे विमा समय (Time) को आज भी सहजता से अंगीकार (accept) करने दिक्कत होती है| इसी कारण पांचवें, छठवें, और सातवें को सहजता (spontaneity, innateness) से स्वीकार करना कठिन है| लोगों को एक आपत्ति होती है कि उन्होंने  ऐसा आज तक पढ़ा नहीं है; मानों उनका पहले ही पढ़ लेना हे किसी नवोन्मेषी विचार को मानाने की प्रथम शर्त है| “आउट ऑफ़ बॉक्स”  की भी सोंच हो सकती है; ऐसा उनके जेहन में ही नहीं आता| नए विचारों का तो विरोध पागलपन की हद तक  होती है| विरोध होना चाहिए परन्तु तथ्यात्मक (Factual), तार्किक (Logical), साक्ष्यात्मक (Evidential) और वैज्ञानिक (Scientific)| मैं यह भी नहीं कहता कि ये तीनों सही ही साबित हो; परन्तु विज्ञान का विकास ऐसे ही  होता है| पहले पूर्व धारणाएँ (Postulation) स्थापित की जाती है और फिर  उसे वैज्ञानिक परीक्षणों से जांचा जाता है| यदि सही साबित हो गया तो उसे कई दृष्टिकोणों से भी कई बार दुहराकर जाँचा जाता है| इसके बाद ही विज्ञान का सिद्धांत (Theory of Scienceबनता है| मैंने इसे अपनी सहज वृति (Intuition) से समझा और फिर उसे सम्पादित कर आपके समक्ष उपस्थापित कर रहा हूँ|  

 निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

बिहार,पटना|  

शनिवार, 11 जुलाई 2020

क्या मूल निवासी अवधारणा मूल निवासी विरोधी है? (Is Concept of Native against the Native?)

भारत में आजकल वर्ण व्यवस्था के तथाकथित निचले और वर्ण व्यवस्था से बाहर की आबादियों के बीच मूल निवासी  की अवधारणा तेजी पकड़ता जा रहा है। इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है? कई प्रश्न उभरते हैंये मूल निवासी और बहुजन कौन है?  इनका आधार क्या हैक्या इनका आधार वैज्ञानिक हैतार्किक है और तथ्यों अर्थात साक्ष्यों पर आधारित हैक्या मूल निवासी अवधारणा तथाकथित तथ्यों और वैज्ञानिकता की आड़ में झूठी भावनात्मक अपील कर रहा है?

 “सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस उद्देश्य के लिए मूल निवासी अवधारणा को लेकर आंदोलन किया जा रहा है ; कही यही अवधारणा ही उद्देश्य को तो खंडित नहीं कर रहा? यह एक अति गंभीर प्रश्न है, जिसे समझना जरुरी है|”

 इस भावनात्मक अपील की आधार है - वर्ष 2001 में 'जीनोम रिसर्च' में प्रकाशित उटाह विश्वविद्यालयउटाहसंयुक्त राज्य अमरीका के प्रोफेसर माइकल बामशाद के नेतृत्व में किया गया शोध। इस शोध का शीर्षक - "भारतीय जाति की उत्पत्ति का जीनीय साक्ष्य" (Genetic Evidence on the Origins of Indian Caste Populations) था। इस शोध के आधार पर बताया गया कि यूरोपीयों और ब्राह्मणों के बीच आनुवांशिक दूरी 0.10 है, तो यह दूरी यूरोपियों और क्षत्रियों में 0.12 तथा यूरोपियों और वैश्यों में 0.16 है। शूद्रों से तुलनात्मक दूरी अधिक है। बामशाद के अनुसार भारत की प्रत्येक जाति एक विशेष आनुवांशिक रूप रेखा में विकसित हुई है, जबकि स्त्रियों की आनुवांशिकी में सामाजिक गतिशीलता अधिक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उच्च जातियों के उत्कृष्ट जीनीय बनाबट के होने और उसके अनुरूप उनकी उत्कृष्ट योग्यता (क्षमता) की  अवधारणा या धारणा शतप्रतिशत सही है।

 इस शोध के आतंरिक दर्शन के अनुसार भारतीय जातियों का आधार जीनीय है और यह ऐतिहासिक सत्य है| इन जातियों और वर्णों में कोई मिलावट यानि संकरण नहीं हुआ है और ये अपने उत्पत्ति के समय से ही शुद्धता बनाए हुए हैंइन जातियों और वर्णों की उत्पत्ति के सिद्धांत के अनुसार इनकी उत्पत्ति सभ्यता एवं संस्कृति के उदय के साथ हुई है, जो अब अधिकांश विद्वानों को मान्य नहीं है| सभ्यता के उदय के साथ होना अर्थात यह ऐतिहासिक है, यह पौराणिक है, और इसी कारण सबके लिए गौरवमयी है| इस सिद्धांत के अनुसार आर्य भारत में अपने प्रथम आक्रमण के समय से आज तक शुद्ध हैंप्रथम आक्रमण या प्रवेश के समय इन्होंने भारत के पूर्व से स्थापित निवासियों को पराजित कर अधीन बना लिया था अर्थात आर्य की जीनीय गुणवत्ता उस समय उत्कृष्ट थी, सर्वश्रेष्ट थी, और सर्वोत्तम थी, जो आज तक शुद्धता बनाए हुए है| इसका दूसरा अर्थ हुआ कि जो उस समय हार गए थे, उनकी जीनीय गुणवत्ता और बनावट आर्यों की तुलना में निकृष्ट थी, घटिया थी, पराजित थी, और तुलनात्मक रूप में निम्नतर थी| चूँकि जीनीय शुद्धता बरकरार है और इसीलिए  यह विरोधाभास आज तक बना हुआ है| इसका अर्थ हुआ कि आज भी अनार्य जातियों का जीनीय बनावट और गुणवत्ता आज के आर्य जातियों के  तुलना में  निम्न है, जो अनार्य जातियों को ख़राब लगता है| एक तरफ अनार्य जातियां सैद्धांतिक रूप से आर्य जातियों की श्रेष्टता मानते है और इसका विरोध भी करते हैं|  आज कुछ संगठन इसी सिद्धांत को मानता है कि आर्य जातियों को ही शासन करना चाहिए, क्योंकि इनकी जीनीय उत्कृष्टता आज भी पूरी शुद्धता से बरकरार है और अनार्य जातियों को शासित होना चाहिए| इस तरह मूल निवासी की अवधारणा इस अवधारणा को सही मानती है| यह स्पष्ट है कि मूल निवासी अवधारणा वाले क्या चाहते हैं और क्या कर रहे हैं – उनको कुछ पता ही नहीं है| इस तरह ये लोग अपना, समाज का और देश का जवानी, समय, धन और संसाधन बर्बाद कर रहे हैंमैं मूल निवासी आंदोलनकर्ताओं पर एक गंभीर आरोप लगा रहा हूँ, इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए|           

 मेरे अनुसार मूल निवासी का अवधारणा पूर्णतया गलतअतार्किकऔर अवैज्ञानिक है। यह अवधारणा देश के बहुजन हित विरोधी है। यह ब्राह्मणवाद (सामंतवाद का भारतीय संस्करण) का जबरदस्त समर्थन है। यह फांसीवादी अवधारणा है और उसी को मजबूत करता है। इसी कारण बहुजन आबादी अपनी क्षमताओं और संभावनाओं के अनुरूप राष्ट्र निर्माण और मानवता के कल्याण में पूरा योगदान नहीं दे पा रहा है। यह अवधारणा राष्ट्र निर्माण को कमजोर बनाता है। मूल निवासी अवधारणा की यथास्थितिवादी लोग विरोध नहीं करते हैं। वे विरोध या खंडन इसलिए नहीं करते हैं, कि मूल निवासी अवधारणा वर्ण व्यवस्था की यथास्थिति का जबरदस्त समर्थन करता है। यथास्थितिवादियों के लिए वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित समाज एवं शासन में एक विशेषाधिकार है तथा शूद्रों एवं अवर्णों के लिए निर्योग्यता। इस तरह मूल निवासी समर्थक आन्दोलन वर्ण व्यवस्था को यथास्थिति में रखने के कुछ संगठनों के उद्देश्यों को जबरदस्त समर्थन दे रहा है और प्रचार कर रहा है।

 मूल निवासी अवधारणा के अनुसार हिन्दू वर्ण व्यवस्था में अनुक्रमण के तीन ऊपरी वर्ण - ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य विदेशी आर्य है और अंतिम चतुर्थ वर्ण – शूद्र और वर्ण व्यस्था के बाहर के लोग भारत के मूल निवासी हैं। शूद्र वर्ण और अवर्ण  के सदस्य अपनी आबादी के कारण सम्पूर्ण भारतीय आबादी का अनुमानित 91 प्रतिशत (अधिकांश मानते हैं कि इसी कारण भारत में जातियों की 2011 की जनगणना प्रकाशित नहीं किया जा रहा है) हिस्सा बनाता है। इस वर्ग को बहुजन कहा जाता है तथा इसमें शूद्र, अवर्ण  और धर्म परिवर्तित इस्लाम एवं इसाई धर्म के अनुयायियों सहित जनजातियां भी शामिल हैं। इस अवधारणा के अनुसार बहुजन भारत के मूल निवासी हैं और ये सवर्ण (ऊपरी तीन वर्ण) विदेशी हैं। यहां विदेशी का संदर्भ भारत में मूलतः निवास करने वाले के संदर्भ में है। ये विदेशी आर्य कहलाते हैं। विदेश से आए आर्यों की तथाकथित कहानी विगत चार  हजार वर्ष पहले शुरू होता है। मूल निवासी भी अपनी जीनीय शुद्धता आज भी विगत चार हजार वर्षों से यथावत बरकरार रखे हुए मानते हैं। आज से चार हजार वर्ष पहले सवर्ण विजेता थे और मूल निवासी पराजित थे। जब मूल निवासी आज शुद्ध मूल निवासी हैं, तो सवर्ण भी आज शुद्ध विदेशी हैं, जिनका जीन सर्वोच्चसर्वश्रेष्ठऔर उत्कृष्ट था और आज भी सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ, और उत्कृष्ट है। यह भावार्थ सभी बहुजनों को बुरा लगता है। इसलिए कि यह भावार्थ गलत हैअतार्किक हैअवैज्ञानिक हैऔर साक्ष्यों के विपरीत है। फिर इस अवधारणा को सही कैसे माना जाययूनेस्को भी प्रजातीय/ जातीय शुद्धता की अवधारणा को अवैज्ञानिक बता चुका है। प्रजातीय/ जातीय शुद्धता ही फांसीवाद का मौलिक आधार है। एक तरफ फांसीवाद को ग़लत ठहराना और दूसरी ओर इसकी मौलिकताओं को समर्थन देना पूरा विरोधाभासी है।

 सामंतवादियों के कहानियों (क्योंकि संबंधित पुरातात्त्विक साक्ष्यों का पूर्ण अभाव है) के अनुसार चार हजार वर्ष पूर्व आर्यों का भारत के पश्चिमोत्तर सीमा से आक्रमण या आगमन हुआ। विजेता आर्य तीन वर्ण - ब्राह्मणक्षत्रियवैश्य में थे तथा पराजित भारतीयों के लिए चौथा वर्ण शूद्र बनाया गया और जाति व्यवस्था का निर्माण किया। शोधकर्ता माइकल बामशाद भी इस साक्ष्यविहीन कथाओं का समर्थन करते हैं। बामशाद के अनुसार जाति व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार आनुवांशिक असमानता ही है और इन आक्रमणकारियों ने ही भारत में जाति व्यवस्था कायम की। इनके अनुसार उच्च जातियों की सर्वाधिक आनुवांशिक समानता यूरोपिय लोगों से है।

 किसी भी क्षेत्र या प्रदेश में कोई भी मूल निवासी का दावा दो आधार पर कर सकता है। पहला आधार है कि उस समूह की उत्पत्ति ही उसी क्षेत्र में हुआ है। दूसरा आधार यह है कि वह समूह उस क्षेत्र में सबसे पहले आए और उनके रहने के काल में भी उनकी जीनीय शुद्धता बनी रही अर्थात उनका जीनीय मिलावट (संकरण) किसी बाहरी समुह से नहीं हुआ।

 विश्व के सभी आधुनिक मानव वैज्ञानिक शब्दावली में होमो सेपियंस कहे जाते हैं। मानव विज्ञानियों के अनुसार होमो सेपियंस (आधुनिक मानव) की उत्पत्ति अफ्रीका के बोत्सवाना क्षेत्र में हुई और वही से पूरे विश्व में फ़ैल गए। सभी प्रजातियों की उत्पत्ति वहीं से हुई। मानव विज्ञान के अनुसार शिवापिथेकसरामापिथेकसआस्ट्रेलोपिथेकसनियंडरथल, होमो इरेक्टस आदि प्रजातियां विलुप्त हो चुकी है। अतः इस आधार (उत्पत्ति के आधार पर ) पर कोई भी मानव भारत का मूल निवासी नहीं है।

 मूल निवासी का दूसरा आधार किसी क्षेत्र का पहला निवासी का है। इस आधार पर भारत के मूल निवासी का दावा वे लोग कर सकते हैं, जो इस क्षेत्र में सबसे पहले आए और उसी समय से रह रहे हैं और आज भी अपनी जीनीय शुद्धता एवं संस्कृति संरक्षित (बचाए) किए हुए है। इस आधार पर भारत में ज्ञात नृजातीय बसावटों में अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में रहने वाले 'अण्डमानी', 'जारवा', 'सेंटीनली' आदि एवं मुख्य भूमि में अरुणाचल प्रदेश की दो सीमांत जनजाति ही इसका दावा कर सकते हैं। मैदानी इलाकों, जो प्रजातियों और संस्कृतियों का मेल्टिंग पाट (Melting Pot, संकरण या मिलन स्थलरहाकी आबादी का मूल निवासी की शुद्धता के दावा दमदार नहीं है।

 अब बहुजनों के मूल निवासी के दावों का विश्लेषण किया जाय। यह अलग बात है कि आर्य एक प्रजाति नहीं है और एक भाषायी समूह के रूप में अब स्थापित है। जब भी किसी क्षेत्र में किसी बाहरी समुह का आक्रमण होता है तो आक्रान्ता युवा होते हैं और अधिकांशत पुरुष ही होते हैं। उनकी भौतिक अन्त: प्रेरणा (Physical Drives) में भूख एवं प्यास के बाद यौन संबंधों (Sexual Relationsकी पूर्ति भी एक बलबती अन्त: प्रेरणा (Drive) एवं सहज वृत्ति (Instinctहोता है। विजेताओं के लिए हारे हुए समूह की महिलाएं यौन संबंधों के लिए सहज उपलब्ध होती है। इसी कारण आक्रमण के काल से ही दोनों का संकरण (Hybridization) प्रारंभ हो जाता हैभले ही सांस्कृतिक भौतिक स्वरूपों में भिन्नता बनाया रखा गया। तथाकथित जीनीय शुद्धता का आधार उसी समय से क्षरित होना यानि समाप्त होना शुरू हो जाता है।

 मूल निवासी की अवधारणा का आधार मानवीय कोशिकाओं के हैप्लो ग्रुप (Haplo Group) की बनावट है। सैद्धांतिक रूप में मातृवंशीय कड़ी की जांच माइटोकॉन्ड्रिया से किया जाता है और पितृवंशीय कड़ी की जांच 'वाईक्रोमोजोम (Y- Chromosome) से तय किया जाता है। इसकी जांच की प्रविधि "झिवोतोवस्की" (Zhivotovaski) विधि है, जिसके पूर्णता (शुद्धताके दावों से जीन विज्ञानी बहुत संतुष्ट नहीं हैं। आधुनिक मानव में 46 क्रोमोजोम है, जो डीएनए की कड़ी है। यह माता पिता के संयोजन से आता है और इस 46 में से एक को ही अति महत्वपूर्ण बनाया जा रहा हैं एवं अन्य 45 को गौण किया जा रहा हैं, जबकि जीवन निर्माण में सबकी महत्वपूर्ण सहभागिता होती है। अमेरिकन संस्थान (US National Library of Medicineके अनुसार मानव में जीनीय गुणों के आधार क्षार है और क्षारों (Base) की संख्या 300 करोड़ की है| ये क्षार ही जीन बनाते हैं| सभी मानवों में इन जीनों में 99 प्रतिशत से अधिक की समानता होती है। अर्थात 300 करोड़ में 297 करोड़ गुणों की समानता है और 300 लाख (तीन करोड़) गुणों की असमानता है; आप इसमे से अपनी इच्छानुसार जो समानता या असमानता गुणों को लेना चाहते है, उसे लेकर अपनी इच्छा के अनुसार इस संबंध में कोई परिणाम दे सकते हैं| सभी मानवों में जीनों टाइप (जीनीय बनावट) जीनो में समानता होता है, जबकि भिन्नता फीनों टाइप (भौतिक गुण) में होता है|

दरअसल माईकल बामशाद ने जीनीय पूल (Genetic Pool), जीनीय बहाव (Genetic Drift) और जीनीय प्रवाह (Genetic Flow) को भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था यानि भारतीय जाति व्यवस्था के संदर्भ में समझा ही नहीं, और एक भ्रामक रिपोर्ट को प्रकाशित होने दिया। इतने बड़े वैज्ञानिक और उच्चतर तकनीकी के बावजूद इसी कारण त्रुटि हो गई है। आप भी जीनीय पूल, जीनीय बहाव और जीनीय प्रवाह को समझिए।

 उपरोक्त सैद्धांतिक आधार के अवलोकन के बाद कई प्रश्न उभरते हैं। पहला प्रश्न है कि जिस ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद का भारतीय सामंती संस्करण) की बात की जा रही हैउसकी उत्पत्ति ही मध्य काल में सामंतवाद के कारण हुई। यह पुरातात्त्विक साक्ष्यों पर आधारित वैज्ञानिक और तार्किक सत्य है। इस उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया है|  दूसरा प्रश्न यह है कि जब जांच की प्रविधि झिवोतोवस्की विधि ही संदिग्ध है, तो इतने बड़े ऐतिहासिक दावे किस स्वार्थ के लिए किए जा रहे हैंतीसरा प्रश्न यह है कि चयनित भारतीयों को उनके वर्णउनके आवासउनके व्यवसाय और उनके सामाजिक आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा गया है, जबकि तुलनात्मक यूरोपियों को एक सामान्य, पश्चिमी एवं पूर्वी यूरोपीय लोगों को ही लिया गया। इन यूरोपियों के व्यवसायसामाजिक और आर्थिक स्थिति को स्पष्ट नहीं किया गया है। इससे तुलना भ्रामक हो जाती है। भारत में पुरोहित (ब्राह्मण) शारीरिक श्रम नहीं करते और विशेषाधिकार युक्त जीवन व्यतीत करते हैं। क्षत्रिय सामान्यतः सामंत थे और वैश्य सामान्यतः समृद्ध जीवन व्यतीत करते रहे। इनके इस अवस्था में इनके सामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक और पर्यावरणीय (धूपवर्षागर्मीनमी, एवं श्रम का अभाव, और आरामभोजन की गरिष्ठतासुंदर महिलाओं के चयन का विशेषाधिकार आदि) परिस्थितियां निर्धारक रही, जिनका शोध में ध्यान नहीं रखा गया। भारतीय शोधकर्ताओं के उस टीम में कितने सदस्य चालाक और कितने नादान थेमैं उस पर टिप्पणी नहीं करना चाहता। चौथा प्रश्न यह है कि जब यह शोध ही भारतीय जाति व्यवस्था को तार्किकवैज्ञानिकसहीउपयुक्त और आवश्यक बताने के लिए किया गया, तो दूसरा विपरीत परिणाम कैसे आता? इस शोध का शीर्षक - Genetic Evidence on the Origins of Indian Caste Populations ही इस भावना को आहत करता है। यह रिपोर्ट जातीय उत्कृष्टता को सही साबित करने के ही तैयार करवाया गया लगता है|

 यह भारत के सामंती यथास्थितिवादियों की साज़िश है, जो वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है और पीड़ित वर्ण – शूद्र एवं अवर्ण उसका बिना समझे समर्थन दे रहा है। यह सिद्धांत  कार्य प्रवृत्तिकार्य क्षमताकुशलता का विरोध है। यह राष्ट्र के नवनिर्माण का विरोध हैयह मानवीय मूल्यों का विरोध है और यह विकास का विरोध है। यह न्यायसमानतास्वतंत्रता और बंधुत्व का भी विरोध है। यह बहुसंख्यक भारतीय की संभावनाओं का विरोध है। इस तरह ये मूल निवासी के आन्दोलनकर्ता ही मूल निवासी के हितों का ही विरोध कर रहे हैं और कुछ संगठनों के जातीय उत्कृष्टता के सिद्धांत का समर्थन कर रहे हैं|  इस पर गंभीरता से विमर्श किया जाय।

 निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

बिहार, पटना|


 

 


शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

सामाजिक क्रान्ति के आधार (Basis of Social Revolution)

सामाजिक क्रान्ति के आधार 

(Basis of Social Revolution)

क्रान्ति क्या है?

“क्रान्ति अल्प समय में एक बहुत  बड़ा (Drastic) सकारात्मक

 और रचनात्मक परिवर्तन है, बदलाव है जिसका प्रभाव दूरगामी होता है|”

भारत में हमेशा सामाजिक क्रान्ति या बदलाव की बाते की जाती है| लोगो के मन में यह प्रश्न उठता है कि सामाजिक क्रान्ति क्यों? सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य क्या है? सामाजिक क्रान्ति से क्या परिवर्तन या रूपांतरण आएगा? यह सामाजिक क्रान्ति कैसे लायी जा सकती है? इन मौलिक प्रश्नों का उत्तर जानना आवश्यक हैसामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि इससे सामाजिक क्षमता का महत्तम विकास और उपयोग होता है| इससे राष्ट्र सशक्त होता है और समाज समृद्ध बनता है|

सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य समाज में सुख, शान्ति, संतुष्टि और समृद्धि स्थापित करना है जो समुचित न्याय से आता है| समुचित न्याय से समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व आता है| आज सभी विकसित समाजो और राष्ट्रों का यही आधार है|”

इससे हर व्यक्ति अपनी क्षमता का महत्तम उपयोग कर समाज और राष्ट्र को लाभान्वित करता है| इस आलेख में इस आवश्यक क्रान्ति के आधारो को समझाया गया है|

भारत में प्रो० एस एम स्वामीनाथन के नेतृत्व में हरित क्रान्ति किया गया और अनाज के उत्पादन में भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा| उच्च उत्पादकता वाले बीज, यंत्रीकरण, ट्रैक्टर, सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक आदि के उपयोग से यह क्रान्ति संभव हुआ| वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में श्वेत क्रान्ति हुई जो दूध के लिए क्रान्ति रही ,पर बाद में इसमें अंडा भी शामिल हो गया| बात चाहे नीली क्रान्ति की हो, या औद्योगिक क्रान्ति की हो; सभी को सफल बनाने के लिए  उसके कुछ मूल तत्वों को समझाना होता है, उसकी क्रिया विधि या प्रक्रिया को समझना होता है कि वह काम कैसे करता है| इसी तरह सामाजिक क्रान्ति, आर्थिक क्रान्ति, शैक्षणिक क्रान्ति, और सांस्कृतिक  क्रान्ति आदि है जिसके तत्वों को और उसके प्रक्रिया विधि को समझना होता है और उसी के आधार पर आगे बढ़ना होता है| सभी क्रांतियों का मूल (Basic, Basis) या मौलिक (Fundamental) तत्व मानव होता है जिसका मनोविज्ञान (Psychology) समझना सबसे महत्वपूर्ण होता है| लोगों की मानसिकता को पढ़ना और समझना तथा उसके सहज प्रवृतियों (Basic Instinct) के अनुरूप  कार्य करना आवश्यक है|

सामाजिक क्रान्ति के लिए समाज के बुनियाद और बनावट को समझना होगा| हर समाज का एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होता है, विशिष्ट सांस्कृतिक बनावट होता है| हर समाज की अलग आर्थिक, और शैक्षणिक आवश्यकता और स्तर होता हैसमय और परिस्थिति के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का दर्शन भी बदलता रहता है| एक लम्बे समय में नए शोधो से कई पृष्ठभूमि और आधार बदल जाते है| पहले संस्कृत को पालि से पुराना माना  जाता था, पर अब नए शोधों से स्पष्ट हुआ कि पालि ही संस्कृत से पुरानी है| नए परिस्थति में जनांकीय (Demographic) बनावट बदल गए हैं, अब युवाओं की कई मायनों में प्रभावोक्ता बढ़ गयी है| डिजीटल और संचार क्रान्ति ने कई आधारों को बदल दिया है| इन पृष्टभूमियो में जो सामाजिक परिवर्तन के दर्शन पचास या सौ साल पहले उपयुक्त रहे, उन पर अब नए सिरे से विचार करने और नए दर्शन की आवश्यकता है|  समेकित रूप में मै  यह कहना चाहता हूँ कि लोगो में परिवर्तन या रूपांतरण की बेचैनियाँ है, लोगों की सहभागिता भी है, उसके लिए  समय और संसाधन की भी उपलब्धता है; पर एक समुचित और वैज्ञानिक दर्शन का अभाव है जिस पर अधिकतर विचारकों का भी ध्यान नहीं है|  इसे महत्वपूर्ण मानते हुए एक सम्यक दर्शन का विकास नए परिस्थिति और समय में करना आवश्यक है| इसके बिना सभी प्रयास और संसाधन बेकार हो रहे है|

समाज के लिए यह महत्वपूर्ण और आवश्यक है कि व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्य तथा अस्तित्व को समझाने के लिए शिक्षा ग्रहण करें| शिक्षा ग्रहण को उपाधि ग्रहण से सदैव नहीं जोड़ा जाना चाहिए| शिक्षा ग्रहण को उपाधि ग्रहण से जोड़ देने से लोग बिना शिक्षा ग्रहण किए भी उपाधि ग्रहण अपने दुसरे प्रभाव से कर लेते है| शिक्षा ग्रहण अध्ययन के व्यवहारिक अवलोकन से आता है जिसमें पुस्तकों के अवलोकन के अतिरिक्त उस अध्ययन किए गए सामग्री पर मनन और मन्थन करना पड़ता है और उस पर समूह में विमर्श भी करना पड़ता हैसामाजिक बदलाव के अन्य साधन व्यक्ति को बाहर से अर्थात उस व्यक्ति के आंतरिक इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करते हैं परन्तु शिक्षा व्यक्ति को आंतरिक रूप से यानि स्वंय इच्छा से बदलाव लाने में योगदान करता है, प्रेरित करता है| प्रिंट मिडिया हो या टीवी मिडिया हो ; दोनों भारत में अपने परम्परागत सामंती प्रभाव को बनाए रखने के उद्देश्य में यथास्थितिवादी हैं| सोशल मिडिया भी बहुत प्रभावकारी है जो अपने टेक्स्ट और विडिओ के माध्यम कार्य करता  हैं और इसमे सामान्य जन भी भाग ले पाते हैं| सोशल मिडिया व्यक्ति एवं समाज को अपेक्षित तरीकों से अपेक्षित दिशा में शिक्षित कर स्वत: स्फूर्त परिवर्तन के लिए बाध्य करता हैमार्केटिंग प्रबंधन के विश्व  प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर फिलिप कोटलर ने अपनी हाल के पुस्तक – “मार्केटिंग -4” (2017) में विचारों के मार्केटिंग के लिए “नेटीजन” को महत्वपूर्ण स्थान दिया है जो सोशल मिडिया को ही महत्वपूर्ण स्थान देता हैनेटीजन उस सिटिजन (नागरिक) को कहते हैं जो नेट (इंटरनेट) पर रचनात्मक रूप से सक्रिय होते हैं| चूँकि ये नेट पर क्रियाशील होते हैं, इसलिए  ही ये राष्ट्रीय सीमाओं से बंधे नहीं होते हैं| नेट की पहुँच विश्व व्यापी होती है|    

सामाजिक इतिहासकारों ने पाया है कि सत्तारूढ़ सामाजिक वर्ग समाज में यथास्थितिवाद बनाए रखना चाहता है ताकि उन्हें सत्तारूढ़जन्य आर्थिक, राजनितिक, और सामाजिक लाभ मिलता रहे या यथावत रहे|  कार्ल मार्क्स का ऐसा ही मानना था|  भारत में जाति व्यवस्था के जाति  को वर्ग का स्थानापन्न माना  जाना चाहिए ; परन्तु एक दुसरे को एक दुसरे का स्थानापन्न भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वर्ग यूरोपीय औद्योगिक समाज का इकाई है जबकि जाति भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का एक विशिष्ट इकाई है जिसका कोई दूसरा उदहारण विश्व इतिहास में नहीं है|  डा० आम्बेडकर ने भी लिखा है कि राजनैतिक रूपांतरण के पूर्व सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपांतरण आवश्यक है| इसके पक्ष में उन्होंने विश्व और भारत के इतिहास से कई उदहारण दिए हैं| डा० आम्बेडकर ने इसे राजनैतिक रूपांतरण का पूर्व शर्त माना है|   

जनमत को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली एकमात्र संवादपालिका है जो मिडिया के नाम से जाना जाता है| भारत में डिजीटल मिडिया में टेलीविजन और प्रिंट मिडिया में अख़बार प्रमुख है| ये मिडिया अपने सामंती स्वार्थवश सामंती वर्ग यानि जाति (भारत में लोग जाति के स्वरुप को ही वर्ग मानते है, एक दुसरे को पर्यायवाची मानते हैं) का ही समर्थन करता रहता है और यह राष्ट्र निर्माण में बाधक बना हुआ है| इन मिडिया में कुछ अपवादों के साथ लोगों को प्रवेश ही जाति के आधार पर होता बताया जाता है जिसमें योग्यता प्रमुख और महत्वपूर्ण नहीं होता है| ये अपने सांस्कृतिक परम्परागत अवधारणाओ के साथ ही सामंती मानसिकता के हैं जिन्हें भारत के राष्ट्र निर्माण की समझ नहीं है| इसे समझना होगा| इसी कारण सामान्य जन मुख्य धारा के मिडिया से निराश है| ये मिडिया समाज के हाशिए पर रखे गए या छोड़ दिए लोगों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते| ये सामान्य जन को सिर्फ भ्रम में ही रखना चाहते हैं और बहलाए रखने में यथास्थितिवादियो के समर्थन में खडा रहते हैं| ऐसी स्थिति में इस मीडिया का विकल्प सोशल मीडिया ही हो सकता है| यह छोटे एवं उपेक्षित समूह से बड़े और प्रभावकारी समूह तक संवाद करने का सशक्त माध्यम साबित हो गया है|   

सोशल मिडिया को सशक्त एवं प्रभावकारी बनाने के लिए सम्यक विचार किया जाना आवश्यक है| इसकी सीमाओ, बाधाओ, तथा इसके लक्षित वर्ग के शैक्षणिक स्तर और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर तथ्यों एवं सूचनाओ का संयोजन एवं संपादन करना होगा| इसके साथ ही व्यक्ति और समाज के व्यवहार एवं प्रेरणाओ के कारको एवं उसके क्रिया विधि का मनोविज्ञान समझना होगा| व्यक्ति एवं  समाज की भावनाए कैसे संचालित होती है- समझना चाहिए| व्यक्ति एवं समाज के व्यवहार में आदत की क्या भूमिका होती है, इसमे परिवर्तन कैसे लाया जाता है- इसका ध्यान रखना होगा|   सूचनाओ  एवं तथ्यों के चयन और सम्पादन में लक्ष्य को ध्यान में रखना होगासमालोचनाओ में राजनितिक मुद्दों से बचना चाहिए क्योंकि लोग राजनितिक मुद्दों में ज्यादा भावनात्मक हो जाते है और दिशाहीन बहस में उलझ जाते हैं| नौकरी और सेवाओ में राजनितिक झुकाव पर सेवाओ के आचार संहिताओ में मनाही भी रहती है| इतनी सावधानी रखने मात्र से ही नौकरियों और सेवाओ के सदस्यों की  सामाजिक बदलाव में भागीदारी काफी बढ़ जाती है| इतनी सावधानी से ही इनकी सक्रिय सहभागिता हो जाती है और सोशल मिडिया में सकारात्मक टिप्पणियां मिलने लगती है| इस तरह के अराजनीतिक परन्तु महत्वपूर्ण सूचनाओ और आलेखों का बिना अतिरिक्त संपादन के ही अग्रसारण कर पाते है और इनका व्यापक प्रसार हो पाता है| इन सूचनाओ और आलेखों के उपस्थापन में यह ध्यान रखना होगा कि अभद्रता एवं अश्लीलता नहीं हो तथा मानवीय गरिमा एवं सामाजिक समरसता का अपमान नहीं हो| कोई भी उपस्थापन संवैधानिक एवं वैधानिक प्रावधानों का अतिक्रमण नहीं करे| सामाजिक बदलाव का प्राथमिक लक्ष्य हमेशा व्यापक समाज का कल्याण हो ताकि राष्ट्र सशक्त एवं विकसित बन सके – इसका हमेशा ध्यान रखना होगा|   

व्यक्ति और समाज के व्यवहार को प्रभावित करने वाले भावनाओं, आचरणों, व्यवहारों को समझना होगा और उनके स्वप्नों को गढ़ना होगा, उसे बनाना और दिखाना होगा| इस सबको संचालित करने के लिए कई लोगों में समन्वय चाहिए| भारत में समाजों का जो द्वन्द है, वह लोगों के अज्ञानता और नादानी पर टिका हुआ है| व्यवस्था भी वैज्ञानिक, तार्किक, और तथ्यात्मक विश्लेषण से बचना चाहती है और इस तरह यथास्थितिवादी है| यह सामंतवादी व्यवस्था को ही बनाए रखना चाहता है| इन विरोधियों को इसका अहसास ही नहीं है कि इनके व्यवहार समाज और राष्ट्र के विरोधी है| देश के सभी नागरिकों को मुख्यधारा में शामिल किए बिना सशक्त एवं विकसित राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता है| कुछ लोग या कुछ वर्ग अपने स्वार्थवश अपने आनुवंशिक  अर्थात अपने जन्म के आधार पर (जिसे परम्परागत व्यवस्था में स्थापित किया हुआ है) लाभ लेते रहने के लिए राष्ट्र एवं को समाज को भ्रमित (जो पहले से  ही स्थापित है) ही रखना चाहते हैं| इस भ्रम एवं त्रुटि के निवारण के लिए तथ्यों और तर्कों पर वैज्ञानिक ढंग से सामाजिक रूपांतरण का इतिहास लिखा जाना चाहिए जो उत्पादन की शक्तियों और अंतर्संबंधों के आधार पर ही व्याख्यापित किया जा सकता है| इस आधार पर सामाजिक रूपांतरण की व्याख्या किए जाने से समाज के सभी वर्गों का समर्थन मिलेगा क्योंकि सभी इस देश को सशक्त और समृद्ध देखना चाहते हैं| इस दर्शन को ही व्यावहारिक और संभव मानकर सोचना और आगे बढ़ना होगा ताकि अज्ञानतावश हो रहे प्रतिरोध को कम किया जा सकेशत्रुओ या विरोधियों की संख्या को कम करने का सबसे उत्तम तरीका है उनको मित्र बना लेना|    

इस सोशल मिडिया का उचित उपयोग कर इच्छित परिणाम इच्छित समय में पाए जा सकते हैं| दुनिया इसके उदहारण भरे पड़े हैं| फेसबुक, व्हाट्स एप, टेलीग्राम, ट्विटर, वीचैट, इन्स्ताग्राम, वीवो जैसी सेवाओ का खूब चलन है| आज सोशल मिडिया सबसे शक्तिशाली ताकत बनकर उभरा है| इसके कारण कई समाजों में बदलाव में मदद मिल रही  है|  इससे हाशिए में पड़ा समूह भी आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावशाली हो रहा है| कई देशों में इसके उदहारण है| कई देशों में कई निर्वाचनों में इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देखा गया या स्थापित है| अमेरिकी राष्ट्रपति हो या फिलिपिन्स के राष्ट्रपति हो, सोशल मिडिया का प्रभाव इनके निर्वाचन में स्थापित हैं| भारत के गुजरात के उना में दलित उत्पीडन में सोशल मिडिया ऐसे प्रभावी रही कि गुजरात के मुख्यमंत्री को बदलना पड़ा|

ध्यान रहे कि यह तकनीक मात्र है और यह अपने आप ही रूपांतरणकारी नहीं होता ; इसके साथ बदलाव के दर्शन को उपयुक्त होना होगाअँधेरे को कोसने से बेहतर है कि अपने हिस्से के दिए (दीपक) जलाए जाएँ अर्थात दूसरों को अपशब्द कहने से बेहतर है कि सकारात्मक दिशा में रचनात्मक हुआ जाए| वैश्विक जोखिमों पर रिसर्च करने वाली संस्था “युरेशिया ग्रुप” के अध्यक्ष इयान ब्रेयर का मानना है कि ज्यादातर लोग यथास्थिति से खुश नहीं रहते और बदलाव चाहते हैं| परन्तु यह इतना आसान नहीं  है जितना इन्होंने बताया है| हमें बदलाव का जटिल मनोविज्ञान और उसकी क्रिया विधि को समझना होगा जो एक अलग विषय है और उस पर अलग से लिखा जाएगा| | सोशल मिडिया आगे भी महत्वपूर्ण परिणाम देने वाला है| बस, गंभीरता से विचार करना होगा| सोशल मिडिया प्रभावकारी है और इसमे कोई विवाद नहीं है| यह भारत में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और सांस्कृतिक क्रान्ति का आधार  साबित होगा|   

ई० निरंजन सिन्हा

स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त,

बिहार, पटना|

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