सामाजिक क्रान्ति के आधार
(Basis of Social Revolution)
क्रान्ति क्या है?
“क्रान्ति अल्प समय में एक बहुत बड़ा (Drastic) सकारात्मक
और रचनात्मक परिवर्तन
है,
बदलाव
है जिसका प्रभाव दूरगामी होता है|”
भारत में हमेशा सामाजिक क्रान्ति या
बदलाव की बाते की जाती है| लोगो
के मन में यह प्रश्न उठता है कि सामाजिक क्रान्ति क्यों? सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य क्या है? सामाजिक क्रान्ति से क्या परिवर्तन या
रूपांतरण आएगा? यह सामाजिक क्रान्ति कैसे लायी जा सकती
है? इन मौलिक प्रश्नों का उत्तर जानना आवश्यक
है| सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता इसलिए है
क्योंकि इससे सामाजिक क्षमता का महत्तम विकास और उपयोग होता है| इससे राष्ट्र सशक्त होता है और समाज
समृद्ध बनता है|
“सामाजिक
क्रान्ति का उद्देश्य समाज में सुख, शान्ति,
संतुष्टि और समृद्धि स्थापित करना है जो
समुचित न्याय से आता है| समुचित
न्याय से समानता, स्वतंत्रता
और बंधुत्व आता है| आज
सभी विकसित समाजो और राष्ट्रों का यही आधार है|”
इससे हर व्यक्ति अपनी क्षमता का महत्तम
उपयोग कर समाज और राष्ट्र को लाभान्वित करता है| इस
आलेख में इस आवश्यक क्रान्ति के आधारो को समझाया गया है|
भारत में प्रो० एस एम स्वामीनाथन के
नेतृत्व में हरित क्रान्ति किया गया और अनाज के उत्पादन में भारत
आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा| उच्च
उत्पादकता वाले बीज, यंत्रीकरण, ट्रैक्टर, सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक
आदि के उपयोग से यह क्रान्ति संभव हुआ| वर्गीज
कुरियन के नेतृत्व में श्वेत
क्रान्ति हुई जो दूध के लिए क्रान्ति रही ,पर बाद में इसमें अंडा भी शामिल हो गया| बात चाहे नीली
क्रान्ति की हो, या औद्योगिक क्रान्ति की हो; सभी
को सफल बनाने के लिए उसके
कुछ मूल तत्वों को समझाना होता है, उसकी
क्रिया विधि या प्रक्रिया को समझना होता है कि वह काम कैसे करता है| इसी तरह सामाजिक
क्रान्ति, आर्थिक
क्रान्ति, शैक्षणिक
क्रान्ति, और
सांस्कृतिक क्रान्ति आदि है जिसके तत्वों को और उसके
प्रक्रिया विधि को समझना होता है और उसी के आधार पर आगे बढ़ना होता है| सभी क्रांतियों का मूल (Basic, Basis) या मौलिक (Fundamental) तत्व मानव होता है जिसका मनोविज्ञान (Psychology) समझना सबसे महत्वपूर्ण होता है| लोगों की मानसिकता को पढ़ना और समझना तथा
उसके सहज प्रवृतियों (Basic Instinct) के
अनुरूप कार्य करना आवश्यक है|
सामाजिक क्रान्ति के लिए समाज के बुनियाद
और बनावट को समझना होगा| हर
समाज का एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होता है, विशिष्ट
सांस्कृतिक बनावट होता है| हर
समाज की अलग आर्थिक, और
शैक्षणिक आवश्यकता और स्तर होता है| समय
और परिस्थिति के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का दर्शन भी बदलता रहता है| एक लम्बे समय में नए शोधो से कई
पृष्ठभूमि और आधार बदल जाते है| पहले
संस्कृत को पालि से पुराना माना जाता
था, पर अब नए शोधों से स्पष्ट हुआ कि पालि ही
संस्कृत से पुरानी है| नए
परिस्थति में जनांकीय (Demographic) बनावट
बदल गए हैं, अब युवाओं की कई मायनों में प्रभावोक्ता
बढ़ गयी है| डिजीटल और संचार क्रान्ति ने कई आधारों
को बदल दिया है| इन पृष्टभूमियो में जो सामाजिक परिवर्तन
के दर्शन पचास या सौ साल पहले उपयुक्त रहे, उन
पर अब नए सिरे से विचार करने और नए दर्शन की आवश्यकता है| समेकित रूप में मै यह कहना चाहता हूँ कि लोगो में परिवर्तन या रूपांतरण की
बेचैनियाँ है, लोगों
की सहभागिता भी है, उसके
लिए समय
और संसाधन की भी उपलब्धता है; पर
एक समुचित और वैज्ञानिक दर्शन का अभाव है जिस पर अधिकतर विचारकों का भी ध्यान नहीं
है| इसे
महत्वपूर्ण मानते हुए एक सम्यक दर्शन का विकास नए परिस्थिति और समय में करना
आवश्यक है| इसके
बिना सभी प्रयास और संसाधन बेकार हो रहे है|
समाज के लिए यह महत्वपूर्ण और आवश्यक है
कि व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्य तथा अस्तित्व को समझाने के लिए शिक्षा ग्रहण
करें| शिक्षा ग्रहण को उपाधि ग्रहण से सदैव
नहीं जोड़ा जाना चाहिए| शिक्षा
ग्रहण को उपाधि ग्रहण से जोड़ देने से लोग बिना शिक्षा ग्रहण किए भी उपाधि ग्रहण
अपने दुसरे प्रभाव से कर लेते है| शिक्षा
ग्रहण अध्ययन के व्यवहारिक अवलोकन से आता है जिसमें पुस्तकों के अवलोकन के
अतिरिक्त उस अध्ययन किए गए सामग्री पर मनन और मन्थन करना पड़ता है और उस पर समूह
में विमर्श भी करना पड़ता है| सामाजिक
बदलाव के अन्य साधन व्यक्ति को बाहर से अर्थात उस व्यक्ति के आंतरिक इच्छा के
विरुद्ध प्रभावित करते हैं परन्तु शिक्षा व्यक्ति को आंतरिक रूप से यानि स्वंय
इच्छा से बदलाव लाने में योगदान करता है, प्रेरित
करता है| प्रिंट
मिडिया हो या टीवी मिडिया हो ; दोनों
भारत में अपने परम्परागत सामंती प्रभाव को बनाए रखने के उद्देश्य में
यथास्थितिवादी हैं| सोशल
मिडिया भी बहुत प्रभावकारी है जो अपने टेक्स्ट और विडिओ के माध्यम कार्य करता हैं और इसमे सामान्य जन भी भाग ले पाते
हैं| सोशल मिडिया व्यक्ति एवं समाज को
अपेक्षित तरीकों से अपेक्षित दिशा में शिक्षित कर स्वत: स्फूर्त परिवर्तन के लिए
बाध्य करता है| मार्केटिंग प्रबंधन के
विश्व प्रसिद्ध
प्रोफ़ेसर फिलिप कोटलर ने
अपनी हाल के पुस्तक – “मार्केटिंग
-4” (2017) में विचारों के मार्केटिंग के लिए “नेटीजन” को महत्वपूर्ण स्थान दिया है जो सोशल
मिडिया को ही महत्वपूर्ण स्थान देता है| नेटीजन
उस सिटिजन (नागरिक) को कहते हैं जो नेट (इंटरनेट) पर रचनात्मक रूप से सक्रिय होते
हैं| चूँकि
ये नेट पर क्रियाशील होते हैं, इसलिए ही ये राष्ट्रीय सीमाओं से बंधे नहीं
होते हैं| नेट
की पहुँच विश्व व्यापी होती है|
सामाजिक इतिहासकारों ने पाया है कि
सत्तारूढ़ सामाजिक वर्ग समाज में यथास्थितिवाद बनाए रखना चाहता है ताकि उन्हें
सत्तारूढ़जन्य आर्थिक, राजनितिक, और सामाजिक लाभ मिलता रहे या यथावत रहे| कार्ल मार्क्स का ऐसा ही मानना था| भारत में जाति व्यवस्था के जाति को वर्ग का स्थानापन्न माना जाना चाहिए ; परन्तु एक दुसरे को एक दुसरे का
स्थानापन्न भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वर्ग यूरोपीय औद्योगिक समाज का इकाई
है जबकि जाति भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का एक विशिष्ट इकाई है जिसका कोई
दूसरा उदहारण विश्व इतिहास में नहीं है| डा०
आम्बेडकर ने भी लिखा है कि राजनैतिक रूपांतरण के पूर्व सामाजिक एवं
सांस्कृतिक रूपांतरण आवश्यक है| इसके पक्ष में उन्होंने विश्व और भारत के
इतिहास से कई उदहारण दिए हैं| डा०
आम्बेडकर ने इसे राजनैतिक रूपांतरण का पूर्व शर्त माना है|
जनमत को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली
एकमात्र संवादपालिका है जो मिडिया के नाम से जाना जाता है| भारत में डिजीटल मिडिया में टेलीविजन और
प्रिंट मिडिया में अख़बार प्रमुख है| ये
मिडिया अपने सामंती स्वार्थवश सामंती वर्ग यानि जाति (भारत में लोग जाति के स्वरुप
को ही वर्ग मानते है, एक
दुसरे को पर्यायवाची मानते हैं) का ही समर्थन करता रहता है और यह राष्ट्र निर्माण
में बाधक बना हुआ है| इन
मिडिया में कुछ अपवादों के साथ लोगों को प्रवेश ही जाति के आधार पर होता बताया जाता
है जिसमें योग्यता प्रमुख और महत्वपूर्ण नहीं होता है| ये अपने सांस्कृतिक परम्परागत अवधारणाओ
के साथ ही सामंती मानसिकता के हैं जिन्हें भारत के राष्ट्र निर्माण की समझ नहीं है| इसे समझना होगा| इसी कारण सामान्य जन मुख्य धारा के
मिडिया से निराश है| ये
मिडिया समाज के हाशिए पर रखे गए या छोड़ दिए लोगों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते| ये सामान्य जन को सिर्फ भ्रम में ही रखना
चाहते हैं और बहलाए रखने में यथास्थितिवादियो के समर्थन में खडा रहते हैं| ऐसी स्थिति में इस मीडिया का विकल्प सोशल
मीडिया ही हो सकता है| यह
छोटे एवं उपेक्षित समूह से बड़े और प्रभावकारी समूह तक संवाद करने का सशक्त माध्यम
साबित हो गया है|
सोशल मिडिया को सशक्त एवं प्रभावकारी
बनाने के लिए सम्यक विचार किया जाना आवश्यक है| इसकी
सीमाओ, बाधाओ, तथा
इसके लक्षित वर्ग के शैक्षणिक स्तर और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर
तथ्यों एवं सूचनाओ का संयोजन एवं संपादन करना होगा| इसके
साथ ही व्यक्ति और समाज के व्यवहार एवं प्रेरणाओ
के कारको एवं उसके क्रिया विधि का मनोविज्ञान समझना होगा| व्यक्ति एवं समाज की भावनाए कैसे संचालित होती है-
समझना चाहिए| व्यक्ति एवं समाज के व्यवहार में आदत की
क्या भूमिका होती है, इसमे
परिवर्तन कैसे लाया जाता है- इसका ध्यान रखना होगा| सूचनाओ एवं तथ्यों के चयन और सम्पादन में लक्ष्य
को ध्यान में रखना होगा| समालोचनाओ
में राजनितिक मुद्दों से बचना चाहिए क्योंकि लोग राजनितिक मुद्दों में ज्यादा
भावनात्मक हो जाते है और दिशाहीन बहस में उलझ जाते हैं| नौकरी और सेवाओ में राजनितिक झुकाव पर
सेवाओ के आचार संहिताओ में मनाही भी रहती है| इतनी
सावधानी रखने मात्र से ही नौकरियों और सेवाओ के सदस्यों की सामाजिक बदलाव में भागीदारी काफी बढ़ जाती
है| इतनी सावधानी से ही इनकी सक्रिय सहभागिता
हो जाती है और सोशल मिडिया में सकारात्मक टिप्पणियां मिलने लगती है| इस तरह के अराजनीतिक परन्तु महत्वपूर्ण
सूचनाओ और आलेखों का बिना अतिरिक्त संपादन के ही अग्रसारण कर पाते है और इनका
व्यापक प्रसार हो पाता है| इन
सूचनाओ और आलेखों के उपस्थापन में यह ध्यान रखना होगा कि अभद्रता एवं अश्लीलता
नहीं हो तथा मानवीय गरिमा एवं सामाजिक समरसता का अपमान नहीं हो| कोई भी उपस्थापन संवैधानिक एवं वैधानिक
प्रावधानों का अतिक्रमण नहीं करे| सामाजिक
बदलाव का प्राथमिक लक्ष्य हमेशा व्यापक समाज का कल्याण हो ताकि राष्ट्र सशक्त एवं
विकसित बन सके – इसका हमेशा ध्यान रखना होगा|
व्यक्ति और समाज के व्यवहार को प्रभावित
करने वाले भावनाओं, आचरणों, व्यवहारों को समझना होगा और उनके
स्वप्नों को गढ़ना होगा, उसे
बनाना और दिखाना होगा| इस
सबको संचालित करने के लिए कई लोगों में समन्वय चाहिए| भारत में समाजों का जो द्वन्द है, वह लोगों के अज्ञानता और नादानी पर टिका
हुआ है| व्यवस्था भी वैज्ञानिक, तार्किक, और
तथ्यात्मक विश्लेषण से बचना चाहती है और इस तरह यथास्थितिवादी है| यह सामंतवादी व्यवस्था को ही बनाए रखना
चाहता है| इन विरोधियों को इसका अहसास ही नहीं है
कि इनके व्यवहार समाज और राष्ट्र के विरोधी है| देश
के सभी नागरिकों को मुख्यधारा में शामिल किए बिना सशक्त एवं विकसित राष्ट्र का
निर्माण नहीं हो सकता है| कुछ
लोग या कुछ वर्ग अपने स्वार्थवश अपने आनुवंशिक अर्थात
अपने जन्म के आधार पर (जिसे परम्परागत व्यवस्था में स्थापित किया हुआ है) लाभ लेते
रहने के लिए राष्ट्र एवं को समाज को भ्रमित (जो पहले से ही स्थापित है) ही रखना चाहते हैं| इस भ्रम एवं त्रुटि के निवारण के लिए
तथ्यों और तर्कों पर वैज्ञानिक ढंग से सामाजिक रूपांतरण का इतिहास लिखा जाना चाहिए
जो उत्पादन की शक्तियों और अंतर्संबंधों के आधार पर ही व्याख्यापित किया जा सकता
है| इस आधार पर सामाजिक रूपांतरण की व्याख्या
किए जाने से समाज के सभी वर्गों का समर्थन मिलेगा क्योंकि सभी इस देश को सशक्त और
समृद्ध देखना चाहते हैं| इस
दर्शन को ही व्यावहारिक और संभव मानकर सोचना और आगे बढ़ना होगा ताकि अज्ञानतावश हो
रहे प्रतिरोध को कम किया जा सके| शत्रुओ
या विरोधियों की संख्या को कम करने का सबसे उत्तम तरीका है उनको मित्र बना लेना|
इस सोशल मिडिया का उचित उपयोग कर इच्छित
परिणाम इच्छित समय में पाए जा सकते हैं| दुनिया
इसके उदहारण भरे पड़े हैं| फेसबुक, व्हाट्स एप, टेलीग्राम, ट्विटर, वीचैट, इन्स्ताग्राम, वीवो जैसी सेवाओ का खूब चलन है| आज सोशल मिडिया सबसे शक्तिशाली ताकत बनकर
उभरा है| इसके कारण कई समाजों में बदलाव में मदद
मिल रही है| इससे
हाशिए में पड़ा समूह भी आश्चर्यजनक ढंग से प्रभावशाली हो रहा है| कई देशों में इसके उदहारण है| कई देशों में कई निर्वाचनों में इसका
प्रत्यक्ष प्रभाव देखा गया या स्थापित है| अमेरिकी
राष्ट्रपति हो या फिलिपिन्स के राष्ट्रपति हो, सोशल
मिडिया का प्रभाव इनके निर्वाचन में स्थापित हैं| भारत
के गुजरात के उना में दलित उत्पीडन में सोशल मिडिया ऐसे
प्रभावी रही कि गुजरात के मुख्यमंत्री को बदलना पड़ा|
ध्यान रहे कि यह तकनीक मात्र है और यह
अपने आप ही रूपांतरणकारी नहीं होता ; इसके
साथ बदलाव के दर्शन को उपयुक्त होना होगा| अँधेरे
को कोसने से बेहतर है कि अपने हिस्से के दिए (दीपक) जलाए जाएँ अर्थात दूसरों को
अपशब्द कहने से बेहतर है कि सकारात्मक दिशा में रचनात्मक हुआ जाए| वैश्विक जोखिमों पर रिसर्च करने वाली
संस्था “युरेशिया ग्रुप” के अध्यक्ष इयान ब्रेयर का मानना है कि ज्यादातर लोग यथास्थिति
से खुश नहीं रहते और बदलाव चाहते हैं| परन्तु
यह इतना आसान नहीं है
जितना इन्होंने बताया है| हमें
बदलाव का जटिल मनोविज्ञान और उसकी क्रिया विधि को समझना होगा जो एक अलग विषय है और
उस पर अलग से लिखा जाएगा| | सोशल
मिडिया आगे भी महत्वपूर्ण परिणाम देने वाला है| बस, गंभीरता से विचार करना होगा| सोशल मिडिया प्रभावकारी है और इसमे कोई
विवाद नहीं है| यह भारत में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और सांस्कृतिक क्रान्ति का आधार साबित होगा|
ई० निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त
आयुक्त,
बिहार, पटना|
Sir,you have mentioned the most important topic for today society, which is in gradual transition phase.I completely agree with your views and opinions on social revolutions and its basis.I would like to share some suggestions with you.
जवाब देंहटाएं1.Teachings of different philosophers were different,either on the same subject or other matters.
2.Revolution and its any form really works. It only works when an individual thought and ideas changes its form and influenced masses.As soon as one idea changes into the idea of whole or particular section of whole,it really makes changes in the society.
3.An idea not only to be published but it also be of such nature that it going to change the thought processing of others.
4.Social revolution may be for the goodness of society, society is aggregate form of individuals,as soon as one individual is determined to change from his old experiences of his life. When a person accepts the good qualities follows them strictly, the change begins.
5.The best form of society have exist only in pragmatic approach of individual life Struggling with nature and natural phenomenon. It is required for every intellectual who like to do something for the goodness of society try to make or suggest some experimental changes which really works or shall have ability to make changes.