भारत में आजकल वर्ण व्यवस्था के तथाकथित निचले और वर्ण व्यवस्था से बाहर की आबादियों के बीच मूल निवासी की अवधारणा तेजी पकड़ता जा रहा है। इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है? कई प्रश्न उभरते हैं? ये मूल निवासी और बहुजन कौन है? इनका आधार क्या है? क्या इनका आधार वैज्ञानिक है, तार्किक है और तथ्यों अर्थात साक्ष्यों पर आधारित है? क्या मूल निवासी अवधारणा तथाकथित तथ्यों और वैज्ञानिकता की आड़ में झूठी भावनात्मक अपील कर रहा है?
“सबसे
बड़ा सवाल यह है कि जिस उद्देश्य के लिए मूल निवासी अवधारणा को लेकर आंदोलन किया जा रहा है ; कही यही अवधारणा ही
उद्देश्य को तो खंडित नहीं कर रहा? यह एक अति गंभीर प्रश्न
है, जिसे समझना जरुरी है|”
इस भावनात्मक अपील की आधार है - वर्ष 2001 में 'जीनोम रिसर्च' में प्रकाशित उटाह विश्वविद्यालय, उटाह, संयुक्त राज्य अमरीका के प्रोफेसर माइकल
बामशाद के नेतृत्व में किया गया शोध। इस शोध का शीर्षक - "भारतीय
जाति की उत्पत्ति का जीनीय साक्ष्य" (Genetic
Evidence on the Origins of Indian Caste Populations) था। इस शोध के आधार पर बताया गया कि यूरोपीयों और
ब्राह्मणों के बीच आनुवांशिक दूरी 0.10 है, तो यह
दूरी यूरोपियों और क्षत्रियों में 0.12 तथा
यूरोपियों और वैश्यों में 0.16 है। शूद्रों से
तुलनात्मक दूरी अधिक है। बामशाद के अनुसार भारत की प्रत्येक जाति एक विशेष
आनुवांशिक रूप रेखा में विकसित हुई है, जबकि स्त्रियों की आनुवांशिकी में सामाजिक
गतिशीलता अधिक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है
कि उच्च जातियों के उत्कृष्ट जीनीय बनाबट के होने और उसके अनुरूप उनकी
उत्कृष्ट योग्यता (क्षमता) की अवधारणा या धारणा शतप्रतिशत सही है।
इस
शोध के आतंरिक दर्शन के अनुसार भारतीय
जातियों का आधार जीनीय है और यह ऐतिहासिक सत्य है| इन जातियों और
वर्णों में कोई मिलावट यानि संकरण नहीं हुआ है और ये अपने उत्पत्ति के समय से ही
शुद्धता बनाए हुए हैं| इन जातियों और वर्णों की
उत्पत्ति के सिद्धांत के अनुसार इनकी उत्पत्ति सभ्यता एवं संस्कृति के उदय के साथ हुई है, जो अब
अधिकांश विद्वानों को मान्य नहीं है| सभ्यता के उदय के साथ
होना अर्थात यह ऐतिहासिक है, यह पौराणिक है, और इसी कारण सबके लिए गौरवमयी है| इस सिद्धांत के
अनुसार आर्य भारत में अपने प्रथम आक्रमण के समय से आज तक शुद्ध हैं| प्रथम आक्रमण या प्रवेश के समय इन्होंने भारत के पूर्व से स्थापित निवासियों को
पराजित कर अधीन बना लिया था अर्थात आर्य की जीनीय गुणवत्ता उस समय उत्कृष्ट थी,
सर्वश्रेष्ट थी, और सर्वोत्तम थी, जो आज तक
शुद्धता बनाए हुए है| इसका दूसरा अर्थ हुआ कि जो उस समय हार
गए थे, उनकी जीनीय गुणवत्ता और बनावट आर्यों की तुलना में
निकृष्ट थी, घटिया थी, पराजित थी, और तुलनात्मक
रूप में निम्नतर थी| चूँकि जीनीय शुद्धता बरकरार है और इसीलिए यह विरोधाभास आज तक बना हुआ है| इसका
अर्थ हुआ कि आज भी अनार्य जातियों का जीनीय बनावट और गुणवत्ता आज के आर्य जातियों
के तुलना में निम्न है, जो अनार्य जातियों को
ख़राब लगता है| एक तरफ अनार्य जातियां सैद्धांतिक रूप से आर्य
जातियों की श्रेष्टता मानते है और इसका विरोध भी करते हैं| आज कुछ संगठन इसी सिद्धांत को मानता है कि आर्य जातियों को ही शासन
करना चाहिए, क्योंकि इनकी जीनीय उत्कृष्टता आज भी पूरी शुद्धता से बरकरार है और
अनार्य जातियों को शासित होना चाहिए| इस तरह मूल निवासी की
अवधारणा इस अवधारणा को सही मानती है| यह स्पष्ट है कि मूल निवासी
अवधारणा वाले क्या चाहते हैं और क्या कर रहे हैं – उनको कुछ पता ही नहीं है|
इस तरह ये लोग अपना, समाज का और देश का जवानी, समय, धन और संसाधन बर्बाद कर रहे हैं| मैं मूल निवासी आंदोलनकर्ताओं पर एक गंभीर आरोप लगा रहा हूँ, इस
पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए|
मेरे
अनुसार मूल निवासी का अवधारणा पूर्णतया गलत, अतार्किक, और अवैज्ञानिक है। यह अवधारणा देश के बहुजन हित विरोधी है। यह ब्राह्मणवाद
(सामंतवाद का भारतीय संस्करण) का जबरदस्त समर्थन है। यह फांसीवादी अवधारणा है और
उसी को मजबूत करता है। इसी कारण बहुजन आबादी अपनी क्षमताओं और संभावनाओं के अनुरूप
राष्ट्र निर्माण और मानवता के कल्याण में पूरा योगदान नहीं दे पा रहा है। यह
अवधारणा राष्ट्र निर्माण को कमजोर बनाता है। मूल
निवासी अवधारणा की यथास्थितिवादी लोग विरोध नहीं करते हैं। वे विरोध या खंडन
इसलिए नहीं करते हैं, कि मूल निवासी अवधारणा वर्ण व्यवस्था की यथास्थिति का जबरदस्त
समर्थन करता है। यथास्थितिवादियों के
लिए वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित समाज एवं शासन में एक विशेषाधिकार है तथा शूद्रों एवं
अवर्णों के लिए निर्योग्यता। इस तरह मूल निवासी समर्थक आन्दोलन वर्ण व्यवस्था को
यथास्थिति में रखने के कुछ संगठनों के उद्देश्यों को जबरदस्त समर्थन दे रहा है और प्रचार
कर रहा है।
मूल
निवासी अवधारणा के अनुसार हिन्दू वर्ण व्यवस्था में अनुक्रमण के तीन ऊपरी वर्ण -
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
विदेशी आर्य है और अंतिम चतुर्थ वर्ण – शूद्र और वर्ण व्यस्था के बाहर के लोग भारत के मूल निवासी हैं। शूद्र वर्ण और अवर्ण के सदस्य अपनी आबादी के
कारण सम्पूर्ण भारतीय आबादी का अनुमानित 91 प्रतिशत
(अधिकांश मानते हैं कि इसी कारण भारत में जातियों की 2011 की जनगणना प्रकाशित नहीं किया जा
रहा है) हिस्सा बनाता है। इस वर्ग को बहुजन कहा जाता है तथा इसमें शूद्र, अवर्ण और धर्म परिवर्तित इस्लाम एवं इसाई धर्म के अनुयायियों सहित
जनजातियां भी शामिल हैं। इस अवधारणा के अनुसार बहुजन भारत के मूल निवासी हैं और ये
सवर्ण (ऊपरी तीन वर्ण) विदेशी हैं। यहां विदेशी का संदर्भ भारत में मूलतः निवास
करने वाले के संदर्भ में है। ये विदेशी आर्य कहलाते हैं। विदेश से आए आर्यों की
तथाकथित कहानी विगत चार हजार वर्ष पहले शुरू होता है। मूल निवासी भी अपनी
जीनीय शुद्धता आज भी विगत चार हजार वर्षों से यथावत बरकरार रखे हुए मानते हैं। आज
से चार हजार वर्ष पहले सवर्ण विजेता थे और मूल निवासी पराजित थे। जब मूल निवासी आज
शुद्ध मूल निवासी हैं, तो सवर्ण भी आज शुद्ध विदेशी हैं, जिनका जीन सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ, और उत्कृष्ट था और आज भी सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ, और उत्कृष्ट है। यह
भावार्थ सभी बहुजनों को बुरा लगता है। इसलिए कि यह भावार्थ गलत है, अतार्किक है, अवैज्ञानिक है, और साक्ष्यों के विपरीत है। फिर इस अवधारणा को सही कैसे माना जाय? यूनेस्को भी प्रजातीय/ जातीय शुद्धता की अवधारणा को अवैज्ञानिक बता चुका
है। प्रजातीय/ जातीय शुद्धता ही फांसीवाद का मौलिक आधार है। एक तरफ फांसीवाद को ग़लत ठहराना और दूसरी ओर इसकी मौलिकताओं को समर्थन
देना पूरा विरोधाभासी है।
सामंतवादियों
के कहानियों (क्योंकि संबंधित पुरातात्त्विक साक्ष्यों का पूर्ण अभाव है) के
अनुसार चार हजार वर्ष पूर्व आर्यों का भारत के पश्चिमोत्तर सीमा से आक्रमण या आगमन
हुआ। विजेता आर्य तीन वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में थे तथा पराजित भारतीयों के लिए चौथा वर्ण शूद्र बनाया गया और जाति व्यवस्था का निर्माण किया। शोधकर्ता माइकल बामशाद भी इस
साक्ष्यविहीन कथाओं का समर्थन करते हैं। बामशाद के अनुसार जाति व्यवस्था की
उत्पत्ति का आधार आनुवांशिक असमानता ही है और इन आक्रमणकारियों ने ही भारत में
जाति व्यवस्था कायम की। इनके अनुसार उच्च जातियों की सर्वाधिक आनुवांशिक समानता
यूरोपिय लोगों से है।
किसी
भी क्षेत्र या प्रदेश में कोई भी मूल निवासी का दावा दो आधार पर कर सकता है। पहला
आधार है कि उस समूह की उत्पत्ति ही उसी क्षेत्र में हुआ है। दूसरा आधार यह है कि
वह समूह उस क्षेत्र में सबसे पहले आए और उनके रहने के काल में भी उनकी जीनीय
शुद्धता बनी रही अर्थात उनका जीनीय मिलावट (संकरण) किसी बाहरी समुह से नहीं हुआ।
विश्व
के सभी आधुनिक मानव वैज्ञानिक
शब्दावली में होमो सेपियंस कहे जाते हैं। मानव विज्ञानियों के अनुसार होमो सेपियंस (आधुनिक मानव) की
उत्पत्ति अफ्रीका के बोत्सवाना क्षेत्र में हुई और वही से पूरे विश्व में फ़ैल गए। सभी प्रजातियों की उत्पत्ति
वहीं से हुई। मानव विज्ञान के अनुसार शिवापिथेकस, रामापिथेकस, आस्ट्रेलोपिथेकस, नियंडरथल, होमो इरेक्टस आदि प्रजातियां विलुप्त हो चुकी है। अतः इस आधार (उत्पत्ति
के आधार पर ) पर कोई भी मानव भारत का मूल निवासी नहीं है।
मूल
निवासी का दूसरा आधार किसी क्षेत्र का पहला निवासी का है। इस आधार पर भारत के मूल
निवासी का दावा वे लोग कर सकते हैं, जो इस क्षेत्र में सबसे पहले आए और उसी समय से रह रहे हैं और
आज भी अपनी जीनीय शुद्धता एवं संस्कृति संरक्षित (बचाए) किए हुए है। इस आधार पर भारत में ज्ञात नृजातीय बसावटों में अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में रहने
वाले 'अण्डमानी', 'जारवा', 'सेंटीनली' आदि एवं मुख्य भूमि में अरुणाचल प्रदेश की दो सीमांत जनजाति ही इसका दावा कर सकते हैं। मैदानी इलाकों, जो प्रजातियों और संस्कृतियों का
मेल्टिंग पाट (Melting Pot, संकरण या मिलन स्थल) रहा, की आबादी का मूल निवासी की शुद्धता के
दावा दमदार नहीं है।
अब
बहुजनों के मूल निवासी के दावों का विश्लेषण किया जाय। यह अलग बात है कि आर्य एक प्रजाति नहीं है और एक भाषायी समूह के रूप में अब स्थापित है। जब भी किसी क्षेत्र में किसी बाहरी समुह का आक्रमण होता है तो आक्रान्ता युवा होते हैं और अधिकांशत पुरुष ही होते हैं। उनकी भौतिक
अन्त: प्रेरणा (Physical Drives) में भूख एवं प्यास के बाद यौन संबंधों (Sexual
Relations) की पूर्ति भी एक बलबती अन्त: प्रेरणा (Drive) एवं सहज वृत्ति (Instinct) होता है। विजेताओं के लिए हारे हुए समूह की महिलाएं यौन संबंधों के लिए सहज उपलब्ध
होती है। इसी कारण आक्रमण के काल से ही दोनों का संकरण (Hybridization) प्रारंभ हो जाता है, भले ही सांस्कृतिक भौतिक
स्वरूपों में भिन्नता बनाया रखा गया। तथाकथित जीनीय शुद्धता का आधार उसी समय से
क्षरित होना यानि समाप्त होना शुरू हो जाता है।
मूल
निवासी की अवधारणा का आधार मानवीय कोशिकाओं के हैप्लो
ग्रुप (Haplo Group) की
बनावट है। सैद्धांतिक रूप में
मातृवंशीय कड़ी की जांच माइटोकॉन्ड्रिया से किया जाता है और पितृवंशीय कड़ी की
जांच 'वाई' क्रोमोजोम (Y- Chromosome) से तय किया जाता है। इसकी जांच की प्रविधि "झिवोतोवस्की" (Zhivotovaski) विधि है, जिसके पूर्णता (शुद्धता) के दावों से जीन विज्ञानी बहुत संतुष्ट नहीं हैं। आधुनिक मानव में 46 क्रोमोजोम है, जो डीएनए
की कड़ी है। यह माता पिता के संयोजन से आता है और इस 46 में से एक को ही अति महत्वपूर्ण बनाया जा रहा हैं एवं अन्य 45 को गौण किया जा रहा हैं, जबकि जीवन निर्माण में सबकी महत्वपूर्ण सहभागिता
होती है। अमेरिकन संस्थान (US National Library of Medicine) के अनुसार मानव में जीनीय गुणों के आधार क्षार है और क्षारों (Base) की संख्या 300 करोड़ की है| ये क्षार ही जीन बनाते हैं| सभी मानवों में इन जीनों
में 99 प्रतिशत से अधिक की समानता होती है। अर्थात 300 करोड़ में 297 करोड़ गुणों की समानता है और 300 लाख (तीन करोड़) गुणों की असमानता
है; आप इसमे से अपनी इच्छानुसार जो समानता या असमानता गुणों
को लेना चाहते है, उसे लेकर अपनी इच्छा के अनुसार इस संबंध में कोई परिणाम दे
सकते हैं| सभी मानवों में जीनों टाइप (जीनीय बनावट) जीनो में
समानता होता है, जबकि भिन्नता फीनों टाइप (भौतिक गुण) में होता है|
दरअसल माईकल बामशाद ने जीनीय पूल (Genetic Pool), जीनीय बहाव (Genetic Drift) और जीनीय प्रवाह (Genetic Flow) को भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था यानि भारतीय जाति व्यवस्था के संदर्भ में समझा ही नहीं, और एक भ्रामक रिपोर्ट को प्रकाशित होने दिया। इतने बड़े वैज्ञानिक और उच्चतर तकनीकी के बावजूद इसी कारण त्रुटि हो गई है। आप भी जीनीय पूल, जीनीय बहाव और जीनीय प्रवाह को समझिए।
उपरोक्त
सैद्धांतिक आधार के अवलोकन के बाद कई प्रश्न उभरते हैं। पहला प्रश्न है कि जिस
ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद का भारतीय सामंती संस्करण) की बात की जा रही है, उसकी उत्पत्ति ही मध्य काल में सामंतवाद के कारण हुई। यह पुरातात्त्विक
साक्ष्यों पर आधारित वैज्ञानिक और तार्किक सत्य है। इस उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ
नहीं कहा गया है| दूसरा प्रश्न यह है कि जब जांच की
प्रविधि झिवोतोवस्की विधि ही संदिग्ध है, तो इतने बड़े ऐतिहासिक दावे किस स्वार्थ
के लिए किए जा रहे हैं? तीसरा प्रश्न यह है कि चयनित
भारतीयों को उनके वर्ण, उनके आवास, उनके व्यवसाय और उनके सामाजिक आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा गया है, जबकि
तुलनात्मक यूरोपियों को एक सामान्य, पश्चिमी एवं पूर्वी यूरोपीय लोगों को ही लिया गया। इन
यूरोपियों के व्यवसाय, सामाजिक और आर्थिक स्थिति को
स्पष्ट नहीं किया गया है। इससे तुलना भ्रामक हो जाती है। भारत में पुरोहित
(ब्राह्मण) शारीरिक श्रम नहीं करते और विशेषाधिकार युक्त जीवन व्यतीत करते हैं।
क्षत्रिय सामान्यतः सामंत थे और वैश्य सामान्यतः समृद्ध जीवन व्यतीत करते रहे।
इनके इस अवस्था में इनके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय (धूप, वर्षा, गर्मी, नमी, एवं श्रम का अभाव, और आराम, भोजन की गरिष्ठता, सुंदर महिलाओं के चयन का विशेषाधिकार आदि) परिस्थितियां निर्धारक रही, जिनका शोध में ध्यान नहीं रखा गया। भारतीय शोधकर्ताओं के उस टीम में कितने सदस्य
चालाक और कितने नादान थे, मैं उस पर टिप्पणी नहीं करना
चाहता। चौथा प्रश्न यह है कि जब
यह शोध ही भारतीय जाति व्यवस्था को तार्किक, वैज्ञानिक, सही, उपयुक्त और आवश्यक बताने के लिए किया गया, तो दूसरा विपरीत परिणाम कैसे आता? इस
शोध का शीर्षक - Genetic Evidence on the Origins of Indian Caste
Populations ही इस भावना को आहत करता है। यह रिपोर्ट जातीय
उत्कृष्टता को सही साबित करने के ही तैयार करवाया गया लगता है|
यह
भारत के सामंती यथास्थितिवादियों की साज़िश है, जो वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना
चाहता है और पीड़ित वर्ण – शूद्र एवं अवर्ण उसका बिना समझे समर्थन दे रहा है। यह सिद्धांत कार्य प्रवृत्ति, कार्य क्षमता, कुशलता का विरोध है। यह राष्ट्र
के नवनिर्माण का विरोध है, यह मानवीय मूल्यों का विरोध
है और यह विकास का विरोध है। यह न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का भी विरोध है। यह बहुसंख्यक भारतीय की संभावनाओं
का विरोध है। इस तरह ये मूल निवासी के आन्दोलनकर्ता ही मूल निवासी के हितों का ही
विरोध कर रहे हैं और कुछ संगठनों के जातीय उत्कृष्टता के सिद्धांत का समर्थन कर रहे हैं| इस
पर गंभीरता से विमर्श किया जाय।
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत
राज्य कर संयुक्त आयुक्त,
बिहार, पटना|
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