संस्कृतियों का रुपांतरण आवश्यक क्यों ?
(Why
is Transformation of Culture Important?)
प्रत्येक के जीवन में
संस्कृति महत्वपूर्ण है।
महत्वपूर्ण का अर्थ यह
नहीं होता है कि उस प्रत्येक के लिए यह लाभकारी या हितकारी ही हो; यह उसकी उत्पादकता या उपयोगिता घटाने या शून्य करने
में भी महत्वपूर्ण हो सकता है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि क्योंकि यह प्रत्येक के जीवन को नियमित, निर्धारित, और नियंत्रित करने में बहुत ही प्रभावकारी है। सबसे पहले संक्षेप में संस्कृति को समझा जाए कि संस्कृति क्या है और यह
जीवन को प्रभावित कैसे करता है?
संस्कृति किसी समाज की सम्पूर्ण मानसिक निधि (Mental Treasure) है
जो उस समाज की व्यवस्था तंत्र के हार्डवेयर को
किसी सॉफ्टवेयर की तरह संचालित करता है।
संस्कृति मानव के वैयक्तिक एवं सामाजिक
जीवन के स्वरुप का निर्माण (Construction), निर्देशन (Direction), नियमन (Regulation), और नियंत्रण (Control) करता है। अत: संस्कृति मानव की जीवन पद्धति , वैचारिक
दर्शन, एवं सामाजिक क्रियाकलाप की अभिव्यक्ति है। संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों का समग्र स्वरुप का नाम है, जो उस समाज के
सोचने, विचारने, कार्य करने
के स्वरुप में अन्तर्निहित होता है। संस्कृति
को परम्परागत ज्ञान एवं व्यवहार का
वह संगठित स्वरुप कहा जा सकता है जो परम्परा के द्वारा संरक्षित (conserve) होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है।
यह संस्कृति “कृ”
(करना) धातु से बना है। मूल स्थिति को ”प्रकृति” , निम्नतर एवं विरुपित स्वरुप को “विकृति”, और
उच्चतर एवं परिमार्जित स्वरुप को “संस्कृति” कहते हैं। इसे तो ‘करना’ का उच्चतर, परिमार्जित (modified), एवं परिष्कृत (refined) स्वरुप माना जाता है और इसिलिए व्यक्ति, समाज
और व्यवस्था के लिए लाभदायक, हितकारी एवं उपयोगी बताया
जाता है। यह एक दृष्टिकोण से सही और समुचित हो सकता है परन्तु क्या इसे सम्यक
दृष्टिकोण से भी समुचित कहा जाना चाहिए? यदि
यह संस्कृति सम्पूर्ण मानव जाति, सम्पूर्ण समाज के लिए
मानवतावादी है, हितकारी है, लाभकारी
है, और प्रत्येक सदस्यों
को उनके व्यक्तित्व के महत्तम विकास, उनके नैसर्गिक (natural) गुणों की महत्तम क्षमता (Capacity, Ability) एवं दक्षता (Efficiency) के साथ अभिव्यक्त
करने और उनके नैसर्गिक अभिवृति (Attitude) के
अनुसार समाज को महत्तम योगदान करने का सम्यक अवसर उपलब्ध कराता है तो उस संस्कृति
को सम्यक या समुचित (proper) संस्कृति कहा जाना
चाहिए। और यदि ऐसा नहीं है तो उस संस्कृति में आवश्यक सुधार (improvement) एवं संशोधन (rectification) के लिए आवश्यक
विमर्श होना चाहिए।
संस्कृति की रचना (construction) और निरन्तरता (continuation) दोनों ही किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इसका निर्माण किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं किया
जाता है बल्कि संस्कृति का निर्माण सम्पूर्ण समूह द्वारा होता है। संस्कृति
के स्वरुप का रूपांतरण उस समाज की उस समय की उत्पादन की शक्तियों (forces
of production) और उनके अन्तर संबंधों के द्वारा नियमित, निगमित, निर्देशित, एव
नियंत्रित होता है। इस कारण इसके निगमन
और नियंत्रण में व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता, परन्तु
एक व्यक्ति या व्यक्तियो का समूह इसके गति एवं निर्देशन में उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभा सकता है या निभाता है।
संस्कृति व्यक्ति एवं सामाजिक समूह की प्रस्थिति (Status) एवं
भूमिका (Role) का भी निर्धारण करता है। संस्कृति
व्यक्ति के लिंग (Sex) के अनुसार, जाति (Jati, not Caste; जाति भारत की एक
अद्वतीय अवधारणा है जिसका अँगरेजी अनुवाद भी जाति ही होना चाहिए) और वर्ण के अनुसार, और अवस्था (Stage- उम्र,) के अनुसार उसकी प्रस्थिति एवं भूमिका को
निर्धारित और नियंत्रित करता है। प्रगतिशील
एवं विकसित समाज अपने संस्कृति में इस प्रस्थिति
एवं भूमिका के निर्धारण में समाज को सर्वोपरि रखता है तो वहीं अप्रगतिशील एवं
अविकसित समाज में कोई विशिष्ट समूह , जो
प्रभावशाली होता है, अपने उस छोटे विशिष्ट समूह के हित
में इस प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्धारण करता है। इससे वह खास छोटे समूह के
सदस्यों का तो हित साधन हो जाता है परन्तु वृहत्तर समाज और सम्पूर्ण राष्ट्र का
अहित यानि नुकसान होता रहता है।
संस्कृति यथास्थितिवादी (Status Quo) होती
है। जिस संस्कृति मे किसी खास
व्यक्ति या समूह को वंशानुगत (Hereditary) लाभ
मिलता रहता है अर्थात योग्यता का कोई विशेष महत्व
नही होता है, सिर्फ वंश (Dynasty) का ही महत्त्व होता है और वे प्रभावशाली एवं नियंत्रणकारी भूमिका में होते
हैं ; तो वह संस्कृति निश्चित रुप में
यथास्थितिवादी ही होता है। उस संस्कृति में परम्परागत रुप में निर्योग्यतायें (Disability) झेल रहे समूहों की प्रस्थिति और भूमिका के सकारात्मक परिवर्तन का सशक्त
प्रतिरोध होता है जैसे आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही महिलाएँ , अपवर्जित (Excluded) एवं वंचित (Deprived) सामाजिक समूह को सम्यक भूमिका देने का विरोध
होता है। यथास्थितिवादी समर्थक समूह संस्कृति को
धार्मिक आवरण (Religious Cover) देते हैं या इसे
किसी खास धार्मिक नाम से जोड़ देते है। धार्मिक आवरण
देने से इसे इसलोक (पृथ्वी के लोक- world) की तुलना में
उसलोक (स्वर्ग या नर्क का लोक) से सम्बन्धित करने में आसानी होता है और उस कल्पनीय
एवं लुभावनी अवास्तविक दुनियाँ के नाम पर डर एवं लोभ के साथ निरन्तरता बनाए रखने सहायता मिलती है। संस्कृति
का एक खास विशेषता होता है जिसके अनुसार प्रत्येक संस्कृति को पुरातन (Archaic,
Ancient) एवं सनातन (Eternal) बताया
जाता है और इसी आधार पर इसे प्रत्येक सदस्यों के लिए गौरवमयी (Glorious) एवं अनुकरणीय (Exemplary, Imitable) बताया
जाता है; भले ही यह इस अवस्था
में मध्य काल या उसके बाद के काल में रूपांतरित हो कर वर्तमान स्वरुप में आया है| चूँकि संस्कृति
पारम्पारिक मान्यताओं (Beliefs) पर आधारित है, इसलिए यह एक कल्पित विश्वास (Fantasy
Faith) है। पारम्पारिक
मान्यताओं का आधार सदैव तार्किक (Logical), तथ्यात्मक (Factual), एवं वैज्ञानिक (Scientific) नहीं होता। यह
धर्म, राष्ट्र, एवं निगम (कारपोरशन) की ही तरह एक कल्पित विश्वास है जो एक बडे़ सामाजिक
समूह में अपनत्व पैदा करने के लिए अवधारित (अवधारणा बनाना- Conceptualize) किया जाता है। उस आधी आबादी (महिलाओं), वंचित (Deprived) वर्ग, निर्योग्य (Disable) समूह, विलगित (Isolated) समूह एवं गरीब लोगों के द्वारा समाज एवं राष्ट्र निर्माण में महत्तम योगदान को
सुनिश्चित कराना आवश्यक है और इसी कारण संस्कृति की सम्पूर्ण अवधारणा विचारणीय है।
चूँकि संस्कृति एक कल्पित विश्वास है, इसलिए इसे आवश्यकतानुसार संशोधित या परिमार्जित किया
जा सकता है या संशोधित या परिमार्जित किया जाना चाहिए।
चूँकि संस्कृति मान्यताओं पर आधारित
कल्पित विश्वास है, इसलिए संस्कृति को
नए अनुसंधानों एवं आविष्कारों से उद्घाटित (Exposed by new
Researches and Inventions) तथ्यों, तर्कों
एवं वैज्ञानिकताओ के आधार पर मानवता, समाज और राष्ट्र
के हित में संशोधित (amended, rectified) एवं
परिमार्जित (refined) होने चाहिए। आइए, हम इस पर विमर्श (discuss) करें।
ई० निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त
आयुक्त, बिहार, पटना ।
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