बिहार को अपनी पुरातन गौरव के अनुसार भारत का सबसे विकसित राज्य होना चाहिए, परन्तु यह आज भी सबसे पीछे है। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में एक
कहावत प्रचलित है कि जहाँ ‘गाछ’ (बड़ा पेड़) नहीं होता, वहां ‘रेड’ का पौधा ही ‘गाछ’
कहलाता है| यही स्थिति बिहार के विकास के सम्बन्ध में है|बिहार के प्रशासनिक तंत्र में न्यायिक चरित्र का पूर्णतया अभाव
हो गया है और भ्रष्टाचार एक सामान्य संस्कृति बन गयी है। विकल्पहीनता की स्थिति में और मीडिया प्रबंधन के सहारे
विकास का अहसास कराया जाता है| सीमेंट के खपत की ‘वृद्धि’ (Growth) को ही सामान्य ‘विकास’
(Development) बताया जाता है| बिहार में अभी
भी विकास का प्रयास परम्परागत तरीके से किया जा रहा है, जबकि बिहार को एक लम्बी
छलांग लगानी है। पर यह एक ‘आर्थिक सांस्कृतिक आन्दोलन’
के बिना सम्भव नहीं है। ऐसा क्यो? इस आलेख में यही बताने क प्रयास है।
‘आर्थिक सांस्कृतिक आन्दोलन’, यानि आर्थिक ‘संस्कारों’ के लिए आन्दोलन,
यानि समुचित सकारात्मक एवं सृजनात्मक मानसिकता के लिए आन्दोलन, यानि ऐसी अभिवृति की
मानसिकता उत्पन्न करने के लिए आन्दोलन| बिहार भारत का वह राज्य है, जहां प्राचीन काल में बौद्ध विहारो की संख्या
बहुत अधिक थी और इसी कारण इस राज्य का नाम विहार पड़ा, जो आज बिहार कहलाता है| प्राचीन काल में विहार (Vihaar) ही अध्ययन, अध्यापन एवं बौद्धिक विमर्श के केंद्र हुआ करते थे| अर्थात यही
विहार बौद्धिकता के केंद्र रहे। बिहार इतिहास के प्राचीन
काल में एक शिक्षित एवं संपन्न प्रदेश था। पर आज बिहार भारत के विकास के पैमानों पर भी बहुत पीछे है। बौद्धिकता की संस्कृति का अपेक्षित विकास किए बिना
सिर्फ सड़क और भवन बना देने से वृद्धि हो सकता है, विकास को आधार मिल सकता है,
लेकिन यही ‘वृद्धि’ वास्तव में ‘विकास’ नहीं है|
‘राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान’ (नीति आयोग) के हाल ही के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 18 बड़े एवं मंझोले राज्यों (और भारत के शेष राज्य या तो छोटे राज्य हैं या पूर्वोत्तर के राज्य हैं) की सूची में बिहार पहले भी 17 – 18 वें स्थान पर रहता था, और आज भी विकास की सूची में 17 – 18 वें स्थान पर ही उपस्थित है। यह भी सही है कि बिहार में हाल के वर्षों में विकास के लिए आर्थिक संरचनात्मक ढांचे के निर्माण में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन आबादी की मानसिकता को बदलने का कोई प्रयास या कोई आन्दोलन नहीं हुआ है| ध्यान रहे कि मानव ही सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली संसाधन हैं और यह क्षमता उसके मानसिकता में होती है।
बिहार में सीमेंट के इसी संरचनात्मक ढांचे
के वृद्धि के कारण के पहले ही के सापेक्ष में तेज बदलाव दिखता है| लेकिन बिहार में
विकास की स्थिति अन्य भारतीय राज्यों के सापेक्ष में अभी भी ठहरा ही हुआ है, यह स्पष्ट
है| यदि वैश्विक स्थिति में देखा जाय, यह अपनी आबादी से कम आबादी के जापान की
अपेक्षा अर्थव्यवस्था एवं विकास में कहीं भी नहीं है| यही ‘संस्कारों’ का अन्तर
है| और इसी कारण इसका अभाव बिहार का दुर्भग्य है| अर्थात बिहार का विकास जितना होना
चाहिए, उस हिसाब से
अभी काफी विकास होना बाकी है। लेकिन यह सभी को स्पष्ट होना चाहिए कि सिर्फ सीमेंट के खपत और
ठीकेदारों के सकल मात्रा मात्र से विकास नहीं होता है|
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि विकास किसे कहते हैं? विकास एक
सापेक्षिक स्थिति हो सकती है, परंतु एक विकसित राज्य
में एक ऐसी व्यवस्था होती है, जिसमे सभी को
न्याय पूर्ण तरीके से विकसित होने का अवसर मिलता है। अमर्त्य सेन ‘सक्षमता निर्माण उपागम’ (Capability Building Approach) को
विकास का आधार मानते हैं, और ‘विकास’
को ‘स्वतन्त्रता’ (Development as Freedom) के रूप में लेते हैं| यह सक्षमता निर्माण की अभिवृति आर्थिक संस्कारों के आन्दोलन से आता
है, और विकास के लिए कुछ भी करने की स्वतन्त्रता सरकारी एवं सामाजिक
व्यवस्था द्वारा उपलब्ध कराया जाता है| बिहार में इस पर कोई विमर्श ही नहीं होता है,
सिर्फ विकास के नाम पर भावनाओं की दरिया बहाई जाती है|
एक मानव और एक वानर (Ape, not
Monkey) में जीनीय आधार पर 99% से अधिक समानता होती है। तो तय है कि एक मानव और दूसरे मानव के बीच भी 99% से अधिक ही जीनीय समानता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई व्यक्ति यदि अभी अविकसित है, तो उसे समानता का अवसर नहीं मिला है,
उसकी नजरिया (Attitude) को और उसकी अभिवृति (Aptitude) के संस्कार को समुचित ढंग से
विकसित नहीं किया है, एवं उसे अपेक्षित ढंग से शिक्षित और प्रशिक्षित नहीं किया गया
है| अर्थात उनमे ‘विकास’ का संस्कार पैदा नहीं किया
गया और नहीं ही उस संस्कार को पोषित किया है|
‘न्याय’ ने सदा ही ‘समानता’ एवं ‘क्षतिपूर्ति’ के सिद्धांत
को प्रतिपादित किया है| बिहार में जाति व्यवस्था अपनी
उत्पत्ति के काल अर्थात सामंतवाद के काल से ही मजबूती से स्थापित है, जो अभी भी सामाजिक
और प्रशासनिक तंत्र या व्यवस्था में कोढ़ है। बिहार
की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता ब्रिटिश सरकार की
स्थायी बंदोबस्त (Permanent
Settlement) रही, जो 1793 में यहीं स्थापित हुई थी। इन
दोनों व्यवस्थाओं का बिहार में अभी भी पूरा प्रभाव सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप में
बना हुआ है। इसके अतिरिक्त आजादी के बाद भी केंद्र
की नीतियों में ‘क्षतिपूर्ति’ के लिए कोई सजग और सतर्क प्रयास इस दिशा मे कभी नहीं
किया गया| इस जातीय सांस्कृतिक व्यवस्था के कारण लोग
अपने प्राकृतिक गुणों के अनुसार, अपनी क्षमताओं और अपनी
अभिवृत्ति के अनुसार कार्य करने के लिए पूरी तरह से मानसिक रुप से मुक्त नहीं
हो पाए हैं।
बिहार के अधिकांश लोग अभी भी मानसिक रूप में बहुत पिछड़े हुए
हैं, चाहे वे जिस भी समुदाय से आते हो| लोगो में वैज्ञानिक मानसिकता तैयार करने का कोई सजग एवं व्यवस्थित प्रयास शासन द्वारा नहीं किया
गया। पुरातनता (Legendary), सनातनता (Eternity), ऐतिहासिकता (Historically) और गौरवता (Gloriously) की गाथा और सांस्कृतिक विरासत के नाम पर तार्किक विश्लेषण करने पर
व्यवहारिक पाबंदी लगाई हुई है। इसका विश्लेषण करना
आस्था से छेड़ छाड़ माना जाता है और इसी
सांस्कृतिक विरासत एवं आस्था के नाम पर यथास्थितिवाद को बनाए रखने का मज़बूत प्रयास
किया जा रहा है। इसके कारण सांस्कृतिक
बाधाओं को अर्थात परिणाम स्वरूप मानसिक बाधाओं को
दूर नहीं किया जा सका हैं और तार्किक एवं वैज्ञानिक
वातावरण नहीं बन पाया हैं। बिहार में लगभग सभी सामाजिक
एवं राजनीतिक नेतृत्व सामान्य लोगों की भावनाओं से खेलते रहते हैं, कोई भी उनके
महत्तम उत्पादकता के विकास के लिए आर्थिक एवं सांस्कृतिक ढांचा तथा संरचना पर
विमर्श करना नहीं चाहता है|
सामान्यता लोग राजनीतिक परिवर्तन को ही सभी परिवर्तन का आधार मान लेते हैं। यह
बहुत हद तक सही भी माना जा सकता है, परंतु इतिहास बताता है कि राजनैतिक परिवर्तन से राजनीतिक नेताओं के और
कार्यपालिका प्रमुखों के चेहरे तो बदल जाते हैं, परंतु व्यवस्था में कोई मौलिक
परिवर्तन होता नहीं दिखता है। व्यवस्था में
क्रान्ति हमेशा सामाजिक और आर्थिक क्रांतियों के बाद ही सफल हुई है। राजनीतिक परिवर्तन ने भी सांस्कृतिक आंदोलन के द्वारा ही मौलिक
परिवर्तन किए, जिनमे रूस एवं चीन प्रमुख उदहारण है। यदि बिहार के समपूर्ण आबादी को समुचित अवसर दिया जाय और उसे
समुचित संसाधन के साथ सजग और सचेत प्रयास कर उपयुक्त संस्कार विकसित किया जाय, तो
बिहार भी जापान हो सकता हैं।
संस्कृति समाज की सामूहिक मानसिकता का निर्माण, निर्धारण और संचालन करता है और यह संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है| हमारा इतिहास बोध (Perception
of History) ही हमारी सांस्कृतिक ढाँचा एवं संरचना का निर्माण करता है। इस तरह
इतिहास बोध ही समाज की सामूहिक मानसिकता, रचनात्मकता और उत्पादकता का निर्माण करता है। इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या बाजार की शक्तियों और उनके अंतर संबंधों के
आधार पर किया जाता है। नेपोलियन ने एक बार कहा था – शासक
सामाजिक वर्ग इतिहास की इस प्रकार व्याख्या करता है, जिसमें शासक वर्ग
संस्कृति के प्रतिमानों में अपने को सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि, सर्वोच्च, विशिष्ट दैवीय शक्ति संपन्न, और कल्याणकारी
बताता है, जबकि शासित वर्गों को इन गुणों से अभावग्रस्त या विपरीत बताया जाता है। इतिहास की इस शक्ति एवं प्रभाव का विकास के सम्बन्ध में कोई विमर्श कभी नहीं
होता है|
सामान्य लोग उसी इतिहास को और विस्तार से पढ़ना चाहते हैं, जिस इतिहास को वे जानते हैं एवं मानते
रहे हैं। इसी कारण अधिकांश
सामान्य जन ज्यादा विश्लेषण किए बिना शासक वर्ग के हित में शासक वर्ग द्वारा
स्थापित एवं व्याख्यापित इतिहास को ही सही एवं सच्चा मानते हैं और उसी में तैरते हुए होते हैं| इसी कारण संस्कृति रूपी सॉफ्टवेयर के मूल स्वरूप पर विचार करने को
भी तैयार नहीं होते। यह सांस्कृतिक सामंतों द्वारा
तैयार इतिहास को ही सही मानकर उसी में उलझे रहते हैं और अपना संसाधन एवं समय दोनों
बर्बाद करते रहते हैं।
बिहार को एक शिक्षित और संपन्न राज्य में बदलना है, तो एक ‘आर्थिक
सांस्कृतिक आंदोलन’ चलाना होगा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पहलुओं पर विचार कर मौलिक परिवर्तन किए जाने होंगे। इसके लिए संस्कृति को समझना होगा, जिसका निर्माण इतिहास बोध करता है। इस सामंतवादी इतिहास का विश्लेषण कर ही एक सम्यक, सही और वैज्ञानिक इतिहास बोध स्थापित
किया जा सकता है। इससे नया और प्रगतिशील संस्कृति
का निर्माण होगा, अन्यथा मानव को महत्वपूर्ण संसाधन में
नही बदला जा सकता है। वैज्ञानिक
इतिहासबोध को समझना और स्वीकार करना बिहार को विकसित करने का एक अनिवार्य और क्रांतिकारी शर्त है। यदि बिहार को विकास का ऐतिहासिक छलांग लगाना है
तो एक नए वैज्ञानिक इतिहास पर विमर्श शुरू करना होगा। तभी बिहार शिक्षित और संपन्न
राज्य बन सकता है।
यह विश्लेषण भारत के सामान्य राज्यों के लिए भी समान रुप में सही है। इस पर भी
एक गम्भीर विमर्श की आवश्यकता है।
आचार्य
प्रवर निरंजन
शानदार
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