माननीय प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत (Self-
Reliant India) का सूत्र दिया है। आत्मनिर्भरता का सूत्र
पहले भी महत्वपूर्ण था। परंतु यह विश्व के सभी देशों के साथ साथ यह आज भारत के लिए
भी और महत्वपूर्ण हो गया है। आत्मनिर्भर भारत के
लिए हमें इस आत्मनिर्भरता को हर व्यक्ति और हर
क्षेत्र तक पहुँचाना है। इसके लिए हमें पंचायत
एवं क्षेत्र को माडल (Model) बना कर उसे सफलता और
आत्मनिर्भरता का एक अनुकरणीय माडल के रूप में उपस्थापित किया जाना है| इससे यह
माडल राज्य और देश के हर व्यक्ति और क्षेत्र के
लिए एक अनुकरणीय माडल साबित हो सकेगा|
सफलता का आधार सूत्र
इसके लिए हमें सफलता का अष्टांग (आठ)
मार्ग अपनाना
है, जिसे क्षेत्रीय सफलता का उपकरण (Tools) यानि अवधारणा (Concepts)
भी कहा जा सकता है, जो संख्या में आठ L (एल) है –
1. लेबर (Labour-श्रम), 2.लैंड (Land-जमीन), 3.लोकल (Local-स्थानीय),
4. लेडी (Lady-महिला), 5.लॉ (Law-कानून ), 6. लर्न (Learn-सीखना),
7. लीजेंड (Legend -पौराणिकता, प्रसिद्धि) और 8.लो कॉस्ट (Low
Cost- निम्न लागत ) ।
इसमें माननीय प्रधान मंत्री का तीन- लेबर, लैंड, और लॉ को शामिल किया गया है और लिक्वीडीटी का नियंत्रण शासकीय स्तर के
होने के कारण इसे शामिल नहीं किया गया। क्षेत्रीय विकास की प्रक्रिया में इन आठ उपकरणों यानि अवधारणाओं की भूमिका एवं क्रिया विधि को समझते हैं| इसके
पहले विकास एवं मानव की प्रकृति और उसकी अवधारणा को भी समझते हैं, जिसके आधार पर विकास का नवाचारी (Innovative)
उपागम (Approach) को बनाया गया है।
विकास की अवधारणा
मानव ही विकास (Development) का केंद्र विंदु है। समाज भी मानवों
एक समूह है, जो किसी ख़ास उद्देश्य से एक साथ रहते हैं| सभी विकास मानव का, मानव के लिए, और मानव के द्वारा होता है| एक समाज एक भीड़ से अलग होता है| विकास किसी भी समाज, देश, क्षेत्र, व्यवस्था (Organization), तंत्र(System), प्रणाली (Method/Mechanism) आदि को अधिक विस्तृत, सुदृढ, बेहतर बनाने की प्रक्रिया या अवस्था है। यह किसी भौतिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय क्षेत्र में वृद्धि, प्रगति, एवं सकारात्मक
परिवर्त्तन है और इसमें जीवन स्तर एवं गुणवत्ता में सुधार, उनकी आय में विस्तार और रोजगार की सुविधाएं उपलब्ध कराना शामिल है| विकास अवलोकन योग्य एवं उपयोगी हो, भले ही उसका तत्काल नहीं पता चले| परन्तु परिवर्त्तन गुणात्मक एवं स्थायी हो जो सदैव सकारात्मक परिवर्त्तन का समर्थन करता रहे। समुचित
न्याय और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत (Theory of Proper Justice and
Compensation) के साथ ही समुचित विकास (Proper
Development) हो सकता है; इसके बिना
विकास विकलांग होता है अर्थात अपनी संभाव्य क्षमता
का भरपूर उपयोग नहीं होता है और अपनी प्राकृतिक क्षमता से अति
न्यून यानि बहुत कम उत्पादक होता है। विकास का पक्ष मात्र आर्थिक नहीं है, अपितु बहु आयामी प्रक्रिया है| इसके अन्तर्गत तमाम सारी आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन (reorganization), पुनर्संरचना
(restructuring) एवं पुनर्निधारण (reorientation)
आदि होना होता है| विकासात्मक प्रक्रिया में मानवीय जीवन मे गुणात्मक सुधार लाना प्राथमिकता रहती है।
मानव के विकास के लिए सिर्फ विकास की योजनाएँ और संसाधन ही काफी
नहीं है| इसके
अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि जिनके लिए यह विकास प्रायोजित है, उनकी भी उन योजनाओं के प्रति उसी रुप में ग्राह्यता (Receptive) होनी चाहिए। हमलोगों की तंत्र की विकास
प्रक्रिया एक तरफा होता है। इस विकास प्रक्रिया में उनकी सक्रिय भागीदारी (Active
Participation) सुनिश्चित नहीं कराया जाता है, जिनके लिए यह
प्रायोजित होता है। नतीजा यह होता है कि लक्षित मानव को जो मिलता है, उसको वह दान या उपहार समझ कर ही खुश हो जाता है। विकास की एजेंसिया भी कुछ इसी भाव से अहसान कर देती है।
विकास की प्रक्रिया को सामान्य खड़ा पिरामिड (Normal
Pyramid) की तरह होनी चाहिए, नहीं कि उल्टी पिरामिड (Inverted Pyramid) की तरह| विकास की आयोजनाओ की बुनियाद ग्राम स्तर
से शुरु होकर राष्ट्र के केंद्र की ओर होनी चाहिए। हमलोग शहरी नौकरशाहों एवं सुदुर
नगरों या देशों के आयोजनाकारो को ही सभी समस्याओं का निदानकर्ता समझ लेते है। वे तकनीकी
विशेषज्ञ हो सकते है, पर उन लोगों को सांस्कृतिक समझ भी होना
चाहिए| क्षेत्रीय लोगो की परम्परागत भावनाओं एवं क्षेत्रीय सूक्ष्म समस्याओं से
अवगत होने के लिए उन क्षेत्रीय लोगों का सक्रिय सहयोग लिया जाना चाहिए। आयोजना
नीचे से बनते हुए ऊपर जाना चाहिए, ताकि सामान्य जन उससे अपने
को जुड़ा हुआ समझ सके और उसे अपना कर्तव्य मान सके| विकास एक सामाजिक- सांस्कृतिक संरचनात्मक रुपान्तरण की प्रक्रिया है।
सबसे महत्वपूर्ण संसाधन- मानव
संसाधन एक प्राकृतिक विशेषता या प्रक्रिया है जो मानव जीवन के गुणवत्ता में वृद्धि करता है।संसाधनों का वर्गीकरण वास्तविक एवं संभाव्य संसाधन के रुप में भी होता है जो विकास एवं उपयोगिता के आधर पर होता है। कोई भी वस्तु समय एवं तकनीकी विकास के साथ संसाधन बन सकता है।ज्ञान (Knowledge), सूचना (Information), जागरूकता (Awareness) और बुद्धिमता (Wisdom) अपने आप में ही सबसे महत्वपूर्ण संसाधन है|इस तरह मानव संसाधन को उनके योग्यता, कौशल, उर्जा, बुद्धिमता, दक्षता, एवं ज्ञान के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है।हम कह सकते हैं कि संसाधन एक व्यक्तिगत बुद्धिमता है, जिसका उपयोग विकास में सहायता या समर्थन या गुणात्मक परिवर्तन के लिए किया जाता है।हम यह भी कह सकते हैं कि संसाधन प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: पूँजी, सेवा या राहत का निर्माण करता है।
स्पष्ट है कि मानव ही सबसे बडा संसाधन है जो किसी भी चीज- वस्तु
या विचार (Object or Thought) को संसाधन में बदल देता है। इसी कारण परम्परागत संसाधनों के अभाव वाला देश भी अपने संस्कृति
(बौद्धिक स्तर) के कारण अग्रणी देश बना हुआ है, जिसमें जापान, सिंगापुर, स्वीडन, दक्षिण कोरिया सहित कई देश सूची में शामिल है। मानव का बौद्धिक
संस्कार ही प्रमुख है क्योंकि इसमें उसकी बुद्धिमता, ज्ञान, चरित्र, देशभक्ति, मानवीयता आदि शामिल है।किसी समाज की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है।यह किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों की समग्रता है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, व्यवहार करने एवं कार्य करने से बना है। इस मानसिकता में अपेक्षित सुधार किए बिना कोर्इ आर्थिक सम्बल, समर्थन एवं आधारभूत ढाँचा काम नही करता है क्योंकि विकास करना भी मानव को है और विकास पाना भी मानव को है।यदि पात्र एवं कार्यकारी तंत्र ही अयोग्य या रुचिहीन हैं, तो सब प्रयास बेकार है और किसी भी समाज के लिए यही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। बिहार
सहित भारत की स्थिति यही है जिसे समझना आवश्यक है।
आत्मनिर्भरता के उपकरण और क्रिया विधि
व्यक्ति को, क्षेत्र को, राज्य को, और राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिए निम्न आठ उपकरण या निम्न आठ मार्ग
हैं, जिन पर ही मूलत: निर्भर रह कर सफलता पाया जा सकता है। इन्हें क्रमबद्ध तरीके
से निम्नवत व्याख्यापित किया गया है -
1. LABOUR (श्रम):
मैं लेबर यानि श्रमिक के श्रेणी में उन सभी को शामिल करता हूँ, जो
अपना शारीरिक श्रम किसी मूल्य के लिए देने को करने को तैयार हैं। इसमें अकुशलता या कुशलता के
निरपेक्ष वे सभी लोग शामिल होते हैं, जो विकल्प के अभाव में अपने जीविका के लिए
अपना शारीरिक श्रम बेचने को तैयार हैं। इन्हीं कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों में शारीरिक श्रम आधारित मनरेगा कार्यक्रम चल रहा है, जिस पर अनियमितता
के कई आरोप लगाए जाते रहे हैं। आयोजना के स्वरूप, लक्ष्य, और प्रक्रियायों पर पुनर्विचार की आवश्यकता नही है, परन्तु इसके कार्यान्वयन पर
नियमन एवं नियंत्रण की आवश्यकता है। इसके
लिए बाहरी एजेंसियों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि
स्थानीय जागरुक लोगों के प्रशिक्षित समूह की आवश्यकता है। बाहरी एजेंसियों की
भूमिका उन समूहों को शिक्षण एवं प्रशिक्षण तक ही सीमित होनी चाहिए।
एक छोटा सा उदाहरण है- मिट्टी कटाई में गहराई एवं मिट्टी के कणों की
बनावट (Texture) को ध्यान में रखते हुए उसके ढाल (Slope) को निर्धारित नहीं किया जाता है और परिणामत: उस गढ़े के आसपास की मिट्टी
भसक जाती है यानि ढह (collapse) जाती है। इस तरह मिट्टी कटाई
के कई लाभकारी उद्देश्य को विफल बना देता है। ऐसी
कई छोटे छोटे बातों पर स्थानीय जनता ध्यान देती है, पर
इन बातों पर ध्यान देकर कार्य प्रणाली में सुधार
करवाने का कोई समुचित तंत्र नही है।
इन श्रमिकों के श्रम के उपयोग की प्राथमिकता में सदैव उत्पादन में सहायक
संरचनाओं का ही निर्माण किया जाना चाहिए और इन संरचनाओं के निर्माण के निर्धारण में स्थानीय लोगों की सहभागिता
महत्वपूर्ण है। इससे स्थानीय समस्याओ के साथ साथ उस
क्षेत्र के प्रति विशिष्ट सांस्कृतिक लगाव की भी
जानकारी आयोजनकर्ताओं को हो पाती है और स्थानीय लोगों को उनकी सक्रिय भागीदारी का
सुखद एहसास होता है, जिससे उन स्थानीय लोगों का आत्मिक लगाव बना रहता है।
श्रम (ग्रामीण) से सम्बन्धित अधिनियमों, नियमों, संकल्पों और
परिपत्रों एवं श्रम आधारित योजनाओं की सम्यक जानकारी उन लोगों को दी जानी चाहिए।
उन्हें इन नियमों एवं आयोजनाओ के रचनात्मक एवं उत्पादक उपयोग निर्धारित करने की
जानकारी एवं प्रशिक्षण भी दी जानी चाहिए। इससे उत्पादकता बढ़ेगी, भ्रष्टाचार घटेगा, कार्यांवयनों पर समुचित निगरानी बढ़ेगी, बेहतर
आयोजनों का अवतरण होगा, सक्रिय सहभागिता की समझ बनेगी।
2. LAND (जमीन):
इसमें भूमि पर आधारित भूमि के सभी स्वरुप शामिल हैं, जैसे खेत, तालाब (Pond), सामाजिक वानिकी के क्षेत्र, प्राकृतिक वनों के क्षेत्र, जलाशय (Reservoir), चारागाह, पठार, परती
खाली स्थान आदि कई स्वरुप हैं, जिनका अलग अलग महत्व है। प्रत्येक क्षेत्र को इकाई
क्षेत्र मानते हुए उपरोक्त का समन्वित आयोजना होना चाहिए। उन आयोजनों में उन
क्षेत्रों की उच्चावच (Relief) एवं प्रकृति का ध्यान रखना और
उसे आयोजकों को बताना भी स्थानीय लोगों की जबावदेही है। खाली भू भागो एवं
सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरुप भूमि के उपर वर्णित सभी स्वरूपों का समन्वित
उपयोग का आयोजना होना चाहिए। इससे क्षेत्र में प्राकृतिक
विविधता (Natural Diversity) के करण अनुपम सौंदर्य (Incredible Beauty) की
स्थापना होती है, जो लोगों के जीवन में निराशा (Depression) नहीं आने देती है और स्थानीय लोगों के अतिरिक्त पर्यटकों का आकर्षण केंद्र
बनता है। ये विविधता (Diversity) विविध प्राणियों का आश्रय स्थल बनता है। यह विविधता स्थानीय लोगो को
विविध प्रकार से व्यस्त रख पाता है और उनकी उत्पादकता को बढ़ा देता है।
खेतों में कृषि, बागवानी, फल उत्पादन, फूल उत्पादन, औषधीय पौधों का उत्पादन, चारा उत्पादन, ईंधन उत्पादन, जलावन, सामाजिक वानिकी एवं टिम्बर आदि का उत्पादन किया जाता है| यह उत्पादन एक
समन्वित एवं संतुलित स्वरुप में हो, जिसमें उस क्षेत्र में भूमि की उपलब्धता, भूमि की विविधता, आबादी का स्वरुप, रोजगार की आवश्यकताओं इत्यादि को ध्यान में रखा गया हो। जल भंडारों की
संरचना के अनुरुप उसमें मत्स्य पालन, अन्य जल जीव पालन, नौकायन या अन्य सौंदर्यिक
विकास की अवधारणा शामिल किया जाना चाहिए। वैसे इन उपरोक्त उदाहरणों सहित अन्य कई
उदाहरणों पर सरकारी विभाग या अन्य संगठन बेहतर अवधारणाओं के साथ कार्यरत है। इन
क्षेत्रों में कई विभाग यथा कृषि, पशुपालन, मत्स्य, वन, ग्रामीण
विकास (सामाजिक वानिकी), पर्यटन विभाग , समाज कल्याण, ऊर्जा आदि कार्यरत है, जिनका आपसी
और स्थानीय जनता और भूमि के साथ संतुलित एवं समझदारीपूर्ण समन्वय अनिवार्य है। सभी
विभागों में सम्बधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ उपलब्ध है, परन्तु
उदासीनता, भ्रष्टाचार, और
समन्वय का अभाव मुख्य समस्या है।
सभी सम्बंधित विभागों के सभी कार्यक्रमों का संक्षिप्त स्वरूपों की
जानकारी और उनके क्षेत्रों की विशिष्टताओ के स्वरुप को समझाया जाना है, जिसमें स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी रहनी चाहिए। इन विभागों से सम्बन्धित कार्यक्रमों की जानकारी का लोगों में अभाव अक्सर
सरकार की मंशा को असफल बना देता है। इनके बेहतर आयोजनों के लिए बेहतर अवधारणा, बेहतर निर्माण, बेहतर समन्वय, बेहतर नियमन, बेहतर अनुरक्षण के लिए स्थानीय
लोगों की सक्रिय एवं समझदारीपूर्ण भागीदारी आवश्यक है।
3. LOCAL (स्थानीय):
स्थानीयता हमारी बहुत सी समस्याओं का समाधान करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में काफी बदलाव आया है, इनमें बेहतर सड़क, बेहतर और तेज परिवहन, पर्याप्त गुणवत्तापूर्ण बिजली, इंटरनेट सहित
बेहतर संचार व्यवस्था, डिजिटल एवं ऑनलाइन शिक्षा की
आसान उपलब्धता, ऑनलाईन मार्केटिंग की सुविधा, टैली मेडिसिन एवं चिकित्सा की पहुँच आदि कुछ प्रमुख सुविधाएँ है, जो पहले
अकल्पनीय रही। इसने स्थानीयता के लिए सारी भूमिकाएँ तैयार कर रखी है। ग्रामीण
क्षेत्र ऑनलाईन सेवाओं को देने का बेहतर स्थान है, क्योंकि यह विश्व की तुलनात्मक
खर्च की दरों में कमी करा कर ज्यादा सेवा की आपूर्ति कर सकता है। यह कृषि आधारित
उपयोगों का स्थानीय उत्पादन और खपत बढ़ा कर, खासकर अनाज जैसे हिस्सों को छोड़ कर, बिचौलिओ के हिस्से को बचा कर खर्च मे काफी बचत कर सकता है। इसमें मशाला, साग- सब्जी, फल, कंद, अंडा, मांस (चिकन, बत्तख, खरगोश, बकरी, भेड़
इत्यादि), जल जीव एवं वनस्पति उत्पादन (मछ्ली, झींगा, घोंघा, केकड़ा, सिंघाड़ा, काई, कमलगटा
अन्य), आदि प्रमुख है। गाँवों में औषधीय वनस्पतियों की भरमार है, जिसका उत्पादन, संग्रहण, प्रसंस्करण कर ईलाज मे काफी खर्च घटाया जा सकता है, बेच कर अतिरिक्त आय कमाया जा सकता है।
स्थानीयता के लिए उपयुक्त दुसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र उद्योग है,
जिसमें कुटीर, सूक्ष्म, लघु, और मध्यम उद्योग शामिल है। उद्योग नहीं
लगने का मुख्य कारण लोगों की उदासीनता, सरकारी तंत्र पर
भरोसा का अभाव और परामर्शी (Mentor) का उद्यमी नहीं
होना प्रमुख है। विशेषज्ञता सिखाना यदि उद्यमिता का
पैमाना होता तो चार्टर्ड लेखापाल ही अधिकतर उद्यमी होते; पाँच प्रतिशत भी ऐसे चार्टर्ड लेखापाल सफल उद्यमी नहीं बन पाते।
उद्यमिता एक भाव होता है, जिसे नौकर बने रहने वाले मानसिकता के लोग दूसरों को सिखा ही नहीं सकते है। उद्यमिता एक
कौशल सीखना है, एक नजरिया बदलना है, एक नया सोच अपनाना है, तकनीक का अनुकरण करना है, और कार्य पद्धति विकसित करना है; पर यह मशीन
चलाने जैसा नहीं है। एक
नौकरी करने वाला (Servant) मालिक (Owner) बनने की सही प्रेरणा नहीं दे सकता क्योँकि जिस चीज का अनुभव ही नहीं हो,
वो उस भाव को कैसे दूसरों को दे सकता है? यह काफी गम्भीर एवं विचारणीय विषय है जिसे साधारण मानव नहीं समझ पाता है। सरकारी लोग सामान्य लोगों
को उद्यम लगाने की प्रेरणा (Motivation) तो दे देता है, पर अंत:प्रेरणाओ (Inspiration) के अभाव में वह जल्द ही टूट जाता है। वह दूसरों को देख कर, सरकारी अनुदान (Subsidy) एवं सहायता देख
कर प्रेरित तो हो जाता है, परन्तु पर्याप्त अंत:प्रेरणाओ के अभाव में जल्दी हार
जाता है।
ग्राम्य पर्यटन, कृषि पर्यटन, मनोरंजन
पर्यटन, स्वास्थ्य पर्यटन और अध्यात्म पर्यटन एक विशाल
संभावनाओं का क्षेत्र है और इस पर काफी
अध्ययन और मनन किया जा सकता है। कृषि, उद्यम और पर्यटन
के विशिष्ट जानकारी और इनके अन्तरसम्बन्धों एवं इसके प्रति जागरूकता और रूचि पैदा
करने की जरुरत है।
4. LADY (महिला):
महिलाओं की आबादी सम्पूर्ण जनसंख्या का आधी है, परन्तु सांस्कृतिक अवरोधों
के कारण उनकी क्षमताओ का पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है। तकनीकी एवं आर्थिक
परिवर्तनों के कारण इनकी सामाजिक भागीदारी बढ़ गयी है। अब ये घरों की चौखट पार कर
चुकी है और राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भूमिका निभा रही है एवं योगदान दे रही है। महिलाएँ परिवार के केंद्र
अर्थात धुरी (Axis) होती है। महिलाओ की मिलनसारिता, बेहतर समन्वय, बेहतर वित्तीय समझदारी, तुलनात्मक बेहतर हिम्मत, बेहतर प्रबंधन कौशल इनके स्थापित
नैसर्गिक सहज प्रवृत्ति (Natural Instinct) है, जो नयी
संभावनाओं और उपादेयता (Feasibility and Productivity) को सामने रख रहा है। इनके इन स्थापित नैसर्गिक सहज प्रवृतियों के
आधार पर कई सफलताओं के कीर्तिमान स्थापित है| इन्हीं कारणों से इनकी भूमिका, जिम्मेवारी एवं हिस्सेदारी बढ़ानी है, ताकि समस्याओ का समाधान जल्दी और
सरलता से पाया जा सके। सरकार ने समावेशी विकास (Inclusive Development) में इनकी महत्ती भूमिका मानी है, फिर भी
अपेक्षित परिणाम आने बाकी है।
इन सारी प्रक्रियाओं में महिलाओं की जागरूकता और उनकी सक्रिय
भागीदारी का अभाव ही सारी समस्याओं की जड़ है; भले ही दोष इसका नही, उसका बताया जाए। इन बाधाओं को तोड़ने में सरकार को काफी सफलता मिली है, पर सामाजिक भूमिकाओं की जबावदेही बढ़ गयी है। इन्हें सामान्य पुरुषों के
साथ साथ ही शिक्षण एवं प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, परंतु वित्तीय साक्षरता
और जागरूकता के शिक्षण में इन्हें पुरुषों की तुलना में ज्यादा महत्व दिया जाना
चाहिए। इनमें बचत की समझ ज्यादा होती है। बचत को ही पूँजी के रुप में निवेश करने पर समृद्धि का विकास होता है। शिक्षण आँदोलन में महिलाएँ ही केंद्र बिंदु होगी, ताकि बच्चों और युवाओं
में भी प्रेरणा जगे और वे इसमें शामिल हों।
5. LAW (कानून):
कानून यानि विधि जानना सभी के लिए सम्भव नही है और इसे समुचित भी
नहीं कहा जा सकता है, परन्तु कुछ सामान्य और
आवश्यक कानून जानना सबके लिए अनिवार्य है। भारत का संविधान (Constitution), जो
भारत के शासन का मूलाधार है, को संक्षेप में और मौलिक
अधिकार (Fundamental Rights) को विस्तार से
जानने की आवश्यकता सबको है। सुचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act, 2005) को सबको अच्छी तरह जानना और समझना चाहिए। यह अधिनियम शासन
में पारदर्शिता लाने के लिए और भ्रष्टाचार समाप्त करने में काफी कारगर है, बशर्ते
लोग इस अधिकार और इसके उपयोग को अच्छी तरह समझते हो।
बौद्धिक लोगों में, खासकर महिलाओं सहित युवाओं में संविधान का संक्षिप्त जानकारी और मौलिक
अधिकार को विस्तार से जानकारी आवश्यक है। सरकारी और सरकार द्वारा अनुदानित योजनाओं
के बारे में और उनके लाभार्थी के रुप में अपनी भूमिकाओं को जानना सूचना अधिकार अधिनियम
का सकारात्मक और रचनात्मक उपयोग (Positive and Constructive Use of RTI Act) है। सामाजिक अंकेक्षण के लिए और भ्रष्टाचार
पर अंकुश लगाने के लिए इस अधिकार अधिनियम का
उपयोग सर्वविदित है। यह प्रशासनिक उदासीनता, लापरवाही, और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए
जनता के हाथों मे बेहतर हथियार है। इस अधिनियम के व्यापक शिक्षण और प्रशिक्षण से जनता अपने
सांविधिक और वैधानिक अधिकारों का समुचित उपयोग (Proper Use of
Constitutional and Legal Rights) कर सकेगी। इससे सरकार को
अपनी मंशाओं (Intentions) को धरातल पर
आसानी से उतारने में सहायता मिलेगी।
6. LEARN (सीखना):
युवा ही सीखने, समझने और उसके अनुरुप बदलने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। वर्तमान में भारत में
35 वर्ष तक की उम्र के युवाओं की संख्या 70 % से अधिक है। केलौग स्कूल ऑफ मैंनेजमेंट के मार्केटिंग प्रबंधन के विश्व प्रसिद्ध प्रोफेसर फिलिप कोटलर ने अपनी पुस्तक “मार्केटिंग – 4” (2017) में कई कारणों को बताते हुए युवाओं को ही
बदलाव का प्रमुख अभिकर्ता बताया है, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं। इन्होंने परंपरागत से डिजिटल (Traditional to Digital), विशिष्ट से समावेशी (Specific to Inclusive), उर्धवाकार से क्षैतिज (Vertical to Horizontal), व्यक्तिगत से सामाजिक (Individual to Inclusive) की ओर बदलाव पर ध्यान को महत्वपूर्ण बताया है।
इसके अलावा आपदा प्रबन्धन (Disaster Management) यानि आपदाओं से सक्षमता के साथ निपटने का आवश्यक संक्षिप्त जानकारी एवं
प्रशिक्षण
जरुरी है| कई क्षेत्र बाढ़ प्रणव क्षेत्र है, आगजनी गर्मियों में सामान्य आपदा है, काल वैशाखी जैसे तूफान भी अक्सर आते रहते हैं, और
कई क्षेत्र भी भूकम्प जोन -4 मे पड़ता है, जो अति संवेदनशील श्रेणी में है। पर्यावरण और
पारिस्थितिकी (Environment and Ecology) की समझ के बिना कोई शिक्षण पूर्ण नहीं माना जाता, इसलिए क्षेत्रानुसार इसका
शिक्षण भी शामिल किया जाना चाहिए। पोषण एवं स्वच्छता (Nutrition and Sanitation) की जानकारी, महत्त्व और उसके तरीके को बताया
जाना कई बडी समस्याओं के शुरुआती स्तर पर निदान है। स्वास्थ्य जागरुकता (Health Awareness) कई जटिल और बडी़ रोगों से बचाता है। स्थानीय उत्पादों को पोषण में बदलना
आसान है, जिसे सबको जानना चाहिए। उपरोक्त बातों को सीखना सब के लिए जरूरी है।
इन्हें सफलता
का मनोविज्ञान (Psychology of
Success) और सफलता का वैज्ञानिक
क्रिया विधि (Mechanics of Success) समझाया जाना
चाहिए। इनको कौशल विकास और उन्नयन (Development
and Advancement of Skill) के लिए प्रोत्साहित किया जाना
चाहिए। अंग्रेजी भाषा सम्प्रेषण कौशल के विकास के लिए डिजिटली प्रशिक्षण की सुविधा स्थानीय स्तर पर कराया जाना
चाहिए।
7. LEGEND (पौराणिकता):
भारत की सभ्यता काफी पुरानी होने के कारण इसकी संस्कृति भी काफी पुरानी
है और इसी कारण यहां कई सांस्कृतिक धरोहर मौजूद है। पौराणिकता के दॄष्टि से महत्वपूर्ण होने के
कारण इसकी पौराणिकता मार्केटिंग योग्य है। ये स्थल बौद्ध दर्शन, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, बहाईं धर्म, पारसी धर्म और जैन धर्म के लिए
महत्वपूर्ण स्थान है, जो देश एवं विदेश के पर्यटकों के लिए आकर्षण है। इसके अलावा यह भक्ति और सूफी संतों का भी स्थल रहा है। । इसलिए
इन पौराणिक स्थलों के भ्रमण करने वाले के लिए इन शांत एवं सुरम्य स्थलों का उपयोग अध्यात्म पर्यटन, ग्राम्य पर्यटन, कृषि पर्यटन, स्वास्थ्य पर्यटन एवं मनोरंजन पर्यटन के लिए किया जा सकता है। इन पर्यटन की संभावनाओं
और उनकी अवधारणाओं को बताना और समझाना है। इसके लिए प्रशासन से सहयोग एवं समन्वय
होना चाहिए, ताकि स्थानीय लोग इन अवधारणाओं को समझ सकें और इसे अपना सकें। यह
रोजगार का नया अवसर प्रदान करता है।
8. LOW COST (निम्न लागत):
निम्न लागत कई कारणों से महत्वपूर्ण है। निम्न लागत से तात्पर्य कम
पूँजी या कम वित्तीय निवेश किया जाना है अर्थात कम धन राशि से शुरु किया जाना है।
निम्न लागत के कई निहितार्थ हैं। निम्न लागत नए उद्यमी को उद्यम के असफल हो जाने
की स्थिति से उत्पन्न तनाव से बचाता है और अधिकांश उद्यमी इसी आशंका से डरे हुए
होते है।हर दस उद्यम में आठ
उद्यम असफल हो जाते हैं, परन्तु हर दस उद्यमी में नौ उद्यमी सफल हो जाते हैं।अर्थात उद्यम (Enterprise) की सफलता दर बीस प्रतिशत है, जबकि उद्यमी (Entrepreneur) की सफलता दर नब्बे प्रतिशत है। कृपया इस पर
ध्यान दिया जाए।
इतना ही नहीं, निम्न
लागत का उद्यम समझने और चलाने में काफी आसान होता है।
निम्न लागत के उद्यम में तकनीकों का स्वरूप भी सरल होता है और इसीलिए उसे संचालित
करने में भी सरलता होती है एवं उसकी मरम्मती भी
स्थानीय स्तर किया जा सकता है। सरल तकनीक का अर्थ है कि इसके संचालन के लिए
स्थानीय श्रमिकों का उपयोग किया जाएगा। निम्न लागत का अर्थ है कि साधारण और सरल से
विशिष्ट और जटिल की ओर बिना किसी तनाव एवं उलझन
के अग्रसर हुआ जा सकता है, जो नव उद्यमी के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। कम लागत
या निम्न लागत का व्यवस्था करना बहुतों के लिए आसान होता है। अत: आत्मनिर्भरता का
यह विशेष पहलू है जिसे गम्भीरता से रेखांकित किए जाने आवश्यकता है।
निम्न लागत का महत्त्व सिर्फ उद्यम में ही नही है, अपितु
यह जीवन के कई क्षेत्र में भी समान रुप में
महत्त्वपूर्ण है। जीवन को आसान तरीकों से जीना जापानियों की विशिष्टता है, जो सभी विकासशील
समाजों के लिए अनुकरणीय है। जीवन को सरलता परन्तु उच्चता से जीना बचत के लिए जरुरी है, जो बचत पूँजी का स्वरुप लेकर लोगो समृद्ध
बनाता है। बचत सभी गतिविधियों के लिए आवश्यक है।
स्थानीय निकायों को चाहिए कि भारत सरकार के लघु, सूक्ष्म, और मध्यम उद्यम मंत्रालय से सहयोग और समन्वय स्थापित कर नव उद्यमियों को
प्रोत्साहित करे एवं सहयोग के साथ साथ उनका
मार्गदर्शन करे, ताकि स्थानीय कच्चा माल, स्थानीय बाजार, और निम्न लागत के अनुरुप उद्यम
स्थापित किया जा सके।
जीवन को सरलता और उच्चता से जीने के तरीके और निम्न लागत से बचत का
महत्त्व समझाना महत्वपूर्ण है । यह कठिन लगता है परन्तु सिर्फ
आदत विकसित हो जाने तक ही कठिन है। यह जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसी कारण इस निवेश को पूँजी
बाजार से जोड़ना सीखाया जाना चाहिए। भारत चीन से
1985 तक आगे रहा, परन्तु वहां के लोगों का पूँजी
बाजार से जुड़ने के कारण ही आज चीन भारत से अर्थव्यवस्था में छह गुणा से अधिक आगे है। इस निवेश प्रक्रिया को
लोगों को समझाया जाना चाहिए।
निष्कर्ष: उपरोक्त बातों पर ध्यान देते हुए यह कहा जा सकता है कि किसी क्षेत्र, राज्य, और भारत को आत्मनिर्भर बनाने का यही
तरीका और प्रक्रिया है। एक भी क्षेत्र में इस माडल के सफल होने पर यथाआवश्यक संशोधन के साथ पूरे भारत में सफल बनाया जा सकता है। सिर्फ अवसर
का इंतजार है। इसका सम्यक अध्ययन एवं विश्लेषण किया जा सकता है तथा हमें भी विमर्श
में शामिल किया जा सकता है ताकि विद जनों को समझने में सरलता हो।
निरंजन सिन्हा
www.niranjansinha.com
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंइतना सत्य कि टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूं।
जवाब देंहटाएं