अक्सर
यह कहा जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है| अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतना युक्त
है| कहने का तात्पर्य यह है कि यह ब्रह्माण्ड समझदार और प्रज्ञावान है| हम सभी उसी
चैतन्य ब्रह्माण्ड के अंश हैं| इसीलिए हम सभी उसी ब्रह्माण्ड की तरह ही शक्तिशाली
और समझदार भी हैं| जब हम समझदार हो सकते हैं, तब यह ब्रह्माण्डीय चेतना तो बहुत
अधिक समझदार होगा ही| अब यह प्रश्न उठता है कि यदि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है, तो यह
ब्रह्माण्डीय चेतना अपने प्रभाव एवं अनुकम्पा के वितरण में भेदभाव कैसे और क्यों करता
है? सभी जीवों में सभी मानव शामिल हैं| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना वैज्ञानिकता
नहीं हो सकता है| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना ही ‘ईश्वर’ का सृजन करना
हुआ| फिर यह भी प्रश्न है कि यह ब्रह्माण्डीय चेतना सभी मानवों में विभेदन क्यों
करता है और किस आधार पर करता है? प्रकृति का नियम सदैव सर्वकालिक और सार्वभौमिक
होता है| अर्थात प्रकृति को सदैव ही नियम संगत होना चाहिए, अन्यथा वह अवश्य ही अप्राकृतिक है।|
यदि ब्रह्माण्ड
चेतना के साथ अस्तित्व में हैं, तो उपरोक्त प्रश्नों का समुचित तार्किक उत्तर
मिलना चाहिए| अन्यथा यह मान लेना उचित और सम्यक प्रतीत होगा कि यह ब्रह्माण्ड
चेतना युक्त नहीं है| लेकिन इस ब्रह्माण्ड में चेतना तुल्य के कुछ स्पष्ट संकेत या
प्रमाण मिलते हैं| तब यह नहीं कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड चैतन्य नहीं है|
अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतनशील है|
तब
यह स्पष्ट होता है कि एक ही साथ यह ब्रह्माण्ड चैतन्य भी है और चैतन्य नहीं भी है|
यही अवस्था एक सूक्ष्म जीवाणु के साथ होता है, जिसे वायरस (विषाणु/ Virus) कहते है|
वायरस जीवित जीवों के साथ चैतन्य होता है और वही वायरस निर्जीव जीवों के साथ चैतन्य
नहीं होता है| अर्थात एक ही वायरस कभी जीवित होता है और कभी निर्जीव भी होता है|
आप कह सकते हैं कि एक वायरस एक साथ चैतन्य भी है और वही वायरस चैतन्य नहीं भी है|
यह ब्रह्माण्डीय चेतना भी एक वायरस की ही तरह एक साथ चैतन्य भी दिखता है और चैतन्य
नहीं भी दिखता है|
तब
यह सहज प्रश्न उभरता है कि इसकी वैज्ञानिक क्रियाविधि क्या है? इसे समझने के लिए
आप एक छोटे से परितंत्र (Ecosystem) का उदाहरण लें| यह परितंत्र एक छोटा का जलाशय
(तालाब/ Pond) हो सकता है| इस जलाशय के परितंत्र का ऊर्जा स्रोत सूर्य होगा| जलाशय
के परितंत्र में जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक अपने
मौलिक स्वरुप में मौजूद होते हैं| यही सभी आवश्यक पदार्थ सूर्य की ऊर्जा की
उपस्थिति में एवं अन्य अनुरुप परिस्थिति में जीवन की उत्पत्ति करता है| हर जीवित
जीव चेतना युक्त होता है| इस परितंत्र में यह जीवन विकसित होता है, पलता एवं बढ़ता होता
है| फिर यह जीवन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है| मरने के बाद इस जीवन चक्र का ऊर्जा
इस तंत्र से बाहर निकल जाता है| फिर इस जीवित जीव के अन्य सभी मूलभूत तत्व एवं
यौगिक विघटित होकर अपने स्रोत के भण्डार में उपलब्ध हो जाता है| इनके सभी मूलभूत
तत्व एवं यौगिक जीवन –चक्र के अनुसार एक चक्र पूरा करता होता है, लेकिन चेतना अपना
चक्र पूरा नहीं करता है| अर्थात चेतना यानि उसका आत्मा का अस्तित्व उसके मृत्यु के साथ समाप्त हो
जाता है|
यही
स्थिति मानव सहित सभी जीवन के लिए सत्य है| यदि ब्रह्माण्ड भी चेतना युक्त है, तो
यह भी इसी व्यवस्था के कारण है| तो फिर उपरी प्रश्न वही खड़ा रह जाता है| तब यह
ब्रह्माण्ड व्यक्ति विशेष की विशेषता के अनुसार चैतन्य कैसे होता है और यह ब्रह्माण्ड
अन्य के लिए चैतन्य कैसे नहीं होता है? इसे एक दूसरे उदाहरण से समझते हैं|
‘ब्रह्माण्ड’
भी एक ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ है, जो एक ‘अग्नि –लौ’ (Flame) के समान एक
विशिष्ट चेतना के अभाव में सक्रिय नहीं रहता
है| विशिष्ट चेतना के संपर्क में यह ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय –सत्ता’ भी
प्रदीप्त (Ignited) हो उठता है| किसी व्यक्ति की विशिष्ट चेतना की तरह एक छोटा दीप
भी अपनी ‘दीप –लौ’ (Lamp –Flame) से उसे प्रज्जवलित कर देता है| अर्थात एक
ब्रह्माण्ड क्षमतावान होता है, जो अग्नि की तरह उष्मा, प्रकाश, एवं ऊर्जा से
निर्मित सूचना एवं चेतना का असीम भण्डार होता है| परन्तु यह ब्रह्माण्ड चेतना की
तरह सक्रिय होने को तत्पर तो होता है, लेकिन यह किसी विशिष्ट एवं समर्थ चेतना के
सम्पर्क की प्रतीक्षा में निष्क्रिय पडा होता है| जब भी कोई विशिष्ट एवं समर्थ
चेतना का व्यक्ति अपनी ऊर्जा को उच्चतर अवस्था में लाकर ब्रह्माण्ड की अनन्त
विस्तार के संपर्क में आता है, तब उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना के लिए यह
ब्रह्माण्ड सक्रिय और कार्यरत हो उठता है| यह ब्रह्माण्ड अन्य सामान्य एवं साधारण चेतना
के लिए सदैव निष्क्रिय एवं अक्षम पड़ा रहता है| ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की यही वैज्ञानिक
क्रियाविधि (Mechanism) है|
आप
‘चेतना’ को ‘आत्म’ (Self) कह सकते हैं| ‘चेत’ जाना ही किसी की ‘चेतना’ है| ‘चेत’
जाने की क्रिया को किसी का ‘आत्म’ करता है| इसीलिए ‘चेतना’ को मैं उसका ‘आत्म’
कहता हूँ| यह ‘आत्म’ किसी की ‘आत्मा’ नहीं है| मैं यहाँ ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा’
(Soul) में अंतर स्पष्ट नहीं करने जा रहा हूँ, क्योंकि यह विषयान्तर होगा| यह
‘आत्म’ उस व्यक्ति के ‘मन’ (Mind) एवं ‘चित्त’ (Spirit) का संयुक्त स्वरुप होता
है| यह ‘मन’ व्यक्ति के ‘मस्तिष्क’ (Brain) से अलग होता है| यह ‘मस्तिष्क’ उस
व्यक्ति के शरीर, ‘मन’, ‘चित्त’ एवं अनन्त प्रज्ञा के बीच एक मोड्यूलेटर (Modulator)
की तरह कार्य करता है|
‘मन’
उस व्यक्ति के विचारों का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं भण्डारण केंद्र की तरह
होता है| इसी तरह, ‘चित्त’ उस व्यक्ति की भावनाओं का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं
भण्डारण केंद्र की तरह होता है| यह ‘चित्त’ ही व्यक्ति की सम्पूर्णता को अनन्त
ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से सम्बन्धित करता है, यदि वह ‘चित्त’
(Spirit) सक्षम एवं क्षमतावान हो| ‘चित्त’ की सक्षमता उसी समय अनन्त प्रज्ञा को
सम्बन्धित करता है, जब वह किसी विशिष्ट चेतना की सक्रियता के संपर्क में आता है| इसी
‘चित्त’ (Spirit) को अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से
सम्बन्धित होने की प्रक्रिया को ‘अध्यात्म’ (Spirituality) कहते हैं| भारत में
किसी व्यक्ति के ‘आत्म’ को ‘अधि’ (ऊपर) से सम्बन्धित होने की प्रक्रिया ही ‘अध्यात्म’
(अधि + आत्म) कहलाता है| इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति का ‘स्व’/ ‘आत्म’/ ‘मैं’ का
सम्बन्ध अनन्त प्रज्ञा, यानि ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ वाले ब्रह्माण्ड की
सत्ता से होता है| यही अध्यात्म है|
यहाँ
एक और बात का ध्यान रखना है| अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ का
उत्पादन उसी स्तर की गुणवत्ता और मात्रा का होता है, जिस स्तर की गुणवत्ता और मात्रा
उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना में होता है| इसी कारण तथागत बुद्ध, अल्बर्ट आइन्स्टीन
और स्टीफन हावकिन्स अपनी चेतना के स्तर की गुणवत्ता और मात्रा के अनुसार ही
ब्रह्माण्ड को चैतन्य बना कर मानवता को लाभान्वित करा सके| इसे स्थिरता से और
ध्यान से समझा जाय|
अब आप ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की वैज्ञानिक क्रियाविधि की व्याख्या को समझ गए होंगे|
आचार्य प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन
संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|