मंगलवार, 23 दिसंबर 2025

समस्यायों का समाधान कैसे हो?

समस्या क्या होता है? समस्या उसे कहते हैं, जो आपके विचारों, कार्यों या किसी चीज में बाधा या रुकावट डालती है। इस तरह समस्या वह होता है, जिसका समाधान हमें ज्ञात नहीं होता है। जिन समस्याओं का समाधान हमें ज्ञात होता है, वह समस्या ही नहीं कहलाता। समस्याओं की प्रकृति (Nature), स्वरुप (Form), प्रकार (Types) और प्रतिरुप (Patterns) में विविधता होती है। लेकिन समस्याओं का समाधान कैसे होता है?

समस्याओं के समाधान के लिए समस्याओं के मूल को स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। समस्या क्या है, क्यों है और किस स्तर पर हैइसे साफ-साफ यथास्थिति में जानने समझने की अनिवार्यता है। इन्हें अपनी भावनाओं से अलग होकर तथ्यात्मक रुप में देखने की आवश्यकता होती है। समस्याओं के पीछे के मूल कारणों (Root Causes) को खोजने के लिए ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की अवधारणा को समझते हुए आगे बढ़ा जाना चाहिए। बहुत सी समस्यायों का आधार विरोधियों की मंशाओं और अवधारणाओं को नहीं समझना और उन्हीं को सही मान लेना होता है| इसे ही एन्टोनियो ग्राम्शी का ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ की क्रियाविधि कहते है| समस्याओं के लक्षणों (Symptoms) पर काम नहीं कर, उसके कारणों पर काम किये जाने की आवश्यकता होती है। एक ही समाधान पर अटकना समुचित नहीं है।

आईन्सटीन ने कहा है कि जिस चेतना स्तर ने समस्यायों को जन्म दिया है, उसी स्तर से उन समस्यायों का समाधान नहीं किया जा सकता| कोई समस्या आज इसलिए खड़े हैं, क्योंकि आज तक किसी ने उसका समुचित और पर्याप्त व्यवहारिक समाधान नहीं दे पाए है, या आज के लोग उसको समझ ही नहीं पाए हैं| लोगों को ‘और’ संगठित करना, या ‘और’ ज्यादा मात्रा में काम करना अपने को समाधान पा लेने के भ्रम में रखने का सरल और साधारण बहाना है| इसे दुबारा पढ़ लें| आज भी यदि किसी समस्या के समाधान पाने के लिए विमर्श करने की आवश्यकता है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि आज तक किसी ने उन समस्यायों का समुचित और व्यवहारिक समाधान नहीं दे पाया है| बार बार एक ही तरह की सोच और उसके क्रियान्वयन को दोहराने से संभवतः वही परिणाम प्राप्त होंते है, जो पहले भी प्राप्त होते रहे हैं। इसे ही ‘बौद्धिक पागलपन’ कहते हैं| लोग क्रियान्वयन में लगे हुए रहते हैं और उनको वही परिणाम मिलता रहता है| ऐसे ही बौद्धिकों को एन्टोनियो ग्राम्शी ‘निर्जीव बौद्धिक’ कहते हैं|

किसी समाधान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए किसी विचारक को देवता मान कर पूजते रहना और उनके समाधानों को बदलते परिवेश के अनुरूप संशोधित और संवर्धित नहीं करना भी समाधान की दिशा में ‘ठहराव’ है| ठहरे हुए पानी में भी दुर्गन्ध उठने लगता है, जबकि बहता हुआ जल पीने योग्य रहता है|  विचार सदैव जीवन्त होते हैं| यह चिन्तन की प्रकृति में बदलाव और सचेत चिन्तन को रेखांकित करता हैं। यह स्पष्ट है कि समस्याओं का समाधान हमारे सोचने के तरीके में बदलाव से शुरू होता है, न कि केवल हमारे कार्यों की मात्रा घटाने बढाने से होता है। सिर्फ़ चलना या दौड़ना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि समुचित दिशा भी अनिवार्य होता है। सिर्फ दौडते रहना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि ठहरना और गहराइयों में उतरना, समझना और उसमे बदलाव भी महत्वपूर्ण होता है। यह सब लोगों के सोचने के सामान्य तरीके को चुनौती देता है| सामान्य प्रचलित अवधारणाओं को आधार बनाकर सामान्य समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है, लेकिन चिरकालिक या जड़ समस्याओं का समाधान अलग और नवाचारी अवधारणाओं पर ही सम्भव हो पाता है।

आज भी दुनिया जटिल व्यक्तिगत, सांस्कृतिक, सामाजिक और वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रही है। वास्तविक समाधान आंतरिक परिवर्तन से शुरू होते हैं, जो विचारों, अवधारणाओं और मान्यताओं के नवाचारी बदलाव से आता है। नए विचारों एवं अवधारणाओं पर समाधान पाने की क्रिया को ही ‘आउट –आफ –बाक्स थिंकिंग’ (Out –of –Box Thinking) कहते हैं| इसे ही सम्युअल थामस कुहन ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ (Paradigm Shift) कहते हैं|

अधिकतर समस्याएँ आकस्मिक नहीं होतीं। वे आदतों, मान्यताओं और धारणाओं का परिणाम होती हैं| इसीलिए इनको समय के साथ बदलकर इन निर्णयों को आकार दिया जा सकता हैं। जब इन आदतों, मान्यताओं और धारणाओं के प्रतिरुप (पैटर्न) अपरिवर्तित रहते हैं, तो समस्याएं अक्सर अलग-अलग रूपों में वापस आ जाती हैं। बहुसंख्यक लोग अपनी परंपरागत आदतों, मान्यताओं और धारणाओं को बदलना नहीं चाहते हैं और उनका समाधान भी चाहते हो, और इसीलिए असफल रहते हैं|

 किसी के ‘चेतना का स्तर’ यह दर्शाता है कि कोई व्यक्ति किसी स्थिति को कितनी गहराई और व्यापकता के साथ साथ कितनी सूक्षमता से समझता है। इसमें जागरूकता, मूल्य, भावनात्मक परिपक्वता और सीखने की तत्परता शामिल होती है। इन क्षेत्रों में विकास के बिना, समाधान केवल थोड़े समय के लिए ही कारगर होता हैं। किसी समस्या को हल करने के लिए केवल अधिक प्रयास करना ही काफी नहीं है, बल्कि अलग तरीके से सोचना भी जरूरी है। यह भी ध्यान में रखना है कि पुरानी सोच को दोहराने से असफलता ही  मिलती है| लोग अक्सर चुनौतियों का सामना करने के लिए परिचित तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि वे इसमें सुरक्षित और सहज महसूस करते हैं। सरल और परम्परागत तरीके आरामदायक और सुविधाजनक हो सकती है, लेकिन यह प्रगति को सीमित कर सकता है। पुरानी सोच किसी समस्या के अस्तित्व का कारण तो समझा सकती है, लेकिन हमेशा उसे दूर नहीं कर सकती।

लोगों को बहुत सी समस्यायों के समाधान संघर्ष करने में दिखता होता है| संघर्ष से समस्यायों को सुलझाने के लिए नियंत्रण या आधिपत्य का प्रयोग अक्सर ‘और’ अधिक प्रतिरोध एवं उलझन उत्पन्न करता है। इसके संघर्ष –रहित और सामानजनक समाधान के लिए परंपरागत आदतों, मान्यताओं और अवधारणाओं को पूरी तरह बदल कर पाया जा सकता है| गलतियों को सुधारने के लिए जल्दबाजी का प्रयोग अधिक त्रुटियों को जन्म दे सकता है। अपने चिन्तन में बदलाव हमें धीमे चलने और कार्यों के पीछे की सोच पर सवाल उठाने के लिए प्रोत्साहित करता है। चेतना का उच्च स्तर लोगों को प्रतिक्रिया देने के बजाय सुनने, निर्णय लेने के बजाय समझने और प्रतिस्पर्धा करने के बजाय सहयोग करने की क्षमता प्रदान करता है। यह मानसिकता रचनात्मक और शांतिपूर्ण समाधानों के द्वार को खोलती है। आदतों, मान्यताओं या भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में बदलाव से बेहतर परिणाम मिलते हैं। परिस्थितियों या लोगों को दोष देने के बजाय ऐतिहासिक जड़ों को समझने के लिए बाजार की शक्तियों और उनकी क्रियाविधियों को समझना समाधान को वैज्ञानिक आधार देता है| यह सब आत्म-चिन्तन को प्रोत्साहित करता है।

अच्छे नेता बदलते हुए हालातों को वैज्ञानिक ढंग से समझते हुए होते हैं। वे पुरानी अवधारणाओं और पुरानी प्रणालियों पर सवाल उठाते हैं और नए विचारों के प्रति खुले रहते हैं। यह मानसिकता विश्वास और दीर्घकालिक सफलता का आधार बनती है। आधुनिक दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है, लेकिन कई समस्याएँ  अनसुलझी ही रह गई हैं। किसी समाधान के लिए केवल गति ही पर्याप्त नहीं है। नए विचारों के बिना प्रगति रुकी हुई सी महसूस हो सकती है। किसी को मात्र दोषारोपण करना समस्याओं का समाधान नहीं देता है। बिना दोष निर्धारण के भी समस्याओं का समाधान किया जाता है। इसे ‘बड़ी लकीर’ खींचना कहते हैं| परिवर्तन भीतर से शुरू होता है। इसका शाश्वत महत्व केवल प्रेरणा देने की क्षमता में ही नहीं, बल्कि चिन्तन को निर्देशित करने की क्षमता में भी निहित है।

समस्याएं केवल बाहरी चुनौतियां नहीं हैं, बल्कि आंतरिक चिन्तन का प्रतिबिंब हैं। सच्चे समाधानों के लिए जागरूकता, ज्ञान और दृष्टिकोण बदलने का साहस आवश्यक है। जब सोच का विस्तार होता है, तो समाधान की संभावनाएं भी बढ़ती हैं।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

अगड़े और पिछड़े में क्या अन्तर है?

'अगड़ा' और 'पिछड़ा' एक सापेक्षिक अवधारणा है| अगड़ा और पिछड़ा जीवन के हर क्षेत्र, हर प्रक्रम और हर स्थिति में बना रहेगा| यह अगड़ा और पिछड़ा कोई भी हो सकता है| इस अवधारणा में व्यक्ति, परिवार, समाज, समूह, संस्कृति या राष्ट्र शामिल हो सकता है| आप इस सूची का अपनी स्वेच्छा से ‘और’ विस्तार करने के लिए कुछ और शब्द जोड़ सकते हैं| यहाँ यह प्रश्न महत्वपूर्ण होगा कि कोई 'अगड़ा' क्यों बन जाता है और कोई 'पिछड़ा' क्यों हो जाता है? मैं यहाँ किसी पर दोष –निर्धारण नहीं करने जा रहा हूँ, अपितु मैं सिर्फ कारण –परिणाम तक सीमित रहूँगा|

किसी के 'अगड़े' और 'पिछड़े' होने क्या अन्तर है? यह एक अनिवार्य प्रश्न है, जिसे हर कोई को समझना चाहिए। इस मूल कारण को पहचान कर कोई भी कभी भी अगड़ा बन सकता है। इस अगड़े और पिछड़े होने के अन्तर का एक ही कारण है, जिसे सावधानी से समझना चाहिए| दरअसल एक व्यक्ति, या परिवार, या समाज दो भिन्न समय में या दो भिन्न सन्दर्भ में कभी अगड़ा और कभी पिछड़ा हो जाता है। वैसे सभी मौजूदा जीवित मानव ‘होमो सेपियन्स सेपियन्स’ ही हैं, और सभी एक ही ‘विस्तारित परिवार’ (Extended Family) का सदस्य हैं। इसीलिए आज का सभी जीवित मानव हर बौद्धिक कार्य करने लिए समान रुप से सक्षम एवं योग्य है|

जो ज्ञान -अर्जन में अपने को पूर्ण समझेगा, वह अपने ज्ञान का संवर्धन छोड़ कर दूसरे क्षेर्त्रों में उलझा रहेगा, वह पिछड़ा ही रहेगा। जो अपने को ज्ञान में पूर्ण होना समझ लिया, वैसा व्यक्ति समय के बदलने के अनुरुप समायोजित और संवर्धित नहीं होना चाहता। समस्याओं का समाधान हमारे सोचने के तरीके में बदलाव से शुरू होता है, न कि केवल हमारे कार्यों में। ऐसा ही व्यक्ति विचार में परिमार्जन और संवर्धन छोड़ कर सिर्फ संसाधन जुटाने और संगठन बना कर अगड़े की श्रेणी में आना चाहता है|

जो भी ऐसा समझता है कि उसे अपनी समस्या के कारण की समुचित और पर्याप्त जानकारी है और वह उस समस्या के समाधान की पर्याप्त समझ भी रखता है, तभी वह सीखना समझना रोक देता है| जब उसे लगता है कि उसके महापुरुषों ने उसकी समस्यायों का समाधान का पता कर लिया है, तब वह ज्ञानार्जन में ठहर जाता है| उसका ध्यान इस पर नहीं जाता है कि हर क्षण परिस्थितीयाँ बदलती रहती है और इसीलिए हर समस्या की प्रकृति भी प्रवाहमान रहती है|

प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था कि समस्या चेतना के जिस स्तर खड़ा है, उसका समाधान चेतना के उसी स्तर पर रह कर नहीं पाया जा सकता है|इसके साथ यह भी कहते हैं कि एक ही तरह की सोच को दोहराने से संभवतः वही परिणाम प्राप्त होंगे। कई समस्याएं आदतों, मान्यताओं और धारणाओं का परिणाम होती हैं। किसी समस्या को हल करने के लिए केवल अधिक प्रयास करना ही काफी नहीं है, बल्कि अलग तरीके से सोचना भी जरूरी है।

प्रसिद्ध क्रान्तिकारी दार्शनिक एन्टोनियो ग्राम्शी ने भी ‘सांस्कृतिक वर्चस्ववाद’ (Cultural Hegemony) में यही समझाते हैं, कि विरोधियों की अवधारणाओं को ही सही मानकर समाधान की उम्मीद करना उनकी दलदलों में डूब जाना होता है| समस्याएं केवल बाहरी चुनौतियां नहीं हैं, बल्कि आंतरिक चिंतन का प्रतिबिंब हैं। केवल गति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ठहर कर गहराई में उतरना भी जरूरी है। पुरानी सोच किसी समस्या के अस्तित्व का कारण तो समझा सकती है, लेकिन हमेशा उसे दूर नहीं कर सकती। ऐसे पिछड़े लोग अपने नवाचारी ज्ञानार्जन रोक कर सिर्फ सड़कों पर उतरना जानता है|         

अपने ज्ञान को अपूर्ण समझने की शास्वत प्रकृति, प्रवृत्ति और नजरिया वाले लोग ही 'अगड़े' होते हैं| ज्ञान किसी विषय में सूचनाओं का संगठित एवं व्यवस्थित संग्रह होता है| चेतना को विकसित करने को तत्पर रहने वाला ही ‘अगड़ा’ होता है| ऐसा समझने वाला व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति और राष्ट्र सदैव अग्रणी रहेगा। किसी के ‘अगड़ा’ होने का एकमात्र करण यही होता है|

यही पिछड़े और अगड़े में मूल, मौलिक और आधाभूत अन्तर है। लेकिन ऐसा क्यों होता है?

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड एडलर अपने 'श्रेष्ठतावाद' (Striving for Superiority) में समझाते हैं कि प्रत्येक मानव हीनता की भावना से ग्रस्त होता है और वह श्रेष्ठ बनना या दिखना चाहता है। अल्फ्रेड एडलर का 'श्रेष्ठतावाद' का सिद्धांत बताता है कि हर व्यक्ति बचपन में हीनता (Inferiority) की भावना महसूस करता है और इस भावना पर काबू पाने और व्यक्तिगत विकास हासिल करने के लिए श्रेष्ठता चाहता है। यही भावना मानव व्यवहार की मुख्य प्रेरक शक्ति है। यह प्रयास किसी को स्वस्थ रूप से सामाजिक हित और उपलब्धि की ओर ले जा सकता है, या किसी को अस्वस्थ रूप से अहंकार या प्रभुत्व की ओर ले जा सकता है। मुख्य विषय पर जाने से पहले हमलोग एक प्रसंग पर ठहरते है

कुछ वर्षों पहले की बात है। एक प्रोफेसर ने अपने 'युद्ध विज्ञान' (Military Science) के क्लास में छात्रों से पूछा कि दुनिया में सबसे शक्तिशाली देश कौन है? उत्तर आया - संयुक्त राज्य अमेरिका। जवाब सही था। अगला सवाल था कि दुनिया का सबसे डरपोक देश कौन है? उत्तर की प्रत्याशा में क्लास में सन्नाटा छा गया। फिर प्रोफेसर ने बताया कि दुनिया सबसे डरपोक देश भी संयुक्त राज्य अमेरिका ही है। अकल्पनीय उत्तर था। परन्तु ऐसा कैसे सम्भव है? जो डरपोक होता है, वह अपने सभी संभावित खतरों के प्रति अति सावधान और सतर्क होता है। एक डरपोक ही अपने सभी संभावित कमजोर पक्षों को मजबूत करता है, ताकि उसे कोई किसी भी क्षेत्र में नुकसान नहीं पहुँचा सके| इसके लिए वह अति सावधान एवं सजग रहकर अपने कमजोर पक्षों को पहचानते रहते हैं और समय के अनुसार अपने को संशोधित, परिमार्जित और संवर्धित करते होते हैं|  उसका यही भाव उसे सशक्त बनने को बाध्य करता है|

आज का आधुनिक मानव भी इसी डर की भावना के कारण ही एक पशु से मानव बन सका| कोई चालीस लाख साल पहले हमारे पूर्वज वानर (Ape) थे और पेड़ों पर रहते थे| किसी खाद्य संकट के कारण कुछ कमजोर वानरों को पेड़ों से नीचे धकेल कर गिरा दिया गया और फिर से उन पेड़ों पर नहीं चढ़ने दिया गया| नीचे के झाड़ियों में छिपे खतरों को भापने और उनसे बचने के लिए उन्हें उचक उचक कर देखना होता था| इसी क्रम में वह सीधे खड़े होने का आदी होता गया और सीधा चलने वाला मानव बन सका| जंगल का सबसे कमजोर जीव अपने संभावित खतरों को समझने और उसका समाधान पाने के लिए अपनी चेतना के विकास करने को बाध्य हुआ| इसका परिणाम हमलोग के इस स्वरुप में सामने है|

उपरोक्त दोनों प्रसंगों पर ठहर कर विचार करें| दोनों से यही स्पष्ट होता हाँ कि कोई क्यों ‘वनमानुस’ ही रह गया और कोई क्यों विज्ञानमानुस’ बन गया| क्यों कोई जानवर ही रह गया और कोई क्यों ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber), ‘सामाजिक मानव’ (Homo Socius), ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) और ‘आध्यात्मिक मानव’ (Homo Spiritual ) बन सका| इन सभी का एक ही कारण है| कोई अपने चेतना के विकास को सदैव तत्पर रहता है और कोई चेतना के विकास में पर्याप्त  संतुष्ट होता है| किसी के अगड़े होने और किसी के पिछड़े रह जाने का यही एक कारण है|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान|

 

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

ब्राह्मणवाद को समझिए

‘ब्राह्मणवाद’ भारत में बहुचर्चित एक शब्दावली है| आजकल भारत की अधिकांश आबादी अपनी समर्पित बौद्धिकता, समस्त वैचारिकी, पूरा समय एवं महत्वपूर्ण संसाधन लगाकर इसी में दुबकी लगा रहे हैं| लोग ब्राह्मणवाद को कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के ऐच्छिक प्रयास के परिणामस्वरूप उत्पन्न मानते हैं। इस ब्राह्मणवाद के साथ भारत का सबसे बड़ा त्रादसी यह है कि बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणवाद की स्पष्ट संकल्पना को समझता ही नहीं है|

तो ब्राह्मणवाद क्या है?  ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है, एक जीवन पद्धति है, एक संस्कृति है, एक चारित्रिक क्रियाविधि है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग को सर्वोपरि माना जाता है। यह ब्राह्मण वर्ग कोई जाति, या वर्ण, या ब्रह्म -ज्ञानी माना जाता है। ब्राह्मणवाद अपने आधार स्तम्भों पर आधारित है, क्रियान्वित है और नियमित है। इस आधार स्तम्भ में ‘जाति’ एवं ‘वर्ण’ की व्यवस्था की मान्यता है, ‘आत्मा’ और ‘पुनर्जन्म’ की संकल्पना एवं सम्बन्धित क्रियाविधि की सत्यता है, ‘कर्मवाद के सिद्धांत’ और ‘ईश्वर’ की वास्तविकता है  एवं  ‘स्वर्ग –नर्क’ और ‘नित्यता के सिद्धांत’ की स्थापना में है। उपरोक्त को अपने जीवन में किसी भी रुप में अपनाना,  स्वीकार करना है, और उसे सत्य मानना ही ब्राह्मणवाद है। ‘ब्राह्मणवाद’ स्पष्ट रुप में ‘सांस्कृतिक सामन्तवाद’ है, जो ‘राजनीतिक सामन्तवाद’ एवं ‘आर्थिक सामन्तवाद’ के साथ साथ भारत में विकसित एवं समृद्ध हुआ है|

जब ब्राह्मणवाद को किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह ने उत्पन्न नहीं किया है, तब प्रश्न यह उठता है कि इस ब्राह्मणवाद को किसने जन्म दिया और विकसित किया? क्या इतिहास की धारा को मोड़ने में, यानि दिशा बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह मात्र सक्षम नहीं होता है? कुछ समय पहले ऐसा ही माना जाता था कि इतिहास की धारा को मोड़ने में, यानि दिशा बदलने में कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह ही सक्षम होता था| तब प्रश्न है कि इस ब्राह्मणवाद की उत्पत्ति क्यों हुई?

ब्राह्मणवाद की प्रकृति एवं विशेषताओं पर ध्यान दिया जाए। उपरोक्त अवधारणा में इनके आधार -स्तम्भों के अवलोकन से स्पष्ट है कि यह समाज में स्थापित असमानताओं को प्राकृतिक, सहज, सामान्य, न्यायसम्मत और विवेकपूर्ण साबित करने के प्रक्रम में उत्पन्न हुआ है। यह सब सामन्ती व्यवस्था की अनिवार्य आवश्यकता थी|

वैसे इतिहासकार, जो इतिहास को बदलने में व्यक्ति या व्यक्ति -समूह को प्राथमिकता देते हैं, उन्हें ऐतिहासिक शक्तियों और उनकी क्रियाविधियों की समझ नहीं होती है। ऐसे तथाकथित इतिहासकार किसी व्यक्ति या व्यक्ति - समूह को आरोपित कर सामान्य लोगों के सामान्य मनोवैज्ञानिक भावनाओं के पक्ष में हो जाते हैं और इसीलिए सामान्य लोगों में लोकप्रिय हो जाते हैं। सामान्य लोगों एवं निम्नतर लोगों की दुनिया व्यक्ति विशेष की वर्णन, आलोचना या क्रियाओं तक ही सीमित होता है। इतिहास की ऐसी ही व्याख्याओ के कारण ही इन ऐतिहासिक समस्याओं का समाधान अबतक नहीं मिल पाया है।

कोई जबतक किसी समस्या और उनकी वास्तविक जड़ो को यथास्थिति में और यथा स्वरुप में नहीं समझ पाता है, तबतक उन समस्याओं का समुचित समाधान संभव नहीं होता है। ऐतिहासिक शक्तियाँ ही ऐतिहासिक परिस्थितियाँ नियमित और नियंत्रित करती है, जो इतिहास बनाता और बदलता है। रोमन साम्राज्य के पतन और अरबों के उदय के साथ ही ऐतिहासिक शक्तियाँ और ऐतिहासिक परिस्थितियाँ बदलने लगी। इन दोनों घटनाओं के साथ स्थापित सुदृढ़ राज्यों और साम्राज्यों की सत्ता अस्थिर हो गयी। इससे सर्वव्यापक एवं सर्वमान्य मुद्रा की प्रत्याभूति (गारन्टी) देने वाले सर्वमान्य और सर्वव्यापक सत्ता का अभाव हो गया| इससे प्रचलित अर्थव्यवस्था मुद्रा विहीन होने लगा। इससे विनिमय के साधन - मुद्रा की सर्वव्यापकता एवं सर्वमान्यता समाप्त होने लगी| मुद्रा के अभाव में अर्थव्यवस्था जड़ और गतिहीन होने लगी| इससे नगरों का ह्रास होने लगा। अर्थव्यवस्था ग्रामीण होने लगी और यह कृषि कार्यों की ओर उन्मुख हो गयी| अर्थव्यवस्था में प्राथमिक प्रक्षेत्र का प्रभाव व्यापक होने लगा। अर्थव्यवस्था में द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक एवं पंचक प्रक्षेत्र सिकुड़ने लगा। अर्थव्यवस्था का पतन होने लगा। यही सामन्ती व्यवस्था का प्रारंभ हुआ|

अर्थव्यवस्था के इस परिवर्तन के साथ ही राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने लगे| इसी के साथ शब्दों के ढाँचा, आकार, संरचना एवं सम्बन्धित संकल्पनाओं में भी संशोधन, परिमार्जन एवं पुनर्परिभाषित होने लगा। सम्बन्धित शब्दों और मुहावरों के सतही, गूढ़ एवं निहित अर्थ नए व्यवस्थाओं के अनुरुप अनुकूलित होकर बदलने लगा। शब्द का ढाँचा, यानि बाहरी रुप लगभग स्थिर रखते हुए संकल्पनात्मक अर्थ बदल गए। प्राचीन काल में प्रचलित ‘बाम्हण’ शब्द अब ‘ब्राह्मण’ हो गया। ‘बाम्हण’ विद्वता पर आधारित विद्वान वर्ग होते थे, जो अर्थव्यवस्था के गतिहीन होने के कारण जन्म आधारित वर्ग में बदलने लगे। शब्द वही रहे, लेकिन उनकी संकल्पना बदल गयी| इसी तरह समाज का ‘सामूहिक अचेतन’ बदलने लगा। यही बदलना ही संस्कृति का बदलना हुआ। यही व्यवस्था का ‘फिजावेयर’ बदलना हुआ। इससे समाज और व्यवस्था के फिजाओं में बदलाव आने लगा। विद्वता अब जन्म आधारित यानि जाति आधारित होता गया| इस तरह ब्राह्मणवाद का उदय हुआ। इसका विस्तृत एवं सम्बन्धित पक्षों की व्ताख्या यहाँ अपेक्षित नहीं है|

अर्थव्यवस्था में इसी परिवर्तन से ‘बुद्धिवाद’ का विलीनीकरण हुआ और इसी विलीनीकरण के समानान्तर एवं समकालिक सामन्तवाद का क्रमिक उत्पत्ति और विकास हुआ। सामन्तवाद राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक होता है| यह ब्राह्मणवाद इसी समानान्तर एवं समकालिक धार्मिक और सांस्कृतिक सामन्तवाद का भारतीय संस्करण है। इसी व्याख्या के अनुरुप ही ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं।

इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या ही इतिहास को सत्यता के करीब पहुंचाता है, जो राष्ट्र और मानवता का कल्याण करता है। यह वैज्ञानिक व्याख्या अनिवार्य रुप में चार्ल्स डार्विन का ‘प्राकृतिक उद्विकासवाद’ और हर्बर्ट स्पेंसर के ‘सामाजिक उद्विकासवाद’ के अनुरुप होगा। इतिहासकार के द्वारा रचित इतिहास पर इतिहासकार के व्यक्तित्व का प्रभाव रहता है। और इस प्रभाव की व्याख्या सिग्मण्ड फ्रायड के ‘मनोविश्लेषणवाद’, कार्ल जुंग के ‘सामूहिक अचेतनवाद’ (‘संस्कृतिवाद’), एवं अल्फ्रेड एडलर का ‘श्रेष्ठतावाद’ के प्रकाश में किया जाना समुचित है। यदि ऐतिहासिक क्रियाविधियों को कार्ल मार्क्स के आर्थिक शक्तियों के आधार पर व्याख्यापित नहीं किया जा रहा है, तो वह व्याख्या वैज्ञानिक सत्यता से दूर है। इसी के साथ फर्डिनेंड डी सौसुरे का ‘संरचनावाद’ और जाक डेरिडा का ‘विखण्डनवाद’ इतिहासकार के द्वारा प्रयुक्त शब्दों और वाक्य संरचनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। गैलेलियो के ‘सापेक्षवाद’ के बिना इतिहासकारों के इतिहास की सम्यक समझ संभव नहीं है।

उपरोक्त वैज्ञानिक दर्शनों के अभाव में कोई भी इतिहास सम्यक नहीं है| यह मिथकों के समान चटपटा अवश्य होता है। आजकल ब्राह्मणवाद पर उपलब्ध जानकारी चटपटा अवश्य होता है। ब्राह्मणवाद को व्यक्ति या व्यक्ति - समूह ने स्थापित और संचालित नहीं किया है, बल्कि ऐतिहासिक शक्तियों ने स्थापित और संचालित किया है। इसे समझना आवश्यक है|

यूरोप इन सामन्ती व्यवस्थाओं के विरुद्ध पुनर्जागरण फिजाओ से सांस्कृतिक सामन्तवाद को हटा सका। भारत में यह सांस्कृतिक सामन्तवाद अपने भारतीय संस्करण - ब्राह्मणवाद के रुप में सांस्कृतिक सामन्तवाद की निरन्तरता, प्रभावशीलता और स्थायित्व बनाए हुए है।

यदि आप ब्राह्मणवाद को इस तरह नहीं समझते हैं, तो तथाकथित बौद्धिक आन्दोलनों में तैरते रहने और पार लगा लेने के भ्रम में बने रहने के लिए सभी स्वतंत्र है। इतिहास को सही तरीके से समझने के लिए ऐतिहासिक शक्तियों और उनकी अन्तरक्रियाओ की क्रियाविधियों को अवश्य समझिए।

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

ब्रह्माण्ड चैतन्य क्यों नहीं है?

अक्सर यह कहा जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है| अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतना युक्त है| कहने का तात्पर्य यह है कि यह ब्रह्माण्ड समझदार और प्रज्ञावान है| हम सभी उसी चैतन्य ब्रह्माण्ड के अंश हैं| इसीलिए हम सभी उसी ब्रह्माण्ड की तरह ही शक्तिशाली और समझदार भी हैं| जब हम समझदार हो सकते हैं, तब यह ब्रह्माण्डीय चेतना तो बहुत अधिक समझदार होगा ही| अब यह प्रश्न उठता है कि यदि यह ब्रह्माण्ड चैतन्य है, तो यह ब्रह्माण्डीय चेतना अपने प्रभाव एवं अनुकम्पा के वितरण में भेदभाव कैसे और क्यों करता है? सभी जीवों में सभी मानव शामिल हैं| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना वैज्ञानिकता नहीं हो सकता है| ब्रह्माण्डीय चेतना का मानवीयकरण करना ही ‘ईश्वर’ का सृजन करना हुआ| फिर यह भी प्रश्न है कि यह ब्रह्माण्डीय चेतना सभी मानवों में विभेदन क्यों करता है और किस आधार पर करता है? प्रकृति का नियम सदैव सर्वकालिक और सार्वभौमिक होता है| अर्थात प्रकृति को सदैव ही नियम संगत होना चाहिए, अन्यथा वह अवश्य ही अप्राकृतिक है।|

यदि ब्रह्माण्ड चेतना के साथ अस्तित्व में हैं, तो उपरोक्त प्रश्नों का समुचित तार्किक उत्तर मिलना चाहिए| अन्यथा यह मान लेना उचित और सम्यक प्रतीत होगा कि यह ब्रह्माण्ड चेतना युक्त नहीं है| लेकिन इस ब्रह्माण्ड में चेतना तुल्य के कुछ स्पष्ट संकेत या प्रमाण मिलते हैं| तब यह नहीं कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड चैतन्य नहीं है| अर्थात यह ब्रह्माण्ड चेतनशील है|

तब यह स्पष्ट होता है कि एक ही साथ यह ब्रह्माण्ड चैतन्य भी है और चैतन्य नहीं भी है| यही अवस्था एक सूक्ष्म जीवाणु के साथ होता है, जिसे वायरस (विषाणु/ Virus) कहते है| वायरस जीवित जीवों के साथ चैतन्य होता है और वही वायरस निर्जीव जीवों के साथ चैतन्य नहीं होता है| अर्थात एक ही वायरस कभी जीवित होता है और कभी निर्जीव भी होता है| आप कह सकते हैं कि एक वायरस एक साथ चैतन्य भी है और वही वायरस चैतन्य नहीं भी है| यह ब्रह्माण्डीय चेतना भी एक वायरस की ही तरह एक साथ चैतन्य भी दिखता है और चैतन्य नहीं भी दिखता है|

तब यह सहज प्रश्न उभरता है कि इसकी वैज्ञानिक क्रियाविधि क्या है? इसे समझने के लिए आप एक छोटे से परितंत्र (Ecosystem) का उदाहरण लें| यह परितंत्र एक छोटा का जलाशय (तालाब/ Pond) हो सकता है| इस जलाशय के परितंत्र का ऊर्जा स्रोत सूर्य होगा| जलाशय के परितंत्र में जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक अपने मौलिक स्वरुप में मौजूद होते हैं| यही सभी आवश्यक पदार्थ सूर्य की ऊर्जा की उपस्थिति में एवं अन्य अनुरुप परिस्थिति में जीवन की उत्पत्ति करता है| हर जीवित जीव चेतना युक्त होता है| इस परितंत्र में यह जीवन विकसित होता है, पलता एवं बढ़ता होता है| फिर यह जीवन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है| मरने के बाद इस जीवन चक्र का ऊर्जा इस तंत्र से बाहर निकल जाता है| फिर इस जीवित जीव के अन्य सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक विघटित होकर अपने स्रोत के भण्डार में उपलब्ध हो जाता है| इनके सभी मूलभूत तत्व एवं यौगिक जीवन –चक्र के अनुसार एक चक्र पूरा करता होता है, लेकिन चेतना अपना चक्र पूरा नहीं करता है| अर्थात चेतना यानि उसका आत्मा का अस्तित्व उसके मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है|

यही स्थिति मानव सहित सभी जीवन के लिए सत्य है| यदि ब्रह्माण्ड भी चेतना युक्त है, तो यह भी इसी व्यवस्था के कारण है| तो फिर उपरी प्रश्न वही खड़ा रह जाता है| तब यह ब्रह्माण्ड व्यक्ति विशेष की विशेषता के अनुसार चैतन्य कैसे होता है और यह ब्रह्माण्ड अन्य के लिए चैतन्य कैसे नहीं होता है? इसे एक दूसरे उदाहरण से समझते हैं|

‘ब्रह्माण्ड’ भी एक ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ है, जो एक ‘अग्नि –लौ’ (Flame) के समान एक विशिष्ट चेतना के अभाव में सक्रिय नहीं रहता  है| विशिष्ट चेतना के संपर्क में यह ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय –सत्ता’ भी प्रदीप्त (Ignited) हो उठता है| किसी व्यक्ति की विशिष्ट चेतना की तरह एक छोटा दीप भी अपनी ‘दीप –लौ’ (Lamp –Flame) से उसे प्रज्जवलित कर देता है| अर्थात एक ब्रह्माण्ड क्षमतावान होता है, जो अग्नि की तरह उष्मा, प्रकाश, एवं ऊर्जा से निर्मित सूचना एवं चेतना का असीम भण्डार होता है| परन्तु यह ब्रह्माण्ड चेतना की तरह सक्रिय होने को तत्पर तो होता है, लेकिन यह किसी विशिष्ट एवं समर्थ चेतना के सम्पर्क की प्रतीक्षा में निष्क्रिय पडा होता है| जब भी कोई विशिष्ट एवं समर्थ चेतना का व्यक्ति अपनी ऊर्जा को उच्चतर अवस्था में लाकर ब्रह्माण्ड की अनन्त विस्तार के संपर्क में आता है, तब उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना के लिए यह ब्रह्माण्ड सक्रिय और कार्यरत हो उठता है| यह ब्रह्माण्ड अन्य सामान्य एवं साधारण चेतना के लिए सदैव निष्क्रिय एवं अक्षम पड़ा रहता है| ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की यही वैज्ञानिक क्रियाविधि (Mechanism) है|

आप ‘चेतना’ को ‘आत्म’ (Self) कह सकते हैं| ‘चेत’ जाना ही किसी की ‘चेतना’ है| ‘चेत’ जाने की क्रिया को किसी का ‘आत्म’ करता है| इसीलिए ‘चेतना’ को मैं उसका ‘आत्म’ कहता हूँ| यह ‘आत्म’ किसी की ‘आत्मा’ नहीं है| मैं यहाँ ‘आत्म’ (Self) और ‘आत्मा’ (Soul) में अंतर स्पष्ट नहीं करने जा रहा हूँ, क्योंकि यह विषयान्तर होगा| यह ‘आत्म’ उस व्यक्ति के ‘मन’ (Mind) एवं ‘चित्त’ (Spirit) का संयुक्त स्वरुप होता है| यह ‘मन’ व्यक्ति के ‘मस्तिष्क’ (Brain) से अलग होता है| यह ‘मस्तिष्क’ उस व्यक्ति के शरीर, ‘मन’, ‘चित्त’ एवं अनन्त प्रज्ञा के बीच एक मोड्यूलेटर (Modulator) की तरह कार्य करता है|

‘मन’ उस व्यक्ति के विचारों का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं भण्डारण केंद्र की तरह होता है| इसी तरह, ‘चित्त’ उस व्यक्ति की भावनाओं का उत्पादन, संश्लेषण, संयोजन एवं भण्डारण केंद्र की तरह होता है| यह ‘चित्त’ ही व्यक्ति की सम्पूर्णता को अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से सम्बन्धित करता है, यदि वह ‘चित्त’ (Spirit) सक्षम एवं क्षमतावान हो| ‘चित्त’ की सक्षमता उसी समय अनन्त प्रज्ञा को सम्बन्धित करता है, जब वह किसी विशिष्ट चेतना की सक्रियता के संपर्क में आता है| इसी ‘चित्त’ (Spirit) को अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ से सम्बन्धित होने की प्रक्रिया को ‘अध्यात्म’ (Spirituality) कहते हैं| भारत में किसी व्यक्ति के ‘आत्म’ को ‘अधि’ (ऊपर) से सम्बन्धित होने की प्रक्रिया ही ‘अध्यात्म’ (अधि + आत्म) कहलाता है| इस प्रक्रिया में किसी व्यक्ति का ‘स्व’/ ‘आत्म’/ ‘मैं’ का सम्बन्ध अनन्त प्रज्ञा, यानि ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ वाले ब्रह्माण्ड की सत्ता से होता है| यही अध्यात्म है|

यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है| अनन्त ब्रह्माण्ड की ‘ईंधन युक्त निष्क्रिय सत्ता’ का उत्पादन उसी स्तर की गुणवत्ता और मात्रा का होता है, जिस स्तर की गुणवत्ता और मात्रा उस विशिष्ट व्यक्ति की चेतना में होता है| इसी कारण तथागत बुद्ध, अल्बर्ट आइन्स्टीन और स्टीफन हावकिन्स अपनी चेतना के स्तर की गुणवत्ता और मात्रा के अनुसार ही ब्रह्माण्ड को चैतन्य बना कर मानवता को लाभान्वित करा सके| इसे स्थिरता से और ध्यान से समझा जाय|

अब आप ब्रह्माण्ड की चैतन्यता की वैज्ञानिक क्रियाविधि की व्याख्या को समझ गए होंगे|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

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