सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

लोग पर्व और त्यौहार क्यों मनाते हैं ?

सभी सामान्य लोग, यानि सभी सामान्य जन गण सभी कालों में और सभी क्षेत्रों में पर्व और त्यौहार मनाते रहे हैं| इसे आप सामान्य परम्परा कह सकते हैं, और अकादमिक शब्दावली में संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग कह सकते हैं| कुछ लोग इसे ढोंग, पाखण्ड, अनावश्यक कर्मकांड और अंधविश्वास भी मानते हैं| शायद ऐसे लोगों को पर्व और त्यौहार की मूल एवं मौलिक अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है और इसीलिए इनसे सम्बन्धित अवैज्ञानिकता एवं इसके गलत होने का प्रमाण पत्र बाँटते रहते हैं| चूँकि ऐसे लोगों की इस सम्बन्ध में अवधारणा स्पष्ट नहीं होती, इसीलिए इनके उन्मूलन के लिए ऐसे लोगों के पास कोई कार्य योजना भी नहीं होती और इसीलिए ये सब उन्मूलित भी नहीं होती| चूँकि ऐसे लोगों को मनोविज्ञान की समझ नहीं होती, कोई दार्शनिक दृष्टि नहीं होती, इतिहास और संस्कृति की क्रियाविधि को नहीं जानते होते हैं, और वैज्ञानिकता की व्यावहारिकता का ज्ञान नहीं होता, इसीलिए ऐसे लोग सिर्फ यह कहते रहते हैं कि ये गलत है, वह गलत है| ऐसे लोग इन सभी में अर्थशास्त्र (धन की सार्थकता) ही खोजते रहते हैं| ये अपने को बौद्धिक समझ कर सुधार की व्यवहारिक विधियों की शायद कल्पना भी नहीं देख पाते| ऐसे लोग सिर्फ दूसरों में त्रुटियाँ ही देख पाते हैं|

दरअसल पर्व और त्यौहार मानव जीवन से जुड़ा हुआ एक विशेष अवसर होता है, जो जीवन में आनन्द देता है, लोगों में उत्साह भरता है, जीवन की नीरसता तथा एकाकीपन को मिटाता है और सामूहिकता का प्रतीक बनता है| इसमें आवधिकता (Periodocity) होती है, यानि यह एक निश्चित आवृति पर पुनरावृति करती रहती है| ये पर्व और त्यौहार व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रकृति और संस्कृति में संतुलन भी बनाते हैं| पर्व का शाब्दिक अर्थ विशेष समय या अवसर होता है और त्यौहार (फारसी मूल का शब्द) या उत्सव का शाब्दिक अर्थ हर्ष एवं उल्लास का अवसर है| यह दोनों ही मानव जीवन में एक ही तरह के कार्य करता है, इसीलिए ये दोनों ही एक दूसरे के अब पर्यार्य बन गये हैं| अपनी शब्द उत्पत्ति के विशेष कारणों के बावजूद भी ये दोनों अपने कार्य रूप एवं भावना में एक समान ही हैं| इसे कोई संस्कृति की निरंतरता भी कहते हैं| यह सांस्कृतिक जड़ता के रुप में निरंतरता रखती है|

तो महती प्रश्न यह है कि पर्व और त्यौहार पर विवाद क्यों है? कुछ लोग किसी विशेष काल और क्षेत्र की संस्कृति की व्याख्या और प्रस्तुतीकरण इस तरह करते हैं, मानो कि वह संस्कृति वहाँ अकस्मात कहीं और तैयार हुई है और वहां लाकर रख दिया गया है| ऐसे लोग ‘सांस्कृतिक उद्विकास’ (Cultural Evolution) को नहीं समझते, यानि ‘सांस्कृतिक गत्यात्मकता’ (Cultural Dynamism) को नहीं जानते| कोई भी संस्कृति उस काल एवं उस क्षेत्र के ‘भूगोल’ और ‘इतिहास’ से बनती है और सदैव ही समय के साथ नए नए स्वरुप में अवतरित होती रहती है| चूँकि ‘ऐतिहासिक शक्तियाँ’ इतिहास बदलती रहती है, और ‘इतिहास का बोध’ (Perception of History) ही संस्कृति को आकार देती है, इसीलिए इतिहास और भूगोल बदलने से संस्कृति बदलती रहती है| चूँकि पर्व और त्यौहार भी संस्कृति ही है, संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए इन पर्वों और त्योहारों को भी ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव में बदलता रहना पड़ता है| आधुनिक युग में ‘बाजार की शक्तियों’ को भी ‘ऐतिहासिक शक्तियां’ ही मानी जाती है|

बुद्ध के, यानी बुद्धि के कुछ अनुयायी होने का दावा करने वाले लोग भी इन पर्वों एवं त्योहारों में बदलाव को नहीं समझते और उन्हें फिर से बुद्ध कालीन स्वरुप में ही पुनर्स्थापित करना चाहते हैं| ऐसे लोग ‘इतिहास की क्रियाविधि’ (Mechanics of History) को नहीं समझते, ‘संस्कृति की गत्यात्मकता’ को नहीं जानते, और बुद्ध काल में ही जड़ बने रहना चाहते हैं| ऐसे लोग अपने को तथागत बुद्ध के उपासक मानते हैं, और फिर भी बुद्ध के ‘अनित्यवाद’’ को नहीं समझते| बुद्ध अपने ‘अनित्यवाद’ में यह कहते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी और निश्चित नहीं है, सब कुछ समय के साथ अवश्य ही बदलता रहेगा| आपका दुःख भी बदलेगा और आपका सुख भी स्थायी नहीं रह सकता| निर्देशांक ज्यामिति (Coordinate Geometry) में तीन आयाम (x, y, z अक्षों) द्वारा किसी चीज का स्थान सुनिश्चित किया जा सकता है, लेकिन अल्बर्ट आइन्स्टीन के ‘द्वारा चौथे आयाम’ (Fourth Dimension) के रुप में ‘समय’ (Time) को स्थापित करने के बाद कोई भी चीज नित्य नहीं रह गया| हर चीज बदलने वाला स्थापित हो गया है| अभी तक चार ही आयाम सभी चीजों अनित्य बना देता है, वैसे गणितीय संगणनाओं में कुल ‘12 आयाम’ संभावित हैं| इसीलिए इन पर्वों और त्योहारों की प्रकृति और स्वभाव को स्थिर मानने या समझने की कोशिश भी पूरी मूर्खता ही है|

यदि हम कार्य प्रणालियों एवं कार्य क्षेत्रों के उद्विकास को समझना चाहे, अर्थव्यवस्था में सबसे पहले प्राथमिक ‘प्रक्षेत्र’ (Sector) ही आया| इसके बाद उद्विकास होते हुए समाज में द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, एवं पंचम प्रक्षेत्र आया| बुद्ध स्वयं अर्थव्यवस्था के चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में कार्यरत रहे| ‘ज्ञान का सृजन’ और ‘नीतियों या सिद्धांतों का सृजन’ क्रमश: चौथे प्रक्षेत्र एवं पंचम प्रक्षेत्र में आता है| ‘उद्विकास’ सृष्टि का नियम है, तब इन पर्वों और त्योहारों सहित संस्कृतियों का भी उद्विकास होता रहता है| इन्हें बदलना अनिवार्य परिणाम है| कोई इसे यदि ‘जड़’ (Fix) बनाना चाहता है, या फिर पुरानी अवस्था को ही पाना चाहता है, ऐसे लोगों को आप ही समझा सकते हैं|

संस्कृति समाज का साफ्टवेयर है, जो अदृश्य रहकर समाज को स्वत: संचालित करता रहता है| कार्ल जुंग ने इसी संस्कृति को ‘सामूहिक अचेतन’ (Collective Un Consciousness) कहा है, जिसके अनुसार समाज का सामूहिक प्रतिरुप (Pattern) को समाज के सदस्य गण स्वत: अनुपालित करते रहते हैं| डेनियल कुहनमैन ने अपनी पुस्तक ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ में इसे ही ‘सिस्टम एक’ बताया है, जो स्वत:स्फूर्त काम  करने वाला ‘अल्गोरिदम’ होता है| इसीलिए भी पर्वों और त्योहारों की निरंतरता बनी रहती है|

स्त्री और पुरुष अपने अस्तित्व के प्रारंभ से ही एक इकाई के रूप में जीवित और कार्यरत रहे हैं| पुरुष प्रारंभ से संग्राहक, आखेटक और पशुपालक के रुप में घर से बाहर रहा, लेकिन एक स्त्री गर्भ ठहरने से लेकर उत्पन्न संतति के देखभाल में लगी रही| स्त्रियों की पालने पोसने की इसी सहज स्वभाव ने कृषि की शुरुआत की और आवश्यक परिणति भी दी| स्त्री के इसी स्वभाव ने अर्थव्यवस्था के सभी प्रक्षेत्रों को आधार दिया| इसी कारण सभ्यता और संस्कृति की स्थापक स्त्री ही हुई| इसी स्वाभाविक प्रकृति के कारण ही स्त्रियाँ आज भी संस्कृति के संरक्षक और संवर्द्धक बनी हुई है। पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता इन्ही स्त्रियों के कारण है, चाहे इसका जो स्वरुप बदलता रहे। पुरुष तो आजतक अपने जंगली स्वभाव से उबरने में ही लगा हुआ है|

इसीलिए पर्वों और त्योहारों की निरन्तरता बनी रहेगी| यदि इसे रोक दिया गया तो शायद मानव जीवन की तारतम्यता ही टूट जाए|अनावश्यक बौद्धिक मत बनिए, ठहरिए और इसे समझिये|

आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

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