रविवार, 19 अक्टूबर 2025

मैं आदमी बनूँगा – साहित्य को ज़िंदा कीजिए

मैं सुबह सुबह टहलने के समय एक विद्यालय चला जाता हूँ। नन्हें मुन्ने बच्चों का विद्यालय – ‘बुद्ध इनोवेटिव माइण्ड स्कूल’। कुछ बच्चे घेर लेते हैं, जिनके लिए मै 'दादा सर' होता हूँ। मैं अक्सर उन बच्चों में  बड़े सपने बनाने, जगाने, और गढ़ने के लिए उनसे सवाल करता रहता हूँ कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे? उन सपनों को आकार देने, उन सपनों में रंग भरने और उन सपनों को जीवन्त बनाने के लिए उनके सपनों को कल्पना लोक में विचरण भी कराता रहता हूँ।

अल्बर्ट आईन्स्टीन ने कहा है कि जीवन में कल्पना ही सबसे महत्वपूर्ण है। कल्पना ही पहले विचार बनते हैं और फिर वास्तविकता भी। एक कार्यालय का एक कलर्क आईन्स्टीन खिड़की से बाहर उस पेंटर को देख रहा था, जो सामने दूर चर्च की बाहरी दीवारों की रंगाई पुताई कर रहा था। उसने कल्पना की कि यदि पेंटर वहाँ से गिरेगा, तो क्या होगा? यदि वह अन्तरिक्ष में गिरा, तो क्या होगा, अदि आदि। गणित में रुचि रखने वाला वह कार्यालय कलर्क इसी कल्पना को आगे बढाते हुए ‘सापेक्षिता का विशेष सिद्धांत' दिया और एक दशक बाद ‘सापेक्षिता का सामान्य सिद्धांत’ दिया। वह ‘कलर्क’ अल्बर्ट आईन्स्टीन के नाम से विश्व विख्यात वैज्ञानिक हुआ| कल्पना की शक्ति का उपयोग कर स्टीफन हाकिन्स ने ब्रह्माण्ड का रहस्य खोल दिया। बच्चों में कल्पना की शक्ति और समझ बढाना बहुत जरूरी है। भारतीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक “इग्नाइटेड माइण्ड” में यही सन्देश दिया है|

तुम क्या बनोगी? एक बच्ची ने बताया कि वह डाक्टर बनेगी। वाह, डाक्टर! तब तो मैं जब बीमार पड़ जाऊँगा, तब तो तुम मुझे सुई नहीं देकर सिर्फ पीने वाले दवाई ही दोगीहाँ, दादा सर, और आपके घर भी आ जाऊँगी आपको देखने। एक बच्चे ने बताया कि वह बड़ा होकर ‘बड़ा (समृद्ध) आदमी’ बनेगा। यह ‘बड़ा आदमी’ क्या होता है? दादा सर, बड़ा आदमी के पास बड़ा घर होता है, बड़ी गाड़ी होती है, बहुत पैसा होता है। वाह, मैंने कहा। तब तो मैं भी तुम्हारी गाड़ी में घूमूँगा। हाँ, दादा सर, एक सीट आपके लिए रहेगा। उसकी दीदी बोली कि उस (बडे़) घर में मेरे लिए एक कमरा भी होगा। इसी तरह के अनेक सवाल होते हैं और जबाब भी आते हैं। मेरा काम सिर्फ यह रहता है कि मैं उन बच्चों को यह बताऊँ कि वे बच्चे अपने सपनों की वास्तविक उड़ान कैसे भरेंगे?

एक दिन एक छोटा बच्चा – अंकुश, (गाँव मुसेपुर, बिहटा) मेरे पास आया| मैंने उससे पूछा कि तुम बड़ा होकर क्या बनोगे?

उसने बड़ी सरलता से, और बड़ी सहजता से, लेकिन बड़ी दृढता से जबाब दिया - मैं बड़ा होकर “आदमी” बनूँगा

 इसका जबाब तो एकबारगी साधारण लगा, पर मैं इस ‘असमान्य जबाब’ से ठिठक गया। वैसे ही, जैसे भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब एक बार गुजरात के आनन्द के एक विद्यालय की एक  छात्रा स्नेहल ठक्कर के जबाब से ठिठक गए थे। उसने बच्चों से पूछा था कि ‘तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है’? विविध जबाबों में एक जबाब ने उन्हें चौका दिया था।

छात्रा स्नेहल ठक्कर ने बताया कि 'गरीबी' ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। उनकी यह पुस्तक 'इग्नेटेड माइन्ड' उसी बच्ची को समर्पित है। ‘गरीबी’ के कारण ही आदमी ‘अज्ञानी’ रह जाता है, और उसके व्यक्तित्व का महत्तम विकास नहीं हो पाता है| वह अपने समाज और मानवता को अपनी क्षमता के अनुरुप नहीं दे पाता है||

अब, मेरे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि ‘आदमी’ बनने का तरीका क्या होगा? क्या साहित्य ही एक ‘वनमानुष’ को ‘मानुष’, यानि ‘आदमी’ बनाता है? निश्चिततया ‘संवाद’ ने ही एक ‘पशु मानव’ (Animal Man) को ‘सामाजिक मानव’ (Social Man/ Homo Socius) बनाया, और फिर उसे ‘निर्माता मानव’ (Homo Faber) भी बनाया| इसी संवाद ने इसे आज ‘वैज्ञानिक मानव’ (Homo Scientific) भी बनाया| इसी ‘संवाद’ ने ही “साहित्य” को जन्म दिया और विकसित भी किया| सबका हित करना या समाज का हित करने वाला सामग्री ही 'साहित्य’ है|

लेकिन एक पशु को मानव होना ही पर्याप्त नहीं था, और है| उसे ‘आदमी’ बनना है| उसे सिर्फ एक मानव नहीं होना है, उसे ‘मानवता युक्त मानव’ होना है|

फिर साहित्य क्या है? और यह साहित्य एक ‘वन मानुस’ (वन में रहने वाला मानुस/ मानव) को ‘सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव’, अर्थात ‘आदमी’ कैसे बनाएगा?

साहित्य मानव में सहानुभूति एवं समानुभूति जगाकर उसे संवेदनशील बनाता है| साहित्य के द्वारा हम एक दूसरे के प्रति के दुख, सुख, संघर्ष, प्रेम और अन्य भावनाओं को महसूस करने लगते हैं| साहित्य के नायक हमें उसी तरह बनने को प्रेरित करते हैं, और अनेक साहित्य इसीलिए ही रचे जाते हैं – वास्तविक एवं काल्पनिक| साहित्य में अनेक ऐसे पात्र हमें सत्य, न्याय, स्वतन्त्रता, समता, बंधुता, प्रेम, साहस, त्याग और करुणा के आदर्श प्रस्तुत करते हैं| इन साहित्यों के द्वारा व्यक्ति, परिवार एवं समाज में नैतिक मूल्यों को स्थापित करते हैं| समुचित साहित्य ही हमें तर्कशील, विवेकशील, मानवतावादी और वैज्ञानिक बनाता है| ‘सवाल खड़ा करना’ साहित्य का एक प्रमुख कार्य होना चाहिए| साहित्य ही सभ्यता और संस्कृति को मानवीय बनाता है| साहित्य ही आम-चिंतन, आत्म-अन्वेषण एवं आत्म-मूल्याङ्कन करना सिखाता है| साहित्य आत्म-भूमिका और आत्म-संतुलन का समन्वयन समझाता है|

संक्षेप में, साहित्य हमें जीवन जीने का कला और विज्ञान समझाता है, जीवन दर्शन को स्पष्ट करता है, मानव में मनुष्यता जगाता है, और मानव को ‘आदमी’ बनाता है|

इसीलिए, मानव को “आदमी” बनाने के लिए ‘साहित्य’ को ज़िंदा कीजिए|

 आचार्य प्रवर निरंजन जी

दार्शनिक, शिक्षक एवं लेखक

अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति संवर्धन संस्थान, बिहटा, पटना, बिहार|

1 टिप्पणी:

मैं आदमी बनूँगा – साहित्य को ज़िंदा कीजिए

मैं सुबह सुबह टहलने के समय एक विद्यालय चला जाता हूँ। नन्हें मुन्ने बच्चों का विद्यालय – ‘बुद्ध इनोवेटिव माइण्ड स्कूल’। कुछ बच्चे घेर लेते है...