एक बड़ा सवाल यह है कि कुछ समस्याएँ सदियों से वहीं खड़ी क्यों है, वहीं यथावत बरकरार क्यों है? जबकि "बाजार की शक्तियों" (Market Forces) ने बहुत कुछ बदला भी है| ये समस्याएँ इसीलिए वहीं खड़ी है, क्योंकि इनका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है, या नहीं किया गया है, या समुचित एवं उपयुक्त समाधान नहीं मिला है। फिर सवाल उठता है कि तब हमलोग क्या कर रहे हैं? जबाव है कि हमलोग उपयुक्त, समुचित एवं पर्याप्त समाधान के लिए अभी भी प्रयासरत है, और इसमें सभी बौद्धिकों और बहुसंख्यकों की भागीदारी और समर्थन भी है।
तब तो इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि अबतक जिन समस्यायों का समाधान नहीं हुआ है, विश्व के सभी स्थापित एवं मान्य विद्वान भी इसके समाधान की दिशा में अबतक असफल रहे हैं| और इसीलिए ये समस्याएँ वही खडी है। यह निष्कर्ष बहुतों के लिए बहुत विचलित कर देने वाला है, खासकर जिनकी श्रद्धा और विश्वास किसी महान व्यक्तित्व में बहुत ज्यादा समर्पित है। यह बहुत विचलित कर देने वाला निष्कर्ष हो सकता है| क्या ऐसा निष्कर्ष निकालना गलत है? तो फिर प्रश्न उठता है कि ऐसा निष्कर्ष गलत क्यों माना जाय?
अब हमलोग उन समस्याओं के
समाधान खोजने के लिए नहीं बैठते, जिनका उपयुक्त समाधान पहले
ही पा लिया गया है। अब
कोई चेचक की बीमारी का वैक्सीन का आविष्कार नहीं करना चाहता, अब
कोई वायुयान उडाने का सिद्धांत नहीं खोज रहा,
क्योंकि इनका समाधान पा लिया
गया है। इसी तरह, सती प्रथा का समाधान निकाल लिया गया और विधवा
विवाह भी आपत्तिजनक नहीं रहा, मतलब इनमें सफलता मिल गयी। लेकिन जाति और वर्ण
व्यवस्था की समस्याएँ अपने बदलते बाह्य स्वरूप के साथ अपने मूल तथा मौलिक गुणवत्ता
में आज भी विद्यमान है। इसका मतलब यह है कि हमारे
सामाजिक और सांस्कृतिक सुधारक समाज से जाति और वर्ण व्यवस्था संबंधित समस्याओं के
समाधान में अपने प्रयासों और उद्देश्यों को पाने में असफल रहे हैं।
ध्यान
दिया जाय कि जाति व्यवस्था और वर्ण
व्यवस्था से जुड़ी हुई समस्याएँ सामाजिक होती है और इसीलिए इसका क्रांतिकारी समाधान राजनीतिक
और वैधानिक व्यवस्था नहीं दे पाया है। इनकी जड़े सांस्कृतिक होती है और संस्कृति का निर्माण और स्वरुप निर्धारण
उनके "इतिहास बोध" (Perception of History) से होता है। संस्कृति "सामूहिक अचेतन" (Collective Unconscious) होता है, जो
'स्वत:स्फूर्त मोड'
(Automated
Mode) में व्यक्ति और समाज को सदैव संचालित और
नियमित करता होता है। आधुनिक युग के लोग इस संस्कृति को "समाज का
साफ्टवेयर" (Software of Society) कहते हैं। इस संस्कृति की गत्यात्मकता (Dynamism) को समझने के लिए, यानि
इन समस्याओं की जड़ो तक पहुँचने के लिए हमें "संस्कृति का दर्शन" (Philosophy of Culture)
और "इतिहास का
दर्शन" (Philosophy of History) समझना
चाहिए। चूंकि इन विद्वानों ने इनके
दर्शन की विवेचना नहीं किया है, इसलिए इन सामाजिक और
सांस्कृतिक समस्याओं की मूल जड़ों को खोजने समझने में हमारे सभी पूर्ववर्ती
विद्वान असफल रहे। स्पष्ट
शब्दों में कहा जाय तो हमारे सभी पूर्ववर्ती विद्वान इन समस्याओं के उन मूल जड़ों
में ही समाधान पाने में भटक गए हैं, भ्रमित हो गए। ये सभी विद्वान परम्परागत स्थापित मान्यताओं
एवं उपलब्ध पुस्तकों के 'ढांचे '(Framework) से बाहर ही नहीं निकल पाए। इसे ही "इन- बाक्स थिंकिंग" (In- Box Thinking) कहते हैं। ये सभी विद्वान इसके उलट "आउट- आफ- बाक्स
थिंकिंग" (Out-of-Box Thinking) नहीं
कर पाए।
हार्वर्ड
विश्वविद्यालय के
प्रोफेसर
थामस सैमुएल कुह्न ने
1962 में एक पुस्तक - The Structure of Scientific
Revolution लिखी। हालांकि यह पुस्तक वैज्ञानिक क्रांति के
नाम लिखी गयी है, लेकिन क्रांति तो क्रांति ही होती है, चाहे
वह वैज्ञानिक हो, या सामाजिक हो,
या सांस्कृतिक हो, या
आर्थिक हो, या
शैक्षणिक हो। क्रांति का स्पष्ट तात्पर्य होता है, एक
संक्षिप्त अवधि में बहुत बड़ा बदलाव, जो अपने उद्देश्यों को कम
संसाधन, कम समय में, कम
ऊर्जा में प्राप्त कर ले।
अर्थात सभी क्रांतियों की प्रकृति, प्रवृत्ति,
संरचना, विन्यास
(Matrix), ढांचागत स्वरूप, क्रियाएँ, क्रियाविधियाँ (Mechanics),
मौलिक अवधारणाएँ अपने स्वभाव, प्रतिरुप
और मौलिकता में समान ही होती है। प्रोफेसर कुह्न ने किसी भी क्रांति के लिए संरचना, विन्यास, ढांचागत
स्वरूप, क्रियाविधियों और अवधारणाओं में "पैरेडाईम
शिफ्ट" (Paradigm Shift) की
अनिवार्यता बतायी है। इसे
ही सामान्यत: "आउट- आफ- बाक्स थिंकिंग" (Out-of-Box Thinking) कहा गया है। ये विद्वान लोग "सांस्कृतिक वर्चस्ववाद" (Cultural Hegemony) की अवधारणा और क्रियात्मकता
की ओर ध्यान ही नहीं दिया, और इसीलिए समस्याएँ यथावत
खडी़ है।
इन
सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान हमारे पूर्ववर्ती और तत्कालीन विद्वानों को
इसलिए नही मिल पाया, या रहा है, क्योंकि
इनमें कोई भी पुराने स्थापित परम्परागत मान्यताओं और अवधारणाओं से बाहर ही नहीं
निकल पाए हैं। ये
सभी विद्वान पहले से रचित और उपलब्ध पुस्तकों की दुनिया में ही तैरते डूबते रह गए, लेकिन
कोई अपनी नई नवाचारी और अलग अवधारणा या विचार नहीं दे सके। नतीजा यह हुआ कि अपनी मंजिल की तलाश के साथ
ही ये लोग उसके ही नाव पर सवार हो गए। ये विद्वान उनके नाव में सवार हो कर अपनी
मंजिल पाने के लिए अपनी तलवारबाजी का करतब दिखाते रहे, लेकिन
अंतत: कुछ नहीं हुआ। इन मुहिमों में वे लोग भी
शामिल हो गए, जिनके विरुद्ध यह मुहिम चलाया गया।
इसीलिए
यदि अब तक आपको अपनी सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान नहीं मिला, या
किसी अन्य समस्याओं का समाधान नहीं मिला है,
तो
आपको अवश्य ही अपने विचारों, अवधारणाओं, व्याख्याओं
में पूरा “पैरेडाईम शिफ्ट” कर लेना चाहिए, पूरा
बदलाव कर लेना चाहिए। समाधान आपके पास होगा, वह
भी सरल, साधारण, और
सहज तरीकों से एवं कम साधन, समय, ऊर्जा
एवं वैचारिकी के साथ। प्रतिक्रिया लेने और देने में
विश्वास मत कीजिये।
अधिकतर विरोधी आपसे प्रतिक्रिया लेकर आपकी दिशा दशा, सब
कुछ निर्धारित और नियमित करता रहता है। अपनी
कार्य योजना बनाइए और उसमें प्रतिक्रियाओं के लिए कोई स्थान नहीं हो। प्रकृति (ब्रह्माण्ड) की प्रकृति (स्वभाव/ लक्षण) आपके
साथ है, प्रकृति का यही स्वभाव है। सभी एक है, यह
भौतिकी का मूल, मौलिक और आधारभूत स्थापित और सत्यापित अवधारणा
है।
विश्वास
कीजिये। सफलता आपके इंतजार में है। बस, इसी पैटर्न पर शुरुआत कीजिए|
आचार्य
प्रवर निरंजन जी
अध्यक्ष, भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति
संवर्धन संस्थान
It has been reiterated above that “all past scholars have failed,” and “no one has done out-of-box thinking.” This is an extreme claim and dismisses the nuanced and layered efforts of countless reformers, sociologists, historians, and political thinkers. It’s intellectually arrogant to assume no one ever thought beyond the box.
जवाब देंहटाएंSuggestions: Acknowledge past efforts and limitations instead of discrediting them entirely. Truth often builds on layers—not always on radical rejection.
You should focus on including a multi-dimensional view—legal, economic, educational, and cultural perspectives—not just a philosophical one.
आभार,
जवाब देंहटाएंआप (लेखक) ने शालीनता पूर्वक हमारे स्थापित विद्वानों का सदुपयोग कर क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए प्रेरित किया है।
अच्छा लिखे हैं सर और कुछ पाठकों का सुझाव भी उम्दा लगा।
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