मंगलवार, 26 नवंबर 2024

हम बौद्धिक कहलाने वाले मूर्ख ही हैं?

हमलोग सामान्यतः आम आदमी पर, या दूसरे बौद्धिक लोगों पर यह आरोप लगाते रहते है कि सामने वाला आदमी मूर्ख हैबेवकूफ है, समझता ही नहीं है। ऐसे बौद्धिक लोगों में हमलोग सभी शामिल हैं, अर्थात इस श्रेणी में लगभग सभी पदधारी, डिग्रीधारी, और धनधारी भी अवश्य ही शामिल हैं। हम ऐसा क्यों समझते है? शायद हम अपने को उसके सापेक्ष ज्यादा तेज, समझदार, और बौद्धिक होना साबित करना चाहते हैं, या अपने को ज्यादा समझदार होने की मानसिक संतुष्टि चाहते हैं। शायद हम इसी भाव में पके हुए हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो हमें इसी तथाकथित 'ज्ञान बोध का घमंड' हो गया है, और हमें अपने इस 'घमंड का ज्ञान' ही नहीं है। हम अक्सर इसी बात से खुश हो जाते हैं, या ख़ुश रहते हैं कि हम उनसे ज्यादा समझदार है, लेकिन होते मूर्ख ही हैं।

दरअसल हम ही मूर्ख होते हैं और समझते हैं कि सामने वाला ही मूर्ख है। इस खुशफहमी में रहने से हमें कोई रोक भी नहीं सकता है। हम मूर्ख इसलिए होते हैं कि हम जिसको समझाना चाहते हैं, उसकी समझ को जब कोई अन्तर ही नहीं पड़ता है, तो हम कैसे बौद्धिक और समझदार हैं कि उनको समझा भी नहीं पाते हैं? यदि वह पशुवत है, तो उसे समझाने का प्रयास ही बेकार है, और हम भी  एक पशु की तरह उससे भीडे हुए हैं। यदि वह मानव है, और हम उसे नहीं समझा पा रहे हैं, तो हमें समझाने के विषय और तरीकों पर विचार विमर्श कर बदलाव करना होगा।

हमलोग यदि समझाने का प्रयास कर रहे हैं और उनको हम समझा भी नहीं पा रहे हैं, तो इसमें हम अपना समय, संसाधन, ऊर्जा, और वैचारिकी क्यों बरबाद कर रहे हैं। जब हमारे प्रयास का कुछ भी परिणाम नहीं मिले, तो हमारी मूर्खता का और दूसरा उदाहरण क्या होगा? फिर भी हम हमेशा उसी में लगे हुए रहते हैं, लेकिन अपने विचारों और तरीकों के बदलने पर कोई विचार नहीं करते, या कोई पुनर्विचार नहीं करना चाहते, और सामने वाले को मूर्ख मान कर खुश होते रहना हमारी मूर्खता नहीं है, तो क्या है? हम सामने वाले को समझाना चाहते हैं और कुछ भी नहीं समझा पा रहे हैं, इसका स्पष्ट मतलब यही है कि हम ही मूर्ख है कि उसे नहीं समझा पा रहे और फिर भी उसी में लगे हुए हैं। या तो हम अपने विचारों को बदल कर या अपने तरीकों को बदल कर उन्हें समझाने में सफल हो, या हमें समझाने का प्रयास ही नहीं करना चाहिए। इतना तो स्पष्ट है कि हमलोग बहुत कुछ वह नहीं समझ पा रहे हैं, जो हमें समझना चाहिए।

यदि हम उम्र के प्रभाव में पके और थके हुए नहीं हैं, तो हम निश्चितया ही मूर्ख है। पके हुए वे होते हैं, जो यह समझते हैं कि वे सब कुछ सही जानते समझते हैं और उन्हें अब और समझने एवं उसके अनुरूप बदलने की कोई जरूरत नहीं है। थके हुए वे होते हैं, जो यह मानते हैं कि अब कोई बदलाव संभव ही नहीं है।  यदि हम मूर्ख नहीं है, और बौद्धिक रूप से युवा है, अर्थात हम तार्किकता से पूर्ण है, तो तार्किकता के आधार पर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक विमर्श बैठक क्यों नहीं कर लेते

शायद हमें अपने बौद्धिकता की पर्याप्तता  का और समुचित ज्ञान स्तर का घमंड ही हो गया है। और इसीलिए तो हम पके हुए के श्रेणी में आ गए हैं। हम समझते हैं कि हम एकदम सही है और सामने वाला एकदम मूर्ख। हमारा यही घमंड सभी समस्याओं को जड़ है। इसका तो निदान यही है कि हम खुले मन से बुद्धजीवियों का एक विमर्श बैठक अवश्य करें और खुले मन से इस विषय पर प्रश्न आमंत्रित होना चाहिए। आदमी सिर्फ तर्क से ही नहीं, भावनाओं के संयोजन और संतुलन  से भी संचालित और निर्देशित होता है। हमें अपने इस मानवीय मनोविज्ञानिक पहलुओं को भी समझना होगा।

सवाल है कि वे लोग सही और सच्ची बातें भी क्यों नहीं समझते? एक स्पष्ट उत्तर तो यह भी है कि स्वयं 'सही और 'सच्ची' बातें भी सापेक्षिक है, अर्थात स्वयं में निरपेक्ष नहीं होती है। यानि एक सत्य के कई भिन्न भिन्न अर्थ हो सकते हैं, यदि हम संदर्भ और पृष्ठभूमि बदल कर देखें तो। हर विचार, घटना और व्यवहार सापेक्षिक होता है। अपने को बौद्धिक समझने वाले  सामान्य मानव की इस मन: स्थिति को समझते ही नहीं है और दूसरों के लिए मूर्खता का प्रमाण पत्र बांटते रहते हैं।

मानव मन को समझने के लिए प्रसिद्ध विद्वान सिग्मंड फ्रायड ने मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत दिए, जिसे 'इड', 'इगो' और 'सुपर इगो' की अवधारणा से समझाया है। 'इड' (Id) किसी भी मानव की पाश्विक प्रवृत्तियों को, यानि विशुद्ध शारीरिक अन्तर्नोदों (Drives) की अभिव्यक्ति की अवधारणा है। 'सुपर इगो(Super Ego) किसी भी सामाजिक सांस्कारिक मानव की चेतना का वह मानक मूल्य है, जिस पर उस मानव को खरा उतरना चाहिए। और मानव का 'इगो' (Ego) इन्हीं 'इड' और 'सुपर इगो' के मध्य संतुलन बनाए रखते हुए होता है।  अर्थात  उस मानव चेतना में संस्कृति, विज्ञान, मिथक, जीवन की सुरक्षा, जीवन के पार की दुनिया के बारे में उनके मानक और धारणाएं उसे संचालित करता रहता है। और वह अपने को उस नजरिए से, उस पृष्ठभूमि में सही समझता है, मानता है। एक बौद्धिक यह नहीं समझता है कि उसको भी कोई ऐसा ही मूर्ख समझता मानता है। वह हमको खुलकर मूर्ख इसलिए नहीं कहता है, क्योंकि वह हमारे पद का, या डिग्री का, या धन का सम्मान करता है और हमें घमंडी भी समझता है।

हमें यह अवश्य समझना चाहिए कि जीवन में पदार्थ तो महत्वपूर्ण है, लेकिन चेतना भी बहुत महत्वपूर्ण है, जो जीवन में सह उत्पाद होता है। यह चेतना एक प्रमुख भूमिका निभाती है, प्रमुख नियामक होता है। यह समझना ही होगा, अन्यथा हम ही मूर्ख है और दूसरों को ऐसा नहीं समझें। यह भी हो सकता है कि हमारी अवधारणाओं का मूल और मौलिक आधार ही आंशिक या पूर्णरूपेण ग़लत हो। हो सकता है कि हमारे समझने समझाने का तरीका ही समुचित नहीं हो। हम ज्ञान बांटते जा रहे हैं और लोग कुछ समझ ही नहीं रहें हैं, तो सबसे बड़ा मूर्ख हम ही हैं।

एक बात और है| इस आलेख के सम्बन्ध में अनेक टिप्पणियाँ आई हैं, जिनका आशय मेरे (लेखक) के अर्थ यानि यानि मेरे अभिप्राय से है| इस सम्बन्ध में सभी को यह बात स्पष्ट रूप से ध्यान में रहना चाहिए कि ‘लेखक’ के आशय उनके लेखों में लेखक के स्तर एवं समझ के अनुसार रहते हैं, लेकिन उन लेखों के अर्थ या आशय पाठको के लिए पाठको के स्तर एवं समझ के अनुसार ही होते हैं| यह भी महत्वपूर्ण है| फ़्रांसिसी दार्शनिक जाक देरिदा अपने “विखंडनवाद” (Deconstructionism) में भी यही समझाते हैं|

इसे हमारे जैसे महानुभावों कोबड़े तथाकथित बुद्धिजीवियों कोबौद्धिकों को समझना चाहिए। वैसे हमें अपने घमंड बनाए रखने से कोई रोकने भी नहीं सकता है। 

आचार्य प्रवर निरंजन

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. पहली टिप्पणी यह कि टाइटिल बहुत ही जानदार है , मैटीरियल आदर्श बनाने के लिए तो आप सर्वविदित ही हैं।
    जानदार लेखन के लिए साधुवाद सर ।

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  2. जन साधारण ऐसे पोस्ट को नहीं पढ़ते क्योंकि लेख में नीरसता है, मानस पटल पर जोर डालना पड़ता है। पोस्ट सामाजिक नहीं है, इसमें पढ़ने वालों को आप मूर्ख समझ रहे हैं। आप पहले समाज की मानसिकता पढ़ें, फिर सिस्टम में प्रवेश करें, और सिस्टम की भाषा में अपना विचार समयानुसार रखें।

    आपका पोस्ट सामाजिक कम, academic ज़्यादे है।

    जवाब देंहटाएं

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