रविवार, 10 नवंबर 2024

सत्ता ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ से क्यों डरता है?

सत्तामें शामिल लोग ही असली शासक’ ‘वर्गकहलाते हैं, होते हैं। तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि सत्ता क्या है और शासक वर्ग कौन हैयानि सत्ता चलाने वाले, यानि शासन को नियंत्रित एवं नियमित करने वाले वर्ग में कौन-कौन शामिल हैंआप यहाँ पर वर्ग को अपने विवेक से अवधारित या परिभाषित करने को स्वतंत्र हैं| इस वर्गको अपने समय, सन्दर्भ, पृष्टभूमि या अपनी आवश्यकता के सापेक्ष निर्धारित किया जा सकता हैयदि सत्ताकिसी वैज्ञानिक भौतिकवादसे डरता है, तो यह वैज्ञानिक भौतिकवाद” (Scientific Materialism) क्या है?

सत्ता सामान्यतः दूसरे व्यक्ति या सामाजिक समूह या वर्ग को नियंत्रित एवं नियमित करने की शक्ति या योग्यता या प्राधिकार या इनका संयुक्त स्वरूप होता है| ‘वास्तव में सत्ताशासन को नियंत्रित करने की शक्ति होती है| सत्ता की वैधानिक स्वीकृति को ही सरकार कहा जाता है, जो एक प्राधिकार के रूप में कार्य करता हुआ दिखता है| इस तरह वैधानिक सत्ता को ही सरकार भी कहते हैं। सत्ता के पास शासन करने के सभी साधन सरकार के रूप में ही उपलब्ध होते हैं और इस तरह उनका इस्तेमाल करने का अधिकार भी सिर्फ सरकार के पास दिखता होता है| लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनमानस को शासक होने का, यानि सत्ता में शामिल होने का भ्रम ही वास्तविकता की तरह समझ में आती है, और इसीलिए वे सदैव इसी विषय में मशगुल होते हैं, और अपने को विशेषज्ञ भी समझते होते हैं|

सत्ता यदि अव्यक्त शक्ति या प्राधिकार है, तो जनमानस के लिए सत्ता का स्रोत सरकार को माना जाता है| सत्ता के स्वरुप में भौतिकराजनीतिकआर्थिकसांस्कृतिक या बौद्धिक आदि कोई और भी स्वरुप शामिल हो सकता हैतो वास्तव में सरकार को कौन संचालित करता है? इस सत्ता वर्गमें कौन कौन समुदाय या समूह या वर्ग आ जाता हैवैसे सत्ता और शासक वर्ग में बहुत सूक्ष्म अन्तर होता है और यह अवधारणा संदर्भ के सापेक्ष बदलता रहता हैया दोनों एक ही हो जाता है। वैसे सत्ता उस वर्ग के पास होती है, जिसके पास शासन करने का स्पष्ट दर्शनहोता है| और इस दर्शन के लिए उसे जनमानस के मनोभावों, विचारों, व्यवहारों एवं आवश्यकताओं में प्राथमिकताओं की एवं उनकी क्रियाविधियों की गहरी समझ (मनोविज्ञान) रखनी होती है| इसके साथ उनमे जनमानस को संचालित एवं नियमित करने वाली संस्कारोंएवं संस्कृतिकी गत्यात्मकता (कार्य करने की क्रियाविधि) की व्यापक दृष्टि होती है| चूँकि दर्शन मानव जीवन, समाज एवं समस्त विश्व को संचालित, नियमित एवं नियंत्रित करने वाले मौलिक एवं मुलभुत नियमों की समझ होती है, इसीलिए शासन करने के दर्शनकी समझ की आवश्यकता हर शासक को होती है|

इस तरह 'दर्शन' एक शास्त्रहोता है, जो शासन करता है| ध्यान रहे कि शासन शास्त्र करता है, शस्त्र नहीं| इसीलिए ऐसे ही लोगों के पास सताहोती है, जिनके पास शास्त्रहोता है| और इसीलिए तथाकथित संगठन वालों या शस्त्र की शक्ति वालों के पास शासन या सता नहीं होता है| यह सत्ता सिर्फ सड़कों पर चीखने चिल्लाने वालों के पास भी नहीं होता है| वैसे सड़कों पर चीखने चिल्लाने वालों को कभी कभी सही साबित दिखनेके लिए सत्ता उनके सड़कों पर चीखने चिल्लाने वालों क़दमों को सही साबित करने का अहसास दिलाती रहती है| अपने समय एवं सन्दर्भों में आने वाली समस्या एवं अंतर्विरोधों को सड़कों पर चिल्लाकर समाधान नहीं पाया जा सकता है, बल्कि उसके लिए गहरे विमर्श की अनिवार्यता होती है, जो शासन करने के दर्शन को स्पष्ट करता है|

दर्शन यदि किसी के विचारोंपर शासन करने का शस्त्र या शास्त्रहै, तो दर्शन अवश्य ही समस्त वैज्ञानिकताओं को अपने में समाहित किये होता है| इस तरह दर्शनकिसी के वैचारिक संज्ञानको समझ कर उस पर शासन करता है| ‘वैज्ञानिक दर्शनकी यह एक ख़ास विशेषता होती है कि यह अवश्य ही वैज्ञानिकता पर आधारित होती है, लेकिन जनमानस के समक्ष सिर्फ मिथकीय यानि काल्पनिक स्वरुप में प्रस्तुत होता है| इसीलिए जगत को मिथ्या बताया गया हैभ्रम (Bhram) को सत्य| इससे जनमानस मिथकीय कथानकों में ही सुख एवं मजा लेती रहती है, और शासक वर्ग भी इन उपद्रवी तत्वों से इत्मिनान रहती हैइसलिए शासन या सत्ता वैज्ञानिक भौतिकवादसे अति सावधान रहता है|

वैज्ञानिक भौतिकवाद जनमानस के जीवन से जुड़ी व्यावहारिक समस्यायों को सदैव गहराई से उभारती रहती है| 'भौतिकवाद’ सिर्फ वस्तुओं पर ही आधारित होता है, यानि 'भौतिकवाद’ 'कणिकाओं' (Particle), 'उर्जा' (Energy), 'समय' (Time) एवं 'आकाश' (Space) के रूप में ही उपलब्ध होता है, और कार्य करता है, और इसीलिए इसमें कल्पनाओं को स्थान नहीं दिया गया है| इसीलिए सत्ता सदैव ही मिथकीय कथानकों को, यानि परम्परागत धर्म को आगे कर शासन करता है| सत्ता इसीलिए ही मिथकीय कथानकों को, यानि परम्परागत धर्म को भौतिक स्वरुप देकर ही भौतिकवादके रूप प्रस्तुत करता है, और सदैव विजयी होता है| ध्यान रहें कि सत्ता पाने का यानि शासन करने का रास्ता सदैव ही भौतिकवादके रूप में जाता दिखता है, इसीलिए सत्ता पाने वाले लोग या वर्ग सदैव ही भौतिकवादके स्वरुप का रास्ता चुनते हैं|

वैसे शासक समूह में तीन अंग दृष्टिगत होते हैंजिनमें विधायिकाकार्यपालिका और न्यायपालिका को ही शामिल किया जाता है। अर्थात प्राधिकार तीन अंगों में विभाजित दिखता है, लेकिन अब इसमें एक और अंग को भी शामिल किया जाने लगा हैजिसे प्रचारपालिका यानि मीडिया कहा जाता है। हालाँकि यह वैधानिक रूप में प्राधिकार नहीं माना जाता है, परन्तु जनमत को नियमित एवं संचालित करने की प्रणाली के रूप में जनमत को नियमित भी करती है और किसी ख़ास दिशा में ले जाने की क्षमता एवं योग्यता रखती है| यह बहुत अनिवार्य मुद्दों को उड़ा भी देती है और कुछ बेकार तुच्छ मुद्दों को विकराल भी बना देती है| पहले मीडिया में प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया को ही शामिल किया जाता थालेकिन अब डिजिटल मीडिया बहुत प्रसारित हो गया है और प्रभावशाली भी हो गया है।

यदि कोई वर्ग या समूह इन चारों को अपने प्रभाव में नियंत्रित और नियमित करता हैतो असली सत्ता संचालक इसी को क्यों नहीं माना जाय? अर्थात इन चारों के नियंत्रक यानि संचालक को ही शासक वर्ग या समूह मान लेना चाहिए। तो यह नियंत्रक वर्ग कौन हैजो सामान्य आंखों से ओझल तो हैपरन्तु मानसिक दृष्टि से स्पष्ट दिखाई पड़ता रहता है। यह वह वर्ग हैजो बाजार के साधनों और शक्तियों को संचालित और निर्देशित करता है। अर्थात जो वर्ग या समूह बाजार की भौतिक साधनों और शक्तियों कोयानि उत्पादनवितरणविनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों को संचालित और निर्देशित करता हैवहीं सत्ता का वास्तविक संचालक होता है। इसी को भौतिकवादकहते हैं, और चूँकि यह वैज्ञानिकता पर आधारित होता है, इसीलिए इसे वैज्ञानिक भौतिकवादभी कहते हैं| बाकी दृष्टिगत संचालक (सरकार) तो उनके उपकरण मात्र हैयानि उनके मुखौटे होते हैं।

अर्थात जिस वर्ग का भौतिक बाजारपर नियंत्रण होता हैवही वर्ग मानसिक बाजारपर भी नियंत्रण रखता हैयानि यही वर्ग बौद्धिक संपदा के बाजार का भी नियंत्रण रखता है| यही वर्ग बौद्धिक उत्पादनवितरणविनिमय एवं उपभोग का नियंत्रण कर्ता होता है, यदि तथाकथित बौद्धिक वर्ग काफी सचेत नहीं होता है। इसी कारण ऐसी स्थिति में वास्तविक आलोचनात्मक तर्कनिष्ठाको दिखावटी तर्कनिष्ठामेंयानि सतही तर्कनिष्ठामें बदल दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये तथाकथित बुद्धिजीवियोंको भी वाह वाही मिलती रहती है और ये अंग्रेजी बौद्धिकता के रथ पर हवाई उड़ान भरते रहते हैं।

ऐसा शासक वर्गयानि सत्ता वर्गइसीलिए परम्परागत धर्म को व्यक्तिगत आवश्यकताके क्षेत्र से निकाल कर एक बाजारु वस्तु ही बना देता है। इस तरह परम्परागत धर्म प्रदर्शन की आवश्यकता बन जाती है| और इसीलिए परम्परागत धर्मशासक वर्ग के वर्चस्व और सत्ता के स्थायित्व के लिए वैचारिक उपकरणया वैचारिक अस्त्रके रूप में उपयोग किया जाने लगता है। तब यह वैचारिक अस्त्रही शास्त्रबन जाता हैजिसमें शताब्दियों तक शासन की क्षमता और योग्यता होती है। इसलिए कहा गया है कि मूर्ख’ ‘शस्त्रसे सत्ता संचालन की चाह रखता है और बुद्धिमान’ “शास्त्रसे सत्ता संचालित करता है। इसमें फर्क आप समझिए।

भौतिकवादीदृष्टिकोण यदि सामाजिक - सांस्कृतिक - आर्थिक वास्तविकता हैतो भाववादी”, यानि भावनावादीदृष्टिकोण अवैज्ञानिक काल्पनिक उड़ान मात्र होता है। इसीलिए जगत को मिथ्या कहना और भावना को वास्तविक कहना यथास्थितिवादी दृष्टिकोणहोता है। यह मिथ्यायानि कथानकही सत्ता को वैचारिकी समर्थन दे सकता है और शास्त्रीय आधार देता है। चूंकि आदमी कार्य -कारण और भावनाओं के मध्य संतुलन बनाए रखना चाहता हैइसीलिए जनमानस को काल्पनिक कार्य कारणके आवरणमें भावनाओं में उड़ा लिया जाता है। इसीलिए सत्ता भौतिकवादी दृष्टिकोण से डरता है और परम्परागत धर्म के ओट लेकर ही शास्त्रीय लड़ाई लड़ता है।

यदि कोई भौतिकवाद’ ‘वैज्ञानिकतापर ही आधारित होता हैतो वही वैज्ञानिक भौतिकवादहै। वैज्ञानिक कहते ही वह तथ्यात्मक हो जाता हैकार्य -कारण के तार्किकता में समाहित हो जाता हैऔर विवेकपूर्ण भी होना आवश्यक हो जाता है। इन्हीं विशेषताओं से वैज्ञानिकताके आधार वास्तविक और प्रामाणिक भी हो जाता है। यह वैज्ञानिक भौतिकवादहर इतिहासहर संस्कृतिहर संस्कार कायानि हर शास्त्र का आलोचनात्मक विवेचनाविश्लेषण और मूल्यांकन कर देता है। इस तरह यह वैज्ञानिक भौतिकवादहर शास्त्र के काल्पनिक भावनात्मक उड़ान को खंडित कर देता है। इसीलिए सत्ता वैज्ञानिक भौतिकवादसे कांपता रहता है। ऐसी अवस्था में परम्परागत धर्म ही उसे सांत्वना देता हैऔर इसीलिए सत्ता परम्परागत धर्म को बाजारवाद का हिस्सा बना कर उसका मार्केटिंग करता है।

अब आप समझ गए होंगे कि सत्ता’ ‘वैज्ञानिक भौतिकवादसे क्यों डरता है?

आचार्य प्रवर निरंजन 

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