शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

संघर्ष करना' जीवन लक्ष्य नहीं होना चाहिए

कभी भी 'संघर्ष करना' किसी के लिए भी जीवन लक्ष्य नहीं होना चाहिए। आपने कभी अमरुद का फल पाने के लिए कभी आम का पौधा नहीं लगाया। भले ही वह अमरुद का पौधा सूख जाए या नहीं फले, अलग बात है, लेकिन वह जब भी फलेगा तो अमरुद ही। वह अमरुद का पौधा कभी भी आम या कटहल का फल निश्चितया नहीं ही फलेगा। यह एक साधारण उदाहरण है, जो आपके जीवन में आपके लक्ष्य निर्धारण की महत्ता और उसकी क्रियाविधि को स्पष्ट करते हुए बहुत बढ़िया से समझाता है। अब आप ही बताइए कि आपने अपने जीवन में 'संघर्ष करना 'जीवन का लक्ष्य’ या ‘जीवन का आदर्श’ बनाया है, तो जीवन में कुछ भी मिलेगा तो वह संघर्ष ही मिलेगा। अब आप इसे बारीकियों से समझिए।

यह हो सकता है कि आप अपने जीवन में किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सारे जूनून के साथ लगा हो और आपने अपना लक्ष्य भी पा लिया| यहाँ यह स्पष्ट हो लीजिए कि उस प्राप्तकर्ता ने उसे प्राप्त करने में जिस तरह लगा रहा, वह पूरी प्रक्रिया दूसरों को संघर्षमय दिखता हो, लेकिन उस प्राप्तकर्ता का लक्ष्य कभी संघर्ष करना नहीं था| एक ही प्रक्रियात्मक घटना किसी को ‘संघर्ष करना’ दिखता है,जबकि लक्ष्य के प्राप्तकर्ता को वही प्रक्रियात्मक घटना कभी संघर्षमय नहीं रहा, वह तो उस लक्ष्य के करीब जा रहा था| कहने का तात्पर्य यह है कि दुसरे देखने वाले को ‘संघर्ष करने’ की प्रेरणा मिली, जबकि वही प्रक्रियात्मक घटना किसी और को लक्ष्य प्राप्त करने की प्रेरणा दिया| उस लक्ष्य प्राप्तकर्ता का मानसिक दृष्टि उस लक्ष्य पर रहां| उस लक्ष्य प्राप्त कर्ता से वह हो गया, जिसे अन्य लोग ‘मेहनत करना’ या ‘संघर्ष करना’ दिखा| ‘जूनून’ और ‘मेहनत’ करने में यही अंतर है| इसीलिए एक जूनूनी व्यक्ति नहीं थकता है, क्योंकि वह मेहनत नहीं करता है, मेहनत हो जाता है| जबकि मेहनत करने वाला व्यक्ति जल्दी थक जाता है| इसीलिए आपने देखा होगा कि आपके अनुसार बहुत मेहनत के साथ पढने वाला  भी असफल रहता है और दूसरा जूनूनी व्यक्ति कब पढता कब सोता है, उसे भी पता ही नहीं चलता| उससे मेहनत हो जाता है, लेकिन वह मेहनत नहीं करता है, यानि मेहनत करना उसका लक्ष्य नहीं होता है|

आप ही जानते और मानते हैं कि आपकी भावना और विचार ही आगे भौतिक स्वरूप में उपलब्ध होते हैं। क्वांटम भौतिकी के "अवलोकन कर्ता का सिद्धांत" (Observer Theory) भी यही कहता है कि हम जिन चीजों को पाना चाहते हैं, तो हिग्स फिल्ड से उत्पन्न हिग्स बोसोन कण और ऊर्जा उसी भौतिक स्वरूप में उपस्थित होते हैं, जिस स्वरुप में हम पाना चाहते हैं| यह अति सूक्ष्म कणों के मामलों में तो सही पाया गया है, लेकिन अन्य बड़े मामलों की संतोषप्रद व्याख्या नहीं हो पाया है| सभी बुद्धि के उपासकों ने भी किसी भौतिक पदार्थ एवं विचार तथा व्यवहार के प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी भावना को मूलाधार बताया है| यही भावना किसी के विचार को, आदर्श को, व्यवहार को और कर्म को एक निश्चित प्रक्रियाओं एवं अवस्थाओं से गुजरते हुए परिणाम फल के रूप में उपलब्ध होता बताया है। भावनाएं मानव प्रजाति के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। कारण - कार्य से मशीनें नियमित और संचालित होती हैं, लेकिन एक मानव तो इस कारण - कार्य के अतिरिक्त मुख्यतया भावनाओं से ही संतुलित होता है। ध्यान रहे कि इस भावना को संघर्ष के संदर्भ में समझना है। अत: लक्ष्य अनुरूप भावना ही महत्वपूर्ण है|

एक प्रसंग मदर टेरेसा से संबंधित है। यह महिला कोलकाता में रहतीं थीं और इन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिला था। एक बार एक प्रतिनिधिमंडल उनसे यह आग्रहपूर्वक आमंत्रित करने के लिए आया था कि मदर टेरेसा उनके द्वारा आयोजित "युद्ध के विरोध" में एक आयोजन में शामिल हो। उन्होंने "युद्ध के विरोध" के आयोजन में शामिल होने से स्पष्टतया मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि यदि आप लोग "शांति के समर्थन" में कोई आयोजन करना, तो मुझे अवश्य ही आमंत्रित करना, मैं उस आयोजन में अवश्य शामिल होऊंगी। आप थोड़ा ठहर कर विचार कीजिए कि इन दोनों शब्दावली - "युद्ध के विरोध" और "शांति के समर्थन" में क्या अंतर है? इन दोनों की क्रियाविधि और इसके परिणाम अलग अलग कैसे निष्पादित होता है? ध्यान दें कि "युद्ध के विरोध" शब्दावली में दो नकारात्मक शब्द हैं – ‘युद्ध’ एवं’विरोध’| वहीं "शांति के समर्थन" शब्दावली में दोनों शब्द -’शांति’ एवं ‘समर्थन’ सकारात्मक हैं| कोई भी जिन शब्दों को अर्थात जिन भावों को अपने मन मस्तिष्क में रखता है, उसके जीवन में वही शब्दों के भाव उतर आता है, यानि वही भौतिकता में अवतरित हो जाता है| आप जिस शब्द की अभिव्यक्ति करते हैं, वही दृश्य एवं भाव आपके मन मस्तिष्क में उभर जाता है| दोनों शब्दावली का एक सामान अर्थ निकलते हुए भी अभिव्यक्ति के भावों में या भावों की अभिव्यक्ति में अतर हुआ|

डॉ आम्बेडकर ने भी 1942 में नागपुर के अधिवेशन में अंग्रेजी में “Educate, Agitate, Organise.” का नारा दिया| यह नारा बुद्ध के “बुद्धम, धम्मं, संघमं” का ही अंग्रेजी रूप है, जिसमे कहा गया है कि ‘मैं बुद्धि के शरण में जाता हूँ’, उस बुद्धि से ‘प्राप्त ज्ञान को मैं धारित करता हूँ’, और  उस प्राप्त ज्ञान के संशोधन संवर्धन के लिए ‘मैं संघ (संगठन) के शरण में जाता हूँ|‘  डॉ आम्बेडकर ने भी कहा ‘शिक्षा प्राप्त करों’, उस प्राप्त शिक्षा का मनन मंथन करो’ और उस प्राप्त ज्ञान को ‘संगठित (व्यवस्थित) करो’ या ‘संगठन में ले जाओ’| लेकिन कुछ लोगों ने इन शब्दों का क्रम भी बदल दिया और शब्द भी बदल दिया, मानों डॉ आम्बेडकर को ‘Agitate’ और ‘Struggle’ शब्द में अंतर नहीं पता था| ऐसा सड़कों पर राजनीति की चाह रखने वालों ने किया| इस तरह इन लोगों ने समाज के बड़े हिस्से के समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, जवानी और वैचारिकी को संघर्ष के लक्ष्य में झोंक कर समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुंचाया है|

इसलिए आप सभी से अनुरोध है कि आप अपने जीवन में सदैव सकारात्मक लक्ष्य निर्धारित करें और उसे पाने का उपक्रम करें| किसी के विरोध करने के लक्ष्य से बहुत अच्छा है कि कुछ पाने का लक्ष्य निर्धारित हो| इसीलिए कहा गया है कि किसी लकीर को छोटा करने के लिए उसे मिटाने या हटाने के बजाय उसके सामानांतर बड़ी लकीर खींच दिया जाय| कुछ बड़े विद्वानों का तो यह भी मानना है कि किसी को भी अपने लक्ष्य निर्धारण में कभी भी छोटे महत्व की चीजों को सन्दर्भ बिंदु नहीं बनाना चाहिए| क्योंकि ऐसा करने से आपके ब्रह्माण्ड का केंद्र भी वही महत्वहीन सन्दर्भ या बिंदु बन जाता है और आका सारा समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, जवानी और वैचारिकी उसी के इर्द गिर्द चक्कर काटने लगता है, जो आपके जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को नहीं करना चाहिए| अमर्त्य सेन ने भी ‘विकास को स्वतंत्रता’ (Development as Freedom) के रूप में देखा है, नहीं कि ‘किसी संदर्भ बिंदु से मुक्ति’ (Liberty from any reference) के रूप में लिया है|  कृपया ‘Freedom’ और ‘Liberty’ के (अंतर) प्रयोग पर ध्यान दिया जाय|

आशा है कि आप अब ‘संघर्ष’ को अपना जीवन लक्ष्य नहीं बनायेंगे| थोडा ठहर कर विचार कर लीजिए|

आचार्य प्रवर निरंजन 

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

भारत में जाति संघर्ष की चर्चा क्यों?

भारत में आजकल जाति आधारित संघर्ष के आगाज के रूप में धीमें स्वर में, लेकिन व्यापक रूप में रुप से चर्चा हो रही है। इस जाति आधारित संघर्ष को ही कुछ लोग वर्ग संघर्ष बता रहे हैं। कोई वर्ग का आधार गरीबी-अमीरी बता रहा है, तो कोई वर्ग का आधार जाति एवं धर्म को ही महत्वपूर्ण साबित करना चाहता है। तो यहां वर्ग और वर्गीकरण क्या है और यह किस पर आधारित हैवर्ग संघर्ष में गरीबी-अमीरी का आधार फिसड्डी क्यों हैजाति और धर्म की संकल्पना की प्रस्तुति में 'बौद्धिक षड्यंत्र' क्या है और कैसे हैउपरोक्त सभी को मौलिक रुप में समझे और विश्लेषण किए बिना भारत में वर्ग संघर्ष की स्थिति का सम्यक विवेचना और आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। तो हमलोग उपरोक्त को समझते हुए आगे बढ़ते हैं।

किसी भी समाज का सुविधाजनक अध्ययन या अन्य किसी उद्देश्य से  खण्डों में विभाजित करने की ही प्रक्रिया को वर्गीकरण कहा जाता है और उस विभाजित खण्ड को ही वर्ग कहा जाता है। स्पष्ट है कि वर्ग का आधार हमारे अध्ययन की, या उद्देश्य की आवश्यकता या सुविधा के अनुसार कुछ भी हो सकता है और बदलता हुआ हो सकता है। तो वर्तमान समय में भारतीय समाज में प्रचलित वर्गों का आधार धन आधारित अमीरी-गरीबी, क्षेत्र, भाषा, संस्कृति, तथाकथित धर्म एवं पंथ, जाति, प्रजाति, बौद्धिकता और लिंग व उम्र आदि हो सकता है। 

लेकिन वर्तमान भारत में वर्ग संघर्ष की चर्चा के सन्दर्भ में धर्म और जाति ही है। अभी अमीरी-गरीबी और अन्य आधार गौण हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चुनाव हर पांच साल में आता है और यह चुनाव भी तीन स्तर होता है। यह चुनाव केन्द्र स्तर पर, प्रान्त स्तर पर और स्थानीय स्तर पर साधारणतया अलग अलग समय पर होता रहता है। लिहाजा भारत में ये जाति और धर्म का वर्ग विशेष रुप में अलग तरह से और प्रमुखता से चर्चा में होते हैं। यह धर्म और जाति  लोकतान्त्रिक व्यवस्था की चुनावी रणनीति की अनिवार्यता होती है, क्योंकि चुनाव परिणाम को बहुमत अपने पक्ष में ले आता है।

लिंग और उम्र आधारित वर्गीकरण में हर परिवार शामिल होता है और यह समाज का मूलभूत एवं मौलिक निर्मात्री इकाईयां है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह आधार यानि यह वर्गीकरण वर्ग संघर्ष का आधार नहीं बन सकता है। 

वर्तमान आधुनिक युग की अमीरी-गरीबी की मौलिक और मूलभूत विशेषताएं भी बदल गयी है और बाजार की शक्तियों यानि आर्थिक शक्तियों ने सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं और क्रियाविधियों में बड़ी सूक्ष्मता से मौलिक और मूलभूत बदलाव किया है। बाजार की शक्तियों ने, अर्थात आर्थिक शक्तियों ने भौतिक पदार्थों और सुविधाओं के अतिरिक्त बौद्धिक एवं मानसिक उत्पादन, वितरण, विनिमय तथा उपयोग उपभोग को अपने नियंत्रण में कर रखा है इसका परिणाम यह हुआ है कि वैचारिकी के उत्पादन, वितरण, विनिमय तथा उपयोग उपभोग पर उन्हीं बाजारु आर्थिक शक्तियों का प्रभावशाली नियंत्रण, नियमन, और निर्देशन हो गया है और वही इसे पूर्णतया संचालित कर रहे हैं। इसलिए भारत में आधुनिक एवं वर्तमान युग में गरीबी-अमीरी पर आधारित वर्गों में संघर्ष की कोई वास्तविक संभावना नहीं है। कुछ सिद्धांतकारों को यदि यह लगता है कि इस आधार पर वर्ग संघर्ष हो सकता है और निकट भविष्य में उसे जीता भी जा सकता है, तो कोई भी भ्रम में जीने के लिए और बात बनाने बढ़ाने के लिए स्वतंत्र हैं। स्पष्ट है कि ऐसे हवाई सिद्धांतकारों को आधुनिक एवं वर्तमान आर्थिक शक्तियों की क्रियाविधि एवं परिणाम की बारीक समझ नहीं है।

अभी भारत में सामान्य जनमानस को समझ में आने वाली वर्गों में धर्म और जाति ही प्रमुख हैं। ध्यान रहे कि मशीन कारणों से संचालित और निर्देशित होता है और मानव भावनाओं से नियमित और संतुलित होता है। सामान्य जनमानस अपने बौद्धिक क्षमता एवं समझ के कारण भावनात्मक मुद्दों से बहुत ही आसानी एवं सरलता से नियंत्रित, नियमित, निर्देशित और संचालित होते हैं। इन मुद्दों को अखिल भारतीय विस्तार भी मिला हुआ है और यही मुद्दे बहुमत की दिशा भी तय करती है। दरअसल धर्म तो मानव के लिए एक ही होता है और वह मानव धर्म होता है। इसी महत्वपूर्ण मानव धर्म को सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं व्यवस्था के अनुसार विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों में विभाजित किया गया है और यही पंथ एवं सम्प्रदाय आज धर्म के रूप में प्रचलित है। इसी तरह जाति और कास्ट में भी भ्रम बनाया गया है और इन दोनों को एक ही अर्थ में लेने के लिए भारत में एक सूक्ष्म एवं गहन बौद्धिक षड्यंत्र किया गया है। भारतीय कास्ट पुर्तगाली कास्टा पर आधारित संकल्पना है, जो पेशों का क्षैतिज विभाजन तो करता है, लेकिन ऊर्ध्वाधर विभाजन नहीं करता है, अर्थात ऐसा कोई भी विभाजन श्रेष्ठता और नीचता पर आधारित नहीं होता है। भारतीय जाति व्यवस्था में समाज का विभाजन क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों एक ही साथ है और वह जन्म आधारित भी है, अर्थात एक ही साथ पेशागत विभाजन भी करता है और ऊँच- नीच का विभाजन करता है। इसलिए कोई भी देश के जवाबदेह व्यक्ति भारतीय जाति को भारतीय कास्ट कहने - लिखने - समझने के बौद्धिक षड्यंत्र का हिस्सा नही बनें।

भारत में अब धर्म की लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीतिक  रणनीति धीमी पड़ गई लगती है, हालांकि इसमें भरपूर ईंधन झोंकने के प्रयास में कोई कमी नहीं आयी है। हाल में जाति आधारित राजनीतिक रणनीति तेज होने लगी है। वैसे भी भारत मे जो सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं व्यवस्था में ऊर्ध्वाधर शिखर के लाभार्थी है, वे इस सामाजिक सांस्कृतिक संरचना एवं व्यवस्था की निरंतरता चाहते हैं और इसका आधार सांस्कृतिक विरासत बताते हैं। लेकिन यदि इतिहास की वैज्ञानिक और आधुनिक व्याख्या आर्थिक साधनो और शक्तियों के आधार पर, यानि बाजार के साधनो और शक्तियों के आधार पर किया जाता है, तो स्पष्टतया एक भिन्न तस्वीर उभरती है। हम जानते हैं कि इतिहास की व्याख्या यानि 'इतिहास का अवबोध' (Perception of History) ही सांस्कृतिक विरासत और संस्कार को निर्मित, नियमित, निर्धारित और संचालित करती है।

भारतीय संविधान के उद्देशिका (Preamble, प्रस्तावना नहीं) में  “राष्ट्र” की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने की संकल्पना की बात की गयी है। ध्यान रहे कि यहां देश और सम्प्रभु राज्य की चर्चा नहीं है।  आज भारत के जो भी नागरिक किसी भी विरासत के नाम पर अवैज्ञानिक और अतार्किक जातीय व्यवस्था की निरंतरता का  हिमायती हैं, उसे संविधान के इस उद्देशिका का ध्यान नहीं है। किसी भी पेशे का श्रेष्ठता निम्नता संबंधित कोई जीनीय संरचनात्मक आधार अवैज्ञानिक है। इसी तरह किसी भी  सामान्य पेशे की योग्यता और कुशलता की दक्षता एवं क्षमता का संबंध भी  वैज्ञानिक आधार पर जीनीय संरचनात्मक से सिद्ध नहीं है। हालांकि कुछ आंकड़ों के बाजीगर’ आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर जीनीय संरचनात्मक तथ्यों को अपने हितों के पक्ष में दिखाने का भरपूर प्रयास करते हैं। यदि आपकी आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की दक्षता और क्षमता पैनी और गहरी नहीं है, तो आप ऐसे बाजीगरों के झांसे में आ ही जाएंगे।

भारत में आज जातीय आधारित सर्वेक्षण और जनगणना की मांग की जाने लगी है। चूंकि जनगणना भारतीय संविधान की संघ सूची में दर्ज है, इसलिए कुछ राज्य सर्वेक्षण ही कराकर संबंधित आंकड़े प्राप्त कर रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री अभीजीत बनर्जी भी भारत की आर्थिक समस्याओं और उसके समाधान की सबसे बड़ी बाधा के रूप में संबंधित आंकड़े की अनुपलब्धताअप्रामाणिकता, अपर्याप्तता और विमर्श में अभाव को बताते हैं। भारत के लगभग सभी परम्परागत बौद्धिक भी जातीय व्यवस्था की निरंतरता चाहते हैं और इसीलिए यह जातीय व्यवस्था अवैज्ञानिक संकल्पना भी एक ठोस भौतिक तथ्य बना हुआ है। और इसी कारण यह जाति भी राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचा रहे हैं, फिर भी यह  जाति आज लोकतान्त्रिक चुनावी राजनीतिक रणनीति का मुख्य आधार बनता जा रहा है। जाति आधारित उद्दात भावना ही एक दूसरे को शोषक समझ रहे हैं और घृणा भड़कानेवाला का उपकरण साबित हो रहे हैं। वैसे इसके लाभार्थी सभी राजनीतिक दल हैं, लेकिन इस जातीय व्यवस्था के कारण वर्ग संघर्ष की प्रवृत्ति की उत्पत्ति की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। ये लोग इस राष्ट्र को इस रूप में क्या देना चाहते हैं, वे ही जानें। लेकिन आसार अच्छे नहीं हैं।

आचार्य प्रवर निरंजन

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

‘मूर्ख दिखना’ एक कलात्मक विज्ञान है|

                   ‘मूर्ख दिखना’ एक कलात्मक विज्ञान है| ‘मूर्ख दिखना’ और ‘मूर्ख होना’, दोनों अलग अलग एवं विपरीत  विषय है|मूर्ख होना’ अच्छी बात नहीं है, लेकिन ‘मूर्ख दिखना’ एक उत्कृष्ट कला भी है, और उच्च स्तरीय मनोविज्ञान भी है| किसी के द्वारा अपने को 'मूर्ख दिखाना' ही दूसरों को "मूर्ख बनाना" होता है। यह जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है और यह सभी परिस्थितियों  के लिए सत्य भी है| इसी ‘मूर्ख दिखने की कला’ को कुछ विद्वान् ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ (Emotional Intelligence) एवं ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता’ (Social Intelligence) भी कहते हैं।

| ‘भ     भावनात्मक बुद्धिमता’ में सामने वाले की भावना को समझ लेना और उसी के अनुकूल एवं अनुरूप अपनी भावना को ढाल कर उसी के अनुकूल एवं अनुरूप अपनी भावना, विचार एवं व्यवहार को व्यक्त करना होता है| इसी को समानुभूति (Empathy, not Sympathy) दिखाना भी कहते हैं| अर्थात मूर्ख लोगों के साथ स्वयं को उसी स्तर का दिखाना, ताकि वे भी आपको अपना ही समझ सकें, मान सके| जब आपकी मूर्खता दिखाने में आपका सन्दर्भ बिन्दु समाज होता है, तब ऐसी बुद्धिमत्ता को सामाजिक बुद्धिमत्ता कहते हैं| डेनियल गोलमन की "भावनात्मक बुद्धिमत्ता" एवं कार्ल अल्ब्रेच की "सामाजिक बुद्धिमत्ता" का आप अलग से अवलोकन कर सकते है|

                 यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि ‘मूर्खता’ क्या है? स्पष्ट है कि यह ‘मूर्खता’ ‘अज्ञानता’ की अभिव्यक्ति है, उपज है| इसके ही साथ यह भी स्पष्ट है कि इस ‘अज्ञानता’ के साथ उसके पास विवेक एवं संवेदना भी नहीं होगी| तो ‘अज्ञानता’ क्या है? स्पष्ट है कि ‘अज्ञानता’ में सत्य एवं सही सूचनाओं का अभाव का होना और उसके विश्लेषण एवं आलोचनात्मक मूल्याङ्कन क्षमता का स्तरीय नहीं होना महत्वपूर्ण है| इसके साथ ही अज्ञानता में विज्ञान एवं संवेदना आधारित तार्किकता एवं ‘कार्य- कारण’ का स्पष्ट सम्बन्ध नहीं होना भी प्रमुख है| अर्थात उपरोक्त ये लक्षण ही ‘मूर्ख’ होने के लिए काफी है| कहने का तात्पर्य यह है कि एक ‘ज्ञानी’ वह व्यक्ति है, जिसके पास पर्याप्त सुचना हो, उसके आलोचनात्मक विश्लेषण करने एवं मूल्याङ्कन करने की क्षमता हो और पर्याप्र विवेकशील तथा संवेदनायुक्त हो|

                   मूर्ख दिखने को साधारणतया एवं अक्सर व्यक्तित्व का एक नकारात्मक या कमजोर पहलू के रूप में देखा जाता है। लेकिन यदि इसे गहराई से समझा जाए, तो मूर्ख दिखने में भी एक कला और विज्ञान छिपा हुआ है। यह एक मानसिक स्थिति ही नहीं है, बल्कि एक व्यवहारिक कौशल भी है, और इसीलिए यह मनोविज्ञान भी है एवं कौशल का कला भी है| मनोविज्ञान मानव मन का विज्ञान है| मनोविज्ञान मानव की भावनाओं, विचारों, व्यवहारों एवं कार्यों का विज्ञान है| ‘मूर्ख दिखने’ का उपयोग एक व्यक्ति अपनी स्थितियों को संभालने, संघर्षों से बचने, समानुभूति उत्पन्न करने और मानसिक शांति बनाए रखने के लिए करता है। ‘मूर्ख दिखने’ की कला एवं विज्ञान का उपयोग एवं प्रयोग कर आप अपने जीवन लक्ष्य को भी आसानी से पा सकते हैं| एक राजनेता (इसमें सामाजिक नेतृत्व का आवरण ओढ़े लोग भी शामिल हैं) इस कला एवं विज्ञान का निपुण प्रयोगकर्ता होता है, और वह इसी कारण बौद्धिकों के साथ बहुमत की सामान्य आबादी को भी एक बौद्धिक की तरह ही प्रतिक्रिया कर उससे भी सम्मान पाता है| कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे नेतृत्व सामान्य बहुमत का मत पाने के लिए उनके साथ सब कुछ समझते हुए भी ‘मूर्ख दिखने’ का सफल एवं कुशल अभिव्यक्ति कर उन पर ‘राज’ करता है|

                ‘मूर्ख दिखने का विज्ञान’ इसलिए कहा गया, क्योंकि मनोविज्ञान आज शरीर पर विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों पर की गयी प्रतिक्रियाओं पर आधुनिक शरीर विज्ञान पर आधारित अध्ययन करता है और इसके सभी अध्ययन आधुनिक संवेदी यंत्रों के सहारे किया जाता है| ‘मूर्ख दिखने का विज्ञान’ तब स्पष्ट होता है, जब यह केवल बाहरी आचरण एवं व्यवहार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। इस तरह ‘मूर्ख दिखना’ एक रणनीतिक निर्णय है, जो आपको को तनावपूर्ण या चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में फंसे बिना अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा बनाए रखने में सहायता करता है और विजयी भी बनाता है|

                 ‘मूर्ख दिखने की कला’ में  एक व्यक्ति जानबूझकर अपनी बुद्धिमत्ता को छिपाकर दूसरों के मन के अनुकूल होकर उसमें भ्रम पैदा करता है। इस स्थिति में एक व्यक्ति अपनी स्थिति को सम्मानजनक एवं  सुरक्षित बनाए रखता है और दूसरों को असहज किए बिना अपनी समझ और ज्ञान का उपयोग करता है। यह व्यवहारिक कला एक व्यक्ति को अति-संवेदनशील स्थितियों से सम्मानजनक एवं सुरक्षित बाहर निकालने में मदद करती है और उसे अनावश्यक बहस या विवाद से दूर रखती है। इसी कारण, इसे दूसरे शब्दों में कहा जाता है कि किसी की सफलता में उसकी सामान्य बुद्धिमत्ता का 20% योगदान होता है, जबकि ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ एवं ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता’ का योगदान 80% होता है| ध्यान रहें कि ‘सामाजिक बुद्धिमत्ता’ में साधारण बुद्धिमत्ता के साथ साथ ‘भावनात्मक बुद्धिमत्ता’ भी समाहित होती है| स्पष्ट है कि ‘मूर्ख दिखना’ ही इन बुद्धिमत्ताओं का महत्वपूर्ण खम्भा है, आधार स्तम्भ है|

                  ‘मूर्ख दिखने’ में यह भी महत्वपूर्ण है कि दूसरों की धारणाओं एवं भावनाओं को कैसे नियंत्रित एवं अनुकुलित किया जाए ताकि सामने वाला आपको एक निश्चित दृष्टिकोण से देखें और आपको अपना ख़ास समझे| तब ही आप अपने उद्देश्यों को चुपचाप, शांतिपूर्ण रूप से एवं सम्मान के साथ प्राप्त कर सकते हैं। माना कि आपका ज्ञान उच्च स्तरीय प्रोग्राम्ड है, और आपका समाज निम्न स्तरीय प्रोग्राम्ड हैं, तब स्पष्ट है कि ऐसे समाज के लिए आपको उस हद तक मूर्ख दिखना होगा, जिस हद तक उस समाज का स्तर एवं प्रोग्राम है| तब ही आपकी और उस समाज की दोलन/ कम्पन (Frequency) समान होगी और आप उसकी बातें समझ कर उसको समझा पायेंगें| इसमें भी आपको उस हद तक ‘मूर्ख दिखना’ होगा, अन्यथा आपसी संवाद ही नहीं हो पाएगा|

                   अक्सर आपको अपने समाज में अनेक महत्वपूर्ण मोड़ पर अनेक विवादों से बचने के लिए आपको ‘मूर्ख दिखना’ पड़ता है| आप अपने को मूर्ख दिखा कर समाज में व्याप्त अनेक जटिलताओं और आडंबरों से सम्बन्धित विवादों से बचा सकते हैं और वैसी स्थिति को सम्हाल भी सकते हैं। ऐसे समय में व्यक्ति अपनी मौनता या सरलता से समाज की अपेक्षाओं से बाहर निकलने में सक्षम होता है। बुद्ध भी अक्सर बहुत से प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा किये जाने पर मौन हो जाते थे, या मुस्कुरा देते थे| ऐसी स्थिति में समझने वाले उन्हें मूर्ख या अज्ञानी भी समझ लेते थे, लेकिन बुद्ध उसकी अज्ञानता या मूर्खता पर सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाते थे| ‘मूर्ख दिखना’ जीवन जीने का एक वैज्ञानिक एवं कलात्मक तरीका है, जहाँ व्यक्ति अपनी शांति और संतुलन बनाए रखते हुए खुद को उन विवास्पद चीज़ों से अलग रखता है| यह आपकी मानसिक शांति को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है|

                  स्पष्ट है कि ‘मूर्ख दिखना’ वास्तव में एक कलात्मक विज्ञान है। "मूर्ख दिखना" अपने फायदे के लिए आवश्यक होता है, भले ही इससे दूसरों का समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, उत्साह, वैचारिक और जवानी बरबाद हो जाता है। यह उन सभी व्यक्तियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो जीवन की कठिनाइयों से निपटने में माहिर होना चाहते हैं| ऐसे व्यक्तियों के लिए यह ‘मूर्ख दिखने’ का कौशल उनकी जीवन यात्रा को अनावश्यक संघर्षों से दूर रखकर सरल, सुगम और रोचक बनाती है।

    आचार्य प्रवर निरंजन 

शनिवार, 7 सितंबर 2024

चेतना का ब्राह्मणीकरण

                           हमारी चेतनाओं का इस कदर ब्राह्मणीकरण किया जा चुका है कि हमें पता ही नहीं है कि हमारी चेतनाओं का भी ब्राह्मणीकरण हो चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणीकरण को ही नहीं समझते, और इस सम्बन्ध में हर कुछ एक जाति विशेष से जोड़ कर देखने लगते हैं| हम चेतना के स्तर पर ब्राह्मणवाद का सख्त विरोध करते दिखते हैं और ऐसा ही दिखाना भी चाहते हैं, लेकिन अचेतन स्तर पर हम ब्राह्मणवाद से ही संचालित, नियमित, प्रभावित और नियंत्रित होते हैं। अक्सर हम ब्राह्मणवाद का उग्र विरोधी यानि क्रांतिकारी बदलाव के लिए ब्राह्मणवाद को मिटाते हुए संघर्षरत दिखते हैं, यानि हम अपने को उग्र विरोधी मानते हैं। ऐसा हम अपने चेतना के स्तर पर समझते रहते हैं, लेकिन हम अपने विचार, भावनाओं, व्यवहारों और कर्मों से उसी ब्राह्मणवाद को क्रांतिकारी गति से आगे बढाते होते हैं, और मजबूत करते होते हैं, और ज्यादा सशक्त करते होते हैं। यह बात दो विपरीत दिशाओं की हो जाती है| आपको स्पष्ट रूप में लग सकता है कि मैने कुछ अटपटी, विचित्र और शायद बकवास लिख दिया है, लेकिन नहीं। मैं सब कुछ अपने पूर्ण चेतना के स्तर पर पूरी वैचारिकता से यह लिख रहा हूँ। कहने का अर्थ है कि इसे आपको पूरे मनोयोग से समझना चाहिए।

                       हम ब्राह्मणवाद का विरोध करते दिखते हैं, लेकिन अपने विचारों, भावनाओं, व्यवहारों एवं कर्मों से उसी का जबरदस्त समर्थन करते होते हैं| हम जिस भी चीज़ को अपने ध्यान में बार बार लाते हैं या देखते सोचते रहते हैं, वह बिना किसी तर्क या कारण के ही कब हमारे चेतना में समा जाता है, पता ही नहीं चलता है। तब वह हमारी चेतना को संचालित करने लगता है। हम अपने हरेक विचार, भावना, व्यवहार और कर्म को ब्राह्मणवाद के ही संदर्भ (Reference) में लेते हैं और इसीलिए यही ब्राह्मणवाद ही हमारे सभी विचारों, भावनाओं, व्यवहारों एवं कर्मों का संदर्भ बिन्दु यानि केन्द्र बिन्दु भी बन जाता है। तब हम इस ब्राह्मणवाद का ही परिक्रमा करते हुए और परिभ्रमण करते ब्राह्मणवाद को ही अपना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बना लेते हैं। तब इसी ब्रह्माण्ड का हम चक्कर लगाने में, इसी संदर्भ लकीर से उपर उठने की कवायद में सारी उम्र खपा देने के बाद भी यह समझ में नहीं आता है कि हमें अपने जीवन में और भी बहुत कुछ करना था, या है।

                      तो सवाल यह है कि यह ब्राह्मणवाद क्या है? यह ब्राह्मणवाद एक ख़ास विचारधारा की मानसिकता है, एक ख़ास पैटर्न का मानसिक बुनावट है, एक माइंड सेट है, और कोई जरुरी नहीं है कि यह ‘ब्राह्मणों’ से सम्बन्धित हो| इस ब्राह्मणवाद के कुछ ख़ास लक्षणों में ‘अपनी जाति की सत्यता और गौरव गाथा में विश्वास’, ‘ईश्वर’ यानि प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण में विश्वास’, ‘इस शरीर के समाप्त हो जाने बाद नए शरीर में पुन: जन्म लेना’, ‘इस जन्म में किए गये कर्मों का परिणाम अगले शरीर में प्राप्त करना’, और ‘आपके आत्म (Self) को किसी अन्य स्वरुप में यथा आत्मा (Soul) के रूप में निरंतरता प्राप्त करना’ आदि प्रमुख है| यदि कोई भी इनमे से कोई भी एक या सभी लक्षणों की सत्यता को स्वीकार करता है, तो वह ब्राह्मणवादी है| इसको सत्य मानने वाला हर व्यक्ति अपनी अज्ञानता के दल दल में फँसा हुआ है| किसी की भी अज्ञानता के लिए आज कौन दोषी हो सकता है, यह अलग विषय है|

                    ब्राह्मणवाद का विरोध ब्राह्मणी कहे जाने वाले ग्रंथों, संस्कारों, त्योहारों, परम्पराओं, आदि विरोध  का करना माना जाता है। ऐसा विरोध करने वाले को सांस्कृतिक उद्विकास की सतही समझ भी नहीं होती, गहन अध्ययन एवं विश्लेषण की बात तो छोड़ ही दीजिए। सांस्कृतिक उद्विकास की समझ यानि ऐतिहासिक उद्विकास की सफर की वैज्ञानिक समझ नहीं होती, उनके पास सिर्फ रटे रटाए कुछ उदाहरण का संकलन होता है। ध्यान रहे कि किसी के अस्तित्व को नकारना और उसका विरोध करना अलग अलग स्थिति है| नकारने में तटस्थता हो सकती है, लेकिन विरोध करना एक सतर्क, सजग एवं सक्रिय प्रतिक्रया है, जो किसी ख़ास क्रिया के समाप्ति के लिए क्रियान्वित होता है|

                    लोग सारी बुराइयों के करामातो की जड़ ब्राह्मणवाद को समझते हैं, लेकिन यह समझने की कभी भी कोशिश नहीं की जाती कि इस ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का उत्पत्ति एवं उद्विकास कैसे हुआ, क्यों हुआइसकी उत्पत्ति एवं विकास में ऐतिहासिक प्रक्रियायों को वैज्ञानिक तरीके से समझना होगा| इस “इस ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का उत्पत्ति एवं उद्विकास कैसे हुआ, क्यों हुआ” को समझने के लिए आपको इतिहास को उद्विकासवाद, मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद, सापेक्षवाद और संरचनावाद के सन्दर्भ में लाना अनिवार्य है, अन्यथा आप इसे समझने के नाम पर मात्र फिसल ही रहे हैं। ब्राह्मणवाद का प्रभाव इस कदर छाया हुआ है कि यदि आप तथाकथित ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध नहीं कर रहे हैं, तो आप बौद्धिक नहीं है, प्रगतिशील नहीं है, समझदार नहीं है, भले ही इसका अर्थ बेमतलब का है। ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करते करते हुए विरोध कर्ता के मस्तिष्क में ब्राह्मणवाद ऐसे पैठ जाता है कि वह इसके विरोध में दूसरे नाम का ब्राह्मणवाद का कट्टर समर्थक हो जाता है। दरअसल इस संसार में ब्राह्मणवाद के कई स्वरुप, प्रकार एवं प्रतिरूप प्रचलित है, सिर्फ आपको ठहर कर सोचना है| ऐसे लोग ब्राह्मणवाद को ही नहीं समझते होते हैं| अक्सर एवं साधारणतया ब्राह्मणवाद का विरोध ब्राह्मण नामक व्यक्ति से समझता है और उसे ब्राह्मणवाद का सतही और गूढ़ अर्थ का समझ नहीं होता है।           

                      तथाकथित ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करना ही आधुनिकता, प्रगतिशीलता, वैज्ञानिकता और बौद्धिकता का पर्याय बन चुका है, जबकि ऐसा व्यक्ति स्वयं पतनोन्मुख दलदली में धंसते हुए होते हैं। लेकिन मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ, जो बहुसंख्यकों की भावनाओं को उभार कर और उससे खेल कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे होते हैं, यानि अपनी राजनीतिक सोपान में इसका सदुपयोग कर रहे होते हैं। मैं यहाँ बहुसंख्यक तथाकथित नेताओं की बात कर रहा हूँ| इस तरह सामान्य बहुसंख्यकों की सम्पूर्ण चेतना अपने सभी स्वरुपों में ब्राह्मणवाद के भंवर में चक्कर लगाता हुआ अन्तत: डूब जाता है, अर्थात इनकी सम्पूर्ण चेतना ब्राह्मणवाद को समर्पित हो जाता है। समर्पण सिर्फ सकारात्मक समर्थन का ही नहीं होता है, बल्कि नकारात्मक समर्थन का भी होता है। इसी नकारात्मक समर्थन को ही विरोध करना कहा और समझा जाता है। कहने का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि समर्थन सकारात्मक हो या नकारात्मक, यह एक मात्रा और स्तर का संसाधन, ऊर्जा, समय, धन, उत्साह, जवानी और वैचारिकी समर्पित करना होता है, लेकिन परिणाम का स्वरूप इसके प्रतिरूप के अनुसार बदल जाता है।

                         तथाकथित ब्राह्मणवाद का तथाकथित विरोध करना अधिकांश बहुसंख्यकों की संस्कृति बन गयी है और इसीलिए ये इस ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक परिधि से बाहर सोच भी नहीं सकते। ऐसे लोग उन्ही के अप्रत्यक्ष इशारों में उन्ही के ग्रंथों पर अनुसन्धान करते रहते हैं, लेकिन उन्हें अपने और समाज के विकास एवं समृद्धि के लिए अन्य ग्रंथो के अवलोकन के लिए समय ही नहीं है| ऐसे नेता किसका कल्याण करना चाहते हैं, शायद उन्हें पता हो| इन बहुसंख्यकों के लिए अज्ञानता, योग्यता का अभाव और कौशल की कमी कोई समस्या नहीं है। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों के लिए बाजारवाद और उसकी ऐतिहासिक शक्तियों की एवं उनकी क्रियाविधियों की कोई समझ नहीं है। ये लोग सरकारी तंत्रों के संदर्भ में सही साबित हो सकते हैं, लेकिन उन्हें बाजार की, यानि आर्थिक शक्तियों की समझ नहीं है। आज अदानी और अम्बानी के बच्चों को सरकारी तंत्र में घुसने की बेचैनी नहीं है, बल्कि बाजार की शक्तियों के सहारे उन तंत्रों पर अपनी नियंत्रण की बेचैनी है। यहाँ अदानी और अम्बानी कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, अपितु यह जातिवाचक संज्ञा है, जो इसके विशेषतवा को स्पष्ट करता है, इसपर ध्यान दिया जाए।

                           जाति, जो ब्राह्मणवाद का निर्मात्री इकाईयाँ (Building Blocks) है, का गौरवान्वित करने वाले ऐतिहासिक गाथा की रचना किया जाना अधिकांश बहुसंख्यकों के लिए मनोबल बढ़ाने वाला लगता है, लेकिन यह गाथा किसी दूसरे जाति के सापेक्ष गौरवमयी हो सकता है, लेकिन जाति व्यवस्था के सर्वोच्च शिखर के सापेक्ष गौरवमयी नहीं हो सकता। यह गौरवपूर्ण गाथा निश्चितया ब्राह्मणवाद के किले को, जिसकी यह निर्मात्री इकाईयाँ है, यानि उस व्यवस्था तंत्र को ही गौरवपूर्ण बनाता है, सशक्त करता है। आप गौरवपूर्ण ऐतिहासिक गाथा लिख कर अपने गौरान्वित कर रहे हैं, या अपने को किसी के सापेक्ष क्षुद्र साबित कर रहे हैं, यह आपको खुद समझना है। इसीलिए आपके हितों के विरोधी भी आपके इस गौरवपूर्ण ऐतिहासिक गाथा के रचना में, प्रकाशन में और प्रसारण में भी जी जान से सहयोग देने में लगे हुए हैं। आप भी उनकी तथाकथित प्रगतिशीलता और तथाकथित मानवता के प्रशसंक हुए जा रहे हैं।

                         थोड़ा भी ठहरिए, सिर्फ सतहों पर मत दौडते रहिए, यह सतहों पर फिसलना मात्र होता है। थोड़ा गहराइयों में उतरिए, आपको अलग दुनिया दिखाई देगी, जिसे आपने अभी तक अपनी कल्पनाओं में नहीं लाया है। आप अभी तक ‘उजला हंस’ ही देखे हैं, आपको “काला हंस” ( The Black Swan - Book by Nassim Nicholas Taleb) भी दिखेगा। 

(आप मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)

चार्य प् आचार्य प्रवर  निरंजन 

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