रविवार, 7 जनवरी 2024

समाज को दिशा देने में साहित्यकारों की भूमिका

“समाज को दिशा देने में साहित्यकारों की भूमिका” को समुचित ढंग से समझने से पहले हमें ‘समाज’ (Society) को समझना चाहिए कि समाज क्या है, अर्थात समाज से क्या तात्पर्य है? तब हमें साहित्य (Literature) और साहित्यकार (Litterateur / Writer / Author) को समझ लेना चाहिए। जब बात साहित्य की आएगी, तो साहित्य के उद्विकास (Evolution) को भी समझना पड़ेगा। यदि हम इन्हें समझने का प्रयास नहीं करेंगे, तो "समाज को दिशा देने में साहित्यकारों की भूमिका" को आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं समझ सकेंगे। इसीलिए सबसे पहले 'समाज', 'साहित्य' और 'दिशा' (Direction) को ही समझते हैं।

‘समाज” ‘सम्बन्धों के जाल’ (Web of Relations) को कहते हैं। यानि ‘समाज’ एक व्यवस्था है, जो ‘आपसी संबंधों’ पर आधारित होता है। ‘समाज’ मात्र एक ‘समूह’ नहीं है, जो सिर्फ कुछ आदमियों का समुच्चय मात्र ही है। इसी तरह ‘समाज’ एक ‘समुदाय’ भी नहीं है, जो किसी संकुचित एवं विशिष्ट उद्देश्य से निर्मित होते हैं। इस तरह ‘समाज’ के कई स्तर हो सकते हैं, जो प्रसंग के संदर्भ में बदलता रहता है। ‘समाज’ को वास्तविक या मान्यता प्राप्त "विस्तारित परिवार" (Extended Family) कह सकते हैं, लेकिन इसे "संयुक्त परिवार" (Joint Family) नहीं कहा जाना चाहिए। संयुक्त परिवार कई अलग-अलग परिवार का समुच्चय हो सकता है, लेकिन विस्तारित परिवार एक ही परिवार का विस्तारित स्वरुप होता है, माना जाता है। भारतीय समाज में विस्तारित परिवार का ही स्वरूप मिलता है और संयुक्त परिवार का अस्तित्व भारत में परम्परागत रूप में नहीं है।

'साहित्य' में 'समाज का हित' (स माज + हित + इत्यादि) अन्तर्निहित होता है, और इसीलिए जब कोई भाषा अपने वाचिक या लिखित स्वरुप में ‘समाज के हित’ में अभिव्यक्त होता है, ‘साहित्य’ कहलाता है। जब भाषा संवाद करने का माध्यम बनी और जब भारत में यह प्राकृतिक अवस्था मे थी, प्राकृत भाषा कहलाया। जब प्राकृत भाषा व्याकरण के साथ व्यवस्थित एवं व्यापक क्षेत्र में प्रचलित हो गयी, तो यह समाज और शासन व्यवस्था की पालक भाषा हो गई, तो यह पालि भाषा और साहित्य बन गई। मध्य काल यानि सामंतवाद के काल में यह पालि भाषा और साहित्य संस्कारित होकर, यानि सुसंस्कृत होकर और परिमार्जित एवं परिवर्धित होकर संस्कृत भाषा और साहित्य हो गई। भारत में भाषा और साहित्य के उद्विकास का यही तार्किक, तथ्यात्मक, वैज्ञानिक एवं आधुनिक व्याख्या है। 

अतः भाषा संवाद का माध्यम हुआ और साहित्य सामाजिक सांस्कृतिक उपलब्धियों की तैयार की गई संचित निधि हो गई। इस तरह ‘साहित्य’ की रचना करने वाले ‘साहित्यकार’ (Litterateur) हुए। जब वह साहित्य की रचना करने वाला कुछ भी लिखता है, तो वह "लिखने वाला" अर्थात ‘लेखक’ कहलाया, जिसे अंग्रेजी में ‘Writer कहते हैं। और जब उसका लेखन अधिकारिक तौर पर ‘प्रामाणिक’ (Authentic)  होता है, तो वह Author कहलाता है। तो हमें समाज के हित में वाचिक और लिखित सामग्री सृजित करने वालों की क्रियाविधि और उसके प्रभाव को समझना है। हमें समाज की ऐसी क्रियाविधि और उसके प्रभाव को समझना है, जो समाज को नई दिशा दे। तय है कि ऐसा निर्मित समाज अपनी ऐतिहासिक विरासत की संस्कारों को अपनी जड़ों में जमाए रखेगा और उसकी उपलब्धियां आसमान की ऊंचाईयों में भी लहराता हुआ होगा।

"दिशा देने" की बात सदैव सकारात्मक और सृजनात्मक ही होगी, क्योंकि इसके अलावा अन्य दिशा तो दिशाहीनता को ही दर्शाता है। अर्थात सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा के अतिरिक्त अन्य दिशाओं के लिए तो किसी अतिरिक्त, सजग, सतर्क और समर्पित प्रयास की कोई आवश्यकता ही नहीं है। मतलब यह है कि किसी को भी यदि कोई दिशा दी जाए, तो उसे अवश्य ही सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक परिणाम देने चाहिए, ताकि समाज, मानवता, प्रकृति और भविष्य लाभान्वित होता रहे। इस उपादेयता के बिना 'दिशा' दिए जाने का कोई मतलब नहीं है।

लिखना यानि साहित्य सृजन करना एक कौशल,  एक विधा है। यह किसी की कोई जन्मजात प्रतिभा या गुण नहीं है। इसे कोई भी प्रयास कर अभ्यास से सीखता है। इसे कोई भी विकसित कर सकता है। जैसे एक मानव शिशु का सजगता, सतर्कता और समर्पित प्रयास कर उसका पालन पोषण एवं उसे संवर्धित किया जाता है, उसी तरह एक साहित्यकार भी साहित्य का सृजन एवं विकास करता है। अर्थात एक साहित्यकार अपना साहित्यिक परितंत्र का, यानि पर्यावरण का निर्माण कर लेता है| वह साहित्य उत्कृष्ट माना जाता है, जो मानवीय संवेगों की अनुभूति रखता है, मानवता को समझता है, और उसे अपने साहित्य की अभिव्यक्ति में समुचित स्थान देता है|मानवता एक इतना व्यापक अवधारणा है जिसमें समुचित एवं पर्याप्त न्याय, स्वतंत्रता, समता समानता और बन्धुत्व की भावना होती है। 

एक अच्छा साहित्यकार उसे समझा जाता है, जिसे इतिहास, संस्कृति, मनोविज्ञान, और दर्शन की समझ होती है, भले ही उसके पास इन विषयों से संबंधित कोई अकादमिक उपाधि नहीं हो| विश्व के सभी स्थापित एवं प्रसिद्ध साहित्य इसी अभिव्यक्ति के कारण ही स्थापित और प्रसिद्ध साहित्य हुए हैं। उसमें इन्ही समझदारियों और दृष्टिकोण की झलक मिलती है| इन इतिहास, संस्कृति, मनोविज्ञान, और दर्शन को समझे बिना ही साहित्य दिशाहीन हो जाती है| समाज के नाम पर कुछ भी लिख देना साहित्य का प्रारंभिक स्वरुप हो सकता है, लेकिन वह अवश्य ही दिशाहीन साहित्य होगा, क्योंकि वह अपने प्रारंभिक अवस्था में है| इसीलिए मैंने इस विषय पर समाज, साहित्य, दिशा एवं साहित्यकार की अवधारणा को स्पष्ट किया है, जिसे हर साहित्यकारों को समझना चाहिए|

कहा जाता है कि कथानक (Narrative) ही शासन करता है और कथानक ही साहित्य होता है|कथानक क्या है? कथानक समाज से संबंधित किसी विषय या प्रसंग पर एक कथा है, जो विचारों, मानवीय भावनाओं और व्यवहारों की अभिव्यक्तियों को अपने समाहित कर जड़ मानव को गतिमान बना देता है। इन साहित्यों का आधार इतिहास, संस्कृति, सामाजिक सांस्कृतिक समस्या, या जीवन से जुड़ी हुई कोई भी रचना हो सकती है, जो समस्यायों पर प्रकाश डालती है, या समस्यायों के समाधान की ओर कोई दिशा देता हुआ होता है| 

वैसे साहित्य में कहानी, मिथक, नाटक, कविता या गीत इत्यादि कुछ भी हो सकता है, लेकिन साहित्य की मौलिक एवं मूलभूत प्रवृति समाज को दिशा देना ही है, और इसीलिए ही साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है| यदि समाज से संबंधित कोई लेखन रचना समाज को दिशा नहीं देता है, तो स्पष्ट है कि उसे कचड़ा माना जाना चाहिए, साहित्य कदापि नहीं माना जाना चाहिए। 

यह कहना गलत नहीं होगा कि साहित्य ही व्यवस्था एवं शासन को भी नियमित एवं प्रभावित करता है| यह भी स्पष्ट मान्यता है कि फ़्रांस की प्रसिद्ध क्रान्ति में मुख्य एवं मौलिक भूमिका साहित्यकारों की ही रही, जिसमे इतिहास, संस्कृति, दर्शन समाहित था और मानवीय संवेगों को उभरता हुआ मनोविज्ञान की स्पष्ट भूमिका परिलक्षित है| भारत में ऐसे साहित्यों का अभाव तो अखरता ही है|

भारतीय साहित्यकार जिन समस्यायों के विरुद्ध लिखना चाहते हैं, या लिखते हैं, वे उन्ही समस्यायों को पैदा करने वालों के द्वारा रचित साहित्य को ही आधार बनाकर अपनी रचना करता है| यही भारतीय साहित्यों की दुर्दशा का कारण है कि उनके लेखन से भारतीय समाज को कोई दिशा नहीं मिलता है| ये साहित्यकार अपनी रचनाओं में उन्ही षड्यंत्रकारियों द्वारा तैयार संरचनात्मक ढांचा के अन्दर में ही तैरते रहते हैं, जिसके विरुद्ध ये लिखते हैं, और उन्ही के द्वारा निर्धारित एवं रचित लेखनों में उलझे रहते हैं| दरअसल ये साहित्यकार कहलाने वाले उनकी स्टील ढांचे में ही तैरते नहीं होते है, अपितु उसमें ही डूबते, उतरते और उपलाते रहते हैं। लेखक की इन रचनाओं का कोई सकारात्मक और सृजनात्मक परिणाम नहीं निकलता है| इसलिए ये नादान साहित्यकार इस असफलता में आम पाठकों की तथाकथित बेवकूफी देखते समझते हैं| ये साहित्यकार कुछ भी लिख देने को ही साहित्य की रचना समझते हैं| कुछ ही साहित्यकार वैश्विक उत्कृष्ट साहित्य की प्रवृति एवं अभिवृति को जानने, समझने और उसे अपने लेखन में उतारने की कोशिश करते हैं|

एक साहित्य में साहित्यकार की एक स्पष्ट मंशा या लक्ष्य होता है, और उस मंशा या लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे लोकतान्त्रिक ढांचे यानि व्यवस्था के अंतर्गत मानवता का ध्यान रखना होता है| उस साहित्य को सांगत, सरल, साधारण, और सहज बुद्धिग्राह्य बनाकर प्रस्तुत करना होता है| ऐसे साहित्यों में व्यक्ति विशेष, घटनाओं, विचारों एवं आदर्शों को जोड़ते हुए उनका सूक्ष्म, विस्तृत, गहन और सुविचारित भावनात्मक ब्यौरा एवं वर्णन होता है, जिसका उद्देश्य सामने वाले पाठकों को अपनी मंजिल तक बहा कर ले जाना होता है| एक साहित्य में ऐसी वर्णात्मक प्रसंग या कहानी होता है, जो भावनात्मक लहरें उत्पन्न कर अपने पाठकों को बहाकर वहां ले जाता है, जहां वह साहित्यकार उसे ले जाना चाहता है, या उसे समझाना चाहता है| यह सब काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक प्रभाव पैदा करता है|

एक साहित्यकार अपने लेखन से अपने विचार, आदर्श, मूल्य आदि का प्रचार प्रसार करता है| वह मानवीय भावनाओं को समझता है, और उसे समुचित दिशा भी देता है| दिमाग सदैव दिल से हार जाता है, यानि बुद्धि सदैव भावनाओं से हार जाता है। अर्थात तथ्य, तर्क, और विज्ञान भी समेकित रूप में समाज पर वह भाव या प्रभाव नहीं छोड़ पाता है, जो एक सुगठित साहित्य प्रभाव देता है| एक मानव भी अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को भी अपनी भावनाओं में भूल जाता है| 

शासन भी वही समाज या वर्ग कर पाता है, जिसे उत्कृष्ट साहित्य की रचना करना आता है| अत: साहित्य की शक्ति को समझिए और समाज को दिशा दीजिए| लेकिन उससे पहले साहित्यकार को ही अपनी दिशा एवं स्थिति को अवश्य ही दुरुस्त कर लेना चाहिए, अन्यथा एक भटका हुआ साहित्यकार समाज को ही दिग्भ्रमित करता है, जो भारत में होता रहता है|साहित्य में भी सांस्कृतिक जडता को समाप्त कीजिये और साहित्य को न्यायपूर्ण बनाइए। 

ठहरिए और समझिए|

आचार्य निरंजन सिन्हा    

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