बुधवार, 10 जनवरी 2024

आलोचनात्मक चिंतन क्या है और क्यों जरुरी है?

नयी शिक्षा नीति 2020 के दर्शन का एक प्रमुख बिंदु ही “आलोचनात्मक चिंतन” (Critical Thinking) विकसित करना है| इसके ही साथ “वैज्ञानिक मानसिकता” (Scientific Temper) और “दायरे से बाहर चिंतन” (Out-of-Box Thinking) भी शामिल है| ये सभी बातें अन्य बातों के अतिरिक्त नयी शिक्षा नीति 2020 के उद्देश्य-भूमिका (Preamble) में वर्णित है, लेकिन यही तीन सबसे प्रमुख है| हालाँकि अंग्रेजी और हिंदी भाषा में प्रयुक्त इन शब्दों में अंतर भी है, इसीलिए अंग्रेजी को ही मानक मान कर आगे बढ़ा गया है| ‘आलोचनात्मक चिंतन’, ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ एवं ‘दायरे से बाहर चिंतन’ में एक स्पष्ट सम्बन्ध है और इसीलिए तीनों अलग अलग है, लेकिन यह तीनों महत्वपूर्ण अवधारणा है| ‘वैज्ञानिक मानसिकता’ को ‘वैज्ञानिकवाद’ (Scientism) भी कहते हैं, और ये दोनों एक दुसरे के पर्याय है| ‘दायरे से बाहर चिंतन’ को ही थामस सैम्युल कुहन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “The Structure of Scientific Revolution” में “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) कहा है|

सभी स्तरीय परीक्षाओं में, जिसमे राज्य एवं केंद्र स्तरीय आयोग द्वारा संचालित परीक्षाएँ भी शामिल है, आलोचनात्मक चिंतन की आवश्यकता परीक्षाओं के सभी स्तर यथा प्रारंभिक, लिखित एवं साक्षात्कार पर होती है| अब रटे रटाए अधिगम (Rote Learning) यानि ‘प्रश्न के उत्तर’ रट लेने का जमाना गुजर गया, जबतक ‘आलोचनात्मक चिंतन’ की विशिष्ठ समझ नीति निर्धारकों को नहीं थी| आपने भी सुना होगा कि परीक्षक अभ्यर्थियों के उत्तर पुस्तिका को “देखता” है, अर्थात उसे “पढता” नहीं है| अर्थात परीक्षक अभ्यर्थियों के उत्तर पुस्तिकाओं को सरसरी निगाहों से तेजी देखता जाता है कि सब कुछ रटा रटाया हुआ ही है, या कुछ मौलिक और भिन्न भी है? अपनी उत्तर पुस्तिकाओं को परीक्षक से पढवा लेना अभ्यर्थियों का काम होता है, जो उसकी मौलिकता से ही आती है| यदि अभ्यर्थी अपने विशिष्ट मौलिक प्रस्तुति से परीक्षक को अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में उत्तरों को पढने के लिए बाध्य कर देता है, तो परीक्षक बहुत खुश होकर पर्याप्त अच्छा अंक देता है| लेकिन यह विशिष्ट उत्तर यानि सामान्य से अलग मौलिक उत्तर अभ्यर्थियों के आलोचनात्मक चिंतन से ही आता है, अन्य दूसरा कोई विकल्प नहीं है| इस आलोचनात्मक चिंतन से सम्बन्धित प्रत्यक्ष प्रश्न साक्षात्कार (Interview) और लिखित परीक्षाओं में भी आने लगे हैं| इसीलिए यदि कोई विद्यार्थी अपने किसी भी परीक्षा में जबरदस्त सफलता चाहता है, तो उसे अवश्य ही आलोचनात्मक चिंतन विकसित करना चाहिए|

परीक्षा या परीक्षाएँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के हर क्षेत्र में, हर मोड़ पर और हर समय होता रहता है| आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिक मानसिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट करने वाले ही विश्व पर शासन करते हैं| आज विश्व के सभी विकसित देशों की संस्कृति में ही आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट की प्रवृति यानि मानसिकता व्याप्त है| कोई भी विकसित देश सांस्कृतिक विरासत के नाम पर इसे आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट की प्रवृति यानि मानसिकता को अवरोधित नहीं करता है| इसीलिए मात्र पांच या सात करोड़ की आबादी वाले देशों (जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली) से स्तर ऊपर उठने की मशक्कत में एक सौ पचास करोड़ वाला भारत देश लगा हुआ है, लेकिन इसकी सफलता आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिक मानसिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट से ही प्राप्त कर सकता है| जीवन के किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट पहचान के साथ अग्रणी रहने के लिए ही आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिक मानसिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट की जरुरत है| इन्हीं गुणों से युक्त देश या संस्कृति यानि आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट में अग्रणी देश या संस्कृति ही विश्व पर वास्तविक शासन कर रहे हैं|  आज सभी राष्ट्रों के शासनाध्यक्ष या शासन (Head of the Government) प्रमुख आज अपने देशों में मात्र “शासन प्रबंधक” (Manager for State –Affair) ही बन कर रह गए हैं, भले आप किसी संप्रभुता के भ्रम में हैं| जहाँ तक संप्रभुता की बात है, कोई इसे सामान्य शारीरिक आँखों से ही देख पाता है, और कोई मानसिक दृष्टि से देखता है| लेकिन मानसिक दृष्टि के लिए ही आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिक मानसिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट की आवश्यकता होती है| इसीलिए आलोचनात्मक चिंतन, वैज्ञानिक मानसिकता और विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट को विकसित करना जरुरी है|

आलोचनात्मक चिंतन का सीधा और साधारण अर्थ होता है किसी भी चीज यानि किसी भी विषय/ प्रसंग को समुचित ढंग से समझना| मतलब किसी भी चीज यानि किसी भी विषय/ प्रसंग को समुचित ढंग से नहीं समझ कर, मात्र किसी अंधभक्त की तरह, यानि किसी आस्थावान की तरह, यानि किसी झुण्ड के भेड़ की तरह पीछे पीछे नहीं चलना होता है| बल्कि किसी भी चीज को अपनी बुद्धि, तर्क एवं विवेक से उसे सही एवं पर्याप्त तरीके से समझना और निर्णय लेना हैइसीलिए बड़ी बड़ी कंपनियों, संस्थानों एवं सरकारी उच्च पदस्थ स्थानों पर ऐसे ही गुणवत्ता के व्यक्ति चयनित किये जाते हैं|

आप आलोचनात्मक चिन्तन यानि क्रिटिकल थिंकिंग को अच्छी तरह समझने के लिए अंग्रेजी के पाँचों Vovel (स्वर) – ‘A’, ‘E’, ‘I’, ‘O’, एवं ‘U’ को क्रमानुसार याद रखें| इससे आप इसकी अवधारणा (Concept) और इसकी क्रियाप्रणाली (Methodology) को कभी भी नहीं भूलेंगे| इन पाँचो Vovel (स्वर) – A, E, I, O, एवं U को पाँच क्रिया (Verbs) – ‘Analyse’, ‘Examine’, ‘Inquire’, ‘Open/ Organiseएवं ‘Unite’ के रूप में ही क्रमानुसार याद रखें| किसी भी शब्द, या वाक्य, या प्रसंग, या सन्दर्भ, या अन्य कोई भी बात को इसी क्रम में जांचे और कसे, आपको सब कुछ स्वत: स्पष्ट होता जायगा|

1.      Analyse : किसी चीज को विश्लेषित करने का अर्थ हुआ, कि उसको उसके मूलभूत तत्वों में ऐसा खंडित करना, कि उसकी वास्तविक प्रकृति का निर्धारण हो सके एवं उनके बीच के निश्चित संबंधों को जाना सके| जैसे आप किसी विषय पर कोई निबन्ध लिखते है, या किसी विषय को अपने सन्दर्भ में चुनते हैं, तो सर्वप्रथम उनमे प्रयुक्त शब्दों का अवधारणात्मक अर्थ (Conceptual Meaning) समझना ही विश्लेषण करना है|

2.      Examine : फिर उपर्युक्त विश्लेषण से प्राप्त सामग्री का परिक्षण/ जांच करना होता है| इसका अर्थ हुआ, कि उस विश्लेषण से प्राप्त उसके मूलभूत तत्वों (अवधारणाओं) और उसके विभिन्न संबंधों और प्रसंगों को विभिन्न संभावित सन्दर्भों में जांच पड़ताल करना होता है| विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों को विभिन्न आयामों में, जैसे उद्विकास, मनोविज्ञान, संस्कृति, विज्ञान, समय, क्षेत्र, भाषा आदि के सन्दर्भ में उसे जांचना ही Examine करना होता है|

3.      Inquire : तब उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्त निष्कर्ष पर प्रश्न करना होता है| अर्थात उपरोक्त दोनों प्रक्रियाओं से प्राप्त निष्कर्ष के सम्बन्ध में विविध पक्षों एवं दृष्टिकोणों से प्रश्न खड़ा कर और विवेकपूर्ण ढंग से किसी समुचित निष्कर्ष तक पहुँचना होता है, जो सत्य के करीब होता हुआ होता हैइस सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हाकिन्स का मानना है कि अध्ययन (समझने) का बेहतर तरीका ‘प्रश्न खड़ा करना’ होता है| बुद्ध भी किसी को समझाने के क्रम में सामने वाले पर उसी के बताए गए उत्तर पर ही प्रश्न खड़ा कर देते थे, और अन्त में उसको समुचित उत्तर मिल जाता था| अपने निष्कर्षों पर स्वयं ही प्रश्न करना भी आलोचनात्मक चिंतन का एक महत्वपूर्ण चरण होता है|

4.      Open : इसके बाद खोलना/ व्यापक बनाना आता है, जिसका अर्थ हुआ कि इसे किसी बंद, यानि किसी संकीर्ण अर्थ, यानि किसी परिधि से बाहर करना, ताकि इसका व्यापक सन्दर्भ में अर्थ निकाला और समझा जा सके| इस चरण में अब तक प्राप्त निष्कर्ष का सर्व व्यापीकरण (Generalisation) करना होता है, जिसे सभी परिस्थति, समय एवं सन्दर्भ में उपयोग/ प्रयोग किया जा सके| इसे दुसरे शब्दों में, सैद्धान्तिकरण (Theorisation) भी कह सकते है, जिसमे प्राप्त निष्कर्ष को एक सिद्धांत (Theory) का रूप दिया जाता है|  

5.      Unite : सबसे अन्त में एकीकरण करना हुआ, जिसका कई अर्थ होते हैं, जैसे उपरोक्त सभी प्रक्रियाओं एवं तथ्यों को एकत्रित करना, या समाहित करना (Integrate), या व्यवस्थित करना, या एकीकरण करना, या समाज, राष्ट्र और मानवता के सन्दर्भ में एक इकाई के रूप में लाना होता है| 

इस तरह क्रिटिकल थिंकिंग’ (Critical Thinking) का अर्थ हुआ कि सम्बन्धित विषय का एक व्यापक, समेकित, समुचित, सार्थक, तार्किक, वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर आना, जिसे सभी विचारवानों को जानना एवं समझना चाहिए|

अब सामान्य जन यह जानना चाहेंगे कि किसी भी विषय को “विश्लेषित करने” (Analyse) के बाद इसे किस सन्दर्भ, या प्रसंग, या पृष्ठभूमि में ‘जाचेंगे, यानि ‘परीक्षित’ करेंगे, यानि ‘प्रश्न खड़ा’ करेंगे? इसके लिए आपको चार्ल्स डार्विन का विकासवाद’ (Theory of Evolution)कार्ल मार्क्स का आर्थिकवाद (Theory of Economic Forces)’सिगमण्ड फ्रायड का आत्मवाद’ (Theory of Self)अल्बर्ट आइन्स्टीन का सापेक्षवाद’ (Theory of Relativity), और फर्डिनांड डी सौसुरे का संरचनावाद’ (Theory of Structure/ Structuralism) को समझना चाहिएकिसी को भी यदि ‘क्रिटिकल थिंकिंग’ को अपेक्षित ढंग से और वैज्ञानिक तरीके से विकसित करना है, तो उसे  यह सब समझना ही होगा| तब वह व्यक्ति Critical Thinking”  में पारंगत हो जायगा| तब वह किसी भी क्षेत्र में उचाईयों को छुएगा|

चार्ल्स डार्विन का विकासवाद’ (Theory of Evolution) समझाता है कि ब्रह्मांड में सब कुछ सरलतम (Simpler) स्तर से या स्वरुप से जटिलतर (Complexer) अवस्था में विकसित हुआ है और इसलिए किसी भी कृतत्व (Creation) में दैवीय शक्ति (Divine Power) का योगदान नहीं है। इस तरह इनके द्वारा पर्याप्त साक्ष्य के साथ ईश्वर (God) और ईश्वरीय व्यवस्था के अस्तित्व का खंडन हुआ, जो आलोचनात्मक चिंतन में एक क्रांतिकारी कदम है। अब विकासवादी सिद्धांत कई क्षेत्रों में व्यापक स्वरूप में प्रयुक्त होता है, जो कई परम्परागत अवैज्ञानिक अवधारणाओं को ध्वस्त करता है।

कार्ल मार्क्स के आर्थिकवाद (Theory of Economic Forces)’ के अनुसार सामाजिक स्थायी  बदलाव यानि सामाजिक रुपांतरण (Social Transformation) का आधार आर्थिक्वाद है| इसीलिए इतिहास की वैज्ञानिक और समुचित व्याख्या आर्थिक शक्तियों के साधन और उनके अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर ही, यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग  के साधनों और शक्तियों के आधार पर ही किया जाना समुचित और वैज्ञानिक है। यह वैज्ञानिक व्याख्या की क्रियाविधि (Methodology) कई बनावटी मिथकों को इतिहास से बाहर कर देता है।

सिगमण्ड फ्रायड का आत्मवाद’ (Theory of Self) बताता है कि किसी भी आदमी की मनोदशा यानि उसकी भावना, विचार एवं व्यवहार उसके आत्म (Self, आत्मा नहीं) के इड (Id), इगो (Ego) और सुपर इगो (Super Ego) के मध्य एक समुचित संतुलन से निर्धारित होता है।  'इड' किसी की पाशविक अभिवृत्तियों को अभिव्यक्त करता है, और 'सुपर इगो' समाज के उच्चतर आदर्श, मूल्य एवं प्रतिमान को अभिव्यक्त करता है। और आदमी इन इड एवं सुपर इगो के बीच अपनी सांस्कृतिक जड़ता, पृष्ठभूमि, अनुभव, ज्ञान, परिस्थिति, दबाव, व्यवस्था आदि के अनुसार अपने को संतुलित करता है और तदनुसार व्यवहार करता है। आलोचनात्मक चिंतन में भी इसकी भूमिका ध्यान देने योग्य है|

अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद’ (Theory of Relativity)  के अनुसार ब्रह्मांड में सब कुछ की स्थिति किसी विशेष के सापेक्ष (Relative) ही निर्धारित की जा सकती है। इसके अनुसार किसी भी चीज की अवस्था (Stage), गति (Motion), समय (Time), उर्जा, पदार्थ, आकाश (Space), बल (Force) आदि किसी के सापेक्ष ही निश्चित और निर्धारित किया जा सकता है। अर्थात किसी भी वस्तु या विषय या विचार का अर्थ उसके संदर्भ (Reference), पृष्ठभूमि (Background), समय, प्रस्थिति (Status), क्षेत्र (Region) आदि की सापेक्षता के अनुसार बदलता है। यह बहुत कुछ नवाचारी (Innovative) दृष्टिकोण देता है।

फर्डिनांड डी सौसुरे का संरचनावाद’ (Theory of Structure/ Structuralism) यह समझाता है कि शब्दों, वाक्यों, प्रसंगों का सिर्फ  वही अर्थ नही होते हैं, जो साधारण रूप में दिखाई देता है, बल्कि उनके वास्तविक अर्थ उसकी संरचना (Structure) में निहित होता है। अर्थात किसी भी शब्द, वाक्य, प्रसंग के सतही (Superficial) अर्थ भी होता है और निहित (Implied) अर्थ भी होता है, जिसे समझ कर ही आप सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकते हैं। 

वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) में किसी भी विषय या प्रसंग को तार्किकता (Logicality) और विवेकशीलता (Rationality) के आधार पर देखा और समझा जाता है| तार्किकता का अर्थ होता है किसी भी परिणाम को किसी समुचित कारण का परिणाम मानना, अर्थात हर घटना यानि हर उत्पाद का कोई सुनिश्चित कारण होना ही चाहिए| तार्किकता को ही कार्य –कारण (Cause & Effect/ Causation) सम्बन्ध भी कहते हैं| विवेकशीलता का अर्थ किसी भी विषय या प्रसंग को समाज, मानवता एवं प्रकृति, यानि भविष्य के सन्दर्भ में समझना ही होता है| इसी तार्किकता एवं विवेकशीलता से वस्तुनिष्ठता (Objectivity) आती है, और इसी से कोई विषय या प्रसंग तथ्यपरक (Factual) भी हो जाता है| अर्थात आलोचनात्मक चिंतन के लिए इस वैज्ञानिक मानसिकता की अनिवार्यता होती है| इसे “वैज्ञानिकवाद” (Scientism) भी कहते हैं, जिसका तात्पर्य किसी भी विषय या प्रसंग को वैज्ञानिक नजरिए से देखना समझना होता है|

‘दायरे से बाहर चिंतन’ (Out-of-Box Thinking) को  ही “पैरेड़ाईम शिफ्ट” (Paradigm Shift) भी कहा जाता है| इससे ही ‘नवाचार’ (Innovation) आता है, ‘आविष्कार’ (Invention) होता है, ‘खोज’ (Discovery) किया जाता है, और नए तरीके से आगे छलांग लगाया जाता है| स्पष्ट है कि वैज्ञानिक चिंतन से आलोचनात्मक चिंतन आता है, और आलोचनात्मक चिंतन से ही विचारों में. प्रक्रियाओं (Processess) में, क्रियाविधियों (Mechanism) में ‘पैरेड़ाईम शिफ्ट’ होता है|

अत: जीवन के किसी भी क्षेत्र में, किसी भी समय में, किसी भी परिस्थिति में आगे बढ़ने के लिए ‘वैज्ञानिक मानसिकता’, ‘आलोचनात्मक चिंतन’ एवं ‘दायरे से बाहर चिंतन’ को समुचित ढंग जानना एवं समझना जरुरी है|

आचार्य निरंजन सिन्हा 

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