(Forces of Market and We)
बाजार ही इतिहास
बदलता रहता है और हम लगभग महज़ एक तमाशबीन बने रह जाते हैं, यदि कोई 'तितली प्रभाव' (Butterly Effect) पैदा करने वाला व्यक्ति वर्तमान में हस्तक्षेप नहीं करता है। वैसे 'तितली प्रभाव' पैदा करने वाला व्यक्ति भी बाजार का
ही उत्पाद हो सकता है, इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं।
बाजार एक संस्था है, और इसीलिए यह अपने क्रियाविधि और प्रभाव
में किसी भी समय या पारिस्थितिकी में किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की अपेक्षा
ज्यादा कारगर हस्तक्षेप करता है।
बाजार की शक्तियां हमारी बदलतीं
प्राथमिकताओं,
बाध्यताओं, आवश्यकताओं और अवस्थाओं के अनुरूप
हमारे सामने अपने उत्पाद को प्रस्तुत करता है। इसे अब्राहम मैसलो ने बहुत अच्छी तरह से "आवश्यकता के पदानुक्रम" (Hierarchy of Needs) में स्थापित किया है। इन्हीं अवस्थाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बाजार हमसे
खेलती है, जिसमें हमारी इच्छाओं, आवश्यकताओं,
आकांक्षाओं के मनोविज्ञान का बहुत बारीक उपयोग करता है।
बाजार की शक्तियां
ही समकालीन या समकालिक शक्तियां कहलाती है, जो बीते हुए काल में,
यानि इतिहास के काल में ऐतिहासिक शक्तियां कहलाती है। इस तरह बाजार
की शक्तियां ही वर्तमान काल की शक्तियां हुई और यही शक्तियां इतिहास की व्याख्या
में 'ऐतिहासिक शक्तियां' कहलाती है। बाजार एक क्षेत्र
होता है, जहां वस्तुओं, सेवाओं,
सम्पदाओं (Estates), व्यक्तित्वों, घटनाओं (Events), स्थानों, ज्ञान,
तकनीक, मनोरंजन, विचारों,
नीतियों आदि का ख़रीद बिक्री होता है। यह क्षेत्र स्थानीय भी हो सकता है और वैश्विक स्तर का भी हो सकता है। यह
स्थान वास्तविक भी हो सकता है और डिजिटल भी हो सकता है।
बाजार एक आर्थिक
अवधारणा है, और इसलिए यह आर्थिक शक्तियों का समुच्चय (Set) होता
है। यदि अर्थव्यवस्था मांग और पूर्ति की व्यवस्था करतीं हैं, तो बाजार मांग और पूर्ति से संचालित,
नियमित, नियंत्रित, प्रभावित
और सम्वर्धित होता है। यदि अर्थव्यवस्था
उत्पादन, वितरण, विनिमय, एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों की
व्यवस्था करता है, तो बाजार
इन साधनों और शक्तियों का संचालन, नियमन, नियंत्रण, सम्वर्धन आदि करता है। बाजार का प्रभाव
सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक भी होता है।
बाजार ही धन को
पूंजी बनाता है अर्थात
बाजार ही धन और पूंजी की एवं धन और पूंजी के लिए समुचित व्यवस्था करता है। जब कोई धन (Wealth) उत्पादक हो जाता है, तब वह पूंजी (Capital) बन जाता है। जब कोई व्यवस्था पूंजी के हित के संरक्षण,
नियंत्रण, नियमन और सम्वर्धन के लिए कार्य
करती है, जो उस व्यवस्था को 'पूंजीवाद'
(Capitalism) कहते हैं। इसी पूंजीवाद के क्रिया और प्रतिक्रिया
स्वरूप और इसी के लिए कई और व्युत्पन्न (derivatives) 'वाद'
(ism), जैसे उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद,
समाजवाद, साम्यवाद, व्यक्तिवाद,
नारीवाद आदि उत्पन्न हुआ।
बाजार को हम जीवित जीवन समझ सकते हैं, और इसीलिए बाजार की आवश्यकताएं और अनिवार्यताएं यानि
बाध्यताएं समय के साथ बदलती रहती है। इसीलिए यदि आज़ बाजार की शक्तियां जिसे अपना मित्र बनातीं
है, कल उसे दुश्मन भी बना लेती
है। किसी बाजार के साधनों और शक्तियों को आज जिस व्यवस्था के सहारे एवं समर्थन की
आवश्यकता होती है, वही बाजार कल उस व्यवस्था को नष्ट भी कर
देता है। बाजार की इस अनिवार्यता यानि
बाध्यता को अक्सर या सामान्यतः बाजार के नियामक समझे जाने वाले नेतृत्व भी नहीं
समझ पाते हैं। बाजार की शक्तियां इतनी प्रभावशाली और शक्तिशाली होती है कि बड़े
बड़े सम्राट, शासनाध्यक्ष या तथाकथित इतिहास-पुरुष भी इसके
प्रभाव में बड़े आसानी से एवं बड़े साधारण तरीके से अल्प काल में ध्वस्त कर दिए
जातें हैं और इतिहास में 'दुष्ट' या 'निकम्मा' के रूप में दर्ज कर दिए जाते हैं।
यदि हम बाजार की शक्तियों को उत्पादन, वितरण, विनिमय,
एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों के आधार पर उदाहरण के साथ समझें, तो हमें सब कुछ ठीक तरीके
से स्पष्ट हो जाएगा। इन शक्तियों का उद्गम स्रोत नए साधनों का आविष्कार या नए
क्रियाविधि का आगमन होता है। नए साधनों का आविष्कार या नए क्रियाविधि का आगमन का
सिद्धांत या पद्धति एक अलग विषय है। यही नए आविष्कृत साधन या क्रियाविधि ही बाजार
की शक्तियों एवं संस्थाओं की गुणवत्ता और मात्रा को बदल देते हैं। पहले इन सामान्य
साधनों, संस्थाओं और शक्तियों के सामान्य उदाहरण देखें और
समझें। फिर इसे वर्तमान भारत के बदलते संदर्भ में समझें। भारत को "विश्व
नायक" (Global Leader) बाजार की शक्तियां ही बनाएगी,
लेकिन हमें सजगता से इसका अवलोकन करना चाहिए।
भारत बहुत जल्द विश्व नायक बनेगा, आप आशान्वित रहिए।
लेकिन यह हमें किसी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक नेतृत्व के बुद्धिमत्ता और
योग्यता के कारण नहीं मिलने जा रहा है, अपितु यह अवस्था
बाजार की मजबूत शक्तियों एवं संस्थाओं के कारण मिलने
वाली है। बाजार की वैश्विक शक्तियां बड़ी सक्रियता से कार्य कर रही है। बाजार की
शक्तियों को कोई मोड़ नहीं सकता, कोई रोक नहीं सकता, गति को भले ही धीमी और तेज़ करने का दावा कर
सकता है। बाजार की ये
शक्तियां आज जिस व्यवस्था के सहारे और समर्थन से आगे बढ़ रही है, कल उसी व्यक्ति को और उसी व्यवस्था को
इतिहास से मिटा भी दे सकती है। इन सबके वैश्विक ऐतिहासिक उदाहरण भरे पड़े है, सिर्फ
उसे समझने देखने के लिए धैर्य चाहिए।
जब हम मानव इतिहास को देखते हैं, तो होमो सेपियंस
के उद्भव से लेकर अब तक कई सारी अवस्थाओं, यानि सभी रुपांतरण
की व्याख्या बाजार की शक्तियों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय, एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों के बदलने
से हुआ। जब मानव को धातु (Metal) एवं धातु मिश्र (Alloys)
मिला, तो वह पहाड़ों से मैदान में उतर गया।
उत्पादन (अतिरिक्त उत्पादन) और वितरण व्यवस्था मजबूत हुई, तो
नगर, राज्य, लिपि, बाजार आदि का उदय हुआ। जब विनिमय के साधन मुद्रा का प्राधिकृत संरक्षण
समाप्त हुआ, तो मुद्रा प्रभावहीन हो गया, बाजार भी गिर गया और नगरों का पतन हो गया। जब धन उत्पादक हो गया, तो पूंजीवाद अपने विभिन्न स्वरूपों में प्रभावी हो गया। जब औद्योगिक
साम्राज्यवाद वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया, तो द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद कई देशों को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई।
अब हमें वर्तमान स्थिति में भी भारत का आकलन करना
चाहिए। हमलोग यहां 'अम्बानी अदानी' का
मनोविज्ञान समझेंगे, यानि 'अम्बानी अदानी'
की क्रियाविधि (Mechanism) का प्रणाली
समझेंगे। यहां ये एक व्यक्ति रुप में भी है और संस्था
स्वरुप में भी है। "अम्बानी अदानी" को आप व्यक्ति रुप में व्यक्तिवाचक
संज्ञा (Proper Noun) भी समझ सकते हैं, और जातिवाचक संज्ञा (Common Noun) भी कह सकते हैं।
इसके अलावा हमें इन्हें एक संस्थागत स्वरुप में भी समझना चाहिए। तो अब 'अम्बानी अदानी' के तीन स्वरुप या तीन अवस्थाओं का
अवलोकन एवं विश्लेषण करेंगे।
हमें अम्बानी अदानी के व्यक्तिवाचक संज्ञा में नहीं
पड़ना चाहिए, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम
महिला एलिनोर रूज़वेल्ट कहती हैं कि सामान्य
साधारण लोग 'व्यक्ति विशेष'
के वर्णन विश्लेषण में उलझे रहते हैं। मैं आपको भी इस सामान्य एवं साधारण स्तर से बहुत ऊपर मानता हूं, इसलिए मैं किसी व्यक्ति विशेष के मंथन, विवरण,
विश्लेषण और आलोचना में आपको सहभागी नहीं बनाऊंगा। मैं आपको 'अम्बानी अदानी' के जातिवाचक संज्ञा यानि इनके समूहों
के भी विश्लेषण में नहीं उलझाऊंगा, क्योंकि यह भी वही है,
समूह के रूप में।
तो चलिए,
मैं आपको 'अम्बानी अदानी' को संस्थागत अवधारणा मानकर मंथन समझाऊंगा और इसके विश्लेषण एवं आलोचना में आपको भी शामिल करता
हूं। इसे संस्थागत अवधारणा में समझने के लिए हमें ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की
शक्तियों के रूप, क्रियाविधि और प्रभाव के रुप में समझना
होगा। हमने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि बाजार की शक्तियां और इतिहास की शक्तियां
एक ही है। इसे संस्थागत रूप में लेने से इसके चरित्र, स्वभाव,
अवस्था, क्रियाविधि, एवं
मौलिकता में समान बाजार की सभी शक्तियां और साधन शामिल हो जाते हैं।
हम इतिहास में जब इन संस्थाओं का चरित्र, स्वरुप, स्वभाव, क्रियाविधि और मौलिकता को देखते और समझते
हैं, तो इसी आधार पर इसके भविष्य का भी पूर्वानुमान कर
सकेंगे। जब कोई व्यक्ति या
संस्था बाजार में उतर कर स्थापित और विस्तारित होना चाहता है, तो उसे पूंजी भी चाहिए, जमीन और तकनीक भी चाहिए, और सुनिश्चित बाजार पर
एकाधिकार चाहिए और इसके लिए उसे राजकीय संरक्षण एवं समर्थन भी चाहिए। इस राजकीय संरक्षण, सहयोग और समर्थन पाने के लिए ही
बाजार की शक्तियां संबंधित सत्ता और प्राधिकरण को समर्थन देता है। और इस अवस्था
में वह तब राज्य की नीतियों का मूल्यांकन नहीं करता और कोई हस्तक्षेप भी नहीं
करता। यह 'अम्बानी अदानी' की बाजारगत
संस्था का शैशवास्था होता है, और एक शिशु की तरह ही पैतृक
संरक्षण चाहता है।
लेकिन इस "अम्बानी अदानी" को संस्था के
प्रौढ़ावस्था में, यानि परिपक्वता की अवस्था में उनकी
प्राथमिकताएं, आवश्यकताएं और बाध्यताएं बदल जाती है। तब बाजार की ऐसी संस्थाओं को ऐसी व्यवस्था और अधिसंरचना चाहिए, जो उसके उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ा दे, लोगों की
क्रय शक्ति और क्षमता को बढ़ा दे, वितरण और विनिमय प्रणाली
और पद्धति को सरल, सहज और साधारण बना दे एवं तीव्र और दक्ष
बना दे, तथा बाजार के उपभोग के स्तर में गुणात्मक, गुणवत्तापूर्ण और मात्रात्मक वृद्धि चाहता है। यानि बाजार को व्यापक बना दे और इसके लाभ को बढ़ता हुआ आधार दे। तब
संस्थागत बाजार की शक्तियां उपरोक्त अवस्था को पाने के लिए काम करने लगती है और
इसमें आनी वाली बाधाओं को दूर करने लगतीं हैं। यहां पर परम्परागत व्यवस्था से
विरोध हो जाता है।
संक्षेप में, बाजार की शक्तियां और संस्थाएं जातिवाद, पंथवाद, धर्मवाद एवं
नस्लवाद को मिटाता हुआ व्यक्तिवाद (समूह के विरुद्ध), महिला
को समता (Equality) और समानता (Equity) दिलाता नारीवाद (लैंगिक विभेद का विरोध), तथा
गुणवत्तापूर्ण उत्पादन एवं खपत के शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता के साथ
स्थापित करने के लिए व्यवस्था को बाध्य कर देता है। इस तरह बाजार सामान्य जनता को गुणवत्तापूर्ण जीवन उपलब्ध कराने के लिए व्यवस्था
को प्रेरित होता है। आज़ बाजार की उभरती शक्तियां और संस्थाएं अपने शैशवास्था के
कारण शिक्षा और स्वास्थ्य को बाजार का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन कल इसे ही सर्वसुलभ कराना उसकी बाध्यता होगी।
आप भविष्य के प्रति
आशान्वित रहिए, लेकिन नेताओं के भरोसे नहीं, बल्कि बाजार की संस्थाओं और शक्तियों के भरोसे। ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी नहीं है, सभी कुछ परिवर्तनशील है, आपका भी कष्ट बदलने वाला है। भले ही
आज यथास्थितिवादी शक्तियां और संस्थाएं जितना भी जोर लगा लें। इस पर मनन कीजिए और खुश होइए।
आचार्य
निरंजन सिन्हा।
इतिहास और उसे संचालित, नियमित तथा निर्देशित करने वाली आधारभूत भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक शक्तियों और प्रक्रियाओं को सहजता के साथ स्पष्ट करते हुए एक अत्यंत ही तर्कपूर्ण एवं सकारात्मक आलेख।
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