सोमवार, 31 जुलाई 2023

नेताओं द्वारा समस्याओं की मार्केटिंग

 (Marketing of Problems by Leaders)

पहले हमें समस्या को और मार्केटिंग को समझना चाहिए, और उसके बाद इसका उपयोग राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नेताओं द्वारा कैसे किया जाता है, उसे देखना चाहिए। समस्या और उसका प्रबंधन या उसका समाधान एक दूसरे में गुंथे हुए हैं, क्योंकि समाधान किसी समस्या का ही किया जाता है।  जब कोई संकट या व्यवधान टलने या टालने या समाधान योग्य नहीं होता है, समस्या कहलाता है और जब किसी समस्या का समाधान मिल जाता है, तो वह समस्या फिर समस्या या संकट या व्यवधान नहीं रह पाता। अर्थात जब तक कोई समाधान नहीं है, तब तक ही वह समस्या है।

मार्केटिंग एक अवधारणा है, जिसमें कोई अपनी किसी भी चीज़ को, वह विचार, आदर्श, नीति आदि भी हो सकता है, लोगों के बीच इस तरह प्रस्तुत करता है, कि वह चीज़ उन लोगो को मूल्यवान (Valuable) लगे। मैंने मूल्यवान शब्द का प्रयोग किया है, महंगा (Costly) शब्द का उपयोग नहीं किया है। मूल्यवान उसके उपयोगिता के आधार पर निर्धारित होता है, जबकि महंगा उसके कीमत से निर्धारित होता है। अर्थात हमें मूल्य (Value) और क़ीमत (Price) में अन्तर समझना जरूरी है।

कुछ नेता, या यूं कहें कि अधिकतर नेता सिर्फ समस्याओं की ही मार्केटिंग करते रहते हैं। अर्थात ये नेता लोगों की समस्याओं को लोगों के बीच इस तरह ले जाते हैं, कि ये नेता इन समस्याओं के समाधान में मूल्यवान लगे, यानि महत्वपूर्ण लगे, यानि यही समाधान कर्ता लगें। इसके बाद ऐसे अधिकतर नेताओं का काम यह होता है कि वे दूसरे कथानकों (Narratives) के आधार पर दूसरे भावनात्मक समस्याओं की रुपरेखा प्रस्तुत कर देते हैं। ये समस्या काल्पनिक भी हो सकतें हैं, या तुच्छ भी हो सकतें हैं, लेकिन इसे भयावह और वास्तविक बताते समझाते हुए प्रस्तुत किया जाता है। यह सब नेताओं की कुशलता और लोगों की शैक्षणिक योग्यता की कमी पर निर्भर करता है। नेताओं की कुशलता उनके प्रचार तंत्र और उनके प्रस्तुति पर निर्भर करता है, जिसमें मानवीय मनोविज्ञान का काफी महत्व रहता है। वैसे भारत में साक्षर (Literate) को ही शिक्षित (Educated) समझा जाता है, यानि एक साक्षर अपने को शिक्षित समझ लेते हैं। साक्षर पढ़ना, लिखना और उसे समझना जानता है, जबकि एक शिक्षित में "आलोचनात्मक विश्लेषण और चिंतन" (Critical Analysis n Thinking) अनिवार्य शर्त होता है।

यह तो नेताओं का एक वैश्विक नजरिया हुआ, अर्थात यह सभी पिछड़े हुए देशों के लिए सही है। लेकिन अविकसित देशों की बात करें तो, इन देशों में लगभग सभी नेता सिर्फ समस्याओं की ही मार्केटिंग करते रहते हैं। इन नेताओं को या तो समाधान नहीं सूझता, या समाधान के बारे में वैसा स्तर ही नहीं है, या समस्या को ही बरकरार रखना चाहते हैं, ताकि उनकी पूछ लोगों में बनीं रहे। इन्हें सामान्यतः समाधान से मतलब ही नहीं होता। ये सिर्फ समुदाय की सहानुभूति उपजाति, जाति, वर्ण, प्रजाति, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, परम्परा आदि के नाम अपने पक्ष में करके उन लोगो कि समर्थन प्राप्त करते हैं, और इनमें समस्याओं की मार्केटिंग की अहम् भूमिका हो जाती है। जब इन नेताओं को लोगों का समर्थन मिल जाता है, या दिखने लगता है, तो इनका स्थान लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रतिनिधि मण्डल में सुनिश्चित हो सकता है, या किसी सांविधानिक पद के दावेदार हो जातें हैं। सत्ता मिल जाना तो बोनस हो जाता है।  मैं राजनीतिक दलों की बात नहीं कर रहा हूं, मैं यहां नेताओं की बात कर रहा हूं।

ध्यान रहे कि ये नेता सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में ही कार्यरत नहीं है, बल्कि ये नेता सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक, पर्यावरणीय आदि कुछ भी हो सकता है। लेकिन इन नेताओं का लक्ष्य लोकतांत्रिक प्रतिनिधि मण्डल में पहुंचना ही सुनिश्चित करना होता है। इसी कारण ये नेतागण सिर्फ समस्याओं के मार्केटिंग तक ही सीमित रहते हैं, वास्तविक एवं अंतिम समाधान की ओर नहीं बढ़ते। ये सिर्फ अपने तथाकथित लोगों से स्तरीय भिन्नता (Status Difference) चाहते हैं, यानि स्तर के उपरी पायदान पर पहुंचना चाहते हैं। इनके आगे निकल जाने का संदर्भ विंदु (Reference Point) वैश्विक (Global) नहीं होता है, सिर्फ अपने लोग ही होते हैं, या क्षेत्रीय ही होते हैं।

मैंने जो बातें उपर कही है, वे सामान्यतः अविकसित देशों के ही संदर्भ में कही है। मेरे अनुसार विश्व में अविकसित और विकसित देश का दो ही स्तर है। इन दोनों के बीच संक्रमण (Transition) अवस्था के देश यानि तथाकथित विकासशील देश का वर्गीकरण सिर्फ अविकसित होने के ठप्पे के झेंप मिटाने के लिए कर लिया गया है। दरअसल सभी तथाकथित विकासशील देश अविकसित देश ही होते हैं। लेकिन इन्हें वैश्विक बाजार में, जहां उपभोग करने की क्षमता महत्वपूर्ण होता है, इनके खाने पचाने की क्षमता यानि उपभोग की मूल्य या क़ीमत की मात्रा के कारण इनको लुभाने के लिए एक सम्मानजनक शब्दावली बना दिया है। भारत भी इसी अविकसित देशों की श्रेणी में शामिल हैं।

भारत की वर्तमान अवस्था को अद्वितीय बताने के लिए कभी पाकिस्तान जैसे सामरिक दृष्टि से कमतर देश से तुलना कर दी जाती है, तो कभी अर्थव्यवस्था के स्तर पर भारतीय आबादी के पांच प्रतिशत से भी कम आबादी के देश जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली से तुलना (जैसे एक हाथी की तुलना बकरे से करना) कर दी जाएगी। इसकी तुलना कभी भी चीन से नहीं की जाती हैजो भारत के दो साल बाद स्वतंत्रता पायी और 1985 तक ऐतिहासिक रूप से पिछड़ा हुआ रहा। लेकिन चीन के नेतृत्व ने समस्याओं की मार्केटिंग नहीं किया और सांस्कृतिक क्रांति कर चीन को बदल डाला। आज चीन भारत से अर्थव्यवस्था में सात गुना बड़ा है। भारत की जितनी की अर्थव्यवस्था है, चीन ने उससे ज्यादा की राशि को अविकसित देशों को सहयोग में देकर उनका स्थायी सद्भावना अपने पक्ष में कर लिया है। उसकी सामरिक क्षमता के कारण आज कोई भी वैश्विक शक्ति या गठजोड़ उससे टकराना नहीं चाहता।

यह तो बात हुई राज्य की। लेकिन समाज के तीन प्रक्षेत्र और है। समाज के कुल चार प्रक्षेत्र (Sectors) है - राज्य (State), बाजार (Market), नागरिक समाज (Civil Society) और परिवार (Family) तो हमें चारों स्तर पर "समस्याओं के मार्केटिंग" पर विचार करना चाहिए। राज्य के संदर्भ में उपर विस्तार से चर्चा हो चुकी है। बाजार की शक्तियों पर इन नेताओं का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं होता है। अलबत्ता ये नेतागण बाजार की शक्तियों के प्रभाव में हो रहे सुधार यानि प्रगति को अपने आन्दोलनों की उपलब्धियां बताते रहते हैं, चाहें इसमें उनका कोई लेना-देना नहीं है। वे बेकार या घटिया अवधारणा पर उझलकूद कर समाधान के लिए प्रयासरत दिखते हैं, लेकिन उनमें कोई अन्तरनिहित (Implied) या संरचनात्मक (Structural) समझ नहीं होती है। इसीलिए इन अविकसित देशों की स्थिति में अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते हैंहालांकि बाजार की शक्तियों की उपलब्धियों को अपनी उपलब्धियां दिखाने, या बताने, या समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

इन नेताओं का ये संगठन "नागरिक समाज" (Civil Society) के रूप में ही होता है, और इसलिए इस पर अलग से विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है। इस आलेख का तो यही मुख्य विंदु है ही। "परिवार" (Family) एक सामाजिक ईकाई के रूप में इन मार्केटिंग रणनीति का आधारभूत संरचना तैयार करता है। चूंकि सभी नेतागण इसी ईकाई - परिवार के ही सदस्य होते हैं, और इसीलिए उन्हें इसका अलग से अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती है।

अब आप समस्याओं की मार्केटिंग का उद्देश्य, स्वरुप और संरचना को समझ गए होंगे। इससे आपको अपने बीच के नेताओं को समझने में मदद मिल सकती है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

1 टिप्पणी:

संदर्भ कोरोना वैक्सीन : क्या आबादी नियंत्रण का प्रोजेक्ट?

पृथ्वी की इस बढती आबादी का कोरोना और उसके वैक्सीन से क्या संबंध है? इस बढती आबादी का अंतिम परिणाम क्या हो सकता है? क्या यह आबादी घट सकती है,...