सोमवार, 31 जुलाई 2023

नेताओं द्वारा समस्याओं की मार्केटिंग

 (Marketing of Problems by Leaders)

पहले हमें समस्या को और मार्केटिंग को समझना चाहिए, और उसके बाद इसका उपयोग राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नेताओं द्वारा कैसे किया जाता है, उसे देखना चाहिए। समस्या और उसका प्रबंधन या उसका समाधान एक दूसरे में गुंथे हुए हैं, क्योंकि समाधान किसी समस्या का ही किया जाता है।  जब कोई संकट या व्यवधान टलने या टालने या समाधान योग्य नहीं होता है, समस्या कहलाता है और जब किसी समस्या का समाधान मिल जाता है, तो वह समस्या फिर समस्या या संकट या व्यवधान नहीं रह पाता। अर्थात जब तक कोई समाधान नहीं है, तब तक ही वह समस्या है।

मार्केटिंग एक अवधारणा है, जिसमें कोई अपनी किसी भी चीज़ को, वह विचार, आदर्श, नीति आदि भी हो सकता है, लोगों के बीच इस तरह प्रस्तुत करता है, कि वह चीज़ उन लोगो को मूल्यवान (Valuable) लगे। मैंने मूल्यवान शब्द का प्रयोग किया है, महंगा (Costly) शब्द का उपयोग नहीं किया है। मूल्यवान उसके उपयोगिता के आधार पर निर्धारित होता है, जबकि महंगा उसके कीमत से निर्धारित होता है। अर्थात हमें मूल्य (Value) और क़ीमत (Price) में अन्तर समझना जरूरी है।

कुछ नेता, या यूं कहें कि अधिकतर नेता सिर्फ समस्याओं की ही मार्केटिंग करते रहते हैं। अर्थात ये नेता लोगों की समस्याओं को लोगों के बीच इस तरह ले जाते हैं, कि ये नेता इन समस्याओं के समाधान में मूल्यवान लगे, यानि महत्वपूर्ण लगे, यानि यही समाधान कर्ता लगें। इसके बाद ऐसे अधिकतर नेताओं का काम यह होता है कि वे दूसरे कथानकों (Narratives) के आधार पर दूसरे भावनात्मक समस्याओं की रुपरेखा प्रस्तुत कर देते हैं। ये समस्या काल्पनिक भी हो सकतें हैं, या तुच्छ भी हो सकतें हैं, लेकिन इसे भयावह और वास्तविक बताते समझाते हुए प्रस्तुत किया जाता है। यह सब नेताओं की कुशलता और लोगों की शैक्षणिक योग्यता की कमी पर निर्भर करता है। नेताओं की कुशलता उनके प्रचार तंत्र और उनके प्रस्तुति पर निर्भर करता है, जिसमें मानवीय मनोविज्ञान का काफी महत्व रहता है। वैसे भारत में साक्षर (Literate) को ही शिक्षित (Educated) समझा जाता है, यानि एक साक्षर अपने को शिक्षित समझ लेते हैं। साक्षर पढ़ना, लिखना और उसे समझना जानता है, जबकि एक शिक्षित में "आलोचनात्मक विश्लेषण और चिंतन" (Critical Analysis n Thinking) अनिवार्य शर्त होता है।

यह तो नेताओं का एक वैश्विक नजरिया हुआ, अर्थात यह सभी पिछड़े हुए देशों के लिए सही है। लेकिन अविकसित देशों की बात करें तो, इन देशों में लगभग सभी नेता सिर्फ समस्याओं की ही मार्केटिंग करते रहते हैं। इन नेताओं को या तो समाधान नहीं सूझता, या समाधान के बारे में वैसा स्तर ही नहीं है, या समस्या को ही बरकरार रखना चाहते हैं, ताकि उनकी पूछ लोगों में बनीं रहे। इन्हें सामान्यतः समाधान से मतलब ही नहीं होता। ये सिर्फ समुदाय की सहानुभूति उपजाति, जाति, वर्ण, प्रजाति, पंथ, धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, परम्परा आदि के नाम अपने पक्ष में करके उन लोगो कि समर्थन प्राप्त करते हैं, और इनमें समस्याओं की मार्केटिंग की अहम् भूमिका हो जाती है। जब इन नेताओं को लोगों का समर्थन मिल जाता है, या दिखने लगता है, तो इनका स्थान लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रतिनिधि मण्डल में सुनिश्चित हो सकता है, या किसी सांविधानिक पद के दावेदार हो जातें हैं। सत्ता मिल जाना तो बोनस हो जाता है।  मैं राजनीतिक दलों की बात नहीं कर रहा हूं, मैं यहां नेताओं की बात कर रहा हूं।

ध्यान रहे कि ये नेता सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में ही कार्यरत नहीं है, बल्कि ये नेता सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक, पर्यावरणीय आदि कुछ भी हो सकता है। लेकिन इन नेताओं का लक्ष्य लोकतांत्रिक प्रतिनिधि मण्डल में पहुंचना ही सुनिश्चित करना होता है। इसी कारण ये नेतागण सिर्फ समस्याओं के मार्केटिंग तक ही सीमित रहते हैं, वास्तविक एवं अंतिम समाधान की ओर नहीं बढ़ते। ये सिर्फ अपने तथाकथित लोगों से स्तरीय भिन्नता (Status Difference) चाहते हैं, यानि स्तर के उपरी पायदान पर पहुंचना चाहते हैं। इनके आगे निकल जाने का संदर्भ विंदु (Reference Point) वैश्विक (Global) नहीं होता है, सिर्फ अपने लोग ही होते हैं, या क्षेत्रीय ही होते हैं।

मैंने जो बातें उपर कही है, वे सामान्यतः अविकसित देशों के ही संदर्भ में कही है। मेरे अनुसार विश्व में अविकसित और विकसित देश का दो ही स्तर है। इन दोनों के बीच संक्रमण (Transition) अवस्था के देश यानि तथाकथित विकासशील देश का वर्गीकरण सिर्फ अविकसित होने के ठप्पे के झेंप मिटाने के लिए कर लिया गया है। दरअसल सभी तथाकथित विकासशील देश अविकसित देश ही होते हैं। लेकिन इन्हें वैश्विक बाजार में, जहां उपभोग करने की क्षमता महत्वपूर्ण होता है, इनके खाने पचाने की क्षमता यानि उपभोग की मूल्य या क़ीमत की मात्रा के कारण इनको लुभाने के लिए एक सम्मानजनक शब्दावली बना दिया है। भारत भी इसी अविकसित देशों की श्रेणी में शामिल हैं।

भारत की वर्तमान अवस्था को अद्वितीय बताने के लिए कभी पाकिस्तान जैसे सामरिक दृष्टि से कमतर देश से तुलना कर दी जाती है, तो कभी अर्थव्यवस्था के स्तर पर भारतीय आबादी के पांच प्रतिशत से भी कम आबादी के देश जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली से तुलना (जैसे एक हाथी की तुलना बकरे से करना) कर दी जाएगी। इसकी तुलना कभी भी चीन से नहीं की जाती हैजो भारत के दो साल बाद स्वतंत्रता पायी और 1985 तक ऐतिहासिक रूप से पिछड़ा हुआ रहा। लेकिन चीन के नेतृत्व ने समस्याओं की मार्केटिंग नहीं किया और सांस्कृतिक क्रांति कर चीन को बदल डाला। आज चीन भारत से अर्थव्यवस्था में सात गुना बड़ा है। भारत की जितनी की अर्थव्यवस्था है, चीन ने उससे ज्यादा की राशि को अविकसित देशों को सहयोग में देकर उनका स्थायी सद्भावना अपने पक्ष में कर लिया है। उसकी सामरिक क्षमता के कारण आज कोई भी वैश्विक शक्ति या गठजोड़ उससे टकराना नहीं चाहता।

यह तो बात हुई राज्य की। लेकिन समाज के तीन प्रक्षेत्र और है। समाज के कुल चार प्रक्षेत्र (Sectors) है - राज्य (State), बाजार (Market), नागरिक समाज (Civil Society) और परिवार (Family) तो हमें चारों स्तर पर "समस्याओं के मार्केटिंग" पर विचार करना चाहिए। राज्य के संदर्भ में उपर विस्तार से चर्चा हो चुकी है। बाजार की शक्तियों पर इन नेताओं का कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं होता है। अलबत्ता ये नेतागण बाजार की शक्तियों के प्रभाव में हो रहे सुधार यानि प्रगति को अपने आन्दोलनों की उपलब्धियां बताते रहते हैं, चाहें इसमें उनका कोई लेना-देना नहीं है। वे बेकार या घटिया अवधारणा पर उझलकूद कर समाधान के लिए प्रयासरत दिखते हैं, लेकिन उनमें कोई अन्तरनिहित (Implied) या संरचनात्मक (Structural) समझ नहीं होती है। इसीलिए इन अविकसित देशों की स्थिति में अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते हैंहालांकि बाजार की शक्तियों की उपलब्धियों को अपनी उपलब्धियां दिखाने, या बताने, या समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

इन नेताओं का ये संगठन "नागरिक समाज" (Civil Society) के रूप में ही होता है, और इसलिए इस पर अलग से विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है। इस आलेख का तो यही मुख्य विंदु है ही। "परिवार" (Family) एक सामाजिक ईकाई के रूप में इन मार्केटिंग रणनीति का आधारभूत संरचना तैयार करता है। चूंकि सभी नेतागण इसी ईकाई - परिवार के ही सदस्य होते हैं, और इसीलिए उन्हें इसका अलग से अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती है।

अब आप समस्याओं की मार्केटिंग का उद्देश्य, स्वरुप और संरचना को समझ गए होंगे। इससे आपको अपने बीच के नेताओं को समझने में मदद मिल सकती है।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

शनिवार, 22 जुलाई 2023

बाजार की शक्तियां और हम

(Forces of Market and We)

बाजार ही इतिहास बदलता रहता है और हम लगभग महज़ एक तमाशबीन बने रह जाते हैं, यदि कोई 'तितली प्रभाव' (Butterly Effect) पैदा करने वाला व्यक्ति वर्तमान में हस्तक्षेप नहीं करता है। वैसे 'तितली प्रभाव' पैदा करने वाला व्यक्ति भी बाजार का ही उत्पाद हो सकता है, इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। बाजार एक संस्था है, और इसीलिए यह अपने क्रियाविधि और प्रभाव में किसी भी समय या पारिस्थितिकी में किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की अपेक्षा ज्यादा कारगर हस्तक्षेप  करता है।

बाजार की शक्तियां हमारी बदलतीं प्राथमिकताओं, बाध्यताओं, आवश्यकताओं और अवस्थाओं के अनुरूप हमारे सामने अपने उत्पाद को प्रस्तुत करता है। इसे अब्राहम मैसलो ने बहुत अच्छी तरह से "आवश्यकता के पदानुक्रम" (Hierarchy of Needs) में स्थापित किया है। इन्हीं अवस्थाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बाजार हमसे खेलती है, जिसमें हमारी इच्छाओं, आवश्यकताओं, आकांक्षाओं के मनोविज्ञान का बहुत बारीक उपयोग करता है।

बाजार की शक्तियां ही समकालीन या समकालिक शक्तियां कहलाती है, जो बीते हुए काल में, यानि इतिहास के काल में ऐतिहासिक शक्तियां कहलाती है। इस तरह बाजार की शक्तियां ही वर्तमान काल की शक्तियां हुई और यही शक्तियां इतिहास की व्याख्या में 'ऐतिहासिक शक्तियां' कहलाती है। बाजार एक क्षेत्र होता है, जहां वस्तुओं, सेवाओं, सम्पदाओं (Estates), व्यक्तित्वों, घटनाओं (Events), स्थानों, ज्ञान, तकनीक, मनोरंजन, विचारों, नीतियों आदि का ख़रीद बिक्री होता है। यह क्षेत्र स्थानीय भी हो सकता है और वैश्विक स्तर का भी हो सकता है। यह स्थान वास्तविक भी हो सकता है और डिजिटल भी हो सकता है।

बाजार एक आर्थिक अवधारणा है, और इसलिए यह आर्थिक शक्तियों का समुच्चय (Set) होता है। यदि अर्थव्यवस्था मांग और पूर्ति की व्यवस्था करतीं हैं, तो बाजार मांग और पूर्ति से संचालित, नियमित, नियंत्रित, प्रभावित और सम्वर्धित होता है। यदि अर्थव्यवस्था उत्पादन, वितरण, विनिमय, एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों की व्यवस्था करता है, तो बाजार इन साधनों और शक्तियों का संचालन, नियमन, नियंत्रण, सम्वर्धन आदि करता है। बाजार का प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक भी होता है।

बाजार ही धन को पूंजी बनाता है अर्थात बाजार ही धन और पूंजी की एवं धन और पूंजी के लिए समुचित व्यवस्था  करता है। जब कोई धन (Wealth) उत्पादक हो जाता है, तब वह पूंजी (Capital) बन जाता है। जब कोई व्यवस्था पूंजी के हित के  संरक्षण, नियंत्रण, नियमन और सम्वर्धन के लिए कार्य करती है, जो उस व्यवस्था को 'पूंजीवाद' (Capitalism) कहते हैं। इसी पूंजीवाद के क्रिया और प्रतिक्रिया स्वरूप और इसी के लिए कई और व्युत्पन्न (derivatives) 'वाद' (ism), जैसे उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, साम्यवाद, व्यक्तिवाद, नारीवाद आदि उत्पन्न हुआ।

बाजार को हम जीवित जीवन समझ सकते हैं, और इसीलिए  बाजार की आवश्यकताएं और अनिवार्यताएं यानि बाध्यताएं समय के साथ बदलती रहती है। इसीलिए यदि आज़ बाजार की शक्तियां जिसे अपना मित्र बनातीं है, कल उसे दुश्मन भी बना लेती है। किसी बाजार के साधनों और शक्तियों को आज जिस व्यवस्था के सहारे एवं समर्थन की आवश्यकता होती है, वही बाजार कल उस व्यवस्था को नष्ट भी कर देता है। बाजार की इस अनिवार्यता यानि बाध्यता को अक्सर या सामान्यतः बाजार के नियामक समझे जाने वाले नेतृत्व भी नहीं समझ पाते हैं। बाजार की शक्तियां इतनी प्रभावशाली और शक्तिशाली होती है कि बड़े बड़े सम्राट, शासनाध्यक्ष या तथाकथित इतिहास-पुरुष भी इसके प्रभाव में बड़े आसानी से एवं बड़े साधारण तरीके से अल्प काल में ध्वस्त कर दिए जातें हैं और इतिहास में 'दुष्ट' या 'निकम्मा' के रूप में दर्ज कर दिए जाते हैं।

यदि हम बाजार की शक्तियों को उत्पादन, वितरण, विनिमय, एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों के आधार पर उदाहरण के साथ समझें, तो हमें सब कुछ ठीक तरीके से स्पष्ट हो जाएगा। इन शक्तियों का उद्गम स्रोत नए साधनों का आविष्कार या नए क्रियाविधि का आगमन होता है। नए साधनों का आविष्कार या नए क्रियाविधि का आगमन का सिद्धांत या पद्धति एक अलग विषय है। यही नए आविष्कृत साधन या क्रियाविधि ही बाजार की शक्तियों एवं संस्थाओं की गुणवत्ता और मात्रा को बदल देते हैं। पहले इन सामान्य साधनों, संस्थाओं और शक्तियों के सामान्य उदाहरण देखें और समझें। फिर इसे वर्तमान भारत के बदलते संदर्भ में समझें। भारत को "विश्व नायक" (Global Leader) बाजार की शक्तियां ही बनाएगी, लेकिन हमें सजगता से इसका अवलोकन करना चाहिए। 

भारत बहुत जल्द विश्व नायक बनेगा, आप आशान्वित रहिए। लेकिन यह हमें किसी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक नेतृत्व के बुद्धिमत्ता और योग्यता के कारण नहीं मिलने जा रहा है, अपितु यह अवस्था बाजार की मजबूत शक्तियों एवं  संस्थाओं के कारण मिलने वाली है। बाजार की वैश्विक शक्तियां बड़ी सक्रियता से कार्य कर रही है। बाजार की शक्तियों को कोई मोड़ नहीं सकता, कोई रोक नहीं सकता, गति को भले ही धीमी और तेज़ करने  का दावा कर सकता है। बाजार की ये शक्तियां आज जिस व्यवस्था के सहारे और समर्थन से आगे बढ़ रही है, कल उसी व्यक्ति को और उसी व्यवस्था को इतिहास से मिटा भी दे सकती है। इन सबके वैश्विक ऐतिहासिक उदाहरण भरे पड़े है, सिर्फ उसे समझने देखने के लिए धैर्य चाहिए।

जब हम मानव इतिहास को देखते हैं, तो होमो सेपियंस के उद्भव से लेकर अब तक कई सारी अवस्थाओं, यानि सभी रुपांतरण की व्याख्या बाजार की शक्तियों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय, एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों के बदलने से हुआ। जब मानव को धातु (Metal) एवं धातु मिश्र (Alloys) मिला, तो वह पहाड़ों से मैदान में उतर गया। उत्पादन (अतिरिक्त उत्पादन) और वितरण व्यवस्था मजबूत हुई, तो नगर, राज्य, लिपि, बाजार आदि का उदय हुआ। जब विनिमय के साधन मुद्रा का प्राधिकृत संरक्षण समाप्त हुआ, तो मुद्रा प्रभावहीन हो गया, बाजार भी गिर गया और नगरों का पतन हो गया। जब धन उत्पादक हो गया, तो पूंजीवाद अपने विभिन्न स्वरूपों में प्रभावी हो गया। जब औद्योगिक साम्राज्यवाद वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया, तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कई देशों को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गई।

अब हमें वर्तमान स्थिति में भी भारत का आकलन करना चाहिए। हमलोग यहां 'अम्बानी अदानी' का मनोविज्ञान समझेंगे, यानि 'अम्बानी अदानी' की क्रियाविधि (Mechanism) का प्रणाली समझेंगे।  यहां ये एक व्यक्ति रुप में भी है और संस्था स्वरुप में भी है। "अम्बानी अदानी" को आप व्यक्ति रुप में व्यक्तिवाचक संज्ञा (Proper Noun) भी समझ सकते हैं, और जातिवाचक संज्ञा (Common Noun) भी कह सकते हैं। इसके अलावा हमें इन्हें एक संस्थागत स्वरुप में भी समझना चाहिए। तो अब 'अम्बानी अदानी' के तीन स्वरुप या तीन अवस्थाओं का अवलोकन एवं विश्लेषण करेंगे।

हमें अम्बानी अदानी के व्यक्तिवाचक संज्ञा में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रथम महिला एलिनोर रूज़वेल्ट कहती हैं कि सामान्य साधारण लोग 'व्यक्ति विशेष' के वर्णन विश्लेषण में उलझे रहते हैं। मैं आपको भी इस सामान्य एवं साधारण स्तर से बहुत ऊपर मानता हूं, इसलिए मैं किसी व्यक्ति विशेष के मंथन, विवरण, विश्लेषण और आलोचना में आपको सहभागी नहीं बनाऊंगा। मैं आपको 'अम्बानी अदानी' के जातिवाचक संज्ञा यानि इनके समूहों के भी विश्लेषण में नहीं उलझाऊंगा, क्योंकि यह भी वही है, समूह के रूप में।

तो चलिए, मैं आपको 'अम्बानी अदानी' को संस्थागत अवधारणा मानकर मंथन समझाऊंगा और इसके विश्लेषण एवं आलोचना में आपको भी शामिल करता हूं। इसे संस्थागत अवधारणा में समझने के लिए हमें ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों के रूप, क्रियाविधि और प्रभाव के रुप में समझना होगा। हमने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि बाजार की शक्तियां और इतिहास की शक्तियां एक ही है। इसे संस्थागत रूप में लेने से इसके चरित्र, स्वभाव, अवस्था, क्रियाविधि, एवं मौलिकता में समान बाजार की सभी शक्तियां और साधन शामिल हो जाते हैं।

हम इतिहास में जब इन संस्थाओं का चरित्र, स्वरुप, स्वभाव, क्रियाविधि और मौलिकता को देखते और समझते हैं, तो इसी आधार पर इसके भविष्य का भी पूर्वानुमान कर सकेंगे। जब कोई व्यक्ति या संस्था बाजार में उतर कर स्थापित और विस्तारित होना चाहता है, तो उसे पूंजी भी चाहिए, जमीन और तकनीक भी चाहिए, और सुनिश्चित बाजार पर एकाधिकार चाहिए और इसके लिए उसे राजकीय संरक्षण एवं समर्थन भी चाहिए। इस राजकीय संरक्षण, सहयोग और समर्थन पाने के लिए ही बाजार की शक्तियां संबंधित सत्ता और प्राधिकरण को समर्थन देता है। और इस अवस्था में वह तब राज्य की नीतियों का मूल्यांकन नहीं करता और कोई हस्तक्षेप भी नहीं करता। यह 'अम्बानी अदानी' की बाजारगत संस्था का शैशवास्था होता है, और एक शिशु की तरह ही पैतृक संरक्षण चाहता है।

लेकिन इस "अम्बानी अदानी" को संस्था के प्रौढ़ावस्था में, यानि परिपक्वता की अवस्था में उनकी प्राथमिकताएं, आवश्यकताएं और बाध्यताएं बदल जाती है। तब बाजार की ऐसी संस्थाओं को ऐसी व्यवस्था और अधिसंरचना चाहिए, जो उसके उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ा दे, लोगों की क्रय शक्ति और क्षमता को बढ़ा दे, वितरण और विनिमय प्रणाली और पद्धति को सरल, सहज और साधारण बना दे एवं तीव्र और दक्ष बना दे, तथा बाजार के उपभोग के स्तर में गुणात्मक, गुणवत्तापूर्ण और मात्रात्मक वृद्धि चाहता है। यानि बाजार को व्यापक बना दे और इसके लाभ को बढ़ता हुआ आधार दे। तब संस्थागत बाजार की शक्तियां उपरोक्त अवस्था को पाने के लिए काम करने लगती है और इसमें आनी वाली बाधाओं को दूर करने लगतीं हैं। यहां पर परम्परागत व्यवस्था से विरोध हो जाता है।

संक्षेप मेंबाजार की शक्तियां और संस्थाएं जातिवाद, पंथवाद, धर्मवाद एवं नस्लवाद को मिटाता हुआ व्यक्तिवाद (समूह के विरुद्ध), महिला को समता (Equality) और समानता (Equity) दिलाता नारीवाद (लैंगिक विभेद का विरोध), तथा गुणवत्तापूर्ण उत्पादन एवं खपत के शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता के साथ स्थापित करने के लिए व्यवस्था को बाध्य कर देता है। इस तरह बाजार सामान्य जनता को गुणवत्तापूर्ण जीवन उपलब्ध कराने के लिए व्यवस्था को प्रेरित होता है। आज़ बाजार की उभरती शक्तियां और संस्थाएं अपने शैशवास्था के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य को बाजार का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन कल इसे ही सर्वसुलभ कराना उसकी बाध्यता होगी।

आप भविष्य के प्रति आशान्वित रहिए, लेकिन नेताओं के भरोसे नहीं, बल्कि बाजार की संस्थाओं और शक्तियों के भरोसे। ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थायी नहीं है, सभी कुछ परिवर्तनशील है, आपका भी कष्ट बदलने वाला है। भले ही आज यथास्थितिवादी शक्तियां और संस्थाएं जितना भी जोर लगा लें। इस पर मनन कीजिए और खुश होइए।

 आचार्य निरंजन सिन्हा।

 

 

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

विज्ञान और अध्यात्म में भ्रम

मैंने यहां विज्ञान में भ्रम एवं अध्यात्म में भ्रम, और इन दोनों में आपसी भ्रम को शीर्षक बनाया है, और इसीलिए 'between' शब्द का प्रयोग नहीं कर, 'in' शब्द का प्रयोग संबंधवाचक शब्द के लिए उपयुक्त समझा है। तो अब आगे चलते हैं।

आपने अक्सर सुना होगा कि जहां विज्ञान (Science) समाप्त हो जाता है, वहां से अध्यात्म (Spiritualism) शुरू होता है। क्या इस वक्तव्य में सब कुछ सही है, या सब कुछ ग़लत है, या कोई और मध्यवर्ती अवस्था भी है। दरअसल यह भ्रम (Illusion) विज्ञान और अध्यात्म की अवधारणा की भिन्न भिन्न और मनमानी समझ के कारण है। 

लगभग सभी लोग विज्ञान को ठीक ठाक समझने  का दावा करते हैं, लेकिन शुद्ध एवं प्राकृतिक विज्ञान के भी बहुतेरे अध्येयताओ एवं विद्वानों को भी देखा है, जो इस अवधारणा में खुद भटकें हुए हैं और इस भटकाव के कारण वे दूसरों को भी भटका जाते हैं। अध्यात्म की समझ में तो सदैव ही अस्पष्टता रहती हैं और यह अस्पष्टता सभी के द्वारा अभिव्यक्त अवधारणाओं एवं परिभाषाओं में भी झलकता रहता है। इस अध्यात्म को समझने में हम अक्सर पाखंडी बाबाओं के उलझन में उलझ जाते हैं, और उसी के समझ को हम अध्यात्म को समझने का पैमाना बना लेते हैं। इन बाबाओं यानि तथाकथित आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा परिभाषित अवधारणाओं का कोई तार्किक, तथ्यात्मक और वैज्ञानिक आधार नहीं होता है। तो हमलोग आज इसे भी स्पष्ट कर लें, लेकिन इसका आधार अवश्य ही वैज्ञानिक, तथ्यपूर्ण और  तार्किक होना चाहिए।

सामान्यतः लोग भौतिकी (Physics) या रसायन शास्त्र (Chemistry) या जीवन शास्त्र (Life science) में वर्णित विषयों एवं इनसे संबंधित विषयों को ही एकमात्र विज्ञान मान लेते हैं। इस तरह लोग विज्ञान को कुछ विशिष्ट विषयों में सीमित कर देते हैं, जो उचित नहीं है। दरअसल विज्ञान एक विवेकशील विशिष्ट ज्ञान है, जिसमें निश्चित कार्य कारण संबंध होता है, और यह संबंध निश्चित क्रियाविधि का किसी पारिस्थितिकी में स्थायी स्वरुप का होता है। इसका तात्पर्य यह है कि विज्ञान एक निश्चित नियमों पर आधारित कोई निष्कर्ष होता है और वह सर्वव्यापक होता है, बार बार सत्यापित किए जाने योग्य होता है और समान परिस्थितियों में समान परिणाम देने वाला होता है। मतलब यह है कि विज्ञान कई निश्चित नियमों की कड़ी होता है, या कई प्रक्रियाओं का समन्वित स्वरुप होता है, जो कार्य कारण संबंधों पर आधारित होता है। इस तरह विज्ञान निश्चित तौर विशिष्ट प्रक्रियाओं का कार्यवृत्त या कार्यविधि होता है, और यह कुछ निश्चित विषयों तक सीमित नहीं होता है।

यदि राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान, समाज शास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि आदि विषय विज्ञान है, तो सभी में प्रक्रियात्मक समानता होती है और यही इसमें वैज्ञानिकता की मात्रा का आधार बनता है। विज्ञान की अवधारणा को समुचित ढंग से नहीं समझने वाले लोगो को ही "अध्यात्म" में विज्ञान नहीं दिखता है। हां, बाबाओं के ज्ञान, यानि दर्शन, यानि व्याख्यान को अध्यात्म कहना उनकी व्यवसायिक आवश्यकता है, यानि आकर्षक मार्केटिंग का उदाहरण हो सकता है, लेकिन इन बाबाओं के बकवास को "आध्यात्मिक ज्ञान" मान लेना किसी अन्य की बौद्धिक दरिद्रता का स्पष्ट उदाहरण हो जाता है।

प्रसंगवश हमें ज्ञान (Wisdomको भी समझ लेना चाहिए। इसी ज्ञान को बुद्धि (Intelligence) भी कहते हैं। ज्ञान सूचनाओं (Information) का संकलन या संग्रहण मात्र नहीं होता है। "ज्ञान" में सूचनाओं के संकलन में एक निश्चित "कार्य कारण संबंध" की, यानि किसी तार्किकता (Logic) की, और किसी विवेकशीलता (Rationale) की अनिवार्य शर्त होती है। जब किसी भी ज्ञान या बुद्धि में ये शर्त मौजूद होता है, तो यह ज्ञान तथ्यपरक, विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक भी हो जाता है और कहलाता है। अब हमें ज्ञान के उपयोग के आधार पर भी इसे और गहराई से समझ लेना चाहिए।

जब ऐसा ज्ञान यानि बुद्धि सामान्य उपयोग में लाया जाता है, तो इसे संज्ञानात्मक बुद्धिमत्ता (Cognitive Intelligence) यानि सामान्य बुद्धिमत्ता (General Intelligence) कहलाता है। जब किसी बुद्धि का उपयोग सामने वाले की भावनाओं को समझते हुए और अपने को उसके अनुरूप ढालते हुए लाया जाता है, तो उसे भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) कहा जाता है। जब कोई बुद्धि समेकित समाज को ध्यान में रखकर उपयोग में लाया जाता है, तो उसे सामाजिक बुद्धिमत्ता (Social Intelligence) कहते हैं। और जब किसी बुद्धि के प्रयोग में मानवता एवं प्रकृति भी शामिल हो जाता है, तो वह बौद्धिक बुद्धिमत्ता (Wisdom Intelligence) कहलाता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता को डेनियल गोलमैन ने, सामाजिक बुद्धिमत्ता को कार्ल अल्ब्रेच ने और बौद्धिक बुद्धिमत्ता को तथागत बुद्ध ने सर्वप्रथम रेखांकित किया था।

सामान्यतः वर्तमान डिग्रीधारी सूचनाओं के जानकार होते हैं और 'ज्ञानवान' होने के भ्रम में रहते हैं। निम्न पंच प्रक्रिया के अभाव में कोई भी किसी विषय या संदर्भ का ज्ञानी समझता है, तो मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए। किसी सूचना के ज्ञान बनने के सफर में पांच कड़ियां यानि सीढियां होती है, जिसे अंग्रेजी के पांचों स्वर (Vowels - A, E, I, O, U) के क्रमानुसार याद रखा जा सकता है। इसे आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण (Critical Thinking n Analysis) की पद्धति भी कह सकते हैं। ये क्रियाएं क्रमशः विश्लेषण करना (Analysis), मूल्यांकन करना (Evaluation), प्रश्न करना (Inquiry),  खोल देना (Openness) एवं सर्वव्यापक करना (Universalism) है। अर्थात किसी जानकारी का विश्लेषण करनाउसका उस प्रसंग में या सन्दर्भ में मूल्यांकन करना, उससे संबंधित प्रश्न करना और सभी संबंधित शंकाओं यानि प्रश्नों का समाधान करना, इसे सभी संदर्भों में और सभी के लिए खोल देना है, और फिर इसे सर्व व्यापक बना देना है।  

ऐसा ही ज्ञान ही विज्ञान का दावा करता है। ऐसा ज्ञान जब विवेकपूर्ण हो जाता है, तो यह विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है। उपरोक्त प्रक्रिया के अभाव में भी भारत के अधिकतर लोग ज्ञानवान होने का दावा करते हैं, और भारत की वर्तमान दुर्दशा का भी यही एकमात्र बडा कारण भी है। यह प्रक्रिया और परिणाम तो अध्यात्म में भी है, जो विज्ञान में भी मौलिक है।

जब अध्यात्म में भी ऐसा ही वैज्ञानिक क्रियाविधि अपने साथ विवेकपूर्ण और विशिष्ट अर्थ लेकर आता है, तो अध्यात्म कैसे विज्ञान नहीं हैजिन्हें विज्ञान की समझ नहीं है, और जो अध्यात्म की मौलिक समझ नहीं रखते है, उन्हें ही अध्यात्म विज्ञान से पृथक, विज्ञान से विशिष्ट और विज्ञान से उच्चस्थ दिखता है।

विज्ञान एक निश्चित प्रक्रिया (Process) है, जबकि ध्यात्म एक विशिष्ट विषय (Subject) है।  

विज्ञान एक कार्यप्रणाली (Methodology) है, जबकि ध्यात्म एक विशिष्ट अवस्था (Stages) है। 

विज्ञान किसी विषय की क्रियाविधि (Mechanism) को समझाता है, जबकि ध्यात्म ज्ञान का सर्वोच्च अवस्था है।

विज्ञान के विकास में कई सहभागी हों सकते हैं, जबकि ध्यात्म में कोई अकेला ही चल सकता है। 

विज्ञान में गुरु और शिष्य, यानि ज्ञान देने वाला और ज्ञान लेने वाला दो भिन्न भिन्न अस्तित्व होता है, जबकि ध्यात्म में दोनों एक ही व्यक्ति (ज्ञान देने वाला और पाने वाला) होता है।

अब हमें आगे बढ़ने से पहले ध्यात्म को समझ लेना चाहिए।ध्यात्म शब्द 'अधि' यानि 'ऊपर' और 'आत्म' (Self) से बना है, अधि और आत्म। जब किसी का आत्म अधिक यानि ऊपर यानि अनन्त प्रज्ञा (Infinite Intelligent) से जुड़ जाता है, तो यही "ध्यात्म" कहलाता है, और तब वह व्यक्ति अनन्त प्रज्ञा से अनन्त स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करने लगता है। ऐसे ज्ञान आभास, सहज ज्ञान, अंतर्ज्ञान (Intuition) के रूप में आते हैं और यह नवाचार (Innovation) का आधार बनता है। किसी के आत्म (Self, not Soul) को उसका मन (Mind) या चेतन (Consciousness) भी कहते हैं। इस तरह चेतन की अवस्था क्रमशः अचेतन, अवचेतन, चेतन, एवं अधिचेतन होता है। अतः चेतन का अनन्त प्रज्ञा से जुड़ना ही अध्यात्म है। कुछ धूर्त साज़िश के तहत् आत्म को आत्मा से प्रतिस्थापित कर देते हैं, जो स्पष्टतया गलत और मनगढ़ंत है। 

इस तरह स्पष्ट है कि अध्यात्म विज्ञान का एक विशिष्ट अवस्था या विशेषज्ञता होता है। यह एक कौशल है , जिसे कोई भी सीख सकता है, विकसित कर सकता है। इसमें अनन्त प्रज्ञा से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इस संदर्भ में कुछ आध्यात्मिक व्यक्ति के नाम में तथागत बुद्ध, अल्बर्ट आइंस्टीन, कार्ल मार्क्स, सिग्मंड फ्रायड, स्टीफन हॉकिंग आदि आदि को ले सकते हैं, और ऐसे ही कई और उदाहरण हैं। लेकिन ढोंगी पाखंडी बाबाओं ने अपने "अंदाजों" (Styles) के आकर्षक और व्यापक मार्केटिंग के रणनीति के अन्तर्गत ज्ञान के इस सर्वोच्च अवस्था के शब्दावली का उपयोग करते हैं। और हमारे तथाकथित ज्ञानी और विज्ञानी बुद्धजीवी भी अपने शब्दावली में इसे प्रयोग में ला कर उसे मान्यता देते रहते हैं।

मुझे अब समाज के "पके हुए", "थके हुए", और "बिके हुए" लोगों से उम्मीद भी नहीं है। भविष्य युवाओं का है, युवाओं के लिए है, और इसे निष्पादित होना भी युवाओं के द्वारा ही है।  ध्यान रहे कि मैंने युवाओं में शारीरिक युवाओं को और बौद्धिक युवाओं (इसमें शारीरिक उम्र आधार नहीं है) को भी शामिल किया है। आप घालमेल को समझें, बारिकियों को जानें और भारत को फिर से "विश्व गुरु" (Global Leader) बनाएं।

आचार्य निरंजन सिन्हा 

 

बुधवार, 19 जुलाई 2023

हमारे नेताओं का वहम

lusions of Ours Leaders)

हमारे राजनीतिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक नेताओं मे विकास और प्रगति के दावों के संबंध में बहुत से वहम या विभ्रम है। ये परिस्थितियों की संरचनाओं और शक्तियों के परिणाम को भी अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। और सामान्य जनता सहित तथाकथित बुद्धिजीवी भी उसी दावे में बहने लगते हैं। पहले आप दो छोटे परन्तु मजेदार प्रसंग सुन लें।

मैं एक लोकल ट्रेन में बैठा था। ट्रेन रुकती थी और कुछ समय में खुल जाती थी। सामने बैठे बच्चे का व्यवहार देख रहा था और उसे सुन भी रहा था। ट्रेन रुकने के कुछ समय बाद बच्चा  ट्रेन को आगे बढ़ाने यानि उसे चलाने के लिए अपनी सीट को खड़ा होकर आगे की ओर ठेलने का प्रयास करता था और अपनी मां को बताता था कि वह ट्रेन को गति में ले आया।  उसकी एक दो हरक़तों को ही देख पाया, क्योंकि वे लोग अगले स्टेशन पर उतर गए थे।

ऐसा नजारा एक बार और देखने को मिला। वातानुकूलित द्वितीय क्लास में बैठा था। कहने का तात्पर्य इस बार किसी सामान्य वर्ग के बच्चे का प्रसंग नहीं है। मतलब एक 'तथाकथित ज्ञानी' यानि 'डिग्रीधारी सम्पन्न' व्यक्ति का प्रसंग है। इस नजारे में वह व्यक्ति अपनी पत्नी को बता रहा था कि इनकी यह कोच बहुत कम समय में पटना पहुंचा देगी, और उनकी पत्नी उनके ज्ञानवान जानकारी और उनके समझदारी भरे निर्णय से गौरवान्वित भी थी। मतलब यह था कि यह कोच अन्य सामान्य, शयनयान, या अन्य से गति के मामले में बेहतर था, और इसीलिए वह व्यक्ति ज्यादा समझदार था। बातें सुविधाओं के बेहतरीन होने के संदर्भ में नहीं की जा रही थी, वे  सिर्फ गति की बातें कर रहे थे।

मैं सोचने लगा कि अधिकांश नेताओं की दशा यानि स्थिति भी यही है। इसी समझ की स्थिति को "वहम" यानि विभ्रम (Hallucination) या "भ्रम" (Delusion, not Illusion) कहा जाता है। यह स्थिति सभी समाजों, संस्कृतियों, संगठनों और देशों के नेताओं की है। ये नेता राजनितिक भी होते हैं, और सामाजिक एवं सांस्कृतिक भी होते हैं। जब अधिकांश जनता अज्ञानी होते हैं, जो अक्सर होता है, तो ऐसे नेताओं द्वारा किए गए प्रगतिशील और क्रांतिकारी बदलाव के बड़े बड़े दावे तुरन्त सही मान लिए जाते हैं। ध्यान रहे कि जिन लोगों में "आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण" (Critical Thinking n Analysis) की क्षमता नहीं होती, वे डिग्रीधारी भी अज्ञानी ही होते हैं। 

बहुत से राज्यों, देशों और संगठनों के नेतागण विकास के बड़े बड़े दावे करते हैं। जब इसे आलोचनात्मक विश्लेषण से समझा जाता है, तो दूसरा नजारा दिखने लगता है। पहली बात तो यह है कि इन नेताओं को "वृद्धि" (Growth) और "विकास" (Development) में अन्तर समझ में नहीं आता है। दूसरी बात यह है कि ये समाज, राज्य, देश इन विकास के समेकित सूची में उसी स्थान पर होते हैं, या नीचे सरकते होते है, जहां पहले भी थे। मतलब ट्रेन के किसी कोच ने स्वतंत्र रूप में कोई विशेष गति नहीं बनाया है, बल्कि वह कोच ट्रेन के गति को ही बनाए हुए हैं। ऐसे नेतागण "ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों" की गति को भी अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। वे ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों को और उसकी क्रियाविधि एवं उसके परिणाम को नहीं समझते हैं। ये नेता ऐतिहासिक और बाजार की शक्तियों के परिणाम को अपना 'कमाल' समझते और बताते हैं।

बहुत से देशों की आबादी बडी होती है, अर्थात उस आबादी की खाने और पचाने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यानि बाजारु खपत की क्षमता बहुत अधिक होती है। ऐसे बड़ी आबादी के देशों के नेताओं का वैश्विक सम्मान बहुत होता है। ऐसा वैश्विक सम्मान उन्हें उनके अच्छे व्यक्तित्व के आधार पर नहीं मिलता है, बल्कि उनके देश की आबादी की बाजार की खपत की क्षमता के कारण मिलती है। उनका वैश्विक सम्मान बाजार की शक्तियों के कारण होता है और वे नेता इसे अपना व्यक्तित्व का परिणाम समझ लेते हैं। बाजार की शक्तियों को समझना जरूरी है और ऐसे तथाकथित करिश्माई नेताओं की वास्तविकता को भी समझना जरूरी है।

हमें बड़े इत्मीनान से ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों और उनकी संयुक्त एवं समन्वित क्रियाविधि (Mechanism) को समझना चाहिए। ये शक्तियां संस्थागत (Institutionalised) रूप में क्रियान्वित होते हैं और इसीलिए इनमें निरंतरता (Continuity), व्यापकता (Comprehensiveness), गहनता (Intensity) और गहराई (Depth) भी होती है। ध्यान रहे कि एक 'संस्था' (Institution, not Institute)  अपने प्रभाव में सदैव एक व्यक्ति या समूह से ज्यादा प्रभावी, असरदार, व्यापक, और निरंतरता बनाए रखती है।

ऐतिहासिक शक्तियां (Historical Forces) अर्थात इतिहास को बदलने वाली यानि समाज और संस्कृति को रुपांतरित करने वाली शक्तियां हैं। सारी रुपांतरण (Transformation) यानि स्थायी परिवर्तन मानव और उसके द्वारा निर्मित संस्थाएं ही प्रकृति में हस्तक्षेप कर करता है। मतलब रुपांतरण क्रियाविधि का केंद्र बिन्दु मानव और उसके द्वारा निर्मित संस्थाएं हैं। मानव की शारीरिक क्षमता और योग्यता उसके भौतकीय शरीर में होता है और मानव का 'आत्म' (Self, not Soul) यानि 'मन' (Mind) भी शरीर के ही अस्तित्व पर ही निर्भर है। इस तरह किसी भी मानव का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कृत्य उसके भौतकीय अवस्था पर ही निर्भर है और यह भौतकीय अवस्था आर्थिक शक्तियों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों पर निर्भर करता है। अर्थात यही ऐतिहासिक शक्तियों हुई, जो इतिहास बदलता रहता है।

इसी तरह बाजार (Market) की शक्तियां भी बहुत ही प्रभावशाली होती है। बाज़ार ऐसी जगह को कहते हैं, जहां पर किसी भी चीज़ (Things) का व्यापार होता है और चीज़ में वस्तु, सेवा, सम्पत्ति, सम्पदा, विचार, व्यक्तित्व, नीति, आदि कई प्रकार शामिल होता है। बाजार दिखने में अर्थशास्त्रीय अवधारणा है, परन्तु इसका प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक, तकनीकी और राजनीतिक भी होता है। यदि आपके पास बाजार को प्रभावित करने की क्षमता है, या आपकी क्रय (Purchase) की अद्भुत क्षमता है, तो आप बाजार की शक्तियों का उपयोग कर अपने समाज या देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक, तकनीकी और राजनीतिक हैसियत बदल सकते हैं। बाजार का प्रभाव भी ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव की तरह ही "तितली प्रभाव" (Butterfly Effect) की तरह होता है। अब आप ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों को संक्षेप में समझ चुकें हैं। अब आप इन दोनों के संयुक्त और समेकित प्रभाव को भी अपनी कल्पनाओं में देख सकते हैं।

उपरोक्त दोनों के संयुक्त और समेकित प्रभाव को उदाहरण के साथ समझा जाय। लेकिन इनके समन्वित प्रभाव को नेतागण अपने प्रयास का प्रभाव बताते हैं और उसके समर्थक उसी में झूमते रहते हैं। सामान्य जनता को तो छोड़िए, तथाकथित बुद्धजीवियों की स्थिति भी दयनीय है और वे आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण के अभाव में इसे नेताजन की ही उपलब्धि मान लेते हैं। ध्यान रहे कि मैं व्यक्तिगत प्रयासों की उपेक्षा नहीं कर रहा हूं, लेकिन उनके उपलब्धियों के बड़े बड़े दावे को आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण की नजरिया से देखने एवं समझने का आग्रह ही कर रहा हूं। 

व्यक्तियों की नेतृत्वकारी क्षमता की उपलब्धियां भी "तितली प्रभाव" रखतीं हैंयदि उन्होंने मानव में सांस्कृतिक बदलाव (इसे मानसिकता का बदलाव कहते हैं) किया है, अन्यथा सभी बदलाव दिखावटी एवं सतही है, जो उनके द्वारा नहीं प्राप्त किए गए है। संस्कृति सामाजिक मूल्यों, प्रतिमानों, अभिवृति, व्यवहार, कर्म, परम्पराओं आदि के प्रति चिन्तन और व्यवहार को समाज से सीखता है। यह संस्कृति आदमी और समाज को संचालित करने का 'साफ्टवेयर' है। इसे बदलें बिना विकास के सभी दावे महज़ एक तमाशा होता है। मात्र सीमेंट की खपत को विकास नहीं समझा जा सकता है।

ऐतिहासिक शक्तियों ने मनुष्यों को पहाड़ों पर से उतार कर मैदानों में लाया। कृषि के अतिरेक (Surplus) उत्पादन ने नगर, राज्य, बाजार, मुद्रा, लिपि एवं भाषा, सरकार आदि संस्थाओं को उदित और संवर्धित किया। इन दोनों (इतिहास और बाजार) ने ही समन्वित रूप में बुद्धि का विकास किया, सामंतवाद, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, समाजवाद आदि का विकास किया, जो अभी भी रुपांतरित स्वरुपों में कार्यरत हैं और प्रभावी भी है। इन दोनों ने ही विज्ञानवाद, आधुनिकतावाद, डाटावाद, मानवतावाद को भी संवर्धित किया है। इसी ऐतिहासिक शक्तियों में बाजार की शक्तियां भी क्रियाविधि और प्रभाव में एक दूसरे से गुंथी हुई है।

यह स्थिति सभी क्षेत्रों, यानि राजनीतिक सहित सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के तथाकथित नेताओं की भी है। राजनीतिक नेता भी ऐतिहासिक और बाजार की शक्तियों को नहीं समझते हैं, या समझ कर भी इसे स्वीकार करना नहीं चाहते हैं। इन तीनों क्षेत्रों यानि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में संयुक्त एवं समन्वित रूप में कई समस्याएं पसरी हुई है। इनमें ग़रीबी, बेरोजगारी, जाति व्यवस्था की असमानता, धर्म विभेद, लैंगिक विभेद, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति आदि की समस्या विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में व्याप्त है। यदि ऐतिहासिक शक्तियां और बाजार की शक्तियां जाति व्यवस्था को कमजोर कर रही है, तो सामाजिक सांस्कृतिक नेता इसे अपने कार्यों के प्रगति का परिणाम बता रहे हैं और अपने अनुयायियों के मन में नाच भी रहे होते हैं। यदि बाजार की शक्तियां लैंगिक (Gender, not Sex) विभेद मिटा रहा है, तो ये नेता इसे अपनी उपलब्धियों में गिना रहे हैं। यदि बाजार की शक्तियां गरीबी घटा रही है और बेरोज़गारी बढ़ा रही है, तो ये नेता गण गरीबी घटने का तथाकथित कमाल अपने नाम ले लेते हैं और बेरोज़गारी को बाजार का करतब बता दे रहे हैं। उदाहरण भरे पड़े हैं, सिर्फ आपको अपना नज़र और नजरिया बदलना है।

इन सामाजिक और सांस्कृतिक नेताओं की ऐसी बेचारगी क्यों है?  ये अपनी विचारों में, परिस्थितियों की संरचनाओं के समझ में, बदलते संदर्भ में और अवधारणाओं में कोई पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) नहीं करते और सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव कर देने का हवाई ख्वाब देखते रहते हैं। ये "सत्ता परिवर्तन" (Change in Rule) को ही "व्यवस्था परिवर्तन" (Change in System) समझ लेते हैं, और इसीलिए बेचारे बने  रह जाते हैं। इसे आप उनकी "पैरेडाईम शिफ्ट" दरिद्रता भी कह सकते हैं। ये ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों के उद्विकासीय प्रभाव (Evolutionary Effect) की गति को ही अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। वे यह भी समझते हैं कि उनकी दिशा समुचित एवं सही है और बदलाव की गति भी पर्याप्त है। ऐसे नेता वस्तुत: उस समाज, संस्कृति और देश के समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, उत्साह और जवानी को बर्बाद कर रहे होते हैं। पूरा समाज और राष्ट्र ठहरा रहता है, और वे विकास के नेतृत्व को देने के दावे के विभ्रम में रहते हैं। भ्रम (Illusion) किसी वस्तु को ग़लत समझना होता है, जबकि विभ्रम (Delusion/ Hallucination) किसी वस्तु की अनुपस्थिति को भी कुछ समझ लेने की अवस्था है।

आप तो बौद्धिक हैं, आप ही विचार कीजिए। 

मानवता के विकास में मैं भी आपके साथ हूं।

आचार्य प्रवर निरंजन ।

 

 

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‘ सत्ता ’ में शामिल लोग ही असली ‘ शासक ’ ‘ वर्ग ’ कहलाते हैं , होते हैं।   तो सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि   ‘ सत्ता ’   क्या है और   ‘ शासक ...