जी, हाँ| आज मैं आपको ‘लोकतंत्र’ का सफ़र ‘प्रजातंत्र’ तक या ‘प्रजातंत्र’ का सफ़र
‘लोकतंत्र’ तक कैसे होता है? इस पर थोडा समझेंगे| आपने भी देखा हैं कि भारतीय संविधान में “लोकतंत्र”
शब्द है, ‘प्रजातंत्र’ नहीं है| हालाँकि सामान्य राजनेता और सामान्य जन भी इन दोनों में कोई
अंतर नहीं कर पाते हैं| इसका एक साधारण कारण यह है कि इन दोनों के लिए
अंग्रेजी एक ही है – Democracy शब्द, जिसका सामान्य अर्थ वह तंत्र जो मानवो के
लिए है| इस अग्रेजी अनुवाद और असावधानी के कारण लोग इस पर ध्यान ही नहीं देते हैं|
मानवों (Human) में ‘आदमी’
(Man, in general) भी आते हैं, ‘लोग’ (People, Public) भी आते हैं, ‘प्रजा’
(Subject) भी आती है,और ‘नागरिक’ (Citizen) भी आते हैं| लेकिन ‘व्यक्ति’ (Person) में
‘मानव’ भी आते हैं और ‘मानव’ नहीं भी आते हैं| ‘संयुक्त हिन्दू परिवार’ (Hindu
Undived Family) एक “व्यक्ति” (Person) तो है, परन्तु आदमियों (Men) का समूह भी है|
एक कम्पनी या एक संस्थान (Institute, not institution) एक ‘व्यक्ति’ तो है, तो
परन्तु एक ‘नागरिक’ नहीं है और एक ‘आदमी’ भी नहीं है| जब कोई ‘मानव’ एकवचन में है,
तो वह ‘आदमी’ हुआ| जब ‘मानव’ बहुवचन में हुआ, तो वह ‘लोग’ (Public) हुआ| जब लोग किसी राजा
यानि किसी शासक (Ruler) का शासित (Ruled) हुआ, तो वह ‘प्रजा’ (Subject) हुआ| जब
लोग किसी गणतंत्र का कर्तव्य (Duties) और अधिकार (Rights) से युक्त है, तो वह वहां
का ‘नागरिक; हुआ| ‘लोग’ को उत्कृष्ट अवस्था में ‘लोक’ कहते हैं|
आपने भी देखा है कि संविधान में ‘लोग’ और
‘नागरिक’ का अलग अलग अर्थों में प्रयोग हुआ है| ‘लोग’ को जीवन जीने का अधिकार तो है,
परन्तु चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं है| जबकि एक ‘नागरिक’ को यह दोनों
अधिकार दिया हुआ है| एक कम्पनी या कोई संस्थान एक वैधानिक व्यक्ति (Person)
तो है, परन्तु उसे आदमी के रूप में या नागरिक के रूप में कोई अधिकार नहीं है| ये
कम्पनी या संस्थान व्यक्ति का निर्माण है, किसी प्राकृतिक उद्विकास का प्रभाव नहीं
है| इसीलिए ये कम्पनी या संस्थान ‘कृत्रिम व्यक्ति’ कहलाते हैं|
अब हमलोग मूल विषय पर
आयें| जहां गणतन्त्र होता है यानि शासनाध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित
होता है| इसमें शासन भी जनता द्वारा होता है, तो वहां की जनता “लोक” कहलाती हैं और
वह तंत्र लोकतन्त्र हुआ| लेकिन जहाँ राजतन्त्र होता है, यानि शासनाध्यक्ष वंशानुगत होता है,
वहां की जनता “प्रजा” कहलाती है| इस तरह आधुनिक युग में शुद्ध स्वरुप में “लोकतन्त्र” हुआ, जबकि
इसके पूर्व काल में सामान्यत: लोकतंत्र नहीं हुआ करता था| चूँकि अब भारत में
कोई व्यक्ति शासक नहीं है, एक निर्वाचित व्यवस्था (System) ही शासक है, इसलिए भारत
के लोग यानि “लोक” किसी का प्रजा नहीं हो सकता है| इसलिए भारत में “प्रजातन्त्र” नहीं
हो सकता या ‘प्रजातन्त्र’ नहीं होना चाहिए| यानि किसी राजा यानि किसी व्यक्ति
का शासित नहीं हो सकता या नहीं होना चाहिए| यहाँ तो लोकतन्त्र है, लोगों द्वारा
बनाई गई व्यवस्था द्वारा शासित तंत्र है|
परन्तु प्राचीन काल
में सामान्यत: एवं मध्य काल में सभी व्यवस्था में लोग प्रजा ही था| ‘प्रजा’ यानि
किसी व्यक्तिगत शासक द्वारा शासित व्यवस्था के अंतर्गत रहने वाले लोग| पहले के
तन्त्र में शासन किसी व्यक्ति के प्रति जबावदेह होता, लेकिन जनता के प्रति नहीं| प्रजातंत्र
में लोग शासन (तंत्र) से अपेक्षा (Expectations) नहीं रख कर, शासक व्यक्ति से
अपेक्षा रखते हैं| इस तरह शासक (King) प्राथमिक हुआ, और व्यवस्था (तंत्र) द्वितीयक
हुआ| इसमें ‘कृपा’ (Mercy) कोई व्यवस्था नहीं करता, बल्कि कोई व्यक्ति करता है| इसमें
शासन का अन्तरण (Transfer) किसी एक खानदान (Family) में ही होता है| जबकि
लोकतन्त्र में लोगों की अपेक्षा (Expectations) भी व्यवस्था (System) से होती है, और
उन अपेक्षाओं (Expectations) की पूर्ति भी व्यवस्थाओं के द्वारा ही होती है| इन
दोनों में यही अंतर है, जिसे सामान्य आदमी समझने के लिए समय भी नहीं देना चाहते| इसी
कारण कब लोकतन्त्र अपना सफ़र प्रजातन्त्र तक कर लेता है, पता ही नहीं चलता| हाँ, जब प्रजातन्त्र का
सफ़र लोकतन्त्र की ओर होता है, तो तामझाम और शोर भी काफी होता है| इस स्पष्ट है कि
लोकतन्त्र का सफ़र प्रजातन्त्र की ओर चुपचाप होता है| अब आप इन दोनों
के परिणाम समझने लगे होंगे|
जब आपको या किसी को भी
समझने में कोई दिक्कत आ रही है, तो समझने के लिए शान्त चित्त (Mind/ Consciousness)
से ठहर (Halt) जाना होता है| इससे आप उसकी गहराई (Depth) में
उतर सकते हैं और आपको सब कुछ साफ साफ़ दिखने लगेगा| भारत के लोग ठहरना
नहीं चाहते हैं, जबकि बुद्ध इसी कारण विश्व गुरु बन गए| आज भी जो शांत चित्त से
ठहरा हुआ है, बहुत आगे निकला हुआ है| अब भारत के सामान्य लोग भी खाने के लिए, शारीरिक
आवश्यकता के लिए हो या मानसिक आवश्यकता के लिए भोजन, तैयार सामग्री ही चाहते हैं| जबकि
स्वयं का पकाया हुआ सामग्री स्वास्थ्यवर्धक होता है, और इसिलिए बाजार के तैयार
खाना को ‘जंक फ़ूड’ कहा गया है| ‘जंक’ (Junk) को आप ‘जंग’ (Rust) समझ रहे हैं, तो
आप सही ही हैं| अब आप मेरे द्वारा परोसे गए मानसिक सामग्री पर मनन मंथन
करेंगे, सब कुछ झलकने लगेंगे| सब कुछ जब सुलझा हुआ होता है या मिलता है, तो मानसिक शक्तियां
सक्रिय नहीं हो पाती है, क्योंकि उसका समुचित व्यायाम नहीं हो पाता है|
लोकतन्त्र का सफ़र
प्रजातन्त्र में होने का अर्थ भी आप समझ रहे हैं, और इसका प्रभाव भी समझते होंगे| हालाँकि भारत के लोग अभी भी
प्रजातन्त्र की मानसिकता से ग्रसित हैं, और यह गहरी अशिक्षा के कारण ही है| इसी का एक
सामान्य उदहारण है – शासको का वंशानुगत होने की प्रक्रिया या कोशिश| हालाँकि आज
प्रजातन्त्र (लोकतन्त्र नहीं) को पूरी तरह से अप्रासंगिक होना चाहिए, जैसा कि सभी
विकसित समाजों यानि राष्ट्रों में है| शायद इसी के कारण आज भी इसी भ्रम में भारत
में लोकतन्त्र अपनी पुरे प्रवाह (Flow) में नहीं आ पाया है| मेरा काम इन दोनों में
अन्तर रेखांकित करना था, अब आप निष्कर्ष निकालते रहिए|
(आप मेरे अन्य आलेख www,niranjansinha,com या https://niranjan2020.blogspot.com पर
भी अवलोकन कर सकते हैं|)
निरंजन सिन्हा
बिल्कुल सही सर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और स्पष्ट व्याख्या।
जवाब देंहटाएंमनन और मंथन करने योग्य।
सही विश्लेषण, परंतु प्रजातंत्र और लोकतंत्र समानार्थक हो गये हैं, फिर भी प्रजा और नागरिक की अवधारणा में अन्तर है, जिसे आपने सदा की भांति अच्छा समझाया है. धन्यवाद सर. Vinay Kumar Thakur
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार एवं क्रिस्टल क्लियर बताये हैं सर। बहुत बहुत धन्यवाद सरजी।
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