(How to control a Movement?)
बनवारी
बाबू के यहाँ आज फिर महफ़िल जमीं थी| वहां उमेश जी और बाबूलाल भी थे| दिन रविवार और
समय सुबह का था, इसलिए शायद समय की पाबन्दी भी नहीं थी
और समय की किल्लत भी नहीं थी| मैं भी वहां जम गया| विषय बड़ा रोचक था – आन्दोलनों को कैसे
नियंत्रित किया जाता है? इस विषय का सारांश था –इसका विश्लेषण और इसके उपयोग का मनोविज्ञान| उमेश जी बड़े धैर्य से इसका विश्लेषण कर रहे थे, और इसके साथ ही इसकी क्रिया विधि का मनोविज्ञान (Psychology of
Mechanics) समझा रहे थे| अब तो आप
भी समझ गए होंगे कि विषय बड़ा महत्वपूर्ण भी है और रोचक भी है|
मैंने
स्पीड पकड़ रही महफ़िल में ब्रेक लगाया –
‘उमेश जी, सबसे पहले यह बताइए कि आन्दोलन क्या होता है? एक आन्दोलन क्यों होता है? इसके लिए क्या क्या, यानि किस किस चीज की जरुरत होती है? तब आप इसके नियंत्रण की
क्रियाविधि या इसके नियंत्रण का मनोविज्ञान समझाइएगा|’
‘सर’, उमेश जी ने ठहर कर कहा – आप ‘एक आन्दोलन को वर्तमान में चल रही किसी भी व्यवस्था (Order), या किसी भी तंत्र (System), या किसी भी संगठन, या किसी संस्था (Institution) के द्वारा
किए जा रहे तथाकथित (So called) अन्याय,
या शोषण, या अनुचित कार्यो के बोध (Perception) के विरुद्ध सामूहिक
उद्वेलित प्रयास है| यह सामूहिक उद्देलन (Agitation) एक संगठित, नियंत्रित एवं सुनियोजित अथवा स्वत:स्फूर्त हो सकता है| ध्यान रहे कि मैंने संधर्ष शब्द का उपयोग नहीं किया है, बल्कि उद्देलन शब्द का उपयोग किया है, जो बाबा साहेब
के शब्द हैं।
तथाकथित
अन्याय या शोषण या अनुचित कार्यो के बोध से तात्पर्य यह है कि आन्दोलनकारियों
को यह लगना चाहिए कि उनका शोषण हो रहा है, या उनके साथ
अन्याय हुआ है, या उनके साथ अमानवीय व्यवहार हुआ है।
अतः यह
जरुरी नहीं है कि ऐसा होना वास्तविक ही हो, उन्हें ऐसा लगना चाहिए, मतलब अन्याय होना एक मानसिक अनुभूति है| इन आन्दोलनों का उद्देश्य इन शिकायतों का
निवारण किया जाना होता है, यानि उस व्यवस्था, तंत्र या संस्था में
अपेक्षित सुधार या परिवर्तन की मांग है। किसी आन्दोलन
के लिए इसका उल्टा भी सही है, अर्थात यह कि एक आन्दोलन
किसी यथास्थिति को बनाये रखने के समर्थन में भी हो सकता है| इसे आप प्रतिआन्दोलन भी कह सकते हैं। एक आन्दोलन सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावर्णीय
या अन्य किसी बदलाव या सुधार के लक्ष्यों के लिए किया जाता है| चूँकि यह सब मुद्दे
शासन व्यवस्था से नियंत्रित होता है, इसीलिए अक्सर
राजनीतिक नियंत्रण के लिए ही आन्दोलन होता है| इस
तरह इन राजनीतिक आन्दोलनों का उद्देश्य सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक या पर्यावर्णीय लक्ष्य की ही
प्राप्ति होती है|’
मुझे
उमेश जी द्वारा 'बोध' शब्द यानि अवधारणा का प्रयोग अच्छा लगा| लोग यानि जनसमूह का बोध क्या है? मतलब यह है कि
एक आन्दोलन के लिए अन्याय या शोषण या अमानवीय व्यवहार ही होना जरुरी नहीं है, अपितु उन्हें ऐसा बोध होना चाहिए, ऐसा लगना चाहिए| इसका अर्थ यह हुआ कि इन आंदोलनों का आधार काल्पनिक भी हो सकता है, वास्तविक भी हो सकता है और कृत्रिम भी हो सकता है| मतलब यह हुआ कि जहाँ की जनता की विश्लेषण की समझ कम हो और अज्ञानता का
प्रसार ज्यादा हो, उन्हें किसी भी आन्दोलनों में आसानी से हांका जा सकता है|
मैंने
उमेश जी से पूछा था कि एक आन्दोलन में किस किस चीज की जरुरत होती है? इसका उत्तर दिए बिना वे
चुप हो गए थे, सो मैंने उन्हें इसके लिए भी याद दिलाया| बनवारी बाबू ने मेरे हाँ में हाँ मिलाया|
उमेश
जी आगे बढे – ‘एक आन्दोलन में वैचारिकी
चाहिए,
समय चाहिए, धन चाहिए, प्रचार चाहिए, अन्य संसाधन चाहिए और उर्जा
चाहिए| कहने का तात्पर्य यह है कि एक आन्दोलन की सफलता के
लिए इन सबों को झोकना (Blow down) पड़ता है, तब जाकर एक आदोलन सफल होता है| आप
किसी मुद्दे के विरोध में चल रहे किसी आन्दोलन को नियंत्रित करना चाहते हैं, तो एक आसन तरीका यह है कि
उनके मुख्य नेता को ही खरीद लीजिए| तब उस
नेता को सिर्फ यह करना होता है कि वह आपकी भावनाओं की अभिव्यक्ति को संवैधानिक एवं वैधानिक हद से आगे निकाल ले जाय| मतलब
कि वह गाली देने में आपसे ज्यादा आक्रामक हो जाय और आपको यह लगे कि वही आपकी
भावनाओं को समझने वाला सच्चा योद्धा है| यदि ऐसी ही
गाली कोई और दे दें, तो निश्चित मानिए कि उस पर वैधानिक
कारवाई हो जाएगी, परन्तु उस नेता पर नहीं होगी| आपलोग उन विरोध कार्यक्रमों में, संधर्षो में उलझे
रहिए, आन्दोलन गलत दिशा में चलता रहेगा और उनका प्रचार
प्रसार होता भी रहेगा, जिनके विरोध में आन्दोलन चलता
दिखेगा|’ ऐसी स्थिति अक्सर सांस्कृतिक विरोध के आन्दोलनों के
साथ होता है।
बाबूलाल
बोल पड़े – ‘ उमेश जी, क्या
एक आन्दोलन जवानी नहीं खोजता है? बिना जवानी के क्या कोई आन्दोलन सफल भी हुआ है?’ मैंने उनका समर्थन किया कि
आप एकदम सही है| उमेश जी भी सहमत हुए|
मैंने
सवाल किया कि ‘क्या एक आन्दोलन में समय, धन, संसाधन, उर्जा और जवानी झोक देने से आन्दोलन
सफल हो सकता है? बहुत से आन्दोलन लंबे समय से चल रहे हैं, और
उनमे यह सब भी झोंका हुआ भी है, फिर भी सफलता मृग
मरीचिका (Mirage) की तरह दिखती तो है, परन्तु वास्तविकता में धरातल पर नहीं आती| ऐसा
क्यों होता है?’
उमेश
जी गंभीर हो गए थे –
‘आप आंदोलनों
के स्वरुप को समझिये, आन्दोलन क्यों किए जाते हैं?’ उमेश जी गहराई में उतर गए थे| अब उनके शब्द नपे तुले हो गए और शब्दों की अभिव्यक्ति के प्रवाह भी धीमा
हो गया, परन्तु इन शब्दों में गंभीरता और कठोरता था| ‘कुछ आन्दोलन तो विरोधियों के
द्वारा ही प्रायोजित होते हैं| यानि जिनके विरोध में
आन्दोलन होना है, वही लोग अपने विरुद्ध इन आंदोलनों को
संचालित करवाते भी है?’
मेरी
कड़ी आपत्ति थी –
‘उमेश जी, आप क्या मजाक कर रहे हैं? एक एक आन्दोलनकर्ता अपने आंदोलनों को आगे बढ़ाने के लिए सौ से भी अधिक
संगठन यानि इकाई बना कर आन्दोलन चला रहे है| समाज के हर
स्तर के लोगों को जोड़े हुए है, क्या रिक्शा वाला, क्या झोपडी वाला? और आप उन्ही पर इल्जाम लगा
रहे हैं?’
‘सर आप मेरी बात तो सुनिए’, उमेश जी ने कहा –
‘आप पूरी बात तो सुनते नहीं है, और बीच
में टपक जाते हैं| आप
ऐसे समझिये कि चूँकि एक आन्दोलन में समय, वैचारिकी, उर्जा, धन, संसाधन और जवानी झोंका जाता है, और यदि विरोधी चाहता है कि उनके विरोधियों (आन्दोलन करने वाले) का समय, संसाधन, धन, उर्जा
और जवानी सही तरीके से संगठित होकर उनके विरुद्ध नहीं लगे, तो उन आन्दोलनकर्ताओं के समय, धन, उर्जा, संसाधन और जवानी को बर्बाद करा दिया
जाता है या उसे उलझाये रखा जाता है| ध्यान दिया जाय, सिर्फ विरोध करना और कोई
सकारात्मक एवं रचनात्मक विकल्प नहीं देना ऐसे आन्दोलनों की विशिष्ट पहचान है| ऐसे आन्दोलन अपने विरोधियों के दिए गए अवधारणाओं पर ही
आधारित होती है, यानि टिकी हुई होती है| यदि विरोधियों ने अपनी
अवधारणा में कोई बदलाव कर दिया, तो ऐसे आन्दोलन बालू के
महल की तरह ध्वस्त हो जाते हैं| ऐसे आन्दोलन प्रायोजित होते है, इसलिए इनके आन्दोलनकर्ता
को विशेष संरक्षण एवं गुप्त समर्थन भी मिलता है| ऐसे आन्दोलनों का कोई
विरोध भी नहीं होता, क्योंकि ये तो अपने तथाकथित विरोधियों का ही काम कर रहे होते हैं या अपने विरोधियों के
विरुद्ध खड़े हुए मानवीय एवं अन्य संसाधनों को उलझाये हुए रहते हैं या बर्बाद करते
हुए होते हैं|’
‘आप तो आन्दोलनों को नितंत्रित करने का मनोविज्ञान समझाने वाले थे|’ बाबूलाल ने उमेश जी से कहा|
‘आप आंदोलनों को नियंत्रित करने के मनोविज्ञान में ही आन्दोलन का
मनोविज्ञान समझिये|’ – उमेश जी ने बात आगे बढाया – ‘आन्दोलन का मनोविज्ञान यह है कि लोग यानि जनसमूह
किसी आन्दोलन में किसी मुद्दे का समर्थन करते हैं या विरोध करते हैं| मतलब लोगों में किसी मुद्दे के समर्थन के लिए लगाव यानि प्यार (Love/
Affection) होता है या किसी मुद्दे के विरोध में घृणा (Hate/
Disgust) होता है| इसलिए एक चतुर एवं समझदार
रणनीतिकार किसी आन्दोलन को नियंत्रित करने के लिए किसी मुद्दे के प्रति लोगों के
लगाव यानि प्यार या घृणा का उपयोग भी खूब करते हैं|’
‘किसी मुद्दे के लगाव से लोग उनके समर्थन में खड़े होते हैं और बढ़ चढ़ कर
हिस्सा लेते हैं| परन्तु किसी मुद्दे के विरोध में यानि
घृणा का उपयोग किसी आन्दोलन को ध्वस्त करने में लगाया जाना को नहीं समझ पाते हैं|
मतलब यह कि हमारा विरोध करने के यानि घृणा करने के भाव का ही उपयोग
मेरे ही विरुद्ध किया जा सकता है?
बहुत
अलग बात कह रहे हैं, उमेश जी|’ – इस बार बनवारी का हस्तक्षेप था|
उमेश
जी समझाने लगे –
‘देखिए, सामान्यत: मध्यम एवं निम्न और गरीब वर्ग के लोग भावनात्मक
ज्यादा होते हैं और तार्किक कम होते हैं| इसीलिए इनकी भावनाओं का दोहन आसानी से कर लिया जाता है| ये तार्किक हो नहीं सकते, इसलिए गहराई से
विश्लेषण कर नहीं सकते, मीडिया जितना परोस देती है, सहजता से मान लेते हैं| आप कह सकते है कि ये
दिल से काम लेते हैं, दिमाग से नहीं| इसीलिए इनको
धर्म, राजनीति और नैतिकता के नाम पर आसानी से बहा लिया जाता है| ये चतुर रणनीतिकार यह सब
जानते हैं और इसका खूब उपयोग भी करते हैं|’
इस
बार मैंने टोका –
‘उमेश जी, आप घृणा के उपयोग को समझाया
नहीं|’
‘सर’, आप किसी से घृणा करते हैं, या किसी को प्यार, आपका मस्तिष्क उसी पर
केन्द्रित रहता है| आप अपना पूरा समय, उर्जा और धन भी उसी पर केन्द्रित किए हुए होते हैं| यानि आपका
मस्तिष्क उसके नियंत्रण में होता है, तो आप अपने नियंत्रण में नहीं होते हैं| इस तरह कोई आपके घृणा के भाव के साथ भी यानि
आपके घृणा के भाव के द्वारा ही आपको नियंत्रित करता है| वह यानि आपका विरोधी जानबूझ कर ऐसे ऐसे
मुद्दे समाज में छोड़ेगा कि आप उसे समझने में, उसकी
बुराइयां करने में या उसमें कमियाँ निकालने में या उसका विरोध करने में अपना
सर्वस्व झोकतें रहे| आप भी अपनी तथाकथित विद्वता, जागरूकता, समझदारी का प्रदर्शन करते रहेंगे और
वे क्रमश: नए नए मुद्दे फेंकते रहेंगे| वे लोगों की सतही
भावनाओं यानि अह्म की संतुष्टि का बखूबी उपयोग करते हैं।’ - उमेश जी ने स्पष्ट किया|
‘मतलब कि हमें गलत का विरोध नहीं करना चाहिए, अपनी
समझदारी का उपयोग नहीं करना चाहिए| वाह, उमेश जी, वाह|’ मैं
इस बार कुछ चिढ गया था|
‘नहीं सर’, - उमेश जी बात काट रहे थे – ‘हमें उनके मुद्दे देने के इन्तजार में नहीं बैठना चाहिए| हमारे पास भी रचनात्मक एवं सकारात्मक समाधान होना चाहिए, हमारे पास भी कुछ कार्यक्रम होना चाहिए, सिर्फ
विरोध का एजेंडा ही नहीं होना चाहिए| “विरोध की रणनीति” से “विकल्प की रणनीति” ज्यादा असरदार होती है| हम क्यों नहीं उनके आदर्शों
के मूल पर प्रहार करते हैं, जबकि सब कोई जानते हैं कि एक संस्था का आत्म (Spirit) यानि निचोड़ उनके आदर्श में होता है| यानि किसी
भी संस्था यानि तंत्र का 'आत्म' समाप्त, तो वह संस्था यानि तंत्र भी समाप्त| लेकिन
हमलोग इसकी समझ के लिए कभी विमर्श नहीं करना चाहेंगे| थोरो ने एक बार कहा था कि जहरीले पेड़ की हर पत्तियों
का विश्लेषण करने एवं उसे नष्ट करने से बेहतर है, कि उसके जड़ पर प्रहार
कर उसे ही नष्ट कर दिया जाय|’
बनबारी
बाबु ने एक सीधा सवाल किया –
“आप साफ साफ क्यों नहीं बताते कि यह सब कौन कर रहा?’
‘पहली
बात, मुझे
नेतागिरी नहीं करनी। दूसरी बात, मुझे प्रबुद्ध नेताओं और नागरिकों को बात की गहराई तक समझाना है, तीसरी बात, मैं सिर्फ वर्तमान के संदर्भ
में नहीं कह रहा, बल्कि भूत और भविष्य को भी समझने
समझाने का प्रयास कर रहा हूं। ई रुजवेल्ट कहती हैं कि बड़े लोग विचारों पर
विमर्श करते हैं, और मध्यम एवं निम्न गरीब वर्ग घटनाओं और व्यक्तियों के वर्णन व्याख्या तक
सीमित रहते हैं। मेरा उद्देश्य लोगों को
रटवाना नहीं है, अपितु लोगो को विचार, विश्लेषण और मंतव्य को
विकसित करने की दृष्टि देना और विस्तार देना है। इस दिशा में आप सोचेंगे, तो मुझसे ज्यादा गहराई और विस्तार में जाएंगे। प्रयास तो कीजिए।‘
– उमेश जी बोल गए|
उमेश
जी की बातों का सार मुझे यह समझ में आया कि हमें अपना मौलिक चिंतन करना चाहिए और अपनी अवधारणाएं (Concepts) विकसित करने चाहिए। सांस्कृतिक इंजीनियरिंग का प्रयास और प्रयोग करना
चाहिए। विचारों में पैरेडाईम शिफ्ट करना चाहिए। तब हमारे आंदोलन को सही दिशा
मिलेगी और सही आधार मिलेगा। तब ही सफलता मिलेगी। आज न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित कोई भी आंदोलन सफल हो सकता है, वशर्तें व्यक्ति और समाज की मनोविज्ञान की सही समझ हो।
बैठक
लम्बी हो गयी थी| समाप्ति तक आज उमेश जी बड़ी बड़ी बात कह गए| कुछ
तो समझ में आया, परन्तु कुछ नहीं समझ में आया| खैर, कोई बात नहीं, मैंने
सारी बातें मोबाईल में रिकार्ड किया हूँ, रात में रोक
रोक कर फिर सुनूंगा; तब समझ में आ जायेगा| आप भी रुक रुक कर पढियेगा, तो समझने लगेंगे|
"जय
मानवता।" – कह कर उमेश जी उठ खड़े हुए। सभा समाप्त हुई।
हम
भी, आपकी
ही तरह, एक सुनहरे और बेहतर भविष्य के इंतजार में हैं, आप भी सोचिएगा।
(आप
मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
आचार्य
प्रवर निरंजन
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