“आक्रामकता के अपहरण” (Abduction of Aggression) की अवधारणा (Concept), क्रियाविधि (Mechanism),
उपयोग (Use) एवं रणनीतिक (Strategy) समझ को समझना आवश्यक है| मैं पहली बार उमेश जी के मुख से इस नयी अवधारणा को सुन रहा था| मैं उनकी “आक्रामकता के अपहरण” की बात सुनकर और उसके सटीक प्रयोग एवं उपयोग से विचारमग्न हो गया|
‘आक्रामकता का अपहरण’, क्या लाजवाब शब्द और
अवधारणा है| सोचने लगा कि इसी तरह आजकल सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक
आन्दोलनों का अपहरण कर लिया जाता है| ये
अपहरणकर्ता अचानक अपने विरोधी विचारों, मान्यतायों, आदर्शों
एवं सिद्धांतों के कट्टर समर्थक हो जाते हैं और अपने स्थापित विचारों (Thoughts),
मान्यतायों (Assumptions), आदर्शों (Ideals) एवं सिद्धांतों (Theories) के कट्टर एवं
मुखर विरोध करने लगते हैं| ऐसा लगने लगता है कि उनमे कितना
ह्रदय परिवर्तन हो गया है और वे अपने विरोधियों की भावनाओं को समझ कर इनका सम्मान
करने लगे हैं| परन्तु मैं गलत था, यह अचानक नहीं होता है, अपितु ये बहुत सोची समझी रणनीति के अंतर्गत होता है| ये इन विरोधियों की
विचारों, मान्यतायों, आदर्शों एवं
सिद्धांतों के कट्टर समर्थन नहीं करते, अपितु इनकी
मनोवैज्ञानिक समझ (Psychological Understanding) का
सदुपयोग या दुरूपयोग करते हैं| इस तरह आजकल सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आन्दोलनों का अपहरण कर
लिया जाता है और इन भोले भाले नेताओं एवं समर्थको को पता भी नहीं चलता है| धन्य हैं उनकी
मनोवैज्ञानिक समझ और उसका रणनीतिक उपयोग|
प्रसंग
यानि सन्दर्भ यह था कि कुछ दिन ही पहले मैं एक शादी में गया था| उमेश जी वहां भी मौजूद थे|
हमलोग लड़की पक्ष से थे यानि कि ‘शराती’
थे, ‘बाराती’ नहीं|
देश दुनिया की बात चल रही थी, मैं भी वहां
बैठा उनलोगों की बात सुन रहा था| वैवाहिक कार्यक्रम की
शुरुआत निर्धारित समय से नहीं हो पाया था| उमेश जी एक बार
उखड चुके थे, क्योंकि लड़की अभी तक वरमाला कार्यक्रम के लिए
विवाह हाल में उपस्थित नहीं हो सकी थी; शायद सजने सवरने में
विलम्ब हो रहा था| विलंबता की बेचैनी बाराती पक्ष के प्रमुख
लोगो पर दिख भी रही थी, उसी समय उमेश जी लड़की के पिताजी पर
उसी हाल में और बाराती के समक्ष उखड़े थे|
खैर, लड़की आ चुकी थी| वर- वधू माला (जयमाला) के कार्यक्रम से शुरुआत होनी थी, तैयारी शुरू होते ही लड़की के मामा जी अपनी पहचान विवाह हाल में दर्ज कराने
के लिए सक्रिय हो गए| अक्सर लड़की के मामा जी और लड़का के फूफा
जी या बहनोई जी विवाह कार्यक्रमों में अपनी विशिष्ट पहचान के लिए बेकरार हो जाते
है| यदि उनके पास विशेष पहचान के लिए कोई सकारात्मक
विशिष्टता नहीं होती है, जैसा अक्सर होता है, तो वे अपनी दुष्टता की हद का भी उपयोग करने से नहीं चुकते हैं| लड़की के मामा ने एक परंपरा के नाम पर जयमाला कार्यक्रम में एक घंटे का
विलम्ब करा दिया, परिणामत: लगभग आधे बाराती एवं शराती के लोग
चले गए थे| इस अनावश्यक दुष्टता (विलम्ब) से लड़की के मामा
में संतुष्टि का भाव झलक रहा था|
अब
दुष्टता की बारी लड़के के बहनोई की थी| लड़की के महिला परिवार लोकगीत के साथ कार्यक्रम बढ़ा रही थी| महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, जैसा लोकप्रिय
व्यक्तित्व के साथ होता है, थोडा अतिरिक्त समय लग रहा था|
लड़के के बहनोई ने लड़की पक्ष के महिलाओं को भड़काने के लिए कुछ
दुष्टतायें रणनीतिक के तहत की| परिणाम यह हुआ कि लड़के के बहनोई
एवं बहनें तेज आवाज में शुरू हो गए थे, अचानक उमेश जी उठ खड़े
हुए| उमेश जी लडकी की तरफ से थे, परन्तु
लडकी पक्ष की महिलाओं पर तेजी से उखड़े हुए थे, यानि बाराती
पक्ष के भावनाओं के समर्थन में आक्रामक नेता हो गए थे| मामला
तुरंत शांत हो गया, विवाद भी एकदम ख़तम हो गया|
इस
तकनीक के फायदे एवं प्रभाव से मैं अचम्भित था| मण्डप में कार्यक्रम सामान्य ढंग से चल रहा
था| मैंने उमेश जी पूछ ही लिया – ‘श्रीमान
आप लडकी की चाचियों, मौसियों एवं अन्य रिश्तेदारों पर उखड तो
गए, पर आप बताइए कि दुष्टता किसकी थी?’
उमेश
जी ने समझाया- ‘सर, प्राथमिकता (Priority) क्रिया एवं प्रतिक्रिया के सही - गलत स्थापित करने की नहीं थी, विवाह कार्यक्रम को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने की थी| बात मनोवैज्ञानिक समझ की
थी, और उसके
तत्काल रचनात्मक समाधान की थी| मैंने उनके आक्रामकता को अपने
कमान में ले लिया और मामला मेरे पक्ष में हो गया| अब सब कुछ
सामान्य हो गया, जो मेरी प्राथमिकता थी|’
मैं
सोचने लगा कि “सही और गलत” भी सापेक्षिक (Relative) होता है, और उसका निर्धारण प्राथमिकताओं के सन्दर्भ (Reference) में भी होता है| सही और गलत की सापेक्षिता की अवधारणा. समझने का एक नया पक्ष|
कुछ
समय बाद, विवाह
कार्यक्रम संपन्न होते ही, विवाह हाल में ही ‘समधी’ एवं अन्य के समक्ष उमेश जी एक छोटी कहानी सुना
रहे थे| कहानी यह था – एक जंगल में एक
बार एक ‘गदहा’ (Ass) और एक ‘बाघ’ (Tiger) में बहस हो गया| इन दोनों
में बहस हो रहा था, कोई विमर्श नहीं| ‘बहस’ में
लक्ष्य क्षुद्र (निम्न एवं छोटा) होता है और हर पक्ष जीतना चाहता है, जबकि ‘विमर्श’ में लक्ष्य बड़ा,
सकारात्मक एवं रचनात्मक होता है और जीत मुद्दे की होती है, किसी भी पक्ष की नहीं होती है| गदहा कह रहा था कि घास का रंग नारंगी होता है, जबकि बाघ कह रहा था कि घास का
रंग हरा होता है| बहस बढ़ गया और विवाद बन गया| बहस अक्सर विवाद में बदल ही जाता है| मामला
जंगल के राजा ‘सिंह’ (Lion) के पास पहुंचा| राजा ने इस मामले में बाघ को एक दिन
कारावास की सजा सुना दी और गदहे को बाइज्जत छोड़ दिया| गदहा
खुश होकर जंगल में नाचने लगा| अगले दिन बाघ ने राजा ‘सिंह’ से पूछा कि हुजुर, आप ही
बताइए कि घास का रंग नारंगी होता है या हरा? राजा ‘सिंह’ ने कहा – हरा| तब बाघ ने राजा को याद दिलाया कि उसने भी यही कहा था, फिर भी सजा मिली| राजा ने कहा कि तुम्हे सजा बहस करने के
लिए मिली है,
और वह भी एक गधे से| तुम विमर्श नहीं कर रहे थे, बहस कर रहे थे| वह तो एक गदहा है और उसे समझ
नहीं है| तुम
तो एक समझदार हो,
किसी की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समझते हो| तुममे तो सामान्य बुद्धिमता है, भावनात्मक बुद्धिमता
है, सामाजिक बुद्धिमता है, और तुममे
बौद्धिक बुद्धिमता भी है, जबकि एक गदहे में इनमे कुछ भी नहीं
है| कहानी ख़तम|
पता
नहीं, उमेश
जी यह कहानी समधी और कुछ बाराती को क्यों सुना रहे थे और वह भी वैवाहिक रस्म की
समाप्ति पर| वे किसको गदहा बता रहे थे, मैंने विश्लेषण नहीं किया| लेकिन उमेश जी ने अपनी
कहानी में बहस और विमर्श को समझाया, जो मुझे भी समझ में आ
गया| परन्तु सामान्य बुद्धिमता, भावनात्मक
बुद्धिमता, सामाजिक बुद्धिमता, और
बौद्धिक बुद्धिमता में अंतर समझ में नहीं आया|
मैंने
पूछ ही लिया -’उमेश जी, इन चारो – सामान्य बुद्धिमता (General intelligence), भावनात्मक बुद्धिमता (Emotional Intelligence), सामाजिक बुद्धिमता (Social Intelligence), और
बौद्धिक बुद्धिमता (Wisdom Intelligence) में क्या अंतर है?’
उमेश
जी ने बताया कि जो सामान्य ज्ञान यानि
रटने से सम्बंधित है,
वह सामान्य बुद्धिमता है; जो सामने वाले की
भावनाओं को ध्यान में रखता है, भावनात्मक बुद्धिमता है;
जो सामाजिक महत्त्व को ध्यान में रखता है, सामाजिक
बुद्धिमता है; और जो मानवता एवं भविष्य से सम्बन्धित होता है,
वह बौद्धिक बुद्धिमता हुआ, जैसे गोतम बुद्ध की
बुद्धिमता|
मैंने
मन ही मन उमेश को धन्यवाद दिया कि उन्होंने आज भी कुछ नया समझा दिया|
(आप
मेरे अन्य आलेख niranjan2020.blogspot.com
पर देख सकते हैं।)
निरंजन
सिन्हा
💐💐👍👍 Bharat mein rajnitik aur Dharmik mamle Mein Aisa Jyada dekhne ko mil raha hai.... is Sandarbh Mein vistar purvak likha Jata to Jyada Behtar Hota.... Saraniya Prayas
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंअपनी बात को निजी जीवन के अनुभवों से इतने अच्छे ढंग से समझाना हमे आपके लेखन का कायल बना देता है। Topic तो आप जबरदस्त उठाते ही है। धन्यवाद, कदम कदम पर इस गिरते हुए समाज को ऐसी ही लेखनियो की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंA good story and a good learning. Keep up the good work. Will wait for your next article.
जवाब देंहटाएंVery important & intelligent social configuration.keep on and on saheb ji.keep on writing the verses.
जवाब देंहटाएंविशेष शब्दों और अवधारणाओं को अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करने और इसमें कई रंगों और हाई लाइटर का प्रयोग आकर्षक है।
जवाब देंहटाएंआपके उमेश जी आपके विचारों को पाठकों तक प्रभावकारी ढंग से पहुंचाते और समझाते हैं। बधाईयां, सर। बहुत सुंदर।
सर, बहुत बढ़िया। संस्कृत में कई कहानियां पशु पक्षी पर लिखी रहती थी। उस समय आश्चर्य लगता था आखिर इसकी बात आदमी कैसे समझ जाता है। खैर, बाद में पता लगा कि इन जीवों के ऊपर कहानी बनाकर पेश करने की बेहतरीन कला से स्रोताओं को अच्छा से ग्राह्य होता है। इसी तरह की पशु पक्षियों पर ढेरों कहानी सनातन की, महाभारत, रामायण में पशु बंदर पक्षी जटायु एवं कई जानवरों पर लिखी गई है। पर, आश्चर्य लोग कहानी के भाव नहीं समझ बन्दर को ही हनुमान समझ पूजनीय बना पूरे कहानी को ही सत्य समझ अयोध्या में भी मन्दिर बनाने में जुट गये हैं। आपके द्वारा भी माध्यमों द्वारा मेसेज की कला अच्छी लगी सर।
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