आज उमेश जी फिर मिल गए| हालाँकि मैं उनसे मिलने नहीं गया था| मैं तो
चाय पीने के लोभ में बनवारी बाबू के यहाँ गया था, उमेश
जी वही प्रवचन दे रहे थे| वह भाषण था या प्रवचन, इस पचड़े में मुझे नहीं पड़ना| कुल चार जने बैठे
थे, मैं पाचवाँ हो गया| मुद्दा
था कि सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन कैसे आगे बढे? चूँकि विषय बड़ा रोचक और महत्वपूर्ण था, मैं भी
चुपचाप श्रोता बनकर एक किनारे बैठ गया|
बात सांस्कृतिक एवं धार्मिक
ग्रंथो की बुराइयों एवं उसमे दर्ज आपतिजनक प्रसंगों पर चल रही थी| उन आपतिजनक बातों सम्बन्धी आन्दोलनों को चलाने बढ़ाने की बात चल रही थी| मुझे बदलाव के तरीके और आन्दोलन चलाने के ढर्रे पर आपत्ति थी, पर मैं चुपचाप सुनने के मूड में था| आपत्तिजनक
स्वर में आलोचना करना और संघर्ष करना क्या एक मात्र तरीका हो सकता है? स्थापित विद्वानों के बात में बिना समझे खोट निकलना कहाँ की समझदारी है? ज्ञानी लोग तो कहते हैं कि वे तुन्हें हथियार उठाने को बाध्य करेंगे, परन्तु तुम कलम को नहीं छोड़ना, मुझे बढ़िया से
याद है|
मैंने पूछ ही दिया –
“आपलोग समाज में क्रान्तिकारी सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव करना चाहते
हैं, तो क्या आपके आन्दोलन की दिशा और प्रक्रिया सही है? आपके आंदोलनों को किस दिशा में मोड़ दिया गया है, कभी आपने सोचा है? या आप भटक तो नहीं गए हैं?”
अटपटा और अप्रत्याशित सवाल
पर सब ठिठक गए|
फिर बनवारी बाबू ने बात शुरू
किया –
‘'आप कहना क्या चाहते हैं? एक आन्दोलन
में सम्बंधित लोगो की सहभागिता होती है, और वे समुचित
बदलाव चाहते हैं|’'
‘आप सही कह रहे हैं’
- मैंने कहा – ‘लेकिन भटकाव का एक
बहुत साधारण उदहारण बाबा साहेब का दे रहा हूँ| बाबा
साहेब ने 1942 में नागपुर में एक सभा में एक नारा – Educate,
Agitate, Organise का दिया| परन्तु धूर्त शातिरों ने इसे बदल कर – Educate,
Organise, Struggle बना दिया| क्या बाबा साहेब को इन दो शब्दों Agitate और Struggle के भावों एवं अर्थों में
अंतर नहीं पता था, और इन शातिरों को ज्यादा पता था, जिन्होंने इनके शब्दों को बदल कर अनर्थ कर दिया? इसी तरह इनके शब्दों के क्रम को
बदल दिया, Organise शब्द को तीसरे
क्रम से दूसरे क्रम पर ले आए| नादानों
और मूर्खों को तो इसमें कोई अंतर नहीं दिखता, अंतर
देखने के लिए बाबा साहेब के स्तर को समझना होगा| इन
आन्दोलनकारियों को सतही अर्थ और निहित अर्थ में कोई अंतर समझ में ही नहीं आता| ऐसे लोग आन्दोलन को कहाँ ले जा रहे हैं? ये लोग
आन्दोलन चला रहे हैं या किसी ..... को हांक
के ले जा रहे हैं, ये तो वही तथाकथित नेता समझें? ये भावपूर्ण जोशीले भाषण देकर पब्लिक से खूब तालियाँ बजवाते हैं, और पब्लिक का समय, धन, उर्जा और जवानी बर्बाद करवाते हैं|’ मैं भी
धाराप्रवाह बोलता गया| मेरा मूड उखड़ गया था|
बनवारी बाबु गौर से सुन रहे
थे| बोले –‘भई आप तो नई जानकारी दे रहे हैं| इससे तो यह साफ दिखता है कि इन आन्दोलनों को इनके विरोधियों ने चुपके से
आन्दोलन की दिशा ही में ही उलझा दिया है| ये
आन्दोलनकारी नेता लोगों को जोश दिखाकर और विरोधियों को गाली देकर आंदोलन को ही
दिशाहीन किये हुए हैं|’
मैं तो जोश में था| उसी प्रवाह में अपनी बात को आगे बढाया – ‘आन्दोलन
में रणनीति होती है और उसमें समझ होती हैं| आन्दोलन में
सबकी सहभागिता के लिए प्रचार भी होता है| प्रचार के कई
तरीके होते हैं| कुछ बातों को इस तरह बोला जाता है, मानो उसका आलोचना हो रहा है, परन्तु होता उसी
विरोधियों का प्रचार है| आपने भी देखा होगा कि कभी- कभी
किसी फिल्म के निर्माता या निर्देशक पर उसी फिल्म की हिरोइन कोर्ट में केस करती है
कि फिल्म की कहानी में मेरे हाथ छूने की बात थी, और
हीरो ने स्क्रिप्ट से हटकर फिल्म में मेरे गाल को छू दिया| फिर इस मानहानि केस के मामले को जानबूझकर मीडिया में डाल दिया जाता है, और पब्लिक इस फिल्म को देखने के लिए उमड़ पड़ती है| यह सब इन लोगों की मिलीभगत से होता है| इसमें
सामान्य लोगो के मनोविज्ञान की समझ का बारीक़ उपयोग किया जाता है| लोग समझते हैं कि तीखी आलोचना हो रही है, परन्तु
यहां होता है भयंकर प्रचार|’
प्रचार एक मनोवैज्ञानिक साधन
है यानि एक सुविचारित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा
समाज की सोच पर प्रभाव डालकर जनमत को निर्धारित और नियंत्रित किया जाता है| चूँकि
यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, इसलिए
मन ज्यादा महत्वपूर्ण है, दिमाग से| अर्थात भावना (Emotion) ज्यादा महत्वपूर्ण है
तर्क (Logic) से| मशीनो के
सञ्चालन में तर्क यानि कार्य- कारण महत्वपूर्ण है, भावनाएं
तो संचालक समझते है| इसी तरह समाज के सञ्चालन में
भावनाएँ महत्वपूर्ण होती है, परन्तु तर्क (दिमाग) तो
उनके संचालक के पास रहते हैं| इसलिए
समाज को चेतन, अचेतन एवं अधिचेतन तीनों स्तरों पर
प्रभाव डाल कर जनमत का नियंत्रण प्रचार का तरीका होता है|
‘सर मैं आपकी बात को आगे बढ़ाते
हुए एक छोटा प्रसंग सुनाना चाहता हूँ’ – मनोहर दयाल बीच
में टपक पड़े| ये पालि भाषा के अच्छे ज्ञाता भी हैं, और इसीलिए इनकी बातें सुनने लायक होती हैं| - ‘प्रसंग
बहुत पुराना है, प्राचीन काल का है| एक गाँव में एक “एतवारी” नाम का व्यक्ति रहता था| उसे बड़ी इच्छा थी कि
लोग उसे ‘बाम्हन’ या ‘बम्हन’ कह कर पुकारें या जाने| उस समय प्राकृत एवं पालि ही प्रचलित भाषा थी| पालि
में ज्ञानी, विद्वान को बाम्हन
या बम्हन कहा जाता है| यही शब्द सामंत काल में ब्राह्मण हो गया यानि गुणसूचक संज्ञा से जातिसूचक यानि नामसूचक संज्ञा हो गया| उसने इस समस्या के समाधान के लिए अपने एक मित्र से सलाह लिया| उस मित्र ने एक उपाय सुझाया कि मैं तुम्हे सबके सामने बाम्हन (ज्ञानी, विद्वान) बोलूँगा, तुम इस बात को लेकर मुझ पर
तुरन्त आपत्ति के साथ आपत्तिजनक शब्दों और गाली-गलौज का उपयोग करना| फिर क्या होगा कि लोग तुम्हारे इस व्यवहार पर मजे लेने के लिए तुम्हें इसी
नाम से पुकारेंगे और तुम प्रचारित हो जाओगे| यही हुआ| एतवारी अपने गाँव और आसपास के इलाके में बाम्हन यानि ज्ञानी के नाम से
प्रसिद्ध हो गया|’ यह प्रचार का नकारात्मक
तरीका है, जो चुपचाप और प्रभावी
तरीके से काम करता है| इसमें प्रचारक का समय, उर्जा और संसाधन भी बच जाता है, क्योंकि इसका
प्रचार इसके विरोधी करते हैं| प्रचारक तो समझदारी से
अपना बात इस तरह से छोड़ देता है कि लोग आलोचना समझ कर इसका प्रचार और प्रसार करता
रहता है|’ मनोहर दयाल बड़े पते की बात
बता रहे थे और इसलिए सभी गंभीरता से सुन रहे थे|’
बाबूलाल ने कहा –
‘इस कहानी से आप किस आन्दोलन पर निशाना लगा रहे हैं?’
मनोहर दयाल ने स्पष्ट किया –
‘मैं आपको किस एक आन्दोलन का उदहारण दूँ? इतने बड़े भारत में बहुत सारे ऐसे आन्दोलन हैं| वैसे
आप कम शातिर नहीं हैं, आप समझते सब हैं, लेकिन मुझसे उगलवाना चाहते हैं, तो मैं कुछ
हिंट छोड़ ही देता हूँ| जरा बताइए कि आप
अपना बुद्धि विवेक लगाइयेगा नहीं, और
अपने विरोधियों के अध्ययन तथा फेंके गए बातों को, भावों
को अपना आधार बना कर लड़ियेगा, तो वे कभी भी आपको
आधारहीन बना देंगे| ई सिम्पल सा बात आप को समझ
में आता है कि नहीं जी। आप उनकी आर्यों के आक्रमण
की झूठी कहानी को सही मानकर आन्दोलन चला दिए, और
आगे बढ़ गए| हुआ क्या? 'आई.आई. टी.' खड़गपुर ने स्थापित कर दिया है कि आर्यों की कहानी झूठी है| अब तो इस आधार पर चल रहा आपका आन्दोलन उड़ गया| अपना कुछ विचार ही नहीं है, कोई चिंतन ही नहीं
है| विरोधियों से उधार लेने का रिजल्ट यही होना है| यही हाल मूल निवासी का होगा| इस अवैज्ञानिक
कहानी का भी यही अन्त होगा| “दीपवंश” के नाटक के आधार पर आप पुष्यमित्र को ब्राह्मण बता रहे हैं, और बौद्धों का हत्यारा| क्या आपके पास कोई
प्रमाणिक साक्ष्य है, जो पुष्यमित्र की इस कहानी को सही
साबित करे? इस कहानी का भी यही अन्त होगा| आप ही
बताये कि इन काल्पनिक आधारों पर चल रहा आन्दोलन कब फेल हो जायेगा, इनके नेताओं को भी पता नहीं? ऐसा
इसलिए होना है, क्योंकि ये सब अवधारणा इनके अपने चिंतन
के आधार पर नहीं है| तब आपको पता चलेगा कि इन नेताओं ने
कैसे देश के बहुत बड़े मानव संसाधन को, उसकी उर्जा और धन
को बर्बाद किया है, और अब भी कर रहे हैं? कितनी जवानियाँ अपनी रोटी सेंकने में तबाह कर दिया गया?’ अचानक उसने अपने वाणी प्रवाह को रोक दिया| हम
सब उनकी इन बातों से सन्न रह गए|
लेकिन उमेश जी कुछ और स्पष्ट
समझना चाह रहे थे| उन्होंने कहा –
‘ये सब बात तो विचारणीय और अति गंभीर है| लेकिन आप बाम्हन, बम्हन, ब्राह्मण, ज्ञानी, विद्वान
आदि समझा रहे हैं, मैं समझा नहीं| यह सब आप कहाँ से बोल रहे है यह नई बात|’ सही
बात यह थी कि मुझे भी यह सब समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु मैं अपनी प्रतिष्ठा में
चुपचाप था| बेबाक उमेश जी ने ठीक ही सवाल दागा|`
मनोहर दयाल बताने लगे –
‘आप राजीव पटेल की सम्यक प्रकाशन, नई
दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक – “भ्रम का पुलिंदा” को पढ़िए| उसमे उन्होंने अशोक के चतुर्थ शिलालेख का फोटो देकर और बम्ही (तथाकथित ब्राह्मी) लिपि में लिखकर
उस अभिलेख के लेखन को स्पष्ट किया है, कि यह ”बाम्हन और समणा” शब्द हैं, नहीं कि ब्राह्मण और श्रमण शब्द थे| पालि
में “र” अक्षर के
संयुक्ताक्षर नहीं होते थे| राजीव
जी तथ्यों को तर्क के साथ समझाते हैं|’
मैंने टोका कि हमलोग “आन्दोलन, प्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थे, इसलिए ट्रैक पर रहिए|
चूँकि शुरू में बात हो रही
थी कि वेद, पुराण और मनुस्मृति, आदि में क्या-क्या आपतिजनक हैं? इन विषयों पर
विशद और विद्वतापूर्ण आख्यान चल रहे थे| मैंने
पूछा कि क्या आपको कुरान शरीफ और बाइबिल में आपत्तिजनक बाते नहीं दिखती हैं?
उन लोगों ने बताया –
‘वे लोग दूसरे धर्मों के ग्रन्थ पढ़ें ही नहीं हैं, और इसीलिए उनमे क्या आपत्तिजनक है, नहीं जानते
हैं|
कोई भी उन्हीं धर्म ग्रंथो को
पढ़ता है, जिस धर्म में उसकी आस्था होती है|’
मैंने कहा –
‘क्या इसका
मतलब यह है कि
आप लोग इन वेदों, पुराणों और मनुस्मृति में आस्था रखते हैं,
और इसीलिए आपलोग इसे पढ़ते
है?
आपलोग इसको पढ़ते हैं और
इसमें कमियाँ निकलते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि आप
इन ग्रंथों को सही मानते हैं, और इसमें गहरी आस्था रखते
हैं। तभी इसकी कमियाँ निकलते हैं| तभी इसके आधार पर
आन्दोलन चलाते हैं, और इसके नकारात्मक बातों को उभार कर
इसका पूरा प्रचार करते हैं| क्या यह
भी ऊपर वाली फ़िल्मी किस्से की तरह नकारात्मक प्रचार का उदहारण नहीं है? आप इसका विरोध कर इसके नकारात्मक प्रचार के द्वारा इसका ही पूरा प्रचार
किए जा रहे हैं, तो क्या ये ग्रंथ बदल जाएंगे? जिन
नीतियों में, जिन आदर्शों में और जिन
आस्थाओं में आपलोग विश्वास करते हैं, उसको लेकर ही अपने
आन्दोलन क्यों नहीं चलाते? नकारात्मक मुद्दों पर
आन्दोलन तो तमाशबीन चलाते हैं, क्योंकि इस पर तालियाँ
खूब बजती है, भले समाज का कोई प्रोग्रेस हो या नहीं हो, कोई भला हो या नहीं|’
जनता तमाशबीन होती है, इसीलिए तमाशा नौटंकी में खूब तालियाँ बजती हैं| इसी कारण तो प्रचार तमाशा के रूप में ज्यादा प्रभावी होता है| इन प्रचारों में यानि तमाशों में अज्ञानता के अलावे डर और कमजोरियों का
खूब दोहन किया जाता है|
अगला सवाल स्वाभाविक था कि तब हमें क्या करना चाहिए?
फिर मनोहर दयाल ने मोर्चा
सम्हाला – ‘हमें अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार खोजना चाहिए और उन तत्वों की सही
बुनियाद जानना चाहिए जिस पर हमारी संस्कृति टिकी हुई है| भारत में संस्कृतियों को क्रमश: तीन चरणों में यथा बौद्धिक
संस्कृति, सामन्ती संस्कृति और
वर्तमान वैज्ञानिक संस्कृति में
बांटा जाना चाहिए| यह भारत की तीन सांस्कृतिक अवस्थाएं
है, जिसे भारतीय संस्कृति कहना चाहिए| प्रसिद्ध इतिहासकार आर्थर लेवेलिन बाशम ने तो “अद्भुत भारत” में संस्कृति की एक नई अवधारणा दिया और वैदिक संस्कृति तथा ब्राह्मणी
संस्कृति को अलग अलग रखा है| यहां
तो संस्कृतियों का भी एजेंडा के अनुसार अपहरण किया जा रहा है। अब हमें तय करना है कि हमारी मौलिक, पुरातन और
सनातन संस्कृति कौन है?’ हमें यह भी तय करना है कि
हमलोग ऐतिहासिक रूप में वर्ण व्यवस्था में रहे हैं या वर्ण व्यवस्था से बाहर? यदि हमलोग अवर्ण हैं, तो जबरदस्ती वर्ण
व्यवस्था में घुसने को बेताब क्यों हैं?
मैंने पूछ ही लिया कि संस्कृति
में मौलिकता, पुरातनता और सनातनता की
खोज और पहचान कैसे होगी?
मनोहर दयाल का कहना हुआ कि हमें सभी के प्रमाणिक साक्ष्य चाहिए| इसमें
सबसे प्रमुख स्थान पुरातात्विक साक्ष्य का है| यदि
पुरातात्विक प्रमाण पर्याप्त नहीं है, तो विदेशों में
उपलब्ध साहित्य को भी समझना चाहिए| भारत
में अब कोई प्रमाणिक पुरातन साहित्यिक साक्ष्य नहीं है| भारत के पुरातन साहित्यिक प्रमाण को तो सामन्तों ने जलाकर नष्ट कर दिया| वर्तमान सभी भारतीय साहित्यिक साक्ष्य तो दसवीं शताब्दी के बाद एक निश्चित
एजेंडा के तहत मनमाने ढंग से लिखा गया है| यह सब कागज
के भारत आने के बाद देवनागरी लिपि में लिखे गए हैं और इसीलिए इनमे से कोई भी
साहित्य प्रमाणिक और प्राचीन काल का नहीं है| इसके
तथाकथित पुरातन साहित्यों के तो कोई प्रमाणिक पुरातात्विक साक्ष्य अब तक नहीं मिले
हैं|
मैंने फिर टोका कि हम लोग “आन्दोलन, प्रचार और भटकाव” के मुद्दे पर थे, इसलिए ट्रैक पर रहिए|
बनवारी बाबू बार-बार घड़ी
देख रहे थे| समय लम्बा खींच चुका था| सबने इसे इशारों में समझा| चाय भी समाप्त हो
चुकी थी| अगली बैठक में इसे और साफ़ करने पर मूक सहमति
बनी|
मैं सोचने लगा कि कैसे नेता लोग अपने तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों को गाली देकर और
खुले आम आलोचना करके अपने समाज के तथाकथित दुश्मनों के मुद्दे का प्रचार करते हैं? ये नेता अपने तथाकथित समाज को कुछ भी सकारात्मक नहीं करने देकर उसे
नकारात्मक एवं अनुपयोगी मुद्दों में उलझाये रखते
हैं या रोके रखते हैं| साधारण लोग समझते हैं कि ये
तथाकथित नेता इनके लिए कितना जुनूनी और जुझारू हैं? लोग
समझते हैं कि ये नेता अपना समय और अपना सर्वस्व लगा कर हमारे लिए लगे रहते हैं| अब तक मैं भी यही सोच रहा था|
तो क्या ये नेता अपने
तथाकथित समाज के तथाकथित दुश्मनों के ही एजेंट और उपकरण हैं, जो हमारी बातों को मनगढ़ंत ढंग से बिना सोचे समझे आगे रख कर हमारी भावनाओं
से ही खेलते हैं? ये
नेता भारत के बहुसंख्यक आबादी को नीच वंश का और कार्य का बता कर इन लोगो का और
समूचे देश का मनोबल तोड़ रहे हैं, गिरा
रहे हैं| पता
नहीं ये नेता वास्तव में धूर्त हैं या मूर्ख? शायद
इसीलिए इनके तथाकथित समाज और यह देश आगे ढंग से बढ़ नहीं पाता| शायद इसीलिए यह विशाल गौरवशाली देश अपने अतीत और अपने वर्तमान को देखकर
उदास हो गया है| शायद जनता को इस भारत की उदासी समझ में
आए और भारत का भाग्य करवट ले!
मैं सोचने लगा - दुनिया
की तमाम यथास्थितिवादी व्यवस्था तो चाहती है कि लोगों का पेट खाली रहे, क्योंकि खाली पेट का दिमाग ठप रहता है| आदमी का
दिमाग कभी खाली नहीं बैठता, इसलिए उसके समय को, उसके धन को और उसके दिमाग को सदैव उलझाये रखा जाता है| उलझाने की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसमे उसका समय, धन और जवानी भी उलझी रहे और उनलोगों को कुछ समझ भी नहीं आए| इस तरह ये लोग समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच पाते हैं और यथास्थितिवादी
व्यवस्था को यथास्थितिवाद बनाए रखने में सहूलिअत होती है|
शायद भारत का शक्तिशाली वर्ग
आज़ भारत को ही परास्त करने के मुहिम में लगा हुआ है|
क्योंकि सबको साथ लेकर चलने की
कहीं कोई बात नहीं हो रही,
सब जगह सब अपने ही एक दूसरे को
पछाड़ने में लगे हुए हैं|
पहले कोई चिंता की बात नहीं थी, क्योंकि पहले विश्व एक वैश्विक गाँव नहीं था, लेकिन अब भारत उसका एक टोला बन गया है| अब विश्व की शातिर बाज की निगाहें भारत पर झपट्टा मारने को आतुर और चौकन्नी हैं| भारत के बाद स्वतंत्र हुआ पड़ोसी देश चीन भारत की अर्थव्यवस्था से सात गुना बड़ा हो गया है| भारत भी अपनी इस अवस्था पर चिंतित है| सब को इस पर विचार करना चाहिए|
(आप मेरे अन्य आलेख
niranjan2020.blogspot.com पर देख सकते हैं।)
निरंजन
सिन्हा