किसी भी समाज, संस्कृति, या देश की दुर्दशा (Plight) में "शोषण" (Exploitation) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। या यों कहें कि किसी समाज की दुर्दशा में एक मात्र भूमिका शोषण की ही होती है। शोषण के कई स्वरुप होते हैं, परन्तु इन सबों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली "व्यवस्था का शोषण" (Exploitation of System) होता है। अर्थात व्यवस्था ही शोषण का स्वरूप ले लेता है। इसके साथ ही व्यवस्था ही शोषण का संरक्षक (Custodian) भी हो जाता है| इसमें शोषण को व्यवस्था के स्वरूप में मान्य (Approval) करा दिया जाता है। इसे दुसरे रूप में प्रशंसा (Appreciation) दिला दी जाती है| ध्यान देने की बात यह है कि यह स्वीकार्यता (Acceptance) चेतन (Consciousness) स्तर पर शोषण नहीं लगता, यह धार्मिक एवं सांस्कृतिक दायित्व (Religious and Cultural Liability) लगता है| इस तरह यह स्वीकार्यता अचेतन बाध्यता (Un Consciousness Compulsion)हो जाती है|
सभी आदमी जैवकीय वर्गीकरण में "होमो
सेपियंस" कहलाता है, चाहे वह किसी क्षेत्र, संस्कृति या देश का हो। किसी भी क्षेत्र,
संस्कृति और देश का कोई भी व्यक्ति किसी भी दूसरे क्षेत्र,
संस्कृति या देश के विपरित लिंगी (Sex) से होमो सेपियंस का प्रजनन (Reproduction) कर सकता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई सांस्कृतिक प्रतिमान (Norms) या तथाकथित
ऐतिहासिक वर्णित घटना इसमें व्यवधान उत्पन्न करता है,
तो वह स्पष्टतया "सांस्कृतिक
घपला" (Cultural Scam)
है। यह मानवता के प्रति, समाज के प्रति और राष्ट्र के प्रति साजिश है, अपराध है और घिनौना (Heinous)
काम
है। यह सब दुर्दशा के
जड़ है और शोषण के विभिन्न आयामों को परिभाषित और व्याख्यायित करते हैं। इससे हम भारत में चल रहे 'सांस्कृतिक घपला' और भारतीय जनता एवं राष्ट्र के प्रति हो रहे
"घिनौना काम और चेहरे" (Heinous
Work and Face) को समझ पाएंगे तथा देख पाएंगे।
इन शोषण के स्वरूप को देखने, जानने और समझने के लिए अन्तर्दृष्टि (Vision)
एवं दृष्टिकोण (Attitude) चाहिए। वैज्ञानिक मानसिकता (Scientific Temper) के अभाव
में सामान्य लोग सिर्फ वही देख (See)
पाते है,
जो बुद्धिमान एवं
धूर्त व्यक्ति दिखाना चाहते हैं। तर्क (Logic) एवं साक्ष्य (Evidence) के सोचना एवं व्यवहार करना ही वैज्ञानिक मानसिकता है| यह 'आस्था' (Devotion) के विपरीत है| सामान्य लोग के पास दृष्टि (Sight) होता है, अन्तर्दृष्टि (Insight, Vision) नहीं होता है| यह मानसिक क्षमता से दिखता है। किसी के पद, डिग्री या धन से किसी के मानसिक क्षमता का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। इसका एक
कारण यह भी है कि मानसिक क्षमता का भी वृहत् स्तरीकरण (Stratification)
होता है। जो प्रत्यक्ष आंखों से नहीं दिखता,
परन्तु दीखता (समझ में आना) है, वहीं अन्तर्दृष्टि है। दृष्टिकोण इससे अलग एक ही चीज या विषय वस्तु है जिसको भिन्न भिन्न
आयामों (Dimensions) से देखना और समझना होता है।
शोषण के विभिन्न आयामों में "वित्तीय
शोषण" (Financial Exploitation) एवं "सांस्कृतिक शोषण" (Cultural Exploitation) ही प्रमुख हैं। इसे अच्छी तरह से समझना जरूरी है। इसके अतिरिक्त शारीरिक श्रम
का शोषण, बौद्धिक
श्रम का शोषण, लैंगिक शोषण और संसाधनों का शोषण भी वर्गीकृत है। इसे अति गंभीर नहीं माना जाना चाहिए,
क्योंकि यह सब उपरोक्त दोनों के आवरण में सामान्य डिग्री
धारकों को भी नहीं समझ में आता है। कहने का तात्पर्य यह है कि शारीरिक,
बौद्धिक एवं लैंगिक शोषण स्वरुप को सब कोई देखता और समझता
है। परन्तु वित्तीय एवं सांस्कृतिक शोषण भी शोषण हो सकता है,
ऐसे स्वरूप को समझने में थोड़ा स्थिरता एवं गहराई चाहिए।
सभी पिछड़े हुए संस्कृति, समाज एवं देश में
दुर्दशा का प्रमुख कारण “सांस्कृतिक शोषण” की व्यवस्था है| सांस्कृतिक स्वरुप में तथाकथित धार्मिक तथा सामाजिक
प्रतिमान (Norms) ही शामिल होता है| ऐसे समाज में जो धार्मिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक प्रतिमान (रिवाज, मूल्य, संस्कार, नैतिकता आदि) वर्तमान में प्रचलित
होता है, वह किसी न किसी आधार पर सुविधाभोगी वर्ग के पक्ष में होता है| भारत में
इस सुविधाभोगी वर्ग का आधार जन्म का परिवार है| भारत का यह व्यवस्था दुनियां में अनूठा है,
जिसका कोई साम्य अन्य कहीं नहीं है| इसे भारत में
जाति एवं वर्ण व्यवस्था कहते हैं| इस व्यवस्था को भारत में कोई एक हजार वर्ष भी
नहीं हुआ है, परन्तु इसे गौरवशाली एवं आदर्शवादी बनाने के लिए इसे भारत में सभ्यता
के शुरुआत से बताया जाता है| इसे पांच हजार वर्ष पुराना बताया जाता है| इसका कोई
पुरातात्विक एवं प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है| इसमें कई ढोंग, पाखण्ड एवं कर्मकांड
को संस्कार, रिवाज, जीवन- मूल्य, नैतिकता आदि के नाम पर स्थापित कर दिया गया| इसमें संशोधन
या सुधार की बात करना गौरवशाली संस्कृति का विरोध माना जायेगा| इसे “राष्ट्र द्रोह”
भी माना जा सकता है|
भारतीय समाज इस सामंती व्यवस्था को सांस्कृतिक (धार्मिक) स्वरुप
के कारण इसके मूल रूप को पहचानना ही नहीं चाह रहा है| इस सांस्कृतिक व्यवस्था आगमन
नौवीं सदी के बाद भारत में हुआ| यही “सांस्कृतिक घपला” है, जिसका पर्दाफाश किया जाना
भारतीय समाज एवं भारतीय राष्ट्र के लिए आवश्यक है| इसी
सांस्कृतिक बाधा के कारण बहुसंख्यक समाज अर्थव्यवस्था के चौथे सेक्टर (Quaternary Sector) एवं पांचवें
सेक्टर (Quinary Sector) में भागीदारी से दूर है| इस क्षेत्र
के बारे वह सोचता नहीं है और ख्वाव (Dreams) ऊँचे ऊँचे देखता
है| यह कटु सत्य है, जिसे समझना सभी को जरुरी है| चौथे सेक्टर में “ज्ञान क्षेत्र” आता है, जिसमे
इन बहुसंख्यकों की भागीदारी की ओर कदम बढ़ें हैं| पांचवे
सेक्टर में “नीति निर्धारण क्षेत्र” है, जो बहुसंख्यकों के दूरदृष्टि
से बाहर है| यह भी दुर्दशा का एक प्रमुख कारण है|
वित्तीय शोषण में 'वित्तीय साम्राज्यवाद' (Financial Imperialism) और 'वित्तीय व्यवस्था' (Financial System) शामिल हैं। पहले हम आर्थिक
व्यवस्था (Economic System) एवं वित्तीय व्यवस्था (Financial System) को समझते हैं| आर्थिक
व्यवस्था में "उत्पादन, वितरण, विनियम, और उपभोग" के साधनों और उनके अन्तर्सम्बन्धों को व्यवस्थित
करना जरूरी होता है। वही वित्तीय व्यवस्था में धन के विभिन्न स्वरूपों - निधि (Fund),
नगद (Cash),
एवं पूंजी (Capital)
को लाभ के लिए
व्यवस्था करना होता है| इसी
कारण "वित्तीय साम्राज्य" कई मायने में "आर्थिक साम्राज्य" (Economical
Imperialism) से भिन्न होता है। वित्तीय साम्राज्य में राजनैतिक उपनिवेश की जरूरत नहीं होती, जबकि आर्थिक साम्राज्य में राजनैतिक उपनिवेश की जरूरत हो
जाती है। अर्थव्यवस्था के
बदलते स्वरूप (उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के कारक) में वणिक (Mercantile)
साम्राज्यवाद समय के साथ औद्योगिक (Industrial) साम्राज्यवाद में बदल गया| इसी तरह औद्योगिक साम्राज्यवाद
अर्थव्यवस्था के बदलते मांग के कारण वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया| इसके लिए
कोई प्रत्यक्ष राजनैतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती| इसके साथ ही प्रशासनिक
एवं आर्थिक व्यवस्था का कोई उत्तरदायित्व नहीं रहता| इन
रूपान्तरणों में “स्वतंत्रता आन्दोलनों” की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रह जाती|
वित्तीय व्यवस्था में सिर्फ पूंजी सुरक्षित रहें और लाभ मिलता रहे| वित्तीय
व्यवस्था में विनिमय एवं निवेश के नाम पर शोषण का खेल होता है| बैंकिंग एवं पूंजी
बाज़ार व्यवस्था से ज्यादा खेल “बाज़ार के खिलाडी” ही करते हैं| यह भारत के लिए भी
पूरा सही है|
इसी सब को पहचानना और समझना ही देश को दुर्दशा (Plight) से
बचाने (Rescue) एवं उबरने (Emergence) का एकमात्र उपाय है|
निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना|