चलिए, आज जानते एवं समझते हैं कि किसी का शोषण (Exploitation) कैसे किया जाता है? अर्थात शोषण कैसे किया जा रहा है, यह समझना है| आप किसका शोषण करना चाहते
हैं, यानि किस शोषण की प्रक्रिया को समझाना चाहते हैं –
किसी व्यक्ति (Person) का या किसी समाज (Society)
का या किसी संसाधन (Resource) का? आप किसी का शोषण कब तक करना चाहते हैं – किसी छोटे
समय (Short Period) के लिए, या एक
लम्बे अवधि (Long Period) के लिए, या
सदैव (Forever) के लिए? शोषण करने का
आधार क्या – क्या हो सकता है? शोषण
की प्रक्रिया किस अवधारणा (Concept) से यानि किस
प्रक्रम (Process) से संचालित होती है? शोषण का आधार इतना जटिल एवं इतना गूढ़ है, कि
इसको समझना बहुत महत्वपूर्ण है| ये सब आपसे इसलिए
पूछ रहा हूँ कि शोषण किसका होना है और कितने अवधि के लिए होना है, इसी विशेषता (Traits) पर ही शोषण की क्रियाविधि (Mechanics)
निर्भर करेगी? इसके लिए मैं आपको वैश्विक
उदहारण देकर समझना चाहूँगा| मैंने किसी व्यक्ति विशेष का नाम
नहीं लिया है, क्योंकि विषय वस्तु समझना महत्वपूर्ण है|
व्यक्ति
विशेष का शोषण का स्वरुप समाज के शोषण से अलग होगा, क्योंकि व्यक्ति एक निश्चित
समय के बाद समाप्त हो जाता है, यानि मृत्यु को प्राप्त हो
जाता है| मतलब एक व्यक्ति विशेष एक निश्चित समय के बाद नहीं
रहता है| इसलिए किसी व्यक्ति के शोषण के लिए ज्यादा तिकड़म (Gimmick)
नहीं लगाना पड़ता है| शताब्दियों के सन्दर्भ
में व्यक्ति जहाँ तुरंत समाप्त (Finish/ Cease) हो जाता है,
परन्तु समाज में निरंतरता (Continuity) होती
है| लेकिन एक समाज निरंतर होते हुए भी संरचना (Structure),
प्रकृति (Nature), एवं संख्या (Numbers)
में बदलती रहती है|
इसी
तरह शोषण की अवधि के अनुरूप शोषण की क्रियाविधि (Mechanism) भी बदलती रहती है| समय काल की अवधि के अनुरूप शोषण की तकनीक (Technique), विधि (Process), एवं सिद्धांत (Principles) भी बदल जाता है| लम्बी समयावधि को मैं एक जीवन काल (One
Life Period) से अधिक मान कर चल रहा हूँ| इसे
आप कई जीवन काल भी कह सकते हैं, या सदियों की व्यवस्था (System
of Centuries) भी कह सकते हैं| इसे सीधे
शब्दों में “वंशानुगत व्यवस्था” (Hereditary System) भी कहना अनुचित नहीं होगा|
सबसे
पहले आपको सदियों तक चलने वाली शोषण को समझते हैं| ऐसा कैसे होता है? इसके
बाद शोषण के अन्य स्वरुप को भी समझते हैं| यह समझना
महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुत लोग इसे शोषण मानते ही नहीं है|
इस शोषण का आधार सांस्कृतिक होता है|
यदि
आपको व्यापक समाज का शोषण करना है और सदियों तक शोषण करना है, तो शोषण को सांस्कृतिक आधार देना
ही होगा| इसे सामान्य जन धार्मिक आधार भी समझते हैं| इससे आप व्यापक समाज के भाग्य विधाता भी बन जाते हैं| इससे आप सदियों तक लाभ लेते रहते हैं| यह व्यवस्था
वंशानुगत हो जाता है| इससे आपके भविष्य के वंश को लाभ मिलता
रहेगा| लोग
इसे अपनी संस्कृति मान कर शान से इसका अनुपालन करते रहेंगे| यह शोषण स्वसंचालित होता है|
शोषित
इसका विरोध भी नहीं करते हैं, क्योंकि शोषितों
को इसका पता ही नहीं चलता है कि वह शोषित भी हो रहा है| वह तो शोषण का सहर्ष सहभागी बनता है| इसे आप मानसिक
गुलामी भी कह सकते हैं|
आपको
सिर्फ अपने शोषण के स्वरुप एवं प्रक्रियात्मक निर्धारण के लिए विमर्श, योजना एवं उसका कार्यान्वयन
करना होगा| सांस्कृतिक
शोषण का मुख्य उद्देश्य शोषण को वंशानुगत बनाना होता है| ये सामाजिक वर्ग वंश पर आधारित एवं निर्धारित होता है| यह आपको समूह में करना होगा, भले ही यह समूह छोटा हो|
इसी के लिए आपको आव्यूह (Matrix) की रचना करनी
होगी| यह इस तरह इतना व्यापक एवं आच्छादित होता है कि कोई
इसके बाहर सोच को भी नहीं ले जाता है| इसमें बौद्धिकता भरपूर
होना चाहिए| शक्ति किसी व्यक्ति या संस्थान में नहीं होता है,
अपितु सिर्फ ज्ञान में ही होता है|
इसके
लिए आपको ऐसी कहानियाँ बनानी एवं गढ़नी होगी, ताकि लोग उन कहानियों को अपनी संस्कृति मान
लें| इन कहानियों को सभ्यता के शुरूआती दौर से शुरू कर आज तक निरंतरता जतानी
होगी| अर्थात इन कहानियों से बनी संस्कृति को सनातन (शुरू से
आज तक निरंतर) दिखाना होगा| इन कहानियों को अलौकिक बताना
होगा, ताकि लोग इन संस्कृतियों का अनुपालन कर अपने को
गौरान्वित महसूस कर सके| इन कहानियों को ऐतिहासिक बताने के
लिए यदि कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है, तो इसे मौखिक
परंपरा से सदियों तक ढोए जाने की कहानियां बताइए या बनाईये| फिर
इसका लेखांकन किए जाने की कहानियाँ बनाइये| इससे इस संस्कृति
में ऐतिहासिकता आ जाएगी, अन्यथा यह महज मिथक मान लिया जाएगा|
हाँ, यदि शासन व्यवस्था का आप सहयोग
ले सकें, तो लोगो को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दें|
अशिक्षा
समाज में धुंध पैदा करती है,
और इसे (अस्पष्टता) बनाये भी रखती है| इस अस्पष्टता से लोग कल्पनाओं
में भी जीने लगते हैं या जी लेते हैं| इससे बनी अस्पष्टता से
शोषण प्रक्रिया की समझ सामान्य जन को नहीं हो पाती है| सामान्य
लोग इस शोषण को शोषण के किसी स्वरुप के रूप में भी मानने को तैयार नहीं होते|
इसे फिर किसी धार्मिक स्वरुप के आवरण से ढक दें| अर्थात आप शोषण की क्रिया विधि को ईश्वर के नाम या आदेश बना कर उपस्थापित
करें| लोग, जो सामान्यत: अशिक्षित हैं,
शोषण को शोषण समझेंगे ही नहीं, और आप सदियों
तक शोषण जारी रख सकते हैं|
इसके
लिए मानव मनोविज्ञान एवं परिवर्तन का मनोविज्ञान समझना होगा| सिगमंड फ्रायड ने व्यक्ति
का उसके “स्वयं (Self)” से द्वन्द को समझाया है| लोग सैद्धांतिक रूप में (चेतनता
में) परिवर्तन चाहते तो हैं, परन्तु अचेतन स्तर पर पुरातन से
विलगाव भी नहीं चाहते हैं| मतलब कि आदमी आदत का गुलाम होता है| इसके लिए आपके विरोधी अवधारणाओं को नई परिभाषा से नई अवधारणा बनाना होगा|
शब्द नाम स्वरुप में वही रहेंगे, परन्तु अर्थ
स्वरुप में बदलने होंगे| इसी के लिए आधारहीन ही सही, आपको काल्पनिक एवं मनगढ़ंत कहानियाँ भी गढ़नी होगी| आपको
पुरानी वस्तुओं, पुरानी परम्पराओं, पुराने
मानको के प्रति सम्मान दिखाना होगा| इसमें परिवर्तन मामूली
दिखना चाहिए, भले आप मौलिक परिवर्तन कर दें| लोग सिर्फ सतही परिवर्तन चाहते हैं, सामान्यत: सभी
को आदत में परिवर्तन करना बुरा लगता है|
लोगों
के जीवन मूल्यों एवं परंपराओं को अपने पक्ष में रखना होगा| इसके लिए जीवन मूल्यों एवं
परंपराओं में परिवर्तन के लिए नए जीवन मूल्य एवं
परम्परा गढ़ना होगा, जो दिखे तो पुराने स्वरुप में, परन्तु वह हो नए मौलिक भाव में| आपका परिवर्तन ज्यादा क्रांतिकारी नहीं होना
चाहिए| ज्यादा परिवर्तन से लोग अचेतन स्तर पर चिढ जाते हैं,
और इसके विरोधी भी हो जाते हैं| इसमें अतीत के
गंध के साथ साथ पुराने परिचय का गर्माहट भी होना चाहिए| पुराने
स्वरुप के आवरण के लिए नए जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं को काल्पनिक कहानियों से ही
सही, पुरातन साबित कीजिए| इससे यह सब
पुरातन, सनातन, ऐतिहासिक एवं गौरवमयी
साबित हो जाएगा| ऐसा करने से इस पर कोई प्रश्न भी खड़ा नहीं
होगा| यह सब के लिए अनुकरणीय भी हो जायेगा| यह हमारी संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा होगा, यानि
माना जायेगा| संस्कृति के समर्थन में तो सरकार और व्यवस्था
भी साथ रहता है|
इन
कहानियों पर कोई प्रश्न नहीं करे,
इसलिए इसे मानवीय कृति नहीं बता कर, इसे
ईश्वरीय कृति घोषित करना होगा| ईश्वरीय कृति मान लिए जाने मात्र से स्वाभाविक प्रश्नों का उठना
भी संभव नहीं हो सकेगा| इसे धार्मिक ग्रन्थ का
स्वरुप दे देना होगा| आप यदि बौद्धिक सामन्त हैं, या शक्ति सामन्त हैं, तो आप बताईए कि आपकी यह
प्रभावशाली स्थिति इन धार्मिक ग्रंथो के अनुकरण करने मात्र से ही आई है| इससे अशिक्षित मुर्ख जल्दी आपकी बातो को सही मान इन संस्कारों एवं कृत्यों
का अनुकरण करेंगे| इन शोषितों में ऐसे संस्कार विकसित करें,
जिसके अनुकरण मात्र से उनका धन अनुत्पादक कार्यों में खर्च हो जाए|
इससे आप उनको शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मुलभुत एवं आवश्यक चीजों से
उनका ध्यान हटा सकेंगे| आप तो समझदार हैं, इसलिए आप भी इन मूर्खतापूर्ण कार्यों को समाज में पूर्ण मनोयोग से करता
हुआ दिखाए| इससे मुर्ख लोग बिना तर्क एवं विश्लेषण के ही
इसका अनुपालन कर आपकी स्थिति को पाने का स्वप्न देखते रहेंगे| इससे आपके धूर्ततापूर्ण करवाई का वे लोग मूर्खतापूर्ण अनुकरण करने का
एकमात्र एवं सरल तरीका मान लेंगे| इससे उन मूर्खों का धन,
समय, संसाधन एवं विचार नष्ट होते रहेंगे|
इस तरह आपकी शोषण की प्रक्रिया को तीव्र गति मिलती रहेगी| ईश्वर के नाम पर की गयी हर कार्य अनुकरणीय होगा और किसी प्रश्न के संशय से
दूर भी होगा|
इस
तरह आप सदियों तक के शोषण की अबाध व्यवस्था बना सकते हैं| इस व्यवस्था से आपकी भविष्य की
पीढियां सदैव लाभ लेती रहेगी| शोषित लोग संस्कृति एवं
धर्म के नाम पर काल्पनिक स्वर्ग जाने की तैयारियां करते रहेंगे और आप वास्तविक
जीवन का आनंद लेते रहेंगे| इसका अनुपालन ये मुर्ख ख़ुशी
ख़ुशी करते रहेंगे और आपको कोई विरोध भी नहीं झेलना पडेगा| ये
अशिक्षित मुर्ख धनहीन भी रहेंगे और अपने समय, संसाधन एवं
विचार को गलत दिशा में लगाये रहेंगे| लोगो का विचारना वहाँ
की संस्कृति से निर्धारित एवं संचालित होती है| संस्कृति
को धर्म की चासनी में डूबा देने से इसमें अद्भुत मिठास आ जाता है| इन संस्कारों एवं कृत्यों पर कोई व्यक्ति कोई प्रश्न या कोई संशय नहीं
करेगा| यदि कोई विरोध करेगा तो उस पर धर्म विरोध, संस्कृति विरोध एवं समाज विरोध का लेबल चिपका सकते हैं| यह संस्कृति की समझ आपके इतिहास बोध से पैदा होती है| शोषितों को अपना इतिहास लिखने से रोके रहे, चाहे
आपको जो करना पड़े| आप ही उसका भी इतिहास लिखते रहें| उसके इतिहास को गौरवपूर्ण तो दिखाए, परन्तु उसे इसी
संस्कृति को अनुकरण करता दिखाए| आपकी कल्पित कहानियों को
ऐतिहासिक दिखाने के लिए साक्ष्य स्वरुप में किसी भी मिलता- जुलता प्राकृतिक बनावट
को ही पेश कर दें| अशिक्षित एवं मूर्खों को इतना तार्किक एवं
विश्लेषण क्षमता नहीं होती है, कि वे आपकी बातों को काट सके|
कुछ साक्ष्यों को स्वाभाविक रूप से मिट जाना भी बता सकते हैं|
आपकी कहानियाँ इतिहास मान ली जाएँगी, वशर्ते
वैश्विक जगत आपसे तार्किक साक्ष्य नहीं माँग ले|
उपरोक्त
सांस्कृतिक शोषण के अतिरिक्त सभी तरह के शोषण को गैर- सांस्कृतिक शोषण कह सकते
हैं| इसमें वे सभी प्रकार के शोषण
शामिल किए जाते हैं, जिनका कोई सामाजिक सांस्कृतिक आधार नहीं
होता है| इसमें आप कोई वंशानुगत आधार नहीं पाते हैं| इसमें आपके पूर्व इतिहास का कोई महत्त्व नहीं है| इसमें
आपके खानदान की कोई भूमिका नहीं होती है| इसमें सामान्यत:
मजदूर, किसान, और कर्मियों के शोषण को
शामिल करते हैं| सांस्कृतिक शोषण समझ लेने के बाद मैं आपको
अब इससे सम्बंधित कुछ अवधारणाओं को समझना चाहता हूँ|
सामान्यत:
शोषण का अर्थ क्या होता है? शोषण का शाब्दिक अर्थ
सोखना (Suction)
होता है| इस तरह यह क्रिया (Verb) यानि प्रक्रिया (Process)
हुआ| किसी भी वस्तु (Object), चाहे वह कोई पदार्थ हो या कोई सेवा या कोई अन्य स्वरुप, का अनुचित (Improper, Unfair) लाभ के लिए उपयोग (Use)
या उपभोग (Consume) करना ही शोषण (Exploitation)
है| इसमें ‘अनुचित लाभ’
महत्वपूर्ण तत्व है| यदि इसमें ‘अनुचित लाभ’ का तत्व नहीं है, तो
यह प्राकृतिक अवशोषण (Absorption) हो सकता है, परन्तु यह शोषण (Exploitation) नहीं कहा जा सकता है|
जब लाभ का हित (Intrest) या उद्देश्य (Aim)
सम्पूर्ण मानवता या व्यापक समाज (Univerasal Society) नहीं हो, तब ही वह ‘अनुचित लाभ’
शोषण होगा| इसके अभाव में यह शोषण नहीं कहा जा
सकता| इसका यह अर्थ हुआ कि शोषण में अन्य सभी निजी स्वार्थगत
(Selfishness) लाभ, किसी के व्यक्तिगत
लाभ या किसी छोटे समूह के लाभ, के लिए है|
शोषण
किस तरह किया जाता है? स्पष्ट है कि शोषण
में ‘जान बुझ कर (Intentionaly) किया गया क्रिया (Act)’
है| इसीलिए आपको इसे समझने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ| अर्थात
इसके लिए सजग (Alert) एवं सतर्क (Awake) विमर्श (Discussion), योजना (Planning), एवं उसका कार्यान्वयन (Implementation) होता है|
चूँकि इसमें निजी स्वार्थ होता है, इसलिए इसे “धूर्तता (Rascaldom /Cunning)” से पूर्ण करवाई मानने
में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए| यदि इसमें सजग एवं सतर्क
विमर्श, योजना, एवं कार्यान्वयन नहीं
होता, तो यह “मूर्खता (Stupidity)”
से युक्त करवाई मानी जाती| ‘धूर्ततापूर्ण’
गलत काम एवं गलत नियत होने के कारण “अपराध” की श्रेणी में आता है|
जबकि ‘मूर्खतापूर्ण’ काम गलत नियत के अभाव में अपराध की श्रेणी में नहीं आता है| इसलिए ही धूर्त शोषक अपने ‘निजी स्वार्थ’ को ढक कर शोषण के बाह्य स्वरुप को रंग यानि परिवर्तित कर देते हैं|
इस तरह शोषित को भी यह पता नहीं चलता है, कि
उसका कोई दूसरा शोषण भी कर रहा है|
संसाधन
प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों हो सकते हैं| संसाधन कोई वस्तु (Object) हो सकता है, कोई तरंग (Wave), उर्जा स्वरुप में, हो सकता है, या इनका मिश्रित स्वरुप भी हो सकता है|
इसके अनुचित दोहन को भी शोषण कहा जाता है| संसाधनों
के अनुचित दोहन से मानवता को खतरा है| इसलिए इस पर
विश्वव्यापी चिंता होता है, चिंतन होता है, और विमर्श भी होता है| प्राकृतिक संसाधन का शोषण
यहाँ विमर्श का विषय नहीं है| मैं मानव या समूह या समाज का
शोषण किसी मानव या मानव- समूह के द्वारा विषय – क्षेत्र तक
सीमित रखता हूँ|
आपको
किसी व्यक्ति के श्रम का शोषण करना है, या किसी के धन का, या किसी का शारीरिक शोषण करना है?
व्यक्तिगत शोषण में किसी व्यक्ति के श्रम, धन
एवं यौन का शोषण होता है| किसी व्यक्ति के श्रम का
समुचित पारिश्रमिक नहीं देना यानि नहीं मिलना ही श्रम का शोषण है| ऐसा नियोक्ता द्वारा किया जाता है| यहाँ समुचित
पारिश्रमिक की परिभाषा या अवधारणा स्पष्ट नहीं है, क्योंकि
यह अर्थशास्त्र के माँग एवं पूर्ति के नियम (Law of Demand and Supply) से संचालित एवं निर्धारित होता है| यह सन्दर्भ के
अनुसार, यानि मानक के अनुसार बदल भी जाता है| धन के शोषण में किसी व्यक्ति के अर्जित संपत्ति को अनुचित तरीके से ले
लेना या लेते रहना भी शामिल है| यौन शोषण में किसी व्यक्ति
के यौनिकता (Sexuality) का शोषण होता है| शोषण के उपरोक्त सभी स्वरुप के बारे में अधिसंख्यकों को समुचित जानकारी है|
ऐसा शोषण उस विशेष व्यक्ति तक ही सीमित होता है| इसी कारण यह शोषण के सीमित उद्देश्य के कारण या उस व्यक्ति विशेष के
समाप्त हो जाने पर शोषण की प्रक्रिया उस व्यक्ति विशेष के लिए समाप्त हो जाती है|
ऐसा शोषण छोटी अवधि के लिए ही होता है, अर्थात
एक ही जीवन काल के लिए| इसे सदियों में नहीं देखा जा सकता|
अर्थव्यवस्था यानि बाजार के माँग एवं पूर्ति के नियमों के अधीन यह
व्यक्तियों का समूह भी हो सकता है|
परन्तु
यदि
आपको किसी समूह या समाज का शोषण करना है, और वह भी अनवरत जारी रखना भी है, तो उसे सांस्कृतिक आधार देना एकमात्र विकल्प है| इसे दुसरे शब्दों में इसे
शहत्राब्दी अवधि तक का शोषण भी कह सकते हैं| इस तरह इसे
आनुवंशिक बना देना एक विकल्पहीन बाध्यता हो जाती है| सांस्कृतिक
आधार को साधारण भाषा में धार्मिक आधार भी कह दिया जाता है| हालाँकि
सांस्कृतिक आधार एक व्यापक अवधारणा है, जिसमे धार्मिक
अवधारणा भी समाहित हो जाता है| यदि शोषण को दशकों तक,
या शताब्दियों तक ही लेना जाना है, तो पूंजी
आधारित वित्तीय आधार देना भी सहज एवं सरल स्वरुप है| इसे
पूंजी का निवेश कहा जाता है| शोषण के पूंजी (Capital)
आधारित एवं संस्कृति (Culture) आधारित
प्रक्रिया को सभी लोग सही ढंग से नहीं समझते हैं| सांस्कृतिक
आधार पर मैंने ऊपर में ही समझाने की कोशिश की है|
अब
पूंजी आधारित शोषण प्रक्रिया को समझते हैं| पूंजी आधारित शोषण पूंजी निवेश (Capital Investment) पर लिए जाने वाले लाभ (Profit) या लाभांश (Dividend)
के रूप में दीखता है, या होता है| शोषण की यह प्रक्रिया इतना शांत होता है, कि किसी को
यह आभास ही नहीं होता है, कि कोई शोषण की प्रक्रिया भी
कार्यरत है| इसमें श्रम एवं धन का शोषण होता है| यह कृत्य सिर्फ व्यावसायिक वर्ग ही करता है, ऐसी बात
नहीं है| इसमें बहुत से देश की सार्वजानिक व्यवस्थाएं भी
शामिल हो सकती हैं| इसमें सार्वजानिक उपक्रमों को शामिल मान
लिया जा सकता है, क्योंकि कुछ सार्वजानिक उपक्रमों की
प्रकृति भी व्यवसाय जैसा होता है|
कुछ
देशों की व्यवस्था यानि विधिवत सरकारें भी ऐसे कार्य करती हैं, मानों वह व्यवस्था या सरकार भी
किसी कम्पनी या कारपोरशन का अभिकर्ता (Agent) हो| बहुत से देशों में ऐसी कम्पनी स्वदेशी (Indigenous) होते
हैं, बहुत से देशों में बहुदेशीय कम्पनी (Multi-
National) भी होते हैं, और बहुत से देशों में
दोनों की उपस्थिति रहती है| ऐसे आरोप सामान्यत: बहुत से
देशों की सरकारों पर लगाई जाती है, इनमे कुछ में गलत भी होता
है, कुछ आंशिक सही भी होता है, एवं कुछ
में पूर्णतया सही भी होता है| कुछ देशों में कुछ सरकारें
किसी खास कम्पनी या कम्पनी समूह के समर्थन में जरुरत से ज्यादा भी शामिल रहती है|
कुछ देशों के इतिहास में ऐसी विशेष कृपा पात्र कम्पनी का बदलती
सरकारों ने आगे सार्वजानिक हित में राष्ट्रीयकरण भी कर लिया है| शोषण की इस प्रक्रिया में सरकारों को इन कंपनियों के पक्ष में वित्तीय लाभ
यानि निवेश एवं कराधान सम्बन्धी लाभ दिया जाता है| इसके साथ
ही कम्पनी के स्थापना में, सञ्चालन में एवं विपणन में भी
जरुरत से ज्यादा समर्थन मिलता है|
द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादियों ने अनेको देशों को राजनितिक स्वतंत्रता दी, परन्तु क्या यह सार्वभौमिक
संप्रभुता थी? इसे कुछ विद्वान पूंजी निवेश की सुरक्षा एवं
संरक्षा की शर्त पर दी गयी स्वतंत्रता मानते हैं| इनके अनुसार स्वतंत्रता आन्दोलन
से साम्राज्यवादियों को तो परेशानी हुई, परन्तु इन
परेशानियों के कारण ही इन देशों को स्वतंत्रता नहीं मिली| व्यापार
के प्रारम्भ से वणिक साम्राज्यवाद का उदय हुआ| यह जल्दी ही
औद्योगिक आवश्यकताओं के कारण उपनिवेशीय साम्राज्यवाद में बदल गया| फिर अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरुप के कारण औद्योगिक (उपनिवेशीय)
साम्राज्यवाद एक ही शतक में वित्तीय साम्राज्यवाद में बदल गया| यह वित्तीय साम्राज्यवाद पूंजी आधारित साम्राज्यवाद से थोडा भिन्न है और
पूंजी साम्राज्यवाद से व्यापक है| वणिक साम्राज्यवाद एवं
औद्योगिक साम्राज्यवाद को पूंजी आधारित साम्राज्यवाद के रूप माना जा सकता है|
वित्तीय साम्राज्यवाद अपने दृश्य रूप में नहीं दीखता है, परन्तु पूंजी आधारित साम्राज्यवाद अपने दृश्य रूप में दीखता है| यह शोषण का आधुनिक आधार है, परन्तु यह वंशानुगत आधार
पर कार्य नहीं करता है|
अब
आप शोषण की प्रकृति एवं व्यवस्था को अच्छी तरह समझ गए होंगे| आप शोषक बनें या नहीं बनें; परन्तु शोषण की प्रकृति, उसकी व्यवस्था, उसके आधार एवं उसकी क्रिया विधि को
जरुर समझ गए होंगे| अपने आस पास में देखें, कि क्या ऐसी कोई व्यवस्था
कार्यरत है? इसी
समझ से समाज एवं राष्ट्र का नव निर्माण होता है, या हो सकता है| आप भी नए समाज एवं मानवता के नव निर्माण के
भागीदार बनें| इसी समझ के साथ आप विश्व मानवता में सुख, शान्ति, संतुष्टि, एवं समृद्धि की स्थापना में सहायक बन सकते
हैं|
(आपका
सुझाव मेरे लिए बहुमूल्य होगा और मार्गदर्शक भी होगा, अत: अपना सारगर्भित टिपण्णी इस
ब्लाग पर ही दें|)
निरंजन सिन्हा
मौलिक चिन्तक, व्यवस्था –विश्लेषक एवं बौद्धिक उत्प्रेरक|